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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Saturday, January 17, 2015

जब हम जवाँ होने वाले थे- नैनीताल के साधारण रेस्तराओं में ३५ रु. महीने पर पेट भर भोजन उपलब्ध था.


जब हम जवाँ होने वाले थे- 
१- नैनीताल के साधारण रेस्तराओं में ३५ रु. महीने पर पेट भर भोजन उपलब्ध था.
२. तल्लीताल से मल्लीताल तक रिक्शे का भाड़ा २५ पैसा था. 
३. महिलाओं की एक सामान्य साड़ी का मूल्य १५रु. और विवाह के अवसर पर पहने जाने वाला मदीने का घाघरा- पिछौड़ा सौ रुपये से कम पर भी उपलब्ध था. (घाघरे के कपड़े को मदीना कहा जाता था).
लेकिन 
३. सामान्य परिवारों की महिलाओं के पास केवल एक या दो धोतियाँ हुआ करती थीं
४. ग्रामीण महिलाएँ मारकीन की सादी धोतियों को रंग कर उपयोग में लाती थीं. सधवाएँ अपनी साड़ियों को गुलाबी रंग से रंगती थीं और विधवाएँ काया रंग (काई का सा रंग) से.
५. अल्मोड़ा की लाला बाजार में लोहे के शेर के पास मिलने वाला गुलाबी रंग पक्का माना जाता था और उसे गुलेनार कहा जाता था.
६. भोजन बनाते समय केवल धुली धोती पहनना अनिवार्य था. धोती का साफ होना आवश्यक नहीं था. मैल से चीकट धोती भी स्वीकार्य थी, बशर्ते उसे एक बार जल स्पर्श करा लिया गया हो.
७. अक्सर गरीब ब्राह्मण स्त्रियाँ, भोजन करने के लिए धुली धोती की अपरिहार्यता के कारंण, पुरुषों के भोजन कर लेने के उपरान्त दरवाजा बन्द कर निर्वस्त्र भोजन करती थीं. क्यों कि उनके पास दूसरी धोती नहीं होती थी. प्राय: उनकी अकेली धोती पर भी पैबन्द लगे होते थे.
टिप्पणी मित्रो कुछ आप भी याद करें तो

८.चप्पल भी एक विलासिता थी. और महिलाएँ नंगे पाँव सारे काम- खेती, जंगल से घास और लकड़ी लाना आदि, करती थीं. 
९. आँख आना (आँखों का लाल हो जाना और दुखना) एक आम बीमारी थी जो ठीक होने में कम से कम एक सप्ताह का समय लेती थी. उसके लिए किल्मोड़े की जड़ को घिस कर लगाया जाता था. नौसादर का भी प्रयोग होता था. 
१० बच्चों को प्राय: श्वास फूलने की बीमारी हो जाती थी, जिसे हब्बा-डब्बा कहा जाता था. उसकी सर्वाधिक कारगर दवा किड़्कोथई ( रेशम के कीट की तरह बाँबी) से निकलने वाला बुरादा माना जाता था. हमारे गाँव की एक बूढ़ी महिला, जो प्राय: रामनगर के पास ढिकुली में रहती थी, लाया करती थी.
११. छोटे बच्चों की पैंट शौच की सुविधा के लिए दोनों और खुली होती थी, जिसे सल्तराज कहा जाता था. 
११ शराब उपलब्ध नहीं थी. चरस और गाँजा आम था. लोग शाम को अलाव के पास गोल घेरे में बैठ तंबाकू पिया करते थे. विजातीय व्यक्ति को केवल चिलम दी जाती थी. गुड़गुड़ी केवल स्वजातियों के लिए होती थी. चिलम सुलगाने का काम बच्चों का था, और जो मौका मिलने पर एक दो कश भी लगा लिया करते थे. 
१२. हमारे गाँव में दीपावली के पर्व पर, सरपंच जी की बैठक में भारी जुवा होता था. जुवे में बड़े जुआरी कौड़ियों से और रिवाज मनाने के लिए खेलने वाले पाँसे का उपयोग किया करते थे. ताश का भी प्रयोग होने लगा था.
१३. हर तीसरे दाँव पर एक दाँव (नाल-फड़) व्यवस्था के नाम होता था, (नाल कर और फड़ या बैठक-व्यवस्था) 
१४. हारे जुआरी, अक्सर अपनी पत्नी के जेवर भी दाँव पर लगा दिया करते थे.
१४ दीवाली के बाद पहली पूर्णिमा को अपील का भी पर्व होता था जिसमें जुआरी फिर एकत्र होते थे
१०. कक्षा ९ तक फेल न होना, प्रतिभाशाली होने का प्रमाण माना जाता था.

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