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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Tuesday, November 3, 2015

नाना जी देशमुख ने 1984 के जनसंहार को न्यायोचित ठहराया था, देखें दस्तावेज शम्सुल इस्लाम


नाना जी देशमुख ने 1984 के जनसंहार को न्यायोचित ठहराया था, देखें दस्तावेज

शम्सुल इस्लाम

आरएसएस भारत में अल्पसंख्यकों को दो श्रेणियों में विभाजित करने से कभी नहीं थकता है। प्रथम श्रेणी में है जैन, बौद्ध तथा सिख जो भारत में ही स्थापित धर्मों का अनुसरण करते हैं। दूसरी श्रेणी में है मुस्लिम एवं ईसाई जो 'विदेशी' धर्मों के अनुयायी हैं। उसका दावा है कि वास्तविक समस्या दूसरी श्रेणी के साथ है जिनका हिन्दूकरण करने की जरूरत है जबकि प्रथम श्रेणी को अल्पसंख्यकों के लेकर कोई समस्या नहीं है। यह प्रस्थापना कितना कपटपूर्ण है, इसका पता इस बात से चलता है कि आरएसएस देश के अल्पसंख्यक धर्मों को स्वतंत्र धर्म का दर्जा प्रदान नहीं करता है। उन्हें हिन्दू धर्म का ही एक हिस्सा घोषित किया जाता है। आरएसएस के ऐसे प्रभुत्ववादी मंसूबों के खिलाफ संबद्ध अल्पसंख्यकों द्वारा कड़ा प्रतिवाद किया जाता रहा है। आरएसएस देश के इन धर्मों का कितना सम्मान एवं करता है, इसका पता तो 1984 में सिखों के कत्लेआम के प्रति उसके दृश्टिकोण से चलता है।

इस संबंध में अक्तूबर-नवंबर 1984 में सिखों के कत्लेआम के संबंध में एक स्तब्धकारी दस्तावेज का पूरा पाठ प्रस्तुत किया जा रहा है जिसे आरएसएस के सुप्रसिद्ध नेता नाना जी देशमुख ने लिखा31 अक्तूबर 1984 को अपने ही दो सुरक्षा गार्डों द्वारा जो सिख थे, श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद भारत भर में हजारों निर्दोष सिख पुरूषों, महलाओं एवं बच्चों को जिन्दा जला दिया गया, हत्या कर दी गयी और अपंग बना दिया गया। सिखों के सैकड़ों धार्मिक स्थलों को विनष्ट कर दिया गया, तथा सिखों के अनगिनत वाणिज्यिक एवं आवासीय संपत्ति विनष्ट कर दी गयी। यह सामान्य विश्वास रहा है कि इस नरसंहार के पीछे कांग्रेस कार्यकर्ताओं का हाथ था, यह सही हो सकता है, लेकिन दूसरी फासिस्ट एवं सांप्रदायिक ताकतों भी थीं, जिन्होंने इस नरसंहार में सक्रिय हिस्सा लिया, जिनकी भूमिका की कभी भी जांच नहीं की गयी। यह दस्तावेज उन सभी अपराधियों को बेपर्द करने में मदद कर सकता है जिन्होंने निर्दोष सिखों के साथ होली खेली जिनका इंदिरा गांधी की हत्या से कुछ भी लेना-देना नहीं था। यह दस्तावेज इस बात पर रोशनी डाल सकता है कि इतने कैडर आये कहां से और जिसने पूरी सावधानी से सिखों के नरंसहार को संगठित किया। जो लोग 1984 के नरसंहार तथा अंगभंग के प्रत्यक्षदर्शी थे वे हत्यारे, लुटेरे गिरोहों की तेजी एवं सैनिक फूर्ति एवं सटीकपन से भौंचक हो गये थे जिन्होंने निर्दोष सिखों को मौत के घाट उतारा (बाद में बाबरी मस्जिद के ध्वंस, डा. ग्राहम स्टेन्स एवं दो पुत्रों को जिन्दा जला देने और हाल ही में गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार के दौरान देखा गया)। यह कांग्रेस ठगों की क्षमता के बाहर था। नानाजी का दस्तावेज प्रषिक्षित कैडरों के स्रोत की छानबीन में शोधकर्मियों को मदद करेगा जिन्होंने इस नरसंहार में कांग्रेस गुंडों की मदद की।

यह दस्तावेज भारत के सभी अल्पसंख्यकों के प्रति आरएसएस के सही पतित एवं फासिस्ट दृष्टिकोण को दर्शाता है। आरएसएस यह दलील देता रहा है कि वे मुसलमानों एवं ईसाइयों के खिलाफ हैं क्योंकि वे विदेशी धर्मों के अनुयायी हैं। यहां हम पाते हैं कि वे सिखों के नरसंहार को भी उचित ठहराते हैं जो स्वयं उनकी अपनी श्रेणीबद्धता की दृष्टि से भी अपने ही देश के एक धर्म के अनुयायी हैं।

आरएसएस अक्सरहां अपने को, हिन्दू-सिख एकता में दृढ़ विश्वास करने वाले के रूप में पेश करता है। लेकिन इस दस्तावेज में हम राक्षस के मुंह से सुनेंगे कि आरएसएस तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व की तरह यह विश्वास करता था कि निर्दोष सिखों का नरसंहार उचित था। इस दस्तावेज में नानाजी देशमुख ने बड़ी धूर्तता से सिख समुदाय के नरसंहार को उचित ठहराने का प्रयास किया है जैसा कि हम नीचे देखेंगेः

1. सिखों का नरसंहार किसी ग्रुप या समाज-विरोधी तत्वों का काम नहीं था बल्कि वह क्रोध एवं रोष की सच्ची भावना का परिणाम था।

2. नानाजी श्रीमती इंदिरा गांधी के दो सुरक्षा कर्मियों जो सिख थे, की कार्रवाई को पूरे सिख समुदाय से अलग नहीं करते हैं। उनके दस्तावेज से यह बात उभरकर सामने आती है कि इंदिरा गांधी के हत्यारे अपने समुदाय के किसी निर्देश के तहत काम कर रहे थे। इसलिए सिखों पर हमला उचित था।

3. सिखों ने स्वयं इन हमलों को न्यौता दिया, इस तरह सिखों के नरसंहार को उचित ठहराने के कांग्रेस सिद्धांत को आगे बढ़ाया।

4. उन्होंने 'आपरेशन ब्लू स्टार' को महिमामंडित किया और किसी तरह के उसके विरोध को राष्ट्र-विरोधी बताया है। जब हजारों की संख्या में सिख मारे' जा रहे हैं जो वे सिख उग्रवाद के बारे में देश को चेतावनी दे रहे हैं, इस तरह इन हत्याओं का सैद्धांतिक रूप से बचाव करते हैं।

5. समग्र रूप से वह सिख समुदाय है जो पंजाब में हिस्सा के लिए जिम्मेवार हैं।

6. सिखों को आत्म-रक्षा में कुछ भी नहीं करना चाहिए बल्कि हत्यारी भीड़ के खिलाफ धैर्य एवं सहिष्णुता दिखानी चाहिए।

7. भीड़ नहीं, बल्कि सिख बुद्धिजीवी नरसंहार के लिए जिम्मेवार हैं। उन्होंने सिखों को खाड़कू समुदाय बना दिया है और हिन्दू मूल से अलग कर दिया है, इस तरह राष्ट्रवादी भारतीयों से हमले को न्यौता दिया है। यहां फिर वे सभी सिखों को एक ही गिरोह का हिस्सा मानते हैं और हमले को राष्ट्रवादी हिन्दुओं की एक प्रतिक्रिया।

8. वे श्रीमती इन्दिरा गांधी को एकमात्र ऐसा नेता मानते हैं जो देश को एकताबद्ध रख सकीं और एक ऐसी महान नेता की हत्या पर ऐसे कत्लेआम को टाला नहीं जा सकता था।

9. राजीव गांधी जो श्रीमती इंदिरा गांधी के उत्तराधिकारी एवं भारत के प्रधानमंत्री बने और यह कहकर सिखों की राष्ट्रव्यापी हत्याओं को उचित ठहराया कि ''जब एक विषाल वृक्ष गिरता है जो हमेशा कम्पन महसूस किया जाता है।'' नानाजी दस्तावेज के अंत में इस बयान की सराहना करते हैं और उसे अपना आशीर्वाद देते हैं।

10. यह दुखद है कि सिखों के नरसंहार की तुलना गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर हुए हमले से की जाती है और हम यह पाते हैं कि नानाजी सिखों को चुपचाप सब कुछ सहने की सलाह देते हैं। हर कोई जानता है कि गांधीजी की हत्या आरएसएस की प्रेरणा से हुई जबकि आम सिखों को श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या से कुछ भी लेना-देना नहीं था।

11. केन्द्र में कांग्रेस सरकार से अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ हिंसा के नियंत्रित करने के उपायों की मांग करते हुए एक भी वाक्य नहीं लिखा गया है। ध्यान दें, नानाजी ने 8 नवंबर 1984 को यह दस्तावेज प्रसारित किया और 31 अक्तूबर से उपर्युक्त तारीख तक सिखों को हत्यारे गिरोहों का सामना करने के लिए अकेले छोड़ दिया गया। वास्तव में 5 से 10 नवंबर वह अवधि है जब सिखों की अधिकतम हत्याएं हुईं। नानाजी को इस सबके लिए कोई भी चिन्ता नहीं है।

12. आरएसएस को सामाजिक काम करते हुए खासकर अपने खाकी निक्करधारी कार्यकर्ताओं को फोटो समेत प्रचार सामग्री प्रसारित करने का बड़ा शौक है। 1984 की हिंसा के दौरान ऐसा कुछ भी नहीं है। वास्तव में, नानाजी के लेख में घिरे हुए सिखों को आरएसएस कार्यकर्ताओं द्वारा बचाने का कोई जिक्र नहीं किया गया है। इस नरसंहार के दौरान आरएसएस के वास्तविक इरादों का पता चलता है।

आत्मदर्शन के क्षण45

अंततः इन्दिरा गांधी ने इतिहास के प्रवेश द्वार पर एक महान शहीद के रूप में स्थायी स्थान पा ही लिया है। उन्होंने अपनी निर्भीकता और व्यवहार कौशलता में संयोजित गतिकता के साथ कोलोसस की भांति देश को एक दशक से भी अधिक समय तक आगे बढ़ाया और यह राय बनाने में समर्थ रही कि केवल वही देश की वास्तविकाता को समझती थींकि मात्र उन्हीं के पास हमारे भ्रष्ट और टुकड़ों में बंटे सामाज की सड़ी-गली राजनैतिक प्रणाली को चला सकने की क्षमता थीऔरशायद केवल वही देश को एकता के सूत्र में बांधे रख सकती थी। वह एक महान महिला थी और वीरों की मौत ने उन्हें और भी महान बना दिया है। वह ऐसे व्यक्ति के हाथों मारी गई जिसमेंउन्होंने कई बार शिकायत किए जाने बावजूदविश्वास बनाये रखा। ऐसे प्रभावशाली और व्यस्त व्यक्तित्व का अंत एक ऐसे व्यक्ति के हाथों हुआ जिसे उन्होंने अपने शरीर की हिफाजत के लिए रखा। यह कार्रवाई देश और दुनिया भर में उनके प्रशंसकों को ही नहीं बल्कि आलोचकों को भी एक आघात के रूप में मिली। हत्या की इस कायर और विश्वासघाती कार्रवाई में न केवल एक महान नेता को मौत के घाट उतारा गया बल्कि पंथ के नाम पर मानव के आपसी विश्वास की भी हत्या की गई। देशभर में अचानक आगजनी और हिंसक उन्माद का विस्फोट शायद उनके भक्तों के आघातगुस्से और किंकर्तव्यविमूढ़ता की एक दिशाहीन और अनुचित अभिव्यक्ति थी। उनके लाखों भक्त उन्हें एक मात्र रक्षक,शक्तिवान एवं अखंड भारत के प्रतीक के रूप में देखते थे। इस बात का गलत या सही होना दूसरी बात है।

इस निरीह और अनभिज्ञ अनुयायियों के लिए इंदिरा गांधी की विश्वासघाती हत्यातीन साल पहले शुरू हुई अलगाववादीद्वेष और हिंसा के विषाक्त अभियानजिसमें सैकड़ों निर्दोष व्यक्तियों को अपनी कीमती जानों से हाथ धोना पड़ा और

धार्मिक स्थलों की पवित्रता नष्ट की गईकी ही त्रासदीपूर्ण परिणति थी। इस अभियान ने जून में हुई पीड़ाजनक सैनिक कार्रवाई जो कि देश के अधिकांश लोगों की दृष्टि में धार्मिक स्थानों की पवित्रता की रक्षा के लिए आवश्यक ही थीके पश्चात भयंकर गति ली। कुछ अपवादों को छोड़कर नृशंस हत्याकांड और निर्दोष लोगों की जघन्य हत्याओं को लेकर सिख समुदाय में आमतौर पर दीर्घकालीन मौन रहाकिन्तु लम्बे समय से लम्बित सैनिक कार्यवाई की निन्दा गुस्से और भयंकर विस्फोट के रूप में की। इनके इस रवैये से देश

स्तब्ध हो गया। सैनिक कार्यवाई की तुलना 1762 में अहमद शाह अब्दाली द्वारा घल्लू घड़ा नामक कार्यवाई में हर मंदिर साहब को अपवित्र करने की घटना से की गई। दोनों घटनाओं के उद्ेश्यों में गए बगैर इन्दिरा गांधी को अब्दुल शाह अब्दाली की श्रेणी में धकेल दिया गया। उन्हें सिख पंथ का दुश्मन मान लिया गया और उनके सिर पर बड़़े-बड़े इनाम रख दिए गए थे। दूसरी ओरधर्म के नाम पर मानवता के विरूद्व जघन्य हत्याओं का अपराधकर्ता भिण्डारावाले को शहीद होने का खिताब दिया गया। देश के विभिन्न हिस्सों में और विदेशों में ऐसी भावनाओं के आम प्रदर्शनों ने भी सिख और शेष भारतीयों के बीच अविश्वास और विमुखता को बढ़ाने में विशेष कार्य किया। इस अविश्वास और विमुखता की पृष्ठभूमि में सैनिक कार्रवाई के बदले में की गई इन्दिरा गांधी कीअपने ही सिख अंगरक्षकों द्वाराजघन्य हत्या परगलत या सहीसिखों द्वारा मनाई जाने वाली खुशी की अफवाहों को स्तब्ध और किंकर्तव्यविमूढ़ जनता ने सही मान लिया। इसमें सबसे अधिक आघात पहुंचाने वाला स्पष्टीकरण ज्ञानी कृपाल सिंह का था जो कि प्रमुख ग्रन्थी होने के नाते स्वयं को सिख समुदाय का एकमात्र प्रवक्ता समझते हैं। उन्होंने कहा कि उन्होंने इन्दिरा गांधी की मृत्यु पर किसी भी प्रकार का दुख जाहिर नहीं किया। उबल रहे क्रोध की भावना में इस वक्तव्य ने आग में घी डालने का काम किया। महत्वपूर्ण नेता द्वारा दिये गये ऐसे घृणित वक्तव्य के विरोध में जिम्मेदार सिख नेताओंबुद्धिजीवियों या संगठनों द्वारा कोई तत्काल और सहज निन्दाजनक प्रतिक्रिया नहीं की गयी अस्तु पहले से ही गुस्सा हुए साधारण और अकल्पनाशील लागों ने यह सही समझा कि सिखों ने इन्दिरा गांधी की मौत पर खुशियां मनाईं। इसी विश्वास के कारण स्वार्थी तत्वों को आम लोगों को निरीह सिख भाईयों के खिलाफ हिंसक बनाने में सफलता मिली।

यह सबसे अधिक विस्फोटक स्थिति थी जिसमें कि हमारे सिख भाईयों द्वारा चरम धैर्य और स्थिति का कौशलतापूर्ण संचालन किये जाने की आवश्यकता थी। राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ का आजीवन सदस्य होने के नाते मैं यह कह रहा हूं क्योंकि 30 जनवरी 1948 को एक हिन्दू धर्मान्धजो कि मराठी थालेकिन जिसका राष्ट्रीय स्वयं सवेक संघ से कोई भी रिश्ता नहीं था बल्कि संघ का कटु आलोचक थाने महात्मा गांधी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या की। इस अवसर पर हमने भी दिग्भ्रर्मित लोगों के अचानक भड़के उन्मादलूटपाट और यंत्रणाओं को भोगा। हमने स्वयं देखा था कि कैसे स्वार्थी तत्वोंजो कि इसी घटना से वाकिफ थेने पूर्व नियोजित ढंग से एक खूनी को राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ का सदस्य बताया और यह अफवाह भी फैलाई कि राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के लोग महात्मा गांधी की मृत्यु पर देश भर में खुशियां मना रहे थे और इस प्रकार गांधी के लिए लोगों के दिलों में उपजे प्यार और लोगों के किंकर्तव्यविमूढ़ और आघात हुई भावना को गलत रास्ते की ओर उन्मुख करने में सफल रहे। स्वयं सेवकों और उनके परिवारोंविशेषकर महाराष्ट्र मेंके विरूद्ध ऐसी भावनाएं फैलाई गई।

स्वयं इन अनुभवों से गुजर चुकने के कारण मैं इन मासूम सिख भाईयोंजो जनता के अकस्मात भड़के हिंसक उन्माद के शिकार हुएकी सख्त प्रतिक्रिया और भावनाओं को समझ सकता हूं। वस्तुतः मैं तो सबसे अधिक कटु शब्दों में सिख भाईयों पर दिल्ली में और कहीं भी की गई अमानवीय और बर्बरता और क्रूरता की निन्दा करना चाहूंगा। मैं उन सभी हिन्दू पड़ोसियों पर गर्व महसूस करता हूं कि जिन्होंने अपनी जान की परवाह किये बगैर मुसीबत में फंसे सिख भाईयों की जान-माल की हिफाजत की। पूरी दिल्ली से प्राप्त होने वाली ऐसी बातें सुनने में आ रही हैं। इन बातेां ने व्यावहारिक तौर पर मानवीय व्यवहार की सहज अच्छाई मंे विश्वास बढ़ाया है तथा खासतौर पर हिन्दू प्रकृति में विश्वास बढ़ाया है।

ऐसी नाजुक और विस्फोटक स्थिति में सिख प्रतिक्रिया को लेकर भी मैं चिंतित हूं। आधी शताब्दी से देश के पुनर्निर्माण और एकता में लगे एक कार्यकर्ता के रूप में और सिख समुदाय का हितैषी होने के  नाते मैं यह कहने में हिचकिचाहट महसूस कर रहा हूं कि यदि सिखों द्वारा जवाबी हथियारबन्द कार्रवाई आंशिक रूप से भी सही है तो वे स्थिति का सही और पूर्णरूपेण जायजा नहीं ले पाए और फलस्वरूप अपनी प्रतिक्रिया स्थिति के अनुरूप नहीं कर पाए। मैं यहां सिखों समेत अपने सभी देशवासियों का ध्यान इस ओर दिलाना चाहता हूं कि महात्मा गांधी की हत्या से उपजी ऐसी विषम परिस्थिति में जब राष्ट्रीय स्वयंसेवकों के विरुद्ध फैले उन्माद में उनकी सम्पत्तियों को नष्ट किये जानेजघन्य बच्चों के जिन्दा जलाए जानेजघन्य हत्याओंअमानवीय क्रूरता इत्यादि के अपराध हो रहे थे और देश भर से लगातार समाचार नागपुर पहुंच रहे थे तो तथाकथित 'बड़ी व्यक्तिगत सेनाके नाम से जाने जाने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के 'तानाशाह', संघ के तत्कालीन प्रधान स्व. एम. एस. गोवालकर ने नागपुर में एक फरवरी 1948 को देश भर के लाखों अस्त्रों से लैस नौजवान अनुयायियों के नाम एक अपील निम्न अविस्मरणीय शब्दों में कीः

"मैं अपने सभी स्वयं सेवक भाईयों को निर्देश देता हूं कि भले ही नासमझी से उत्तेजना क्यों न फैले लेकिन सबके साथ सौहार्दपूर्ण रवैया अपनायें और यह याद रखें कि यह आपसी नासमझ और अनुचित उन्माद उस प्यार और श्रद्धा का प्रतिफल है जो देश को दुनियां की नजर में महान बनाने वाले महान महात्मा के लिए सम्पूर्ण राष्ट्र के हदय में है। ऐसे महान श्रद्धेय दिवंगत को हमारा नमस्कार।"

यह आशाहीन समय में डरपोकपने और असहाय स्थिति को छुपाने के लिए खाली शब्द नहीं थे। ऐसे गम्भीर क्षणों में अपनी जान पर बन जाने पर भी उन्होंने यह साबित किया कि उनकी अपील के हर शब्द का अर्थ हैं। फरवरी की शाम को नागपुर के सैकड़ों स्वयं सेवकों ने सशस्त्र प्रतिरोध और खून की अंतिम बूंद रहने तक अपने नेता पर होने वाले उसी रात के संभावित हमले को रोकने के लिए आग्रह किया। और श्री गुरूजी को उनके कुछ साथियों ने उनकी जिन्दगी को लेकर षड्यंत्र की बात बताई और हमला होने से पहले निवास सुरक्षित स्थान में बदलने का अनुरोध किया तो श्री गुरुजी ने ऐसी काली घड़ी में भी उनसे कहा कि जब वही लोगजिनकी सेवा उन्होंने सम्पूर्ण जीवन सच्चाई और पूरी योग्यता से कीउनका प्राण लेना चाहते है तो उन्हें क्यों और किसके लिए अपनी जान बचानी चाहिए। इसके बाद उन्होंने बड़ी सख्त आवाज में उन्हें सचेत किया था कि यदि उन्हें बचाने में उनके देशवासियों के खून की एक भी बूंद जाएगी तो उनके लिए ऐसा जीवन व्यर्थ होगा। इतिहास साक्षी है कि देश भर में फैले लाखों स्वयं सेवकों ने इस निर्देश का अक्षरणः पालन किया। यघपि उन्हें अपने इस धैर्यसहनशीलता के बदले में उन पर उठाली गई अभद्रता को पचाना पड़ा था लेकिन उनका स्वयं का धीरज बांधने के लिए एक विश्वास था कि चाहे वर्तमान परिस्थिति में उनकी नियति कुछ भी होइतिहास अवश्य ही उन्हें निर्दोष साबित करेगा।

मैं आशा करता हूं कि ऐसी विषम वर्तमान स्थिति में मेरे सिख भाई भी उपरोक्त रूप से ही सहनशीलता और धैर्य का प्रदर्शन करेंगे। लेकिन मुझे बहुत दुख होता है यह जानते हुए कि ऐसी सहनशीलता और धैर्य का प्रदर्शन करने के बजाय उन्होंने कुछ स्थानों पर कुछ भीड़ के साथ सशस्त्र तरीकों से बदले की कार्रवाई की और ऐसे स्वार्थी तत्वों के हाथों में खेले जो कि झगड़े फैलाने को उत्सुक थे। मुझे आश्चर्य होता है कि सबसे अधिक अनुशासितसंगठित और धर्मपरायण समझे जाने वाले हमारे समाज के अंग ने कैसे ऐसा नकारात्मक और स्व-पराजयी दृष्टिकोण अपनाया। हो सकता है कि वे ऐसे संकट के मौके पर सही नेतृत्व पाने से वंचित रह गए हों। मेरे सिख इतिहास के क्षुद्र अध्ययन और समझ के अनुसार मैं मानता हूं कि ऐसे संकट के क्षणों में सिखों का अराजनैतिक प्रत्युत्तर उनके पूर्णरूपेण सिख प्रकृति के प्रेमसहनशीलता और कुर्बानी की शिक्षा में लिप्त होने से हुआ। सिख धर्म की युद्धमान प्रकृति तो विदेशी मुगलों की बर्बरता के खिलाफ अल्पकालीन प्रावधान था जो कि दसवें गुरु ने सिखाया था। उनके लिए खालसा अपेक्षाकृत विस्तृत सिख व हिन्दू भाई-चारे का एक छोटा सा हिस्सा था और हिन्दू समुदाय और उसकी परम्पराओं की रक्षा के लिए सशस्त्र हाथ के रूप में रचा गया था। पांच '' (केशकृपाणकंघाकड़ा और कच्छा) और खालसा नामों में सिंहशब्द की उपाधि गुरु गोविन्द सिंह द्वारा खालसा अनुयायियों के लिए ही निर्धारित की गई थी। यह उनके सैनिक होने के प्रतीक के रूप में था लेकिन दुर्भाग्यवसआज यही सिख धर्म के आधारिक और आवश्यक रूपों की तौर पर प्रक्षिप्त हो रहे है।

मुझे यह कहने का दुःख है कि सिख बुद्धिजीवी भी यह समझने में असफल रहे हैं कि सिख धर्म के खालसावाद में हुआ परिवर्तन बाद की घटना थी और यह ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के विभक्त कर पंजाब में शासनकरने के पूर्व नियोजित तरीकों की घृणित योजना को लागू करना था। इसका उद्देश्य सिखों को अपने ही हिन्दुओं के परिवेश से अलग करना था। दुर्भाग्यवशआजादी के बाद सत्ता के भूखे राजनीतिज्ञों ने भी इन अप्राकृतिक रूप से उत्पन्न हुई अलग-थलग और बराबर के अस्तित्व जैसी समस्याओें को अपने स्वार्थों के लिए बनाए रखा और अपनी हिस्सों में बांटने वाली वोट की राजनीति के द्वारा साम्राज्यवादियों से विभाजन और शासन के खेल को और आगे बढ़ाया। सिखवाद का जुझारू खालसावाद से यह अनुचित एकात्मीकरण ही सिख समुदाय के कुछ हिस्सों मेंन केवल अलगाववादी प्रवृतियों की मूल जड़ हैबल्कि इसने लड़ाकूपन और हथियारों की शक्ति पर विश्वसनीयता को ही धार्मिक भक्ति तक पहुंचा दिया।

इसी धार्मिक भक्ति ने बब्बर खालसा जैसे आतंकवादी आन्दोलन को दूसरे दशक में जन्म दिया और हाल ही के भ्ंिाडरावाले के नेतृत्व क0ी आतंकवाद की लहर के प्रतिफल के रूप में इंदिरा गांधी की हत्या हुई और एक लम्बी'हिट लिस्टको अभी अंजाम दिया जाना बाकी है।

मैं कल्पना करता था कि सिख समुदाय ने स्वयं को अशिक्षाअज्ञानकुण्ठा और पराजयवाद से पूर्णस्पेण मुक्त कर लिया हैजिसमें कि यह 19वीं शताब्दी के पांचवे दशक में अपनी आजादी खोने के बाद था और जिसका फायदा चालाक ब्रिटिश साम्राज्यवादियों व स्वार्थी सिख अभिजात वर्ग ने अपने स्वार्थों के लिए उसका शोषण करके उठाया। यह स्पष्ट है कि आठवें दशक में सिख श्रेष्ठ जिम्मेदारी के पद सुशोभित करते हुए जीवन के हर क्षेत्र में तथा उच्च शिक्षितमेहनतीसतर्कअपेक्षाकृत धनाड्यप्रबुद्ध और सक्रिय भारतीय समाज के हिस्से के रूप में प्रतिनिधित्व करते है। उन्नीसवीं शताब्दी में उनके अनुभव और दृष्टि तत्कालीन पंजाब की सीमाओं तक ही सीमित थी लेकिन आज वे पूरे भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में फैले पड़े हैं और इस स्थिति में हैं कि वे बड़ी ताकतों की उन साजिशों को सीधे-सीधे जान सकते हैं जोविश्व में मजबूती के साथ उभरते हुए आजाद और अखण्ड भारत के विरुद्ध की जा रही है। ऐसी लाभकारी स्थिति से उन्हें ठीक से अपने ऐतिहासिक विकास को भारत के अभिन्न हिस्से के रूप में जानना चाहिए।

इतिहास का ऐसा पुनर्मुल्यांकन करने से ही उन्हें उन्हीं के

धर्म और भूत के अनेकानेक समस्त अवबोधनों को देखने का मौका मिलेगा जोकि उनके मस्तिष्क में सुनियोजित ढंग से ब्रिटिश प्रशंसकोंविद्वानों द्वारा धर्म की प्रवृत्ति और विकास के बारे में गलत आौर कुचक्रपूर्ण ऐतिहासिक लेखन द्वारा भरा गया था। ऐसी कोशिश उन्हें उनके वास्तविक मूल तक भी ले जाएगी।

यह सही समय है कि हमारे सिख भाई थोड़ा हृदय को टटोलें ताकि अपनी आधारिक धर्म प्रवृत्ति में ब्रिटिश साम्राज्यवादियों और सत्ता के लिए लालची अवसरवादी लोगों द्वारा ठूंसे मिथ्यावर्णन से मुक्ति पा सकेें। ऐसे मिथ्यावर्णनों को हटाया जाना वर्तमान अविश्वास की खाई और दो एक जैसी नियति प्रवृत्ति और एक जैसी परम्पराओं के समुदायों के बीच पैदा हो गई भिन्नता को बांटने के लिए आवश्यक है। मुझे डर है कि बिना ऐसे स्व-अंतर्दर्शन और इतिहास के पुर्नमुल्यांकन के वे अपने आपस में और अन्य देशवासियों के साथ चैन से नहीं रह पांएगे। उनके अपने प्रबृद्ध हितों का एक विरक्त विश्लेषण ही उन्हें यह समझाने को काफी होगा कि उनका भाग्य अभिन्न रूप से भारत की नियति के साथ जुड़ा है। एक ऐसी समझ उन्हें विदेशी ताकतों के विघटन और विनाशकारी स्वार्थों के चक्कर में आने से स्वयं को बचा पाएंगी।

मेरा विश्वास है कि मेरे सिख भाई एक शुभचितंक की आत्मिक अभिव्यक्ति के सतर्कतापूर्ण शब्दों को स्वीकार करेंगे।

अन्त मेंयह उस सच की अस्वीकारोक्ति नहीं है कि इन्दिरा गांधी के भारतीय राजनैतिक क्षेत्र से अकस्मात निराकरण ने एक खतरनाक रिक्तता भारतीय आम जिन्दगी में पैदा कर दी है। लेकिन भारत में ऐसे संकट और अनिश्चितता के क्षणों में सदैव ही एक विशिष्ट अंतर्शक्ति का प्रदर्शन किया। अपनी परम्पराओं के अनुसार एक सरल और शांतिमय तरीके से शक्ति और जिम्मेदारी को एक अपेक्षाकृत जवान व्यक्ति के अनुभवहीन कंधों पर डाला गया है। अभी से उसके नेतृत्व की सम्भावनाओं को लेकर कोई निर्णय करना हड़बड़ी का काम होगा। हमें उन्हें अपनी योग्यता दिखाने का कुछ समय तो देना ही चाहिए।

देश के ऐसे चुनौती भरे मोड़ परइस बीच वे देशवासियों से पूर्ण सहयोग और सहानुभूति प्राप्त करने के हकदार हैभले ही वे किसी भी भाषाधर्मजातिक्षेत्र या राजनीतिक विश्वास के हों।

एक अराजनैतिक रचनात्मक कार्यकर्ता की हैसियत से मैं मात्र यही आशा और प्रार्थना करता हूंभगवान उन्हें

अधिक परिपक्वसंयत और जनता को एक पक्षपातहीन सरकार देने की अंर्तशक्ति और क्षमता का आशीर्वाद दे ताकि देश को वे वास्तविक सम्पन्न एकता और यशोलाभ की ओर ले जायें।

गुरुनानक दिवस

नवम्बर 8,1984

नाना देशमुख

http://www.vaniprakashan.in/authors/Shamsul%20Islam.jpg

About The Author

Shamsul Islam is well-known political scientist. He was associate Professor, Department of Political Science, Satyawati College, University of Delhi. He is respected columnist of hastakshep.com.

(हस्तक्षेप.कॉम)


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