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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Thursday, January 7, 2016

सांप्रदायिक हिंसा: 2015 नफरत और ध्रुवीकरण का साल -नेहा दाभाड़े


07.01.2016


सांप्रदायिक हिंसा: 2015

नफरत और ध्रुवीकरण का साल

-नेहा दाभाड़े


सांप्रदायिक हिंसा, इससे जनित ध्रुवीकरण और विभिन्न समुदायों के बीच बढ़ती नफरत, सन 2015 में भारत के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में उभरी। इससे सांप्रदायिक सद्भाव में कमी आई और प्रजातांत्रिक व्यवस्था द्वारा हमें दी गईं आज़ादियों पर बंदिशें लगीं। एक प्रश्न के उत्तर में गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने संसद को बताया कि सन 2015 में अक्टूबर माह तक सांप्रदायिक हिंसा की 650 घटनाएं हुईं, जिनमें 84 लोग मारे गए और 1979 घायल हुए। 'द टाईम्स ऑफ इंडिया' के अनुसार, अक्टूबर तक देश में सांप्रदायिक हिंसा की 630 घटनाएं हुईं। अखबार के अनुसार, 2014 में ऐसी घटनाओं की संख्या 561 थी। सन 2014 में सांप्रदायिक हिंसा में मरने वालों की संख्या 95 थी। राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, देश में पिछले वर्ष 1227 सांप्रदायिक दंगे हुए, अर्थात एनसीआरबी के आंकड़े, केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों से लगभग दोगुने हैं।

गृह मंत्रालय की रपट के अनुसार, सन 2015 में कोई 'बड़ी' सांप्रदायिक घटना नहीं हुई परंतु दो 'महत्वपूर्ण' सांप्रदायिक घटनाएं हुईं। ये दो घटनाएं थीं अटाली में मस्जि़द के निर्माण को लेकर हुई हिंसा और दादरी, उत्तरप्रदेश घर में गौमांस रखने के संदेह में एक व्यक्ति की पीट-पीटकर हत्या। यह दिलचस्प है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय, सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं को दो वर्गों में बांटता है: 'बड़ी' व 'महत्वपूर्ण'। 'बड़ी' सांप्रदायिक हिंसा की घटना उसे माना जाता है जिसमें पांच से अधिक व्यक्ति मारे गए हों या दस से अधिक घायल हुए हों। 'महत्वपूर्ण' घटना वह है जिसमें कम से कम एक व्यक्ति मारा गया हो या दस घायल हुए हों।

इन आंकड़ों को ध्यान से देखने पर इस साल हुई सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं की कुछ विशेषताएं उभरकर सामने आती हैं। पहली बात तो यह है कि इस साल मरने वालों और घायल होने वालों की संख्या कम रही, यद्यपि पिछले साल की तुलना में घटनाओं की संख्या में मामूली वृद्धि हुई। जहां 2014 में सांप्रदायिक हिंसा में 90 लोग मारे गए थे, वहीं 2015 में मृतकों की संख्या 84 थी। इस तथ्य से हिंदू राष्ट्रवादियों के सत्ता में आने के बाद से, सांप्रदायिक हिंसा की प्रकृति में हुए परिवर्तन का अंदाज़ा लगता है। अब सांप्रदायिक हिंसा इस तरह से करवाई जाती है कि उससे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण तो हो परंतु मृतकों और घायलों की संख्या कम रहे ताकि मीडिया का ध्यान उस ओर न जाए। इन दिनों हो रही सांप्रदायिक हिंसा का मुख्य उद्देश्य, हाशिए पर पड़े वर्गों को आतंकित करना और उन्हें दोयम दर्जे के नागरिक का दर्जा स्वीकार करने के लिए मजबूर करना है। कम तीव्रता की इस हिंसा के ज़रिए, हिंदू राष्ट्रवादी, समाज पर अपने नियम थोपना चाहते हैं। उनकी अपेक्षा यह है कि हाशिए पर पड़े वर्ग, विशेषकर अल्पसंख्यक, जीवित तो रहें परंतु बहुसंख्यकों की मेहरबानी पर।

अटाली (हरियाणा), हरशूल (महाराष्ट्र) व दादरी (उत्तरप्रदेश) में हुई सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में ऐसे समुदायों के बीच भिड़ंत हुई, जो अब तक शांतिपूर्वक एक साथ रहते आए थे। अटाली के मुस्लिम रहवासियों के घर और दुकानें लूट ली गईं और उन्हें आग के हवाले कर दिया गया। उनके वाहनों को जलाकर नष्ट कर दिया गया। मुसलमानों को अपनी जान बचाने के लिए अपने घर छोड़कर भागना पड़ा। इस विस्थापन के कारण उन्हें ढेर सारी परेशानियां झेलनी पड़ीं। सांप्रदायिक हिंसा के शोधकर्ता इस तरह की हिंसा को 'सबरडार' हिंसा कहते हैं। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं को दो वर्गों में बांटा और हिंसा की एक-एक घटना को इन दोनों वर्गों में रख दिया। यह, इन घटनाओं और देश में व्याप्त सांप्रदायिक तनाव और हिंसा को कम करके दिखाने का प्रयास है।

इसके अतिरिक्त, 2015 में सांप्रदायिक हिंसा घटनाएं शहरी क्षेत्रों के अलावा छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में भी हुईं। इसके पहले तक सांप्रदायिक हिंसा मुख्यतः शहरों तक सीमित रहती थी परंतु आंकड़ों के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सांप्रदायिकता का ज़हर हमारे देश के ग्रामीण इलाकों में तेज़ी से फैलता जा रहा है। पलवल, कन्नौज, पछोरा व शामली जैसे छोटे शहरों में सन 2015 में सांप्रदायिक हिंसा हुई। ग्रामीण इलाकों में छोटे पैमाने पर अलग-अलग बहानों से सांप्रदायिक हिंसा भड़काई गई। इस वर्ष सांप्रदायिक हिंसा के मुख्य केन्द्र थे पश्चिमी उत्तरप्रदेश, बिहार और हरियाणा। इन राज्यों को सांप्रदायिक हिंसा भड़काने के लिए क्यों चुना गया, यह पॉल ब्रास द्वारा देश में बड़े सांप्रदायिक दंगों के अध्ययन के नतीजों से समझा जा सकता है। ब्रास का कहना है कि भारत में संस्थागत दंगा प्रणाली (आईआरएस) विकसित हो चुकी है। बिहार में  2015 में विधानसभा चुनाव हुए और उत्तरप्रदेश में 2017 में होने हैं। जो राजनैतिक दल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से लाभांवित होते हैं, वे चुनाव के पूर्व, आईआरएस का इस्तेमाल कर दंगे भड़काते हैं ताकि पहचान से जुड़े मुद्दों को लेकर विभिन्न समुदायों के बीच नफरत फैलाई जा सके और उनके वोट बटोरे जा सकें।

हमारे देश के जटिल जातिगत और धार्मिक समीकरणों के चलते, हिंदू राष्ट्रवादियों के लिए अकेले यह काम करना संभव नहीं है। इसमें उन्हें उन राज्य सरकारों का अपरोक्ष समर्थन मिलता है जो दंगों को रोकने और दंगाइयों को सज़ा दिलवाने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं करतीं। सांप्रदायिक राजनैतिक दल, लगातार तनाव बनाए रखते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि समाज में अस्थिरता बनी रहे। मुजफ्फरनगर दंगों के बाद हुए लोकसभा आमचुनाव में भाजपा ने उत्तरप्रदेश की अधिकांश सीटों पर विजय प्राप्त की। उसे यह उम्मीद है कि इसी रणनीति को अपनाकर वह विभिन्न राज्यों-विशेषकर उत्तरप्रदेश-में विधानसभा चुनाव में विजय प्राप्त कर सकेगी।

सांप्रदायिक हिंसा की चुनौती का मुकाबला करने में राज्य और आपराधिक न्याय प्रणाली अक्षम साबित हुई। पुलिस ने दंगाइयों को सज़ा दिलवाने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए। हरशूल में, जहां मुसलमानों के 40 मकानों और दुकानों को आग के हवाले कर दिया गया था, हिंसा के पहले, कुछ संगठनों द्वारा पर्चे बांटे गए थे जिनमें मुसलमानों को यह चेतावनी दी गई थी कि उन पर हमला हो सकता है। इस कारण कई मुसलमान पहले ही वहां से भाग निकले। इन पर्चों के बंटने के बाद भी पुलिस सावधान नहीं हुई। इसके पीछे पुलिस के गुप्तचर तंत्र की असफलता थी या अल्पसंख्यकों की रक्षा करने की अनिच्छा, यह कहना मुश्किल है। अटाली में यद्यपि पुलिस ने मुसलमानों को बल्लभगढ़ पुलिस थाने में दस दिन तक शरण दी तथापि मई 2015 की हिंसा कारित करने वालों के खिलाफ कार्यवाही नहीं करने के कारण, मुसलमानों पर जुलाई में ऐसा ही दूसरा हमला हुआ। दादरी में तो पुलिस की भूमिका अत्यंत निंदनीय रही।  उसने मोहम्मद अख़लाक के घर से जब्त मांस को फोरेन्सिक जांच के लिए भेजा ताकि यह पता लगाया जा सके कि वह गौमांस तो नहीं है। उपयुक्त कार्यवाही न करके राज्य ने, धर्म के स्वनियुक्त ठेकेदारों को अपनी मनमर्जी करने की खुली  छूट दे दी है। उनकी हिम्मत बढ़ती जा रही है और वे देश के विभिन्न इलाकों में मुसलमानों पर इसी तरह के हमले कर रहे हैं। पुलिस की जांच में कमी के कारण दंगाई अक्सर न्यायालयों से बरी हो जाते हैं। हाशिमपुरा में मुसलमानों की गोली मारकर हत्या करने वाले पीएसी के जवानों को दिल्ली की एक अदालत ने बरी कर दिया। यह मानवाधिकारों और न्याय पर कुठाराघात था। जिन लोगों को गुजरात में सांप्रदायिक हिंसा का दोषी पाया गया और सजा सुनाई गई, वे भी अब जेलों से बाहर हैं।

इसके अतिरिक्त, देशभर में पिछले वर्ष चर्चों पर हमले हुए। चर्चों में तोड़फोड़ की गई और उन्हें अपवित्र किया गया। यह ईसाई समुदाय को निशाना बनाने का एक कुत्सित प्रयास और संविधान के अनुच्छेद 25 के अंतर्गत, सभी लोगों को अपने धर्म का पालन करने की आज़ादी पर हमला है। जब मानवाधिकार संगठनों ने इसका विरोध किया और हमलावरों के विरूद्ध कार्यवाही की मांग की, तो सरकार ने इन हमलों को स्थानीय असामाजिक तत्वों की शरारत बताकर इनकी गंभीरता को कम करने का प्रयास किया। इसके अतिरिक्त, ननों के साथ बलात्कार और छत्तीसगढ़ व अन्य राज्यों में ईसाई पादरियों को डराने-धमकाने और उनके खिलाफ हिंसा से ईसाई समुदाय भयग्रस्त है और असुरक्षित महसूस कर रहा है। कंधमाल के लोग शांति से क्रिसमस नहीं मना सके क्योंकि उसी दिन, हिंदू राष्ट्रवादियों ने बंद का आह्वान किया, ईसाईयों पर हमले किए और जिले के कई इलाकों में तनाव का वातावरण निर्मित किया।

गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, देश में हुई सांप्रदायिक घटनाओं में से 86 प्रतिषत 8 राज्यों- महाराष्ट्र, गुजरात, बिहार, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, कर्नाटक और केरल-में हुईं। अधिकांश मामलों में धार्मिक जुलूसों पर पत्थरबाजी, दोनों समुदायों के व्यक्तियों के बीच निजी शत्रुता, धार्मिक स्थलों की ज़मीन के मालिकाना हक को लेकर विवाद, कथित गौहत्या और अंतर्धामिक प्रेम संबंध व विवाह सांप्रदायिक हिंसा की वजह बने।

हिंदू राष्ट्रवादियों ने ''बेटी बचाओ, बहू लाओ'' जैसे भड़काऊ नारे दिए। आरएसएस व बजरंग दल ने आगरा में ''बेटी बचाओ, बहू लाओ'' आंदोलन इतने बड़े पैमाने पर चलाया कि उत्तरप्रदेश अल्पसंख्यक आयोग को उसका संज्ञान लेना पड़ा। बजरंग दल के सदस्य लड़कियों के कालेजों में पर्चे बांट रहे हैं जिनमें हिंदू लड़कियों को यह चेतावनी दी जा रही है वे मुस्लिम लड़कों से प्रेम न करें। यह नफरत फैलाने का अभियान है, जिसका उद्देश्य दूसरे समुदायों के प्रति भय पैदा करना है। यह व्यक्तियों के अपनी पसंद से विवाह करने के अधिकार पर भी हमला है। हिंदू राष्ट्रवादी, हिंदू पुरूषों को यह सलाह देते हैं कि वे मुस्लिम महिलाओं से विवाह करें और उन्हें हिंदू बनाएं। इसके पहले, आगरा में घर वापसी अभियान को लेकर सांप्रदायिक तनाव फैलाया गया था। सांप्रदायिक तनाव फैलाने का यह सिलसिला केवल आगरा तक सीमित नहीं है। पूरे उत्तरप्रदेश में इस तरह की भड़काऊ और उत्तेजक बातें कहकर तनाव फैलाया जा रहा है। पश्चिम बंगाल में हिंदू राष्ट्रवादियों ने हिंदू लड़कियों और उनके परिवारों का यह आह्वान किया कि वे मुस्लिम लड़कियों से शादी करें, उन्हें हिंदू बनाएं और फिर अपनी ''सुरक्षा'' के लिए भाजपा के सदस्य बनें।

जनगणना 2011 के चुनिंदा आंकड़ों का लीक किया जाना भी इसी तरह का षड़यंत्र था। ऐसा बताया गया कि मुसलमानों का देश की आबादी में हिस्सा सन् 2001 में 13.40 प्रतिशत से बढ़कर 2011 में 14.20 प्रतिशत हो गया है। इसके साथ-साथ यह भी कहा गया कि देश की हिन्दू आबादी में कमी आई है। यह भ्रम उत्पन्न करने की कोशिश की गई कि मुस्लिम आबादी इतनी तेजी से बढ़ रही है कि उसके कारण हिन्दुओं का बहुसंख्यक का दर्जा खतरे में पड़ जाने की संभावना है। जुनून को और बढ़ाने के लिए साध्वी प्राची ने यह दावा किया कि मुसलमान लव जिहाद के जरिए '40 पिल्ले' पैदा करते हैं ताकि वे 'हिन्दुस्तान' को 'दारूल इस्लाम' बना सकें। उन्होंने हिन्दू महिलाओं से यह अपील की कि वे कम से कम चार बच्चे पैदा करें। ऐसी ही अपील साक्षी महाराज ने भी की। दोनों भाजपा के सांसद हैं और उन्होंने संवैधानिक सिद्धांतों और मूल्यों की रक्षा करने की शपथ ली है।

इन दोनों मुद्दों के केन्द्र में है महिलाओं का शरीर और राष्ट्रवाद के विमर्ष में उसका स्थान। महिलाओं को मुख्यतः बच्चे पैदा करने वाली मशीन माना जाता जो कि राष्ट्र की आबादी बढ़ाएंगी-इस मामले में उन्हें हिन्दुओं की संख्या बढ़ाने वाली मशीन के रूप में देखा जा रहा है। उनके अधिकारों पर डाका डाला जा रहा है और उनकी बेहतरी के लिए किए जाने वाले प्रयासों को प्रभावी बनाने की कोई कोशिश नहीं हो रही है। अटाली में जब हमने मुस्लिम और जाट महिलाओं से बात की तो हमें उनकी बातें सुनकर बहुत धक्का लगा। मुस्लिम महिलाओं ने बताया कि किस तरह आसपास की वे जाट महिलाएं, जिनके साथ खेलते-कूदते वे बड़ी हुईं, जिनके साथ उन्होंने अपने दुःख और सुख सांझा किए, वे ही उनके घरों पर पत्थर फेंक रहीं थीं और आग लगा रहीं थीं। जाट महिलाओं ने भी बिना किसी झिझक के कहा कि मुसलमानों को गांव में मस्जिद बनाने का अधिकार नहीं है और उन्हें गांव में वापिस नहीं आने दिया जाना चाहिए। महिलाओं की हिंसा में भागीदारी परेशान करने वाली है क्योंकि इससे समाज का वह वर्ग नफरत और हिंसा के दुष्चक्र में फंस जाता है जिसे शांति की सबसे अधिक जरूरत है। जाट महिलाओं ने यह आरोप भी लगाया कि मुस्लिम पुरूष, जाट लड़कियों को अपने प्रेम जाल में फंसाते हैं और वे गांव की सुरक्षा के लिए खतरा हैं।

तथाकथित गौवध का इस्तेमाल भी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बढ़ाने के लिए किया गया। अकेले उत्तरप्रदेश में जून 2014 से लेकर अक्टूबर 2015 तक केवल गौवध के मुद्दे पर सांप्रदायिक हिंसा की 330 घटनाएं हुईं। सहारनपुर में निर्दोष युवकों को केवल इस आधार पर जान से मार दिया गया कि वे वध के लिए मवेशी ले जा रहे थे।

गुज़रे साल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को गहराने और दोनों समुदायों के बीच नफरत बढ़ाने के लिए सामाजिक बहिष्कार का एक उपकरण की तरह इस्तेमाल किया गया। अटाली में उन मुसलमानों का सामाजिक बहिष्कार किया गया जो गांव लौट आए। उनमें से अधिकांश मज़दूर थे। गांववालों ने उन्हें काम देना बंद कर दिया, उन्हें न तो सामान बेचा जाता था और ना ही उनसे कोई चीज़ खरीदी जाती थी और यहां तक कि उनके बच्चों के लिए दूध भी उन्हें उपलब्ध नहीं हो पाता था। इससे मुसलमान भूख और बदहाली के शिकार हो गए। मुस्लिम समुदाय के सदस्यों द्वारा संपत्ति अर्जित करने से सामंती सामाजिक यथास्थिति पर खतरा मंडराने लगता है और इसकी हिंसक प्रतिक्रिया होती है। मुसलमानों की संपत्ति की बड़े पैमाने पर लूट और आगजनी का उद्देश्य उनकी आर्थिक रीढ़ तोड़ना होता है। पुलिस और प्रशासन हिंसा का मूकदर्शक बना रहता है और उसे नज़रअंदाज करता है।

घृणा फैलाने वाले भाषणों की सांप्रदायिकीकरण और ध्रुवीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका है। इनके ज़रिए सांप्रदायिक हिंसा को औचित्यपूर्ण ठहराने की कोशिश होती है। राज्यपाल, मुख्यमंत्री और सांसद स्तर के लोग भी नफरत फैलाने वाली भाषणबाजी कर रहे हैं। यह सचमुच दुःखद है कि उच्च पदों पर बैठे लोग, जिन्हें हमारे संविधान की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है, वे ही संवैधानिक मूल्यों का मखौल बना रहे हैं। इससे असामाजिक और सांप्रदायिक तत्वों की हिम्मत बढ़ती है और वे और खुलकर हाशिए पर पड़े वर्गों पर हिंसक हमले करने लगते हैं। (अगले अंक में जारी...) (मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)

संपादक महोदय,

        कृपया इस सम-सामयिक लेख को अपने प्रतिष्ठित प्रकाशन में स्थान देने की कृपा करें।

                                                            

-एल. एस. हरदेनिया


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