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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Wednesday, February 8, 2017

आरएसएस का भयंकर खेल,असम में हालात पंजाब और गुजरात से भी भयंकर! हिटलर के यहूदी यातनागृह की तर्ज पर असम के विभाजनपीड़ित हिंदुओं के लिए डिटेंशन कैंप,15 हजार हिंदुओं को असम छोड़ने का अल्टीमेटम! पलाश विश्वास

आरएसएस का भयंकर खेल,असम में हालात पंजाब और गुजरात से भी भयंकर!

हिटलर के यहूदी यातनागृह की तर्ज  पर असम के विभाजनपीड़ित हिंदुओं के  लिए डिटेंशन कैंप,15 हजार हिंदुओं को असम छोड़ने का अल्टीमेटम!

पलाश विश्वास

पूर्वी भारत के साथ पूर्वोत्तर भारत हिंदुत्व का नया वधस्थल बन रहा है।असम  गुजरात के बाद हिंदुत्व की घोषित दूसरे चरण के भगवाकरण भूकंप का एपीसेंटर है,जो अपने तेज झटकों से बाकी देश में तबाही मचाने की तैयारी में हैं।

शरणार्थी समस्या दुनियाभर में अब सत्ता का सबसे खतरनाक खेल बन गया है।जाति,धर्म,रंग नस्ल के विविध आयाम के साथ उग्र दक्षिणपंथी फासिस्ट राजकाज और मजहबी सियासत से पूरी दुनिया का नक्शा शरणार्थी सैलाब से सरोबार है तो आइलान की लाश मृत मनुष्यता का ज्वलंत प्रतीक है और नस्ली घृणा तेलकुँओं की आग है।

तीसरा विश्वयुद्ध शुरु है और राष्ट्रों के भीतर बाहर बहुत कुछ टूट बिखर रहा है सोवियत संघ की तरह।ट्रंप की ताजपोशी के सात ग्लोबल हिंदुत्व की जायनी विश्व व्यवस्था में सोवियत संघ का इतिहास हिंदुत्व के नाम नस्ली गृहयुद्ध की उल्फाई आग भड़काकर वैदिकी हिंसा की तर्ज पर धर्म कर्म राजकाज के नाम राम के नाम दोहराने का बेहद राष्ट्रविरोधी खेल,मनुष्यता और प्रकृति के खिलाप खेल रहा है संघ परिवार और दांव पर लगा दी है एकबार फिर विभाजनपीड़ितों की जान माल जिंदगी और नागरिकता।

हमारे लिए यह बहुत मुश्किल समय है।बंगाल से बाहर देश भर में और सीमा के आर पार विभाजनपीड़ितों की दुनिया में हमारी जिंदगी गूंथी हुई है।हम अपनी ही जनता,अपने ही स्वजनों की व्यथा कथा को नजरअंदाज करके राजनीतिक विशुद्धता ,मत मतांतर और विचाधारा के बहाने शरणार्थी आंदोलन से अलग हो नहीं सकते।

अब तक चूंकि शरणार्थी और उनके नेता उम्मीद लगाये बैठे थे कि नागरिकता कानून बदलकर बंगाली हिंदू विभाजनपीड़ितों की नागरिकता छीनकर उन्हें विदेशी घुसपैठिया करार देकर खदेड़ने का अभियान चलाने वाली भाजपा फिर उनकी नागरिकता बहाल करेगी,हमने अपनी राय सार्वजनिक करके उनके आंदोलन की दिशा को प्रभावित करने से बचना चाहा है और नेतृत्व से मतभेद के बावजूद अपना मत सार्वजनिक नहीं किया है।लेकिन जब भी शरणार्थी आंदोलन के मंच से बोलने का मौका लगा है हमने हर बार उन्हें खुले शब्दों में शंग परिवार के खतरनाक खेल के बारे में चे चेतावनी जरुर दी है।

हमारे लोग असहाय हैं और सत्ता पर भरोसा का विकल्प उनके पास कुछ भी नहीं है।संघ परिवार पर उनके भरोसे या भारतीय बहुसंख्य जनता की हिंदुत्व में परंपरागत अटूट आस्था या लोक संस्कृति की वजह से हिंदुत्व के एजंडे के तहत इस्तेमाल की चीज बन जाने की उनकी नियति की वजह से हम उन्हें अपना स्वजन मानने से इंकार करने वाले क्रांतिकारी नहीं बन सकते। हम उनके विवेक पर भरोसा बनाये रखकर बदलाव की कोशिश में जरुर लगे हुए हैं।

अगर भाजपा की सरकार देश भर में नागरिकता ,आरक्षण, मातृभाषा से वंचित शरणार्थियों की नागरिकता और उनके हक हकूक को बहाल करती तो यह हमारे लिए राहत की बात होती।इसलिए हमने अब तक हर हाल में अपने को हाशिये पर रखते हुए शरणार्थी आंदोलन और शरणार्थी नेताओं का समर्थन किया है।

अब जो हालात बन रहे हैं वे इतने भयंकर हैं और सर्वव्यापी तबाही का मंजर है कि उनसे शरणार्थी,विभाजनपीड़ित हिंदू और मुसलमान के अलावा देश के हर हिस्से में भारत के लोग और सीमापार के लोग भी संघ परिवार के इस खतरनाक खेल में मारे जायेंगे तो शरणार्थी आंदोलन और शरणार्थी नेताओं को अपना बिना शर्त समर्थन जारी रखते हुए सच का सार्वजनिक खुलासा करना ही होगा।

हम यह नहीं जानते कि इस सार्वजनिक खुलासे के बाद हिंदुत्व की पहचान से नत्थी विभाजनपीड़ितों की राय हमारे बारे में कितनी बदलेगी।

फिरभी वक्त का तकाजा है और चूंकि अब शरणार्थियों और शरणार्थी नेताओं को पता चल जाना चाहिए कि उनके हक हकूक दिलाने और कम से कम उनकी नागरिकता बहाल करने में संघ परिवार की कोई दिलचस्पी नहीं है।उनका रवैया वही है जो बंगाल, पंजाब, कश्मीर और सिंध के विबादजन पीड़ितों के प्रति विभाजन से पहले,विभाजन के दौरान रहा है,यह खुलासा अनिवार्य है.इससे जिनकी भावनाओं को ठेस पहुंचने वाली है,वे हमें माफ करें।

गैर असमिया भारतीय नागरिकों के लिए असम मध्य एशिया के मंजर में तब्दील है और भारत विभाजन के शिकार शरणार्थियों के नस्ली कत्लेआम अब हिंदुत्व का एजंडा है।तो बाकी लोग बी इस नरसंहार संस्कृति से जिंदा बच जायेंगे ,ऐसे आसार बेहद कम हैं।अहमिया सत्ता वर्ग अपने अलावा असम में किसी को मूलनिवासी मानता नहीं है जबकि ग्यारहवीं सदी में म्यांमार से आने के बाद उनका हिंदुत्वकरण हुआ है।

असम और पूर्वोत्तर के मूलनिवासी आदिवासी भी इस अल्फाई आतंकवाद के निशाने पर हैं।गैरअसमिया भारत के हर राज्य के नागरिक अब असम में विदेशी घुसपैठिया है।केसरिया हो रहे भूगोल के हर हिस्से में अब हर दूसरा नागरिक अवांछित शत्रु है जैसा अमेरिका में ट्रंप के राजकाज में हो रहा है और यूरोपीय समुदाय के विखंडन के बाद इंग्लैंड समेत समूचे यूरोप के मध्य एशिया में तब्दील होने पर होते रहने का अंदेशा है।

मनुष्यता और प्रकृति,मौसम,जलवायु और पर्यावरण लहूलुहान हैं।

अस्सी के दशक में असम और त्रिपुरा में जो खून खराबा हुआ,आने वाले वक्त में उससे भयंकर खून खराबे का अंदेशा है।गुजरात और पंजाब से भी भयंकर हालात असम में अल्फाई संघ परिवार के राजकाज में बन रहे हैं।

हम तीसरे विश्वयुद्ध में फंस गये हैं और चप्पे चप्पे पर गृहयुद्ध है।इसी गृहयुद्ध का नजारा असम,बंगाल और सारा पूर्वोत्तर है।

हिंदुत्व के नाम मुसलमानों के खिलाफ निरंतर घृणा अभियान की आड़ में असम में साठ के दशक से लगातार यह हिंसा जारी है।राम के नाम सौगंध और सिख नरसंहार,गुजरात नरसंहार तो इस मुकाबले ताजा  वारदात हैं।बाकी देश में हिंसा के बीड रह रहकर अंतराल है तो असम घटनाओं की घनघटा है और हिंसा की सिलसिला अंतहीन।वही असम अब संघ परिवार के हिंदुत्व एजंडा का भगवा नक्शा है।

ताजा खबर यह है कि जिन हिंदू बंगाल शरणार्थी वोट बैंक के एक मुश्त समर्थन से संघ परिवार असम में अल्फाई राजकाज चला रहा है,उसके अंतर्गत अल्फाई उग्रवादियों ने पंद्रह हजार बंगाली हिंदुओं को विदेशी घुसपैठिया बताकर उन्हें असम छोड़ने का अल्टीमेटम दिया है तो असम सरकार विदेशी घुसपैठिया होने के आरोप में हिटलर के यहूदी यातनागृह की तर्ज पर बंगाली हिंदू शरणार्थी परिवारों को बच्चों और स्त्रियों समेत थोक पैमाने पर डिटेंशन कैंप में बंद कर रही है।

बंगाल में जितने बंगाली हैं,उनसे काफी ज्यादा बंगाली भारतभर में छितराये हुए हैं।पूर्वीबंगाल के दलित और ओबीसी जन समुदायों में,जिनमें ज्यादातर बंगाल और भारतभर में आजादी से पहले हरिचांद ठाकुर,गुरुचांद ठाकुर,जोगेंद्र नाथ मंडल और बैरिस्टर मुकुंद बिहारी मल्लिक की अगुवाई में बहुजन आंदोलन का नेतृत्व सन्यासी विद्रोह,नील विद्रोह से लेकर तेभागा आंदोलन तक करने वाले नमोशूद्र समुदाय के लोग हैं।इन्होंने ही पूर्वी बंगाल से गुरुचांद ठाकुर के पोते  प्रमथ नाथ ठाकुर के साथ डा.बीआर अंबेडकर को संविधान सभा में चुनकर भेजा था।

पूर्वी बंगाल की दलित और ओबीसी जनसंख्या को भारत विभाजन के जरिये बंगाल से खदेड़ दिया गया जो भारत भर में केंद्र और राज्यसराकरों द्वारा पुनर्वासित किये गये हैं।पाकिस्तान के बंटवारे के बाद बड़ी संख्या में जो हिंदू शरणार्थी बांग्लादेश में निरंतर अल्पसंख्यक उत्पीड़न और हिंदू होने की वजह से भारत समर्थक और आवामी लीग समर्थक माने जाने के कारण राजनीतिक अस्थिरता और उथल पुथल की वजह से भारत में आकर बसे,उनमें से ज्यादातर बंगाल से बाहर हैं,जिन्हें आज तक नागरिकता,आरक्षण,पुनर्वास से लेकर मातृभाषा का अधिकार भी नहीं मिले हैं।

अंडमान निकोबार से लेकर उत्तर,दक्षिण,मध्य,पश्चिम भारत के अलावा वे बहुत बड़ी तादाद में बांग्लादेश से सटे असम और त्रिपुरा में बस गये हैं।ये लोग ही हिंदुत्व के एजंडे के नस्ली नरसंहार के मुताबिक चांदमारी के निशाने पर हैं।

दूसरी ओर,शरणार्थी पूर्वी बंगाल के जनपदों की तरह किसी भी जनपद में एक साथ बसे नहीं है।एकमात्र त्रिपुरा को छोड़कर सर्वत्र उनकी संख्या भी इतनी नहीं है कि वे अपने एमएलए ,एमपी,मंत्री वगैरह चुन सके।शरणार्थी सत्तापक्ष के बंधुआ वोटबैंक हैं और इस अपराध के लिए उन्हें निहत्था मरने को छोड़ने की विचारधारा हमारी नही है।

जाहिर है कि असम,त्रिपुरा,दंडकारण्य प्रोजेक्ट के अंतर्गत महाराष्ट्र, ओड़ीशा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़,ओड़ीशा और आंध्र के अलावा  उत्तर प्रदेश,उत्तराखंड में भारी संख्या में विभाजनपीड़ितों के पुनर्वास के बावजूद विभाजनपीड़ितों का राजनैतिक प्रतिनिधित्व नहीं है।उनकी विधानसभाओं या संसद में कोई आवाज नहीं है।इसलिए वे सत्तापक्ष के सहारे जीने को अभ्यस्त है चाहे इसका नतीजा कुछ भी हो।अब वे राराज्य में वानर सेना है और रामभरोसे हैं तो हम इनका क्या कर सकते हैं।

समझ लीजिये कि उन्हें बंधुआ बनाने की तकनीक कितनी भयानक है।उत्तराखंड,ओड़ीशा  और छत्तीसगढ़ जैसे छोटे राज्यों में जहां किसी विधानसभा इलाके में बंगाली या सिख पंजाबी शरणार्थी बहुस्ंख्य है,उन विधानसभा क्षेत्रों को टुकड़ा टुकड़ा बांटकर उन्हें फिर अल्पमत बना दिया गया है।

कुल मिलाकर हलात यह है कि सत्तादल और स्थानीय जनता के समर्थन के बगैर कहीं भी विभाजनपीड़ितों के जिंदा रहने के हालात नहीं है।

नतीजतन हमेशा शरणार्थी जीतने वाली पार्टी के साथ अपने गहरे असुरक्षाबोध की वजह से मुसलमानों की तरह एकमुश्त वोट करते हैं। इसी वजह से महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश,उत्तर प्रदेश,उत्तराखंड में इसी वजह से हिंदू शरणार्थी संघ परिवार का वोटबैंक है।बंगाल में भी हालत वहीं बन रही है जो असम में बन चुकी है।

चूंकि पंजाब और बंगाल के विभाजन पीड़ितों में विभाजन के बाद से विभाजन के लिए कांग्रेस और मुस्लिम लीग को जिम्मेदार ठहराने की मानसिकता कभी बदली नहीं है तो हिंदू हितों की दलीलों और हिंदुत्व एजंडा की वजह से पंजाब के अकालियों की तरह बंगाल में भी शरणार्थियों का सुर से केसरियाकरण हो गया है।

बंगाल से बाहर हिंदू बंगाली शरणार्थी हांलाकि कांग्रेस की जीत के वक्त कांग्रेस के हक में वोट करते हैं,जैसे ऐसा मुसलमान भी करते हैं,लेकिन जनसंघ से लेकर भाजपा जमाने तक हवा बदलते ही वे हिंदुत्व के एजंडे के हक में खड़े हो जाते हैं।

असम में अपनी सुरक्षा के लिए पहले कांग्रेस फिर असम गण परिषद को वोट देते रहने के बाद इस बार पहली बार भारत की नागिकता की उम्मीद में नागरिकता वंचित हिंदू बंगाल शरणार्थियों ने एकमुश्त संघ परिवार को वोट देकर उनकी सत्ता सुनिश्चित की है।

हिंदुओं को नागरिकता देने के झूठे संघी वायदे के फेर में बंगाल में भी शरणार्थी और मतुआ वोट बैंक अब संघ परिवार के साथ हैं।यूपी और उत्तराखंड में कमोबेश समीकरण वही है।शरणार्थी वोटबैंक की वजह से उत्तराखंड की तराई में संघ परिवार को बढ़त है।यूपी में भी पीलीभीत ,बहराइच,खीरी जैसे जिलों में यही हालत है।

अब जबकि असम में संघ परिवार के अल्फाई राजकाज के निशाने पर बंगाली हिंदू शरणार्थी हैं,तो यूपी और उत्तराखंड के शरणार्थियों को आसन्न विधानसाभा चुनावों में वोट डालने से पहले जरुर सोचना चाहिए कि वे किस हिंदुत्व के एजंडे के हक में वोट डाल रहे हैं।आगे देशभर में संघ परिवार उनका क्या करनेवाले हैंं।

गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ में भी संघी राजकाज के अंतर्गत बंगाली भगाओ अभियान चालू है तो उत्तराखंड में भी नयी नागरिकता कानून बनने से पहले उत्तराखंड की पहली भाजपा सरकार नें बंगाली शरणार्थियों को भारतीय नागरिक मानने से इंकार कर दिया था।

तब उत्तराखंड के पहाडो़ं और मैदान के सभी वर्गों,मीडिया और गैरभाजपाई दलों के समर्थन में बंगाली शरणार्थियों के आंदोलन की वजह से भाजपा सरकार को पीछे हटना पड़ा था।विडंबना यह है कि बंगाली शरणार्थी वह हादसा भूलकर फिर चुनावी मौसम में केसरिया खेमे में हैं।

इस पर तुर्रा यह किअसम सिर्फ बंगालियों और मुसलमानों के लिए ही नहीं,हिंदी भाषियों, बिहारियों, राजस्थानियों के साथ साथ असुरक्षित है।साठ के दशक में असम में बंगाली भगाओ दंगे हुए तो राजस्थानियों और हिंदी भाषियों के खिलाफ भी वहां दंगे होते रहे हैं।कब असम में किस समुदाय के खिलाफ दंगा होना है,इसका फैसला भी मजहबी सियासत करती है और अंजाम देने की जिम्मेदारी उल्फाई उग्रवाद की है।

साठ के दशक के दंगों के दौरान मेरे पिताजी पुलिनबाबू ने दंगापीड़ित असम के हर जिले में शरणार्थियों के साथ थे और उन्होंने असम छोड़ने से उन्हें रोकने में भी कामयाबी पायी।वे तभी से मानते रहे हैं कि असम में इस दंगाई सियासत के पीछे संघ परिवार है।वे मानते रहे हैं कि असम के विदेशी नागरिकों के खिलाफ अस्सी के दशक में आसु और अगप के आंदोलन में संघ परिवार की खास भूमिका रही है।तमाम नामी संघी स्वयंसेवक असम में दंगा भड़काने का काम करते रहे हैं।

अस्सी के दशक से ही पुलिनबाबू लगातार देशभर में शरणार्थियों को संघ परिवार के हिंदुत्व के इस एजंडा के खिलाप चेतावनी देते हुए उनकी नागरिकता छिनने की आशंका जताते रहे हैं।लेकिन शरणार्थी जन्मजात नागरिकता की खुशफहमी में उन्हें नजरअंदाज करते रहे।

जून,2001 में उनकी मृत्यु के तत्काल बाद उत्तराखंड राज्य यूपी से अलग हो गया और वहां पहली सरकार भाजपा की बनते ही 1952 से तराई को आबाद करके तराई में  सिख और पंजाबी शरणार्थियों के साथ पुनर्वासित तमाम बंगाली विभाजनपीड़ित शरणार्थियों को विदेशी घुसपैठिया करार दिया और इसी के साथ केंद्र में बनी पहली हिंदुत्व की सरकार के गृहमंत्री लौह पुरुष रामरथी लालकृष्ण आडवाणी ने 2003 में विदेशी घुसपैठियों के खिलाफ नागरिकता संशोधन विधेयक के तहत जन्मजात नागरिकता खारिज करते हुए देश भारत में बसाये गये बंगाली हिंदू शरणार्थियों की नागरिकता छीन ली।

धोखाधड़ी की हद है कि 1955 के संशोधित कानून नागरिकता संशोधन कानून के प्रावधानों में संसोधन करके हिंदुओ को नागरिकता देने की बात कही जा रही है। जबकि 1955 के कानून में शरणार्थियों की नागरिकता में कोई बाधा थी ही नहीं।

खासकर दंडकारण्य के खनिजबहुल इलाकों में आदिवासियों को सलवा जुड़ुमे के जरिये बेदखल करने के बाद वहां आदिवासियों के साथ बसाये गये शरणार्थियों की नागरिकता छीनकर पूरा दंडकारण्य देशी विदेशी पूंजी को सौंपने का चाकचौबंद इतंजाम नया नागरिकता कानून है,जो संग परिवार बदलने वाला नहीं है।इसलिए नया नागरिकता संशोधन विधेयक ऐसे बनाया गया हो जो संसद में पास होना असंभव है।लेकिन इस प्रस्तावित विधेयक के जरिये संघ परिवार को हिंदुओं के ध्रूवीकरण का खतरनाक वीभत्स खेल सुरुकरने का मोका मिला है और असम है।

अब मजे की बात यह है कि वही संघ परिवार,वही भाजपा,वही केसरिया सरकार उसी संशोधित नागरिकता कानून में विशेष प्रावधान के तहत हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता देने के वायदे के साथ असम और दूसरे राज्यों में मुसलमानों के खिलाफ दंगाई मजहबी सियासत में लगी है और बंगाली हिंदू शरणार्थियों को भी खदेड़ने का इंतजाम कर रही हैतो इसे न मुसलमान समझ पा रहे हैं और न हिंदू,न असम के लोग और न यूपी बिहार वाले या देश के तमाम दूसरे नागरिक या राजनीतिक दल।यह भी एक निहायत लक्ष्यबेधक सर्जिकल स्ट्राइक है और नोटबंदी की तरह निशाने पर देश की सरहदों के भीतर देस की अपनी गरीब बेबस जनता है।

सिर्फ असम नहीं,महाराष्ट्र में भी भगवा केसरिया राजकाज के अंतर्गत बंगालियों के अलावा यूपी के भइयों और बिहारियों के खिलाफ हिंसा भड़काना संघ परिवार का हिंदुत्व है।यूपी बिहार के लोग असम और महाराष्ट्र दोनों जगह भगवा केसरिया बजरंगवलियों के निशाने पर हैं।लेकिन बंगाली शरणार्थियों की तरह यूपीवालों और बिहारवालों को भी संघ परिवार के हिंदुत्व के एजंडे से खास परहेज नहीं है।इसीलिए बेहिचक यूपी जीतने के लिए नोटबंदी हो गयी क्योंकि यूपीवालों को बुड़बक समझकर छप्पन इंच का सीना और चौड़ा है।ट्रंप की वजह से पिछवाड़ा भी मजबूत है।

संघ परिवार को तिरंगा से ऐतराज है और जन गण मन की जगह संघ परिवार वंदे मातरम्  को ही भारतीयता का संगीत मानता है।संघ परिवार हिंदू राष्ट्र रामराज्य भारत का झंडा भगवा बनाने का शुरु से पक्षधर रहा है और वह हिंदुत्व का प्रतीक भगवा झंडा भी बताता रहा है ,जो भारतीय इतिहास में कहीं लहराता दिखा नहीं है।

इसीलिए राजकाज की सर्वोच्च प्राथमिकता इतिहास बनान नहीं,इतिहास बदलना है ताकि उनके धतकरम को भारतीयता साबित किया जा सके।

गौरतलब है कि तथागत गौतम बुद्ध की क्रांति के बाद ब्राह्मण धर्म के पहले पुनरुत्थान महाराष्ट्र में ब्राह्मण पेशवा राज का यह भगवा झंडा संघ परिवार का असल एजंडा है।वही पेशवाराज,जिसकी लुटेरी सेना ने बंगाल,ओड़ीशा और बिहार के साथ साथ यूपी में भी लूटपाट तबाही मचाई थी।

चंगेज खान और तैमूर का इतिहास बांचने वाले पेशवा राज को भारत का भविष्य बनाने चला है।चूंकि मनुस्मृति विधान संविधान है संघ परिवार का।

दरअसल किस्सा यह है कि  असम में सत्ता हासिल करने के लिए असम में  बसे हिंदू बंगाली विभाजनपीड़ितों  का समर्थन लेने के लिए उन्हें भारतीय नागरिकता देने के वादे की वजह से भारतीय जनता पार्टी बुरी तरह फंस गई है।

असम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल की अल्फाई पृष्ठभूमि जगजाहिर है वे सिरे से बंगाली हिंदुओं के खिलाफ रहे हैं।हमने शरणार्थी नेताओं को बार बार इसकी चेतावनी दी है।बंगाली वोट के लिए हिंदुओं को नागरिकता देने का वायदा करके बंगाली हिंदू शरणार्थियों का मसीहा बनने की कोशिश में सोनोवाल बुरी तरह उलझ गये है।उनके अल्फाई पृष्ठभूमि अब उनकी सत्ता के लिए चुनौती बन गयी है।

मूल रूप से असम में आने वाले पूर्वी बंगाल और बाद में बांग्लादेश से आये  हिंदू बंगालियों को नागरिकता देने के झूठे मकसद से असम और पूर्वी भारत,पूर्वोत्तर भारत के साथ साथ बंगाल में भी पेशवाई भगवा लहराने के एजंडे के साथ तैयार फर्जी नागरिकता (संशोधन) विधेयक सत्तारुढ़ भाजपा के लिए गले की हड्डी बनता जा रहा है।

इस परिस्थिति से घनघोर उल्फाई सियासत और राजकाज के तेवर में  असम के मुख्यमंत्री सोनोवाल दुधारी तलवार पर टहलने लगे हैं ।एक ही सुर में वे मूलनिवासी असमिया नागरिक और हिंदू बंगाली शरणार्थी हित में जब तब हुंकारा भर रहे हैं तो दूसरी तरफ सरकार और प्राशासन की तरफ से पूरे असम को हिटलर के यातनागृह में बदल रहे हैं।नतीजा वही है,जो जर्मनी में यहूदियों का हुआ था।

हम शरणार्थियों की आम सभाओं में भी इस बारे में चेताते रहे हैं कि बंगाली शरणार्थियों को संघ परिवार कभी हिंदू नहीं मानता रहा है क्योंकि वे सारे के सारे अछूत या पिछडे हैं जो बंगाल समेत देश भर में ब्राह्मण और सवर्ण जमींदारों के साथ साथ ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ पेशवा को हरानेवाली महार सेना की तरह हर आदिवासी और किसान विद्रोह के लड़ाका  रहे हैं और भूमि सुधार का एजंडा भी मतुआ आंदोलन का है तो तेभागा आंदोलन की ताकत भी ये ही थे।

इसके अलावा अविभाजित बंगाल में ब्राह्मणतांत्रिक सत्ता वर्ग और जमींदारों, नबाव के खिलाफ अछूत, पिछड़े,आदिवासी और मुसलमान प्रजाजन एक साथ थे।

मुश्किल यह है कि पूर्वी बंगाल और पश्चिम बंगाल के बुद्धिजीवी भारत विभाजन के लिए जिन्ना, गांधी और नेहरु को जिम्मेदार मानते हैं और हिंदू महासभा और संघ परिवार,एनसी चटर्जी और श्यामाप्रसाद मुखर्जी के भारत विभाजन में निर्णायक भूमिका की चर्चा भी नहीं  करते।

भारत विभाजन का इतिहास भी जमींदारी नजरिये से लिखा गया है।

हिंदू महासभा ने भारत विभाजन के लिए पूंर्वी बंगाल में सात सौ से ज्यादा बैठकें   की थी।श्यामा प्रसाद मुखर्जी का तो यह भी कहना था कि भारत का विभाजन हो या न हो,बंगाल का विभाजन जरुर होगा क्योंकि हिंदू समाज के तलछंट अछूतों का वर्चस्व बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।

गौरतलब है कि अविभाजित बंगाल की तीनों सरकारें मुसलमानों के नेतृत्व में थीं,जिनमें बैरिस्टर मुकुंद बिहारी मल्लिक और जोगेंद्रनाथ मंडल के किरदार खास थे।

विडंबना है कि शिड्युल्ड कास्ट फेडरेशन में अंबेडकर और जोगेंद्रनाथ मंडल की युगलबंदी थी।जिस बंगाल ने बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर को संविधान सभा के लिए निर्वाचित किया,भारत विभाजन के बाद पश्चिम बगाल और बाकी देश में छितरादिये गये बंगाली शरणार्थी बहुजनों में वे बाबासाहेब और जोगेंद्रनाथ मंडल खलनायक हैं।

नागरिकता संशोधन विधेयक पास करने के बाद सिर्फ हिंदुओं को नागरिकता देने के लिए उसी संशोधित नागरिकता कानून को 1955 का मूल नागरिकता कानून बताकर हिंदुओं के लिए नागरिकता के बहाने फिर संघ परिवार ने असम,बंगाल,त्रिपुरा और समूचे पूर्वी पूर्वोत्तर भारत में एक बार फिर हिंदू और मुसलमान विभाजनपीड़ितों का बंटवारा करके भविष्य में पूर्वी बंगाल की तर्ज पर मुस्लिम दलित गठबंधन के जरिये यूपी बिहार की तरह समाजिक बदलाव की संभावना में बारुदी सुरंग लगाने के साथ साथ बंगाल जीतने के मास्टर प्लान के साथ पूरब और पर्वोत्तर के दंगाई केसरियाकरण का हिंदुत्व का यह विध्वंसकारी एजंडा बनाया है।

अब हिंदुओं को नागरिकता देने के वायदे से उल्फाई बंगाली विरोधी तत्व सोनोवाल के खिलाफ हो गये हैं तो सरकारी गैरसरकारी दोनों तरीके से बंगाली हिंदू विभाजनपीड़ितों का असम में उत्पीड़न तेज होता जा रहा है।अब असम में विभाजनपीड़ितों के लिए बांग्लादेश या पाकिस्तान से भी खतरनाक माहौल है।

असम और बाकी देश में हिंदुत्व के बहाने हिंदू और मुसलमान विभाजनपीड़ितों में फर्क करके दोनों को नागरिकता से वंचित रखने की सियासत ने हिंदू और मुसलमान शरणार्थियों का ध्रूवीकरण कर दिया है और यही ध्रूवीकरण संघ परिवार का बंगाल जीतने का मास्टर प्लान है तो यह भयंकर खूनी दंगाई सियासत उससे ज्यादा है,जिसके शिकार असम,त्रिपुरा और बाकी भारत में विभाजनपीड़ितों के साथ साथ रोजगार और आजीविका के लिए गृह प्रदेश से बाहर जाने को मजबूर भारतीय नागरिक उसी तरह होंगे जैसे नागरिकता कानून बदलने के बाद अभूतपूर्व रोजगार संकट की वजह से बंगाल के हर जिले से निकले मेहनतकश बंगाली भारतीय नागरिक और उनके साथ साथ यूपी बिहार के लोग होते रहे हैं और होंगे।

इसके विपरीत शरणार्थी और उनके नेता इस संकट से निबटने के लिए अब भी  संघ परिवार के रहमोकरम के भरोसे हैं और देश भर में ये शरणार्थी ही संघ परिवार की बजरंगी पैदल सेना में दलितों और पिछड़े के साथ मुसलमानों के खिलाफ लामबंद हैं।

हम लगातार चेतावनी देते रहे हैं कि संघ परिवार को हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता देनी थी,तो संघ परिवार उनकी नागरिकता छीनता ही क्यों?

कांग्रेस और मुसलमानों को भारत विभाजन के दोषी मानने की मानसिकता की वजह से न नेता और न आम बंगाली शरणार्थी हमारी कोई दलील सुन रहे हैं।

हम पहले से आम सभाओं मे  लगातार ट्रंप की ताजपोशी के बाद दुनियाभर में नस्ली नरसंहार अभियान के तहत शरणार्थियों के खिलाफ तेज होने वाले नस्ली हमलों की चेतावनी दी है।हमारी चेतावनी किसीको पंसद नहीं आयी।

चूंकि नाइन इलेविन के बाद अमेरिकी हितों के मुताबिक दुनियाभर में नागरिकता कानून बदला है और उसी सिलसिले में इजराइल और अमेरिकी रणनीतिक साझेदारी के तहत अमेरिकी और विदेशी पूंजी के हित में अबाध बेदखली के लिए आधार योजना के तहत  1955 से नागरिकता कानून बदलकर जन्मजात नैसर्गिक नागरिकता का प्राऴधान खत्म किया गया है तो यह समझने वाली बात है कि डान डोनाल्ड ट्रंप की शरणार्थी और आप्रवासी विरोधी राजकाज और राजनय का असर बाकी दुनिया के हर हिस्से में और खासकर भारत में कितना और कैसा होना है।

जाहिर है कि राष्ट्रीयता का सवाल उलझने वाला है और क्षेत्रीय अस्मिता भारी पड़ने वाली है।शरणार्थियों से कहीं ज्यादा विस्थापित तो देश के अंदर है।आदिवासी भूगोल के सलवा जुडुम को छोड़ ही दें,बाकी भारत में हिमालय से लेकर समुंदर तक में विस्थापन का मंजर असल में शरणार्थी समस्या है और ट्रंप के रंगभेदी राजकाज के मुताबिक हिंदुत्व का एजंडा विशुद्ध नरसंहार संस्कृति है।खतरनाक बात यह है कि बहुसंख्यहिंदुओं की आस्था भी वही बन गयी है और जनादेश भी वही है।फासिज्म के राजकाज का लोकतंत्र और संविधान यही है।

सबसे खतरनाक है कि भारतीयता और राष्ट्रीय एकात्मकता की डंका पीटने वाले संघ परिवार का  हिंदुत्व एजंडा क्षेत्रीय अस्मिता उग्रवाद के साथ नत्थी है।

जाहिर है कि असम और पूर्वोत्तर के उग्रतम क्षेत्रीयतावाद, पंजाब में अकाली राजनीति और महाराष्ट्र गुजरात में भगवा आतंकवाद,यूपी में फर्जी मुठभेड़ और छत्तीसगढ़ के सलवा जुड़ुम का रिमोट कंट्रोल नागपुर के संस्थागत मुख्यालय में है।

बहरहाल असम  के ताकतवर छात्र संगठन अखिल असम छात्र संघ (आसू) समेत कोई तीन दर्जन संगठन हिंदू बंगाली शरणार्तियों को नागरिकता देने  का लगातार विरोध कर रहे हैं। दूसरी  ओर,कोई 15 साल तक असम में  सत्ता में रही कांग्रेस असम समझौते को लागू करने की मांग कर रही है। इसके तहत वर्ष 1971 से पहले असम आने वालों को ही नागरिकता देने का प्रावधान है।

अब ताजा नागरिकता संसोधन  विधेयक में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले हिंदुओं को भी नागरिकता देने का प्रावधान है। लेकिन इसका जबरदस्त विरोध शुरू हो गया है। असम की राजनीति पहले से ही बांग्लादेशी घुसपैठ के इर्द-गिर्द घूमती रही है।इसी मुद्दे पर अस्सी के दशक में असम आंदोलन भी हो चुका है।जिसकी कमान बी संघपरिवार के हाथ में है।उसी आंदोलन की उपज सोनोवाल हैं।

बहरहाल हिंदू शरणार्थी अपनी नागरिकता के लिए जाहिरा तौर पर इस बिल का समर्थन कर रहे हैं।लेकिन शंघपरिवार इस बिल को लेकर कतई गंभीर नहीं है।बिल को लेकर उसने शतरंज की बाजी बिछा दी है और अब महाभारत है।

गौरतलब है कि जुलाई में नागरिकता अधिनियम, 1955 के कुछ प्रावधानों में संशोधन के लिए पेश विधेयक फिलहाल संसद की स्थायी समिति के पास विचारधीन है। प्रस्तावित संशोधन के मुताबिक, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से बिना किसी वैध कागजात के भाग कर आने वाले गैर-मुसलमान आप्रवासियों को भारत की नागरिकता दे दी जाएगी। इसके दायरे में ऐसे लोग भी शामिल होंगे जिनका पासपोर्ट या वीजा खत्म हो गया है। प्रस्तावित संशोधन के बाद अब उनको अवैध नागरिक या घुसपैठिया नहीं माना जाएगा।

अब असम की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के अलावा ताकतवर छात्र संगठन अखिल असम छात्र संघ (आसू) और असम में सोनोवाल की अगुवाई वाली बीजेपी सरकार की सहयोगी रही असम गण परिषद (अगप) के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल महंत नागरिकता अधिनियम में प्रस्तावित संशोधन के खिलाफ मुखर हैं।

राज्य के साहित्यिक संगठनों और बुद्धिजीवियों ने भी इसके खिलाफ आवाज उठाते हुए अंदेशा जताया है कि इससे असम के स्थानीय लोगों पर पहचान का संकट पैदा हो जाएगा।

इसी पृष्ठभूमि में साठ दशक के बाद फिर बंगाली हिंदू शरणार्तियों को असम छोड़ने की उल्फाई मुहिम नये सिरे से शुरु है।


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