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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, June 25, 2017

आपातकाल में अंधेरा था तो रोशनी भी थी,अब अंधेरे के सिवा कुछ भी नहीं है! जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है। स्वयंसेवक राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता भारतीय संविधान और लोकतंत्र के बजाय मनुस्मृति व्यवस्था के प्रति होगी,जो बहसंख्य निनन्याब्वे फीसद जन गण के लिए मौत की घंटी होगी। यह राष्ट्र अब युद्धोन्मादी सैन्य राष्ट्र है। स्�

आपातकाल में अंधेरा था तो रोशनी भी थी,अब अंधेरे के सिवा कुछ भी नहीं है!

जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है।

स्वयंसेवक राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता भारतीय संविधान और लोकतंत्र के बजाय मनुस्मृति व्यवस्था के प्रति होगी,जो बहसंख्य निनन्याब्वे फीसद जन गण के लिए मौत की घंटी होगी।

यह राष्ट्र अब युद्धोन्मादी सैन्य राष्ट्र है। स्वयंसेवकों की हैसियत से राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री इसके कर्णधार हैं।ऐसी परिस्थिति किसी भी तरह के आपातकाल से भयंकर हैं।

पलाश विश्वास

आज आदरणीय आनंद स्वरुप वर्मा ने समकालीन तीसरी दुनिया में प्रकाशित आपातकाल से संबंधित सामग्री शेयर किया है।

इसके अलावा प्रधान स्वयंसेवक ने अपनी अमेरिका यात्रा के मध्य देश की जनता से मंकी बातें की हैं।

सोशल मीडिया में उनके करोड़ों फालोअर है और समूचा मीडिया उनका माउथ पीस है।इसलिए आपातकाल के बारे में उनकी टिप्पणी का जबाव देने की हैसियत हमारी नहीं है।

शायद यह हैसियत किसी की नहीं है।

जैसे जर्मनी में सिर्फ हिटलर को बोलने की आजादी थी,आज सिर्फ मंकी बातों की आजादी है।

दो दिन के लिए नजदीक ही अपने फुफेरे भाई के वहां उनके गांव में गया था।इधर मेरे पास अनुवाद का कोई काम भी नहीं है।कल सुबह ही लौट आया।

कल से कोशिश कर रहा हूं कि कुछ लिखूं लेकिन शब्द चूक रहे हैं।लिखना बेहद मुश्किल हो गया है।

कल शेक्सपीअर के मैकबैथ से लेडी मैकबैथ के कुछ संवाद फेसबुक पर पोस्ट किये थे।शेक्सपीअर ने यह दुखांत नाटक महारानी एलिजाबेथ के स्वर्मकाल में तब लिका था,जब शुद्धतावादी प्युरिटन आंदोलनकारियों ने लंदन में थिएटर भी बंद करवा दिये थे।

लेडी मैकबेथ अब निरंकुश सत्ता का चरित्र है और उसके हाथों पर लगे खून के दाग सात समुंदर के पानी से बी धोया नहीं जा सकता।शुद्धतावादियों का तांडव भी मध्ययुग से लेकर अब तक अखंड हरिकथा अनंत है।

आज मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में पोस्ट किया है।

शेक्सपीअर से लोकर मुक्तिबोध की दृष्टि से इस कटकटेला अंधियारे में रोशनी की खोज कर रहा हूं,लेकिन अफसोस कि रोशनी कहीं दीख नहीं रही है।

दार्जिलिंग जल रहा है और बाकी देश में कोई हलचल नहीं है।

किसानों की खुदकशी को फैशन बताया जा रहा है।

उत्तराखंड के खटीमा से भी एक किसान की खुदकशी की खबर आयी है,जो मेरे लिए बेहद बुरी खबर है।उत्तराखंड की तराई में किसानों की इतनी बुरी हालत कभी नहीं थी।

इस राष्ट्र की जनता अब जनता नहीं, धर्मोन्मादी अंध भीड़ है।सिर्फ आरोप या शक के आधार पर वे कहीं भी किसी की जान ले सकते हैं।ऐसे लोग नागरिक नहीं हो सकते।

ऐसे लोग मनुष्य भी हैं या नहीं,यह कहना मुश्किल है।

वैदिकी हिंसा की संस्कृति अब संस्थागत है,इस संस्थागत हिंसा को रोक पाना असंभव है।

राष्ट्र भी  अब कारपोरेट मुक्त बाजार है।

जब आपातकाल लगा था,उस वक्त राजनीति कारपोरेट एजंडे के मुताबिक कारपोरेट फंडिंग से चल नहीं रही थी और न ही सर्वदलीय संसदीय सहमति से एक के बाद एक जनविरोधी नीतियां लागू करके जनसंख्या सफाया अभियान चल रहा था।

गौरतलब है कि आपातकाल से पहले,आपातकाल के दौरान और आपातकाल के बाद भी प्रेस सेंसरशिप के बावजूद सूचना महाविस्फोट से पहले देश के गांवों और जनपदों से सूचनाएं खबरें आ रही थी।दमन था तो उसका प्रतिरोध भी था।

अंधेरा था,तो रोशनी भी थी।

खेती तब भी भारत की अर्थव्यवस्था थी और किसान मजदूर थोक आत्महत्या नहीं कर रहे थे।

छात्रों,युवाओं,महिलाओं,किसानों और मजदूरों का आंदोलन कभी नहीं रुका।साहित्य और संस्कृति में भी आंदोलन चल रहे थे।

देश के मुक्तबाजार बन जाने के बाद सूचना महाविस्फोट के बाद सूचनाएं सिरे से गायब हो गयी हैं।

आम जनता की कहीं भी किसी भी स्तर पर सुनवाई नहीं हो रही है।किसी को चीखने की या रोने या हंसने की भी इजाजत नहीं है।

जिस ढंग से बुनियादी जरुरतों और सेवाओं को आधार कार्ड से नत्थी कर दिया गया है,उससे आपकी नागरिकता दस अंकों की एक संख्या है,जिसके बिना आपका कोई वजूद नहीं है।न आपके नागरिक अधिकार हैं और न मानवाधिकार।आपके सपनों,आपके विचारों आपकी गतिविधियों,आपकी निजी जिंदगी और आपकी निजता और गोपनीयता पर राष्ट्र निगरानी कर रहा है।आपकी कोई स्वतंत्रता नहीं है और न आप स्वतंत्र हैं।

जिस तरीके से नोटबंदी लागी की गयी,संगठित असंगठित क्षेत्र के लाखों लोगों के हाथ पांव काट दिये गये,उनकी आजीविका चीन ली गयी और उसका कोई राजनीतिक विरोध नहीं हुआ,वह हैरतअंगेज है।

जिसतरह संघीय ढांचे को तिलांजलि कारपोरेट व्रचस्व और एकाधिकार के लिए किसानों के बाद अब कारोबारियों और छोटे मंझौले उद्यमियों का सफाया होने जा रहा है,उसके मुकाबले आपातकाल के दौरान जबरन नसबंदी के किस्से कुछ भी नहीं हैं।

आपातकाल लागू करने में तत्कालीन राष्ट्रपति से जैसे आदेशनामा पर दस्तखत करवा लिया गया,उसके मद्देनजर देश में बनने वाले पहले केसरिया राष्ट्रपति की भूमिका भी खतरनाक साबित हो सकती है।

क्योंकि प्रधानमंत्री प्रधान स्वयं सेवक हैं तो राष्ट्रपति भी देश के प्रथम नागरिक के बजाय प्रथम स्वयंसेवक होगें।

प्रधानमंत्री जिस तरह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एजंडे के मुताबिक हिदंत्व का फासीवादी रंगभेदी मनुस्मृति राजकाज चला रहे हैं,जाहिर है कि राष्ट्रपति भी भारतीय नागरिकों का राष्ट्रपति होने के बजाये संघ परिवार का राष्ट्रपति होगा।

स्वयंसेवक राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता भारतीय संविधान और लोकतंत्र के बजाय मनुस्मृति व्यवस्था के प्रति होगी,जो बहसंख्य निनन्याब्वे फीसद जन गण के लिए मौत की घंटी होगी।

यह राष्ट्र अब युद्धोन्मादी सैन्य राष्ट्र है। स्वयंसेवकों की हैसियत से राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री इसके कर्णधार हैं।ऐसी परिस्थिति किसी भी तरह के आपातकाल से भयंकर हैं।

इस सिलसिले में शुभा शुभा का यह फेसबुक पोस्ट गौर तलब हैः

यह नाज़ुक समय है।हम भारतीय जनतंत्र के अन्तिम दौर में पैर रख रहे हैं। राष्ट्रपति चुनाव के साथ ही संविधान के विसर्जन की तैयारी है। इसका इतना उत्साह 'भक्तों'में है कि औपचारिक विसर्जन से पहले ही वे हिन्दू राष्ट्र स्थापित करने निकल पड़े हैं। मध्यप्रदेश में रासुका लगाकर किसी ख़ून-ख़राबे की योजना हो सकती है ताकि किसान आन्दोलन को दफनाने का काम बिना बदनाम हुए हो सके।ईद पर और भी हत्या, ख़ून-ख़राबे की कोशिश हो सकती हैं। तनाव पैदा करने की कोशिश क ई जगह हुई है। इस समय विवेक की असली परीक्षा है। हिन्दू राष्ट्रवादी हर कोशिश करेंगे कि लोग आपस में ही निपट लें , वे अपने हत्याकांड को लोगों से करवाना चाहेंगे । हमें हत्यारे गिरोहों को अलग करके देखा होगा।आपसी यक़ीन क़ायम रखते हुए मिली जुली निगरानी कमैटी और हैल्पलाईन तैयार करनी होंगी। आइसोलेशन से बचना होगा और सामाजिक समर्थन जुटाने के उपाय करने होंगे।अब बीच में कुछ है नहीं। नागरिकों को मिलकर आत्मरक्षा और उससे आगे के उपाय ख़ुद करने होंगे। हमें हिन्दू राष्ट्र के ख़िलाफ़ व्यापक मोर्चो की दिशा में बढ़ना होगा । यह सब मैं अपने लिए ही लिख रही हूं ताकि मेरे होश बने रहें और मैं लाचारी में नहीं जीना चाहती।आप भी अपनी बात कहें।आपसी यक़ीन और विवेक ही हमारा साथ देंगे। संकीर्ण आलोचना, आपसी छीछालेदर और वृथा भावुकता हमारी मुश्किल बढ़ाने वाली बातें हैं। अल्पसंख्यक , दलित , महिलाएं और तमाम प्रगतिशील ताकतें हिन्दू राष्ट्र के निशाने पर हैं।

यह पोस्ट मैंने झारखंड में सलमान की हत्या की ख़बर पढ़ने के बाद लिखी है।


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