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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, May 3, 2015

...जैज़ हमारी जीवन शैली की देन है और चूंकि वह हमारा राष्ट्रीय कला-रूप है, वह हमे यह जानने में मदद करता है कि हम कौन हैं क्या हैं. --विण्टन मार्सेलिस


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नीलाभ अश्क जी मंगलेश डबराल और वीरेन डंगवाल के खास दोस्त रहे हैं और इसी सिलसिले में उनसे इलाहाबाद में 1979 में परिचय हुआ।वे बेहतरीन कवि रहे हैं।लेकिन कला माध्यमों के बारे में उनकी समझ का मैं शुरु से कायल रहा हूं।अपने ब्लाग नीलाभ का मोर्चा में इसी नाम से उन्होंने जैज पर एक लंबा आलेख लिखा है,जो आधुनिक संगीत और समता के लिए अश्वेतों के निरंतर संघर्ष के साथ साथ आधुनिक जीवन में बदलाव की पूरी प्रक्रिया को समझने में मददगार है।नीलाभ जी की दृष्टि सामाजािक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में कला माध्यमों की पड़ताल करने में प्रखर है।हमें ताज्जुब होता है कि वे इतने कम क्यों लिखते हैं।वे फिल्में बी बना सकते हैं,लेकिन इस सिलसिले में भी मुझे उनसे और सक्रियता की उम्मीद है।
नीलाभ जी से हमने अपने ब्लागों में इस आलेख को पुनः प्रकाशित करने 
की इजाजत मांगी थी।उन्होने यह इजाजत दे दी है।
  • आलेख सचमुच लंबा है।लेकिन हम इसे हमारी समझ बेहतर बनाने के मकसद से सिलसिलेवार दोबारा प्रकाशित करेंगे।
  • पाठकों से निवेदन है कि वे कृपया इस आलेख को सिलसिलेवार पढ़े।
  • चट्टानी जीवन का संगीत 

    जैज़ पर एक लम्बे आलेख की चौथी कड़ी


    ३.
    ...जैज़ हमारी जीवन शैली की देन है और चूंकि वह हमारा राष्ट्रीय कला-रूप है,
     वह हमे यह जानने में मदद करता है कि हम कौन हैं क्या हैं. 
    --विण्टन मार्सेलिस

    जैज़ की शुरुआत गायकी से हुई है। उसके स्रोत उस नीग्रो लोक गायकी में डूबे हुए हैं, जो किसी ज़माने में अमरीका के दक्षिणी देहातों में ख़ूब फली-फूली थी। उस समय नीग्रो लोगों के लिए -- जिनके पास किसी तरह के साज़ नहीं थे और गाने के साथ देने के लिए बस डिब्बे या पीपे ही थे -- आवाज़ ही संगीत की अभिव्यक्ति का सबसे बड़ा साधन था। इसीलिए काम और आराम, आशा और निराशा की अभिव्यक्ति लगभग हर वर्ग के नीग्रो समुदाय से उभर कर आती -- खोंचे उठाये, घूम-घूम कर सामान बेचने वालों से ले कर रेल की पटरियाँ बिछाते मज़दूरों की टोलियों तक और खेत पर काम करते बँधुआ किसान से ले कर शाम को अपनी-अपनी झुग्गियों के सामने बैठे, गा-बजा कर थकान मिटाते नीग्रो परिवारों तक -- संगीत ही वह सूत्र था, जो उन्हें बाँधे रखता। इसमें पहली सुविधा यह थी कि बहुत थोड़े साज़ों से काम चल जाता. एक गिटार या माउथ ऑर्गन ही काफ़ी होता -और दूसरी सुविधा यह थी कि ये गीत नीग्रो समुदाय की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से वाबस्ता थे, उसके सुख-दुख, कष्ट और कठिनाई, सपनों और आकांक्षाओं को उसी की भाषा में व्यक्त करते थे। इसीलिए नीग्रो समुदाय इन गीतों के साथ सहज रूप से तादात्म्य स्थापित कर सकता था और गहरे सन्तोष के साथ उसे महसूस कर सकता था। अवसाद और उदासी, श्रम और श्रम से होने वाली थकान को व्यक्त करने वाले इन गीतों को मोटे तौर पर नाम दिया गया -- ब्लूज़ यानी उदासी के गीत। कारण शायद यह है कि अंग्रेज़ी में नीला रंग उदासी के साथ जुड़ गया है और बोल-चाल में भी 'ब्लूज़' का मतलब है उदासी।
    मगर ब्लूज़ से भी पहले अक्सर ये अफ़्रीकी मूल के अमरीकी लोग अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए संगीत का सहारा लेते और काम के वक्त लगायी जाने वाली पुकारों को लय ताल में बांध कर उस हाड़-तोड़ श्रम को हलका करने की कोशिश करते जो उन्हें खेत-खलिहानों में या सड़कें बनाते या लकड़ी काटते समय करना पड़ता.

    http://youtu.be/Oms6o8m4axg?list=PL9z1NWJyyII1cpOzleTV5v-jlBFHW9IVC (टेक्सास की जेल में कैदी-मज़दूरों का गीत)
    http://youtu.be/fjv0MYIFYsg (श्रम-शिविर का गीत)
    http://youtu.be/4G5KtQynWvc (कैदियों का गीत)

    अफ़्रीका से ग़ुलाम बना कर लाये गये लोगों के साथ उनकी लय-ताल भी आयी. इनमें तीन तरह की तालें ज़्यादा प्रचलित थीं -- ट्रेसियो, सिन्क्वियो और हाबानेरा -- 

    http://youtu.be/YyyYW3bzzbQ (ट्रेसियो, सिन्क्वियो और हाबानेरा )

    ग़ुलामी की तकलीफ़ें और आत्मा तक को निचोड़ लेने वाली मेहनत और ऊपर से बदसलूकी -- अमरीका के हब्शी ग़ुलाम के पास इस सब से पार पाने का एक ही रास्ता उस वक़्त था और वह था संगीत, जिसके लिए वह अपने अन्दर युगों-युगों से रची-बसी लय-ताल का सहारा लेता. इसी सब से जैज़ की पहली-पहली आहट उन गीतों में सुनायी दी जिन्हें ब्लूज़ का नाम दिया गया.
    ब्लूज़, दरअसल गायक की भावनाओं से सीधे उपजने वाला संगीतात्मक बयान था, जो इन भावनाओं को पूरे खुलेपन के साथ व्यक्त करता। उसमें ज़िन्दगी की वास्तविकता को उघाड़ने की अद्भुत क्षमता थी। लिहाज़ा ब्लूज़ के माध्यम से अपने दुख-सुख को व्यक्त करना और जीवन और प्रेम के बारे में अपने सामान्य रवैये को वाणी देना नीग्रो समुदाय की ज़िन्दगी का एक अनिवार्य हिस्सा बन गया। और अधिक विकसित होने पर ब्लूज़ का स्वर बुनियादी तौर पर उल्लास और बड़बोलेपन से रंजित रहा, बहुत बार उसमें भावुकता भी नज़र आती है। मगर पीड़ा का एक तार हमेशा उसमें दौड़ता रहता है. संगीत के इसी रूप, इसी विधा ने उस ज़माने में नीग्रो समुदाय के लोक-गीत और लोक-संगीत की भूमिका अदा की। मगर ब्लूज़ की सूरत अख़्तियार करने से पहले जैज़ ने कई मंज़िलें तय की थीं.
    0

    अमरीका में ग़ुलामी की शुरुआत उसके विशाल दक्षिणी हिस्से के खेतों के लिए सस्ते मज़दूरों की फ़ौज तैयार करने के मकसद से हुई थी.  बात यह थी कि "नयी दुनिया" की खोज ने यूरोप को आलू के साथ-साथ तम्बाकू से भी परिचित कराया था और अट्ठारहवीं सदी के आरम्भ तक अमरीका में बहुत बड़े-बड़े इलाक़े जोत में लिये जा चुके थे. अमरीका के दक्षिणी हिस्से में बड़े पैमाने पर तम्बाकू की खेती होने लगी थी, जिसे निर्यात किया जाता था. ज़ाहिर था कि इतने बड़े पैमाने पर खेती के लिए खेत मजूरों की ज़रूरत थी और ग़ुलामों से अधिक सस्ता और पूरी तरह काबू में रहने वाला खेत-मज़दूर और कहां मिलता. सो तम्बाकू की खेती ग़ुलाम व्यापार की नींव थी. आगे चल कर जब ज़रूरत से ज़्यादा तम्बाकू पैदा करने से खेतों की ताकत कम होने लगी तो डर पैदा हुआ कि इतनी बड़ी श्रम शक्ति का क्या होगा. लेकिन तभी उत्तरी अमरीका में रहने वाले एलाइ विटनी ने १७९२ में एक मशीन ईजाद करके कपास से बिनौले अलग करने का आसान तरीक़ा खोज निकाला. पहले हाथ से काम करने पर एक नीग्रो मज़दूर को आधा सेर रुई तैयार करने में दस घण्टे लगते थे. "कौटन जिन" की मदद से  वही मज़दूर एक म्दिन में ५०० सेर रुई तैयार कर लेता. साल भर में अमरीका लगभग दस लाख टन रुई इंग्लैण्ड और यूरोप की कपड़ा मिलों को भेजने लगा. कपास की बादशाहत ने थमते हुए ग़ुलामों के व्यापार में नये प्राण फूंक दिये.  
    सन १८०८ तक यानी उन्नीसवीं सदी के शुरू होते-होते अतलान्तिक महासागर के आर-पार होने वाले ग़ुलामों के व्यापार के चलते लगभग पांच लाख अफ़्रीकी अमरीका लाये जा चुके थे. ये ग़ुलाम मुख्य रूप से अफ़्रीका के पश्चिमी हिस्से और कौंगो नदी की घाटी के इलाक़े से लाये गये थे. वे अपने साथ अपने प्राणों के साथ सिर्फ़ अपना जातीय ज्ञान, रीति-रिवाज और परम्पराएं ही ला सके थे जिनमें गीत और संगीत की परम्पराएं भी शामिल थीं. ज़ाहिर है कि अपने साथ अपने वाद्य-यन्त्र लाना उनके लिए सम्भव नहीं था. लेकिन लय-ताल और सुरों का जो ख़ास अफ़्रीकी ढंग था -- और यह भी कोई एक-सा न हो कर, अलग-अलग इलाक़ों से आने वाले लोगों के सिलसिले में अलग-अलग था -- उसे वे अपने साथ ले आये थे और यह यूरोपीय संगीत से बिलकुल भिन्न था. लय-ताल और सुरों का यह तरीक़ा बहुत हद तक अफ़्रीकी बोलने के तरीक़े पर आधारित था लय का छन्द-विधान यूरोपीय छन्द-विधान से अलग था. अफ़्रीकी परम्परागत संगीत एक पंक्ति की स्वर-संरचना का इस्तेमाल करती थी और इसमें पुकार और जवाब के एक सिलसिले पर संगीत आगे बढ़ता था, मगर स्वर-सामंजस्य की यूरोपीय अवधारणा के बिना और उससे बिलकुल अलग. अफ़्रीकी संगीत मोटे तौर पर काम-काजी था और रोज़मर्रा के काम या कर्म-काण्ड से जुड़ा था. उसकी लयकारी पूरे पश्चिमी जगत की संगीत परम्परा से भिन्न थी. मिसाल के लिए नीचे दिये गये लिंक को देखिए कि किस तरह रोज़्मर्रा के काम एक ख़ास तरह की लय और ताल के साथ किये जाते हैं. 

    http://youtu.be/lVPLIuBy9CY (लय ताल के बिना हरकत सम्भव नहीं है)

    इस सिलसिले में एक और महत्वपूर्ण बात यह थी कि काले लोगों, ख़ास कर दासों, से जुड़े कानूनों में उन पर बहुत-से प्रतिबन्ध भी लगा दिये गये थे. मिसाल के लिए ग़ुलामों को नगाड़े, ढोल, मंजीरे, झांझ या ऐसे ही ताल और थाप आधारित वाद्य बजाना मना था. नतीजा यह हुआ कि अफ़्रीकी थाप आधारित परम्पराएं अमरीका में उस तरह बचा कर संजोयी नहीं जा सकीं, जैसा कि क्यूबा, हाइती और कैरिब्बियाई क्षेत्र के अन्य स्थानों में देखने को मिलता है. ऐसे में वाद्यों की जगह "शारीरिक लय-ताल" से काम चलाया जाने लगा. इसमें ताली बजाना, थाप लगाना, पैर पटकना और थपकी देना शामिल था. १८५३ में एक भूतपूर्व ग़ुलाम ने बताया कि थपकी देना महज़ हथेली को शरीर के किसी हिस्से पर मारना नहीं था, बल्कि इसके भी कई नमूने और ढंग थे. संगीत के साथ गाते हुए एक हाथ से कन्धे पर थपकी दे जाती थी और उसी क्रम में ताली बजाते हुए हथेली को शरीर के दूसरे हिस्सों पर लयकारी के साथ थपका जाता था और इस बीच उसी लय पर पैर भी ज़मीन पर पटके जाते थे. कहने की बात नहीं है कि हरकतों के ख़याल से यह एक काफ़ी जटिल विधान था, जिसमें लय, ताल और हरकत का अपना ही ताल-मेल बनता था. ऐसे कुछ नमूने नीचे दिये जा रहे हैं.





    (जारी)

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