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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, February 26, 2017

बाजार और कारपोरेट के खिलाफ जुबान खोलने में जिनकी औकात तक नहीं है,वे हारे या जीते तो उससे हमें क्या लेना देना? कोई अंक मिस किये बिना महिला पत्रिका उत्तरा के सत्ताइस साल पूरे हो गये!महिला आंदोलन का सिलसिला भी उत्तराखंड में कभी थमा नहीं है.निरंतर जारी है। बाकी देश में भी जितनी जल्दी हो सके, महिला नेतृ्त्व की खोज हम करें क्योंकि महिलाओं के आंदोलन और जन प्रतिरोध में उनके नेतृत्व से ही इस

बाजार और कारपोरेट के खिलाफ जुबान खोलने में जिनकी औकात तक नहीं है,वे हारे या जीते तो उससे हमें क्या लेना देना?

कोई अंक मिस किये बिना महिला पत्रिका   उत्तरा के सत्ताइस साल पूरे हो गये!महिला आंदोलन का सिलसिला भी उत्तराखंड में कभी  थमा नहीं है.निरंतर जारी है।

बाकी देश में भी जितनी जल्दी हो सके, महिला नेतृ्त्व की खोज हम करें क्योंकि महिलाओं के आंदोलन और जन प्रतिरोध में उनके नेतृत्व से ही इस अनंत गैस चैंबर की खिड़कियां खुली हवा के लिए खुल सकती हैं।

पलाश विश्वास

इन दिनों राजीव दाज्यू लातिन अमेरिका में हैं।आज अरसे बाद शेखरदा (शेखर पाठक)से बात हो सकी।शेखरदा के मुताबिक राजीवदाज्यू अगले हफ्ते तक नैनीताल वापस आ जायेंगे।रिओ से राजीवदाज्यू ने फेसबुक पर कर्णप्रयाग में मतदान टल जाने से इंद्रेश मैखुरी को जिताने के लिए एक अपील जारी की है तो शेखर ने भी बताया कि यह विधानसभा में जनता की आवाज बुलंद करने का आखिरी मौका है।

इस बारे में शेखरदा से मैंने पूछताछ की तो उन्होंने बताया कि तमाम लोग कर्णप्रयाग जा रहे हैं।हमने जीत की संभावना के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि चुनाव जीतने की तैयारियां कुछ अलग किस्म की होती हैं,जिसमें बड़े दलों की ताकत का मुकाबला करके सही आदमी को जितना बेहद मुश्किल होता है। वे एकदम जमीन पर खड़े बिना भावुक हुए हकीकत बता रहे थे।

शेखर दाज्यू सही बता रहे हैं।चुनाव जीतने के लिए,चुनाव जीतकर सत्ता हासिल करने के लिए बाजार और कारपोरेट पूंजी का सक्रिय समर्थन अनिवार्य हो गया है।सारे के सारे राजनीतिक दल कारपोरेट फंडिंग से चलते हैं।बाजार और कारपोरेट हितों के खिलाफ कोई इसीलिए बोलता नहीं है।

अब तमाम बुनियादी सेवाएं और जरुरतें,आम जनता खास तौर पर मेहनतकशों के हक हकूक,भुखमरी,शिक्षा, चिकित्सा ,बिजली पानी जैसी अनिवार्य सेवाएं,जल जंगल जमीन और पर्यावरण के मुद्दे,भुखमरी,बेरोजगारी,मंदी वित्तीय प्रबंधन और अर्थव्यवस्था से जुड़े कारपोरेट हित और मुनाफाकोर बाजार की शक्तियों के हितों से टकराने वाले मुद्दे हैं।सुधार का मतलब है संसाधनों की खुली नीलामी ,निजीकरण और बेइंतहा बेदखली ,छंटनी और कत्लेआम।

जाहिर है कि इनसे चूंकि टकरा नहीं सकते,परस्पर विरोधी आरोप प्रत्यारोप, किस्से,सनसनी,जुमले,फतवे से लेकर तमाम रंग बिरंगी पहचान,बंटवारे चुनावी मुद्दे हैं।

बुनियादी मसलों पर बोलने वाले लोग चूंकि बाजार और कारपोरेट, प्रोमोटर, बिल्डर, माफिया और उनके हितों के प्रवक्ता मीडिया के खिलाफ खड़े हैं तो इन हालात में इंद्रेश जैसे किसी शख्स को जिताकर किसी विधानसभा या लोकसभा में जनता की चीखेों के बुलंद आवाज में गूंज बन जाने की कोई संभावना फिलहाल नहीं है।

भारतीय लोकतंत्र की विडंबना यही है कि संविधान निर्माताओं के सपनों के भारत के आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक धार्मिक नस्ली समानता,विविधता,बहुलता पर बात करना,मेहनतकशों के हकहकूक की आवाज बुलंद करना,बुनियादी मुद्दों पर बात करना,कानून के राज और भारतीय संविधान के प्रावधानों,नागरिक मानवाधिकारों की बात करना,संघीय ढांचे के मुताबिक  जनपदों और अस्पृस्य भूगोल की बात करना,जल जंगल जमीन पर्यावरण जलवायु मौसम के बारे में बात करना देशद्रोह है।

भारतीय लोकतंत्र की विडंबना यही है कि उत्पीड़न,दमन और अत्याचार के निरंकुश माफियाराज औन फासिज्म के नस्ली राजकाज के खिलाफ आवाज उठाना राष्ट्रद्रोह हैं।यही अंध राष्ट्रवाद है तो यही हिंदुत्व का कारपोरेट ग्लोबल एजंडा है,जिसके खिलाफ मेहनतकशों की मोर्चाबंदी अभी शुरु हुई नहीं है और हवा हवाई तलवार भांजते रहने से इस प्रलयंकर सुनामी के ठहर जाने के आसार नहीं है।

ऐसे विषम पर्यावरण में चुनावी मौसम से कयामत की फिजां बदल जाने की संभावना के बारे में उम्मीद न ही करें तो बेहतर।

अब यूपी के चुनाव के लिए पांचवें दौर का मतदान होना है और बाकी दो चरणों के मतदान भी जल्दी निबट जायेंगे।

बंगाल में हर कहीं लोग यूपी में क्या होने वाला है,जानना चाहते हैं।मैं उन्हें यही बता रहा हूं कि जुमलों और पहचान की राजनीति में मतदाता किसी भी धारा में बह निकल सकते हैं और अब  2014 की सुनामी और उसके बाद के छिटपुट झटकों के अनुभवों के मद्देनजर कहा जा सकता है कि हालात खास बदलने वाले नहीं है क्योंकि आर्थिक मुद्दों पर बात करने के लिए भारतीय लोकतंत्र में कोई बात करने को तैयार नहीं है और बाजार और कारपोरेट के खिलाफ जुबान खोलने में जिनकी औकात तक नहीं है,वे हारे या जीते तो उससे हमें क्या लेना देना?

सामंतवाद,साम्राज्यवाद,पूंजीवाद,विनिवेश,निजीकरण,बजट,रोजगार,रक्षा व्यय,संसाधनों की लटखसोट और नीलामी पर अब कोई विमर्श नहीं है।

जाहिर है कि आम जनता के हितों की परवाह किसी को नहीं है ,सबको चुनावी समीकरण साध कर सत्ता हासिल करने की पड़ी है।विचारधारा गायब है।

जाहिर है कि चाहे कोई भी जीते,जीतकर वे फासिज्म के राजकाज को मजबूत नहीं करेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है।इतिहास गवाह है कि किसी सूबेदार की हुक्म उदुली की नजीरें बेहद कम है।चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान सूबेदारी का जलवा यूपी की जनता ने भी कम नहीं देखा है।चेहरा बदल जाने से हालात नहीं बदलेंगे।

संघीय ढांचे की अब कारपोरेट राजनीतिक दलों को भी परवाह नहीं है।जाहिर है कि राष्ट्र में सत्ता के नई दिल्ली में लगातार केंद्रीयकरण और निरंतर तेज हो रहे आर्थिक सुधारों के बाद किसी राज्य में केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ राजकाज या कानून के राज की कोई संभावना नहीं है।

यूपी जैसे,बिहार जैसे,महाराष्ट्र जैसे,बंगाल और तमिलनाडु,मध्यप्रदेश जैसे घनी आबादीवाले राज्यों के लिए भी विकास के बहाने केंद्रे सरकार के जनविरोधी कारपोरेट हिंदुत्व के एजंडे से नत्थी हो जाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प सत्ता में बने रहने का नहीं है।छोटे राज्यों की तो बात ही छोड़ दें।इसीलिए केसरियाकरण इतना तेज है।

जनता के हक में राजनीति खड़ी नहीं हो रही है तो जनता को हक है कि वे चाहे जिसे जिताये।इससे अब कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।

बंगाल में हम परिवर्तन का नजारा देख रहे हैं तो दक्षिण भारतीय राज्यों और पूर्वोत्र में खुल्ला खेल फर्रूखाबादी है।

बहरहाल नैनीताल जब भी जाता रहा हूं ,शेखरदा या उमा भाभी के बाहर ही रहने से मुलाकात हो नहीं सकी है।आज पहाड़ के ताजा अंक के बारे में पूछताछ के सिलसिले में दिल्ली में फिल्मवाले प्राचीन दोस्त राजीव कुमार से बात हुई तो उनने एसएमएस से शेखर दा का नंबर भेज दिया।फटाक से नंबर लगाया तो पता चला दा अभी अभी नैनीताल पधारे हैं।लंबी बातचीत हुई है।

अभी अभी शंकरगुहा नियोगी पर डा.पुण्यव्रत गुण की किताब का अनुवाद किया है तो छत्तीसगढ़,उत्तराखंड और झारखंड के पुराने तमाम साथी खूब याद आते रहे।

शेखर ने बताया कि उत्तरा के सत्ताइस साल पूरे हो गये।उत्तरा की शुरुआत से पहले उमा भाभी मेरठ में हमारे डेरे पर चर्चा के लिए आयी थीं।उस वक्त कमला पंत भी मेरठ में ही थीं।उमा भाभी रुपीन के साथ आयी थी।रुपीन टुसु से छोटी है।दोनों उस वक्त शिशु ही थे।शेखर दा ने बताया कि रुपीन भी नैनीताल आयी है और उसने पीएचडी की थीसिस जमा कर दी है।सौमित्र कैलिफोर्निया में है।

उत्तरा के बिना किसी व्यवधान बिना कोई अंक मिस किये लगातार सत्ताइस साल तक निकलने की उपलब्धि वैकल्पिक मीडिया और लघु पत्रिका आंदोलन दोनों के लिए बेहद बुरे दिनों के दौर में उम्मीद की किरण है।

उत्तराखंड की जनपक्षधर महिला आंदोलनकारियों की पूरी टीम अस्सी के दशक से सक्रिय हैं और उनकी सामाजिक बदलाव के लिए रचनात्मक सक्रियता का साझा मंच उत्तरा है।गीता गैरोला,शीला रजवार,बसंती पाठक,नीरजा टंडन,कमला पंत, डा.अनिल बिष्ट जैसी अत्यंत प्रतिभाशाली मेधाओं की टीम के नेतृ्त्व में उत्तराखंड के कोने कोने में  ने निरंतर सक्रियता जारी रखकर बुनियादी मुद्दों और मसलों को लेकर मेहनतकशों की हक हकूक की लड़ाई,जल जंगल जमीन की लड़ाई,शराबबंदी आंदोलन, पर्यावरण आंदोलन,पृथक राज्य आंदोलन,रोजगार आंदोलन,भूकंप,भूस्कलन,बाढ़ जैसे आपदाकाल में राहत और बचाव अभियान में उत्तराखंड का नेतृत्व किया है।

मणिपुर और आदिवासी भूगोल के अलावा सामाजिक बदलाव के लिए निरंतर पितृसत्ता की चुनौतियों का बहादुरी से मुकाबला करके निरंतर सक्रियता और निरंतर आंदोलन से जुड़ी इन दीदियों और वैणियों से मेरे निजी पारिवारिक संबंध रहे हैं,इसलिए यह मेरे लिए बेहद खुश होने का मामला है।

इसके साथ बोनस यह है कि पहाड़ के अंक भी लगातार निकल रहे हैं और तमाम आशंकाओं को धता बताकर नैनीताल समाचार का प्रकाशन अभी जारी है।

बंगाल में ममता बनर्जी के लाइव शो के बाद रोज निजी अस्पतालों के लूट खसोट के बर्बर किस्से सामने आ रहे हैं।लेकिन इसके खिलाफ कोई जन आंदोलन असंभव है क्योंकि कारपोरेट पूंजी के खिलाफ  मैदान में डट जाने वाला कोई राजनीतिक दल अभी बचा नहीं है।बंगाल में मजदूर आंदोलन भी बंद कल कारखानों की तरह अब खत्म है।महिला,छात्र युवा आंदोलन भी तितर बितर है।

अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रंप की ताजपोशी के दिन दुनियाभर में और अमेरिका के शहरों में महिलाओं ने जो अभूतपूर्व मार्च किया और अमेरिका में नस्ली राजकाज के खिलाफ जन प्रतिरोध का नेतृत्व जिस तरह महिलाएं कर रही हैं, मणिपुर और आदिवासी भूगोल की तरह उत्तराखंड में जन पक्षधर महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं की निरंतर सक्रियता और उनकी पत्रिका उत्तरा के लगातार सत्ताइस साल पूरे हो जाने से उम्मीद की किरण नजर आती है।

बाकी देश में भी जितनी जल्दी हो सके,महिला नेतृ्त्व की खोज हम करें क्योंकि महिलाओं के आंदोलन और जन प्रतिरोध में उनके नेतृत्व से ही इस अनंत गैस चैंबर की खिड़कियां खुली हवा के लिए खुल सकती हैं।


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