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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, January 3, 2016

उनने बाबरी विध्वंस के बाद कभी दाढ़ी नहीं बनायी परिजनों,साथियों मित्रों से कह दिया कि इस देश में दाढ़ी रखने पर अगर कत्लेआम होता है तो हम कत्ल हो जाने के लिए तैयार हैं। वे आखिर तक अंबेडकरी आंदोलन को आम जनता के हकहकूक की लड़ाई में तब्दील करना चाहते थे।वे आरक्षण के बदले अधिकार को तरजीह देने वाले थे। बैंकों में देशभर में अनुसूचित जातियों और जनजातियों का आरक्षण और अनिवार्य प्रोमोशन भी उन्हींने लागू करवाया। इसके बावजूद वे धर्म जाति की पहचान के खिलाफ थे और बहुजन आंदोलन को वैज्ञानिक सर्वहारा का आंदोलन बनाना चाहते थे। पलाश विश्वास


उनने बाबरी विध्वंस के बाद कभी दाढ़ी नहीं बनायी

परिजनों,साथियों मित्रों से कह दिया कि इस देश में दाढ़ी रखने पर अगर कत्लेआम होता है तो हम कत्ल हो जाने के लिए तैयार हैं।

वे आखिर तक अंबेडकरी आंदोलन को आम जनता के हकहकूक की लड़ाई में तब्दील करना चाहते थे।वे आरक्षण के बदले अधिकार को तरजीह देने वाले थे।


बैंकों में देशभर में अनुसूचित जातियों और जनजातियों का आरक्षण और अनिवार्य प्रोमोशन भी उन्हींने लागू करवाया।


इसके बावजूद वे धर्म जाति की पहचान के खिलाफ थे और बहुजन आंदोलन को वैज्ञानिक सर्वहारा का आंदोलन बनाना चाहते थे।


पलाश विश्वास

उनने बाबरी विध्वंस के बाद कभी दाढ़ी नहीं बनायी और परिजनों,साथियों मित्रों से कह दिया कि इस देश में दाढ़ी रखने पर अगर कत्लेआम होता है तो हम कत्ल हो जाने के लिए तैयार हैं।


वे मेदिनीपुर के समुद्र तीरवर्ती कांथी इलाके के गोपालपुर के राजवंशी मछुआरा परिवार में जनमे डा.गुणधर बर्मन थे।


बंगाल में बहुजनों की वैज्ञानिक सोच के पिता समान प्रतिनिधि और क्रांति ज्योति सावित्री बाई फूले के जन्मदिन उनकी पहली पुणयतिथि आज ही है।


वे मानते थे कि बाबासाहेब के बाद जो परिस्थितियों और सामाजिक यथार्थ के साथ साथ उत्पादन प्रणाली और अर्थव्यवस्था का सर्वनाश हुआ है,उससे समता और न्याय की लड़ाई पहचान और अस्मिता के आधार पर लड़ी नहीं जा सकती।


वे भारतभर में आजीवन मछुआरों को संगठित करते रहे और मछुआरों की ट्रेड यूनियन भी उनने बनायी।वे आखिर तक अंबेडकरी आंदोलन को आम जनता के हकहकूक की लड़ाई में तब्दील करना चाहते थे।वे आरक्षण के बदले अधिकार को तरजीह देने वाले थे।


वे मानते थे कि ईश्वर का अस्तित्व नहीं है और देवी देवताओं के जो मिथकीय चरित्र हैं,वहां धर्म और आस्था कम,भोग का उत्सव कहीं ज्यादा है और अंधविश्वास व ज्ञान विज्ञान का विरोध भयानक ढंग से ज्यादा है।


वे मानते थे कि धर्म कर्म में आस्था अनैतिक भोगी सत्ता वर्ग की उतनी नहीं है जो जीवन के हर क्षेत्र में वंचित बहुजनों की है और जो धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण की राष्ट्रीयता में बलिप्रदत्त हैं जबकि संविधान बदलकर अन्याय और असमानता को कानूनी बनाना राजकाज है।


वे वैज्ञानिक सोच के पक्षधर थे।


उनने बंगाल के मेडिकल कालेजों में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के आरक्षण लागू करने वाले थे जबकि बिना आरक्षण राजवंशी मछुआरा वजूद के बावजूद वे चर्मरोग विशेषज्ञ डाक्टर बन चुके थे और बिना फीस लिये वे स्त्री रोगों,शिशुरोगों और लाइलाज वृद्धों की चिकित्सा मृत्यु से चार पांच साल पहले तक करते रहे।


बैंकों में देशभर में अनुसूचित जातियों और जनजातियों का आरक्षण और अनिवार्य प्रोमोशन भी उन्हींने लागू करवाया।


जब बंगाल की प्रगतिशील सरकार ने मंडल कमीशन लागू करने से इंकार कर दिया इस दलील के साथ कि बंगाल में जात पांत नहीं है,तब गुणधर बाबू मंडल कमीशन लागू करवाने का आंदोलन कर रहे थे।


उनका साफ मानना था कि आरक्षण खत्म करने का चाकचौबंद इंतजाम है और मंडल कमीशन लागू हो गया तो मजबूत जातियों को जब आरक्षण का लाभ मिलेगा तो कमजोर जातियों को वंचित करना मुश्किल होगा।


इसके बावजूद वे धर्म जाति की पहचान के खिलाफ थे और बहुजन आंदोलन को वैज्ञानिक सर्वहारा का आंदोलन बनाना चाहते थे।


गुणधर बाबू तब भी हमारे साथ थे जब हम बामसेफ में थे।वे शुरु में वामपंथी थे लेकिन जोगेंद्र नाथ मंडल के सान्निध्य में वे अंबेडकरी विचारधारा के तहत बहुजन आंदोलन में शामिल हुए तो अंबेडकरी आंदोलन को वे पहचान की राजनीति में सीमित करने के बजाय आम जनता के हकहकूक की लड़ाई में तब्दील करने के लिए तजिंदगी मिशनरी बने रहे।


वे शुरुआत में रिपब्लिकन पार्टी में थे और वहां के तौर तरीकों से अघाकर वे बामसेफ में शामिल हुए।


वे कांशीराम जी के भी सहयोगी थे।लेकिन विभिन्न धड़ों में बंटे हुए बहुजन आंदोलन के मसीहा वृंद के बाबासाहेब को एटीएम बना देने के खिलाफ उनने पहले बामसेफ के एकीकरण मुहिम में हमारे साथ थे और बाद में जब यह नेतृत्व की वजह से असंभव हो गया तो वैज्ञानिक सोच के मुताबिक अस्मिता और पहचान के दायरे से बाहर राष्ट्रीय सोच के मुताबिक राष्ट्रीय संगठन बनाने की कवायद में भी वे हमेशा हमारे साथ बतौर अभिभावक और दिग्दर्शक बने रहे।

हम बुरी तरह नाकाम रहे लेकिन वे तब भी हमारे ख्वाब जीते रहे।


नागपुर में देश भर के कार्यकर्ताओं और संगठनों की बैठक में जब हमने पहचान और अस्मिता के आधार पर अंबेडकरी आंदोलन के बजायाम जनता के बुनियादी जरुरतों और ज्वलंत मसलों को संबोधित करने के मकसद से संगठन बानाने का निर्णय किया,तो शारीरिक अस्वस्थता के बावजूद वे वहां हाजिर थे।


तभी हमारे मित्र जगदीश राय नें उनका एक इंटरव्यू लिया था,जिसे हम इस आलेक के साथ साझा कर रहे हैं।


इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में तब जूनियर मंत्री प्रणव मुखर्जी और बंगाल विधावसभा के अद्यक्ष अपूर्व लाल मजूमदार ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद गुणधर बाबू के साथ तमाम बैंकों के एम डी के साथ बैठक की और उसके बाद संसदीय समिति में आम नागरिक गुणधर बाबू को कोअप्ट करके शामिल कराया और इस समिति कीसिपारिश के मुताबिक पहले आर्डिनेंस जारी करके 1972 में बैंको में संरक्षण लागू करवाया और फिर संसद से उसे कानून में तब्दील भी किया।बाबू जगजीवन राम के पहले भाषण के बाद संसद में इसका कोई विरोध भी नहीं हुआ।


इस अकेले कृतित्व के लिए गुणधर बर्मन को बंगाल ही नहीं,पूरे भारत में याद किया जाना चाहिए।लेकिन न बंगाल में बैंक कर्मचारी और अनुसूचित यह इतिहास जानते हैं और न बाकी देश में।इसलिए यह आलेख बांग्लाभाषियों को संबोधित नहीं है।


अंग्रेजी में भी इसे नहीं लिखा है।


हिंदी में लिखा है क्योंकि मेइन स्ट्रीम के ताजा वार्षिक अंक में हमारे आदरणीय मित्र आनंद तेलतुंबड़े ने अपने आलेख में साबित किया है कि 1999 से आरक्षण कहीं लागू हो ही नहीं रहा है।


गुणधर बाबू की स्मृतिसभा में बैंक आफ बड़ोदरा के अनसूचित कल्याण संघ के पूर्वी भारत के अध्यक्ष सुरेश राम ने कहा कि बैंकों में अब सिर्फ पिछड़ों को आरक्षण दिया जा रहा है।कहा जा रहा है कि अनुसूचित पहले से ज्यादा हैं और उन्हें फिलहाल पांच छह साल तक आरक्षण और कोटा के तहत बैंकों में नौकरी दी नहीं जा सकती।बाकी सेक्टर में जो हाल हैं,उन सेक्टरों के लोग बताये।


आनंद तेलतुंबड़े का आरक्षण पर जो आलेख है ,वह अंग्रेजी में मेइन स्ट्रीम में छपा है।जिसका अनुवाद रेयाज ने हिंदी में करक दिया है और वह आलेख भी रुबीना संपादित आनेद के हिंदी लेखों के संकलन में शामिल हैं।


कृपया उसे अवश्य पढ़े कि आरक्षण और कोटा है ही नहीं और मिथ्या की नींव पर यह मंडल कमंडल कुरुक्षेत्र है।


पुनःआरक्षण कोटा देशभर में मंडल बनाम कमंडल गृहयुद्ध का कुरुक्षेत्र है,उस आरक्षण और कोटा का कहीं वजूद ही नहीं है ग्लोबीकरण,निजीकरण और उदारीकरण के एफडीआई फिजां में।


जहां हर अनैतिक दुराचार को आर्थिक सुधारों के विशुध हिंदुत्व बतौर कानूनी तौर पर लागू करना सामाजिक समरसता है,मेकिंग इन है।


खुली लूट,हत्या ,बलात्कार,बेदखली,बहिस्कार,सूचना निषेध अभिव्यक्ति निषेध को विदेश पूंजी और विदेशी हितों के मुताबिक कानूनी बनाना और कानूनी नरसंहार की संस्कृति लागू करना ही आज का सामजिक यथार्थ है और आरक्षण राजनीतिक है।


राजनीतिक प्रतिनिधित्व संबंधित प्रतिनिधि के चरित्र के मुताबिक नहीं है क्योंकि मतदाता किसी उम्मीदवार की छवि देखकर नहीं,जाति धर्म और चुनाव चिन्ह देखकर वोट देते हैं,जो भ्रष्टाचार और कालाधन की अर्थव्यवस्था की बुनियाद है।


इसी सिलसिले में हमने कल आनंद तेलतुंबड़े और अंबेडकर की इकलौती पोती रमा तेलतुंबड़े के हवाले से लिखा था कि  अंबेडकर कोई खूंटी नहीं हैं कि हम उनसे बंधे हों और अपने वक्त की चुनौतियों को संबोधित ही नहीं कर सकें!


हम न हिजली तक पहुंचते हैं और न आजादी के परवानों की कोई याद हमारी जेहन में हैं।हम तो उन्हीं गद्दारों के गुलाम प्रजाजन हैं जो हर हाल में तब अंग्रेजों का साथ दे रहे थे तो आज वैश्विक साम्राज्यवाद के नयका जमींदार राजा महाराजा नवाब सिपाहसालार वगैर वगैरह हैं और यही पेशवा राज है।


इस पर दलित साहित्य आंदोलन के पुरोधा कंवल भारती ने टिप्पणी की हैः


आंबेडकर बिल्कुल भी खूंटी नहीं हैं, वे केवल मार्ग दर्शक हैं। उन्होंने हमें चीजों को समझने के लिए एक वैज्ञानिक कसौटी दी है। पर मुझे लगता है कि पलाश तुम जरूर किसी खूंटी से बंध गए हो।


हो सकता है कि ऐसा हुआ भी हो।हम किसी पर लांछन नहीं लगा रहे थे कि अमुक अमुक खूंटी से बंधा है।


कंवल भारती जी का अवदान इतना ज्यादा है कि हम पलटकर कोई मंतव्य नहीं कना चाहते।


कैफियत हम देंगे नहीं क्योंकि हमारा कामकाज सार्वजनिक है,जिन्हें जैसा लगता है,राय बनाने को आजाद हैं।बल्कि हम खुश हैं और आबारी हैं कि हमारा लिखा भी वे पढ़ लेते हैं।


साल के आखिरी वक्त मेदिनीपुर की यात्रा के दौरान दीघा के रास्ते कांथी में अध्यापक व मूलनिवासी समाज संघ के कार्यकर्ता तपन मंडल के यहां ठहरना हुआ।


तपन मंडल  बंगाल में मूलनिवासी बहुजन आंदोलन,दलित साहित्य आंदोलन और विज्ञान मंच के नेता डा.गुणधर बर्मन के निकट सहयोगी रहे हैं।


गुणधर बाबू मासिक पत्रिका आत्म निरीक्षण दशकों से निकालते रहे हैं जैसे वे विज्ञान मंच के कोषाध्यक्ष की हैसियत से विज्ञान मंच की पत्रिका ज्ञान विज्ञान की संपादकीय टीम में भी रहे हैं।गुणधर बाबू के संपादकीय सहयोगी तपनदा हैं।


पिछले साल 3 जनवरी को 92 साल की उम्र में उनकी निरंतर सक्रियता को विराम चिन्ह लगा और आज मध्य कोलकाता के 64 ए गौरीबाड़ी लेन में उनकी याद में जो आयोजन हुआ,उसमें हम भी शामिल हुए।


इस मौके पर बंगाल भर से लोग वहां जुटे।वक्ताओं में पूर्व माकपा सांसद कल्याणी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति वासुदेव बर्मन जो अस्वस्थता के बावजूद आये और जिनकी करीब 45 साल का साथ गुणधर बाबू से रहा,उनने मौजूदा परिस्थितियों का खूब खुलासा किया।


एडवोकेट सुभाष मंडल छात्र जीवन से गुणधर बाबू के साथ थे,जिनने गुणधर बाबू की हकहकूक की लड़ाई का सिलसिलेवार ब्योरा दिया।


बांकुड़ा में महिसासुर पूजा के लिए मशहूर धनंजय मुर्मु भी बोले तो गुणधर बाबू के आखिरी वक्त के साथी रोबिन नायेक झाड़ग्राम इलाके के गोपीबल्लभ पुर से आये।


मेदिनीपुर और बांकु़ड़ा से सबसे ज्यादा लोग आये।


विज्ञान मंच के प्रतिनिधि भोलानाथ दत्त ने विज्ञान मंच आंदोलन में गुणधर वर्मन की भूमिक का ब्यौरा दिया तो डैफोडम के अनंत आचार्य ने वैकल्पिक मीडिया और पत्रकारिता में उनकी सक्रियता का विवरण दिया।


दलित साहित्य के लोग आये या नहीं,पता नहीं चला।

उन संगठकों को भी हमने अनुपस्थित पाया,जिनके साथ गुणदर बाबू हमेशा खड़े थे।


लेफ्टिनेंट कर्नल सिद्धार्त बर्वे ने राष्ट्रीय स्तर पर गुणधर बाबू की सक्रियता और पिछले दस साल से हमारी उनकी गोलबंदी के मोर्चे के बारे में बताया और इसे खासतौर पर चिन्हेत किया कि बहुत बड़े डाक्टर होने के बावजूद उनने कभी बाकी डाक्टरों की तरह नहीं कमाया।


लेफ्टिनेंट कर्नल सिद्धार्त बर्वे ने बताया कि आरक्षण के दरवाजे से अपने चार बच्चों में से किसी को नौकरी नहीं दिलवाई और अपनी जमीन तक बेच दी आंदोलन के लिए।


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