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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Thursday, January 14, 2016

चुनावी राजनीति के महत्व को न नकारें, कामरेड -राम पुनियानी



14 जनवरी 2016

चुनावी राजनीति के महत्व को न नकारें, कामरेड

-राम पुनियानी


स्वतंत्र भारत के पहले आमचुनाव में, तत्कालीन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, सबसे बड़े विपक्षी दल के रूप में उभरी थी। उस काल में अमरीका में मैकार्थीवादी, कम्युनिस्टों को निशाना बना रहे थे और यहां भारत में, आरएसएस, शासक कांग्रेस पार्टी से यह वायदा कर रहा था कि वह साम्यवाद का सफाया करने में सरकार की मदद करेगा। आरएसएस चिंतक एमएस गोलवलकर ने अपनी पुस्तक 'बंच ऑफ थाट्स' में मुसलमानों और ईसाईयों के अलावा, साम्यवादियों को भी हिंदू राष्ट्र के लिए 'आतंरिक खतरा' निरूपित किया था।

तब से लेकर अब तक, गंगा में बहुत पानी बह चुका है। पिछले लोकसभा चुनाव (2014) में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और उसने लोकसभा में साधारण बहुमत प्राप्त किया। अब देश पर भाजपा के नेतृत्व वाले एक बेमेल गठबंधन-जिसे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए)-कहा जाता है, का राज है। एनडीए में भाजपा का बोलबाला है और वह अपने पितृसंगठन आरएसएस के एजेंडे को लागू करने की हर संभव कोशिश कर रही है। इस पृष्ठभूमि में, भारत की सबसे बड़ी साम्यवादी पार्टी-भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी)-की 21वीं कांग्रेस (अप्रैल 2015) में लिए गए निर्णयों पर चर्चा समीचीन होगी।

पार्टी के पूर्व महासचिव प्रकाश कारत ने इस कांग्रेस में हुए विचार-विमर्श और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की भविष्य की योजनाओं की झलक, अपने एक लेख 'विनिंग बैक द पीपुल' (द इंडियन एक्सप्रेस, 7 जनवरी, 2016) में दी है। इस लेख में बताया गया है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी किन तत्वों व शक्तियों को भारतीय प्रजातंत्र के लिए बड़ा खतरा मानती है और उनसे किस तरह मुकाबला करने का इरादा रखती है। जहां कांग्रेस में हुए विचार-विनिमय के निष्कर्ष, हवा के एक ताज़ा झोंके के समान हैं और यह बतलाते हैं कि सीपीएम समय के साथ बदलने को तैयार है और मध्यमवर्ग व हाशिए पर पड़े समुदायों की ओर अपना हाथ बढ़ाना चाहती है, वहीं सांप्रदायिकता की राजनीति का पार्टी का विश्लेषण, चुनावी राजनीति को सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष के एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में स्वीकार करने की हिचकिचाहट की ओर संकेत करता है।

कारत लिखते हैं, ''यह भ्रम है कि भाजपा को चुनाव में हराकर हम सांप्रदायिकता को पराजित कर सकते हैं।'' यह बिलकुल सही है परंतु इसके अगले वाक्य से ज़ाहिर होता है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, सांप्रदायिक राजनीति को मज़बूत करने में चुनावी राजनीति की भूमिका को कम करके आंक रही है। कारत लिखते हैं, ''चुनाव में हार से आवश्यक रूप से सांप्रदायिक ताकतें कमज़ोर और अकेली नहीं पड़तीं।'' सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ सतत संघर्ष की आवश्यकता से कोई इंकार नहीं कर सकता परंतु हमें इस तथ्य को स्वीकार करना ही होगा कि भाजपा की चुनावी सफलताओं ने सांप्रदायिक ताकतों को मज़बूती देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसके विपरीत, चुनावों में हार से सांप्रदायिक एजेंडा कमज़ोर पड़ता है। क्या कोई इस तथ्य से इंकार कर सकता है कि अगर भाजपा, बिहार के 2015 विधानसभा चुनाव में विजय हासिल कर लेती तो सांप्रदायिक ताकतें और मज़बूत होतीं?

आज यदि देश में आरएसएस का एजेंडा खुल्लमखुल्ला लागू किया जा रहा है तो इसका एक महत्वपूर्ण कारण पहले 1998 और अब 2014 में भाजपा का सत्तासीन होना है। यह सही है कि सांप्रदायिक ताकतें, सामाजिक, शैक्षणिक व कई अन्य क्षेत्रों में सक्रिय हैं, वहीं यह भी सच है कि राज्यतंत्र, विशेषकर प्रशासन और पुलिस, में घुसपैठ कर वे अपनी शक्ति में आशातीत इज़ाफा करने में सफल हुई हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि आरएसएस, केंद्र में भाजपा के 1996 और फिर 1998 में शासन में आने के पूर्व से अपना एजेंडा लागू करने में जुटा हुआ था परंतु महत्वपूर्ण यह है कि जब भी भाजपा सत्ता में आ जाती है, वह संघ परिवार के अन्य सदस्यों को उनकी गतिविधियां संचालित करने में पूरी मदद और प्रोत्साहन देती है। हिंदुत्ववादी शक्तियों में ''श्रम विभाजन'' है और वे अलग-अलग क्षेत्रों में संघ परिवार का एजेंडा लागू करती हैं। परंतु भाजपा के सत्ता में रहने से उन्हें बहुत लाभ होता है, इस तथ्य को नहीं भुलाया जाना चाहिए।

भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए के पिछले शासनकाल में किस तरह शिक्षा का जमकर भगवाकरण किया गया था, यह किसी से छिपा नहीं है। कामरेड कारत निश्चित तौर पर इस तथ्य से परिचित होंगे कि मई 2014 में मोदी सरकार के शासन में आने के बाद से, हिंदू राष्ट्रवाद के विघटनकारी एजेंडे को लागू करने की प्रक्रिया में तेज़ी आई है। देश में आतंक का वातावरण निर्मित कर दिया गया है और उदारवाद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटा जा रहा है। सांप्रदायिक राजनीति के बढ़ते कदमों के कारण ही पुरस्कार वापसी का सिलसिला शुरू हुआ। यहां हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 1977 में गठित जनता पार्टी की सरकार में, भाजपा के पूर्व अवतार जनसंघ के तीन सदस्यों को कैबिनेट मंत्री बनाया गया था। यह स्पष्ट है कि भाजपा के शासन में आने से संघ के सदस्यों और उसकी विचारधारा में यकीन करने वालों के लिए मीडिया, शिक्षा व अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्रों में घुसपैठ करना आसान हो जाता है।

कामरेड कारत को यह नहीं भूलना चाहिए कि मई 2014 के बाद से, राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों (भारतीय फिल्म व टेलीविजन संस्थान, भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद, नेशनल बुक ट्रस्ट आदि) पर हिंदू राष्ट्रवाद में यकीन करने वाले योजनाबद्ध ढंग से कब्ज़ा कर रहे हैं। इसके अलावा, गौमांस, लवजिहाद और घरवापसी जैसे मुद्दों को लेकर भी सांप्रदायिक अभियान चलाए जा रहे हैं।

कामरोडों की नई सोच का स्वागत है परंतु उन्हें भाजपा को सत्ता से दूर रखने को भी अपने लक्ष्यों में शामिल करना चाहिए। क्या मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी व अन्य वामपंथी दल यह भूल गए हैं कि यूपीए-1 शासनकाल में उन्होंने किस तरह से कांग्रेस को सही राह पर चलने के लिए मजबूर किया था और शासन की नीतियों में सकारात्मक बदलाव लाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। वामपंथी पार्टियों को उन धर्मनिरपेक्ष संगठनों और व्यक्तियों से भी सबक लेने की ज़रूरत है, जो राजनीति से इतर क्षेत्रों में सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। गुजरात और कंधमाल में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए किया जा रहा संघर्ष, धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को बढ़ावा देने वाले अभियान, विविधता और बहुलता को प्रोत्साहित करने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम व आम लोगों में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा की समझ विकसित करने के प्रयास-इन सब ने सांप्रदायिकता के दानव से मुकाबला करने में महती भूमिका निभाई है।

सांप्रदायिक मानसिकता और पूर्वाग्रह, जो कि समाज की सामूहिक सोच का हिस्सा बन गए हैं, से मुकाबला करने के लिए बहुलता और सौहार्द को बढ़ावा देने वाले सांस्कृतिक अभियान चलाए जाना आवश्यक हैं। जहां हाशिए पर पड़े वर्गों को साथ लिए जाने की ज़रूरत है, वहीं धार्मिक अल्पसंख्यकों से जुड़े मुद्दों को उठाना भी उतना ही आवश्यक है। महिलाओं, जातिप्रथा, आदिवासियों व अन्य वंचित व पिछड़े वर्गों से जुड़े मुद्दों पर फोकस करने का मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का निर्णय स्वागतयोग्य है परंतु इसके साथ ही, वामपंथियों को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि हिंदू राष्ट्रवाद के पैरोकारों को चुनावी मैदान में पराजित किया जाए। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि चुनाव में विजय से सांप्रदायिक ताकतों के आभामंडल में वृद्धि होती है। वामपंथियों को ऐसी पार्टियों, जो भारतीय राष्ट्रवाद की हामी हैं, के साथ चुनावी गठबंधन करने पर भी विचार करना चाहिए, भले ही इन पार्टियों में कुछ कमियां हों। यदि वामपंथी पार्टियां ऐसा करेंगी तो निश्चित तौर पर उन्हें अपनी पुरानी नीतियों और सोच में परिवर्तन लाना होगा। परंतु ऐसा करना आज के समय की मांग हैं। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

संपादक महोदय,                  

कृपया इस सम-सामयिक लेख को अपने प्रकाशन में स्थान देने की कृपा करें।

- एल. एस. हरदेनिया



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