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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Thursday, June 29, 2017

छोटे मोटे कुलीन सैलाब से संस्थागत रंगभेदी कारपोरेट फासिज्म को कोई फर्क नहीं पड़ता, प्रिय अभिषेक! पलाश विश्वास

छोटे मोटे कुलीन सैलाब से संस्थागत रंगभेदी कारपोरेट फासिज्म को कोई फर्क नहीं पड़ता, प्रिय अभिषेक!
पलाश विश्वास

अभिषेक,तुम्हारी इस खूबसूरत टिप्पणी के लिए धन्यवाद।धर्मोन्मादी देश की मेला संस्कृति दरअसल हमारी सुविधाजनक राजनीति है।लेकिन भीड़ छंटते ही फिर वही सन्नाटा।

इसके उलट सत्ता की राजनीति का चरित्र कारपोरेट प्रबंधन जैसा निर्मम है।

सत्तावर्ग के माफिया वर्चस्व के सामने निहत्था निःशस्त्र लड़ाई का फैसला बेहद मुश्किल है और सेलिब्रिटी समाज अपनी हैसियत को दांव पर लगाता नहीं।

भद्रलोक की खाल बेहद नाजुक होती है।भद्रलोक को यथास्थिति ज्यादा सुरक्षित लगती है और वह कोई जोखिम उठाता नहीं है।

नाटइनमाई नेम सुविधाजनक शहरी विरोध का सैलाब है,जो कहीं ठहर ही नहीं सकता।
यह निरंकुश रंगभेदी संस्थागत कारपोरेट फासिज्म को रोकने के लिए असमर्थ है।
कारपोरेट फंडिंग की संसदीय राजनीति में नोटबंदी हो या जीएसटी या आधार या सलवा जुडुम  उसके खिलाफ,बुनियादी मुद्दों को लेकर कोई राजनीतिक प्रतिरोध अब असंभव है।
निर्भया मोमबत्ती जुलूस से कुछ बदलता नहीं है।
जमीन बंजर हो गयी है और नई पौध कहीं नहीं है।
हवाएं मौकापरस्त है।
रुपरसगंध फरेबी तिलिस्म है।
लड़ाई आखिर लड़ाई है,जो बिन मोर्चा बांधे सिनेमाई करिश्मे या करतब से लड़ी नहीं जा सकती।
बहरहाल यह सेल्फी समय है और मीडिया को दिलचस्प बाइट भी चाहिए होते हैं।
हम अभी विचारधारा पादने में ही बिजी है,जो पढ़े लिखे विद्वतजन का विशेषाधिकार भी है।
किसानों और मेहनतकशों,निनानब्वे फीसद आम जनता के हक हकूक के लिए हम अभी विकल्प राजनीति की जमीन ही तैयार नहीं कर पाये हैं।
सबकुछ राष्ट्रपति चुनाव ,भारत अमेरिका या भारत इजराइल गठबंधन की तरह अबाध पूंजी प्रवाह है।विनिवेश का मौसम है।
फिरभी मरी हुई ख्वाबों में जान फूंकने के लिए कुछ तो करना ही होगा क्योंकि हमारे हिस्से की जिंदगी बेहद तेजी से खत्म हो रही है।
बेहद प्रिय अभिषेक श्रीवास्तव ने फेसबुक दीवाल पर  लिखा हैः

उमस कुछ कम हुई है। कल सैलाब आया था। कहकर चला गया कि जो करना है करो लेकिन मेरे नाम पर मत करो क्‍योंकि तुम्‍हारे किए-धरे में मैं शामिल नहीं हूं। तीन साल पहले 16 मई, 2014 को जब जनादेश आया था, तो यही बात 69 फीसदी नागरिकों ने वोट के माध्‍यम से कही थी और संघराज में आने वाले भविष्‍य को 'डिसअप्रूव' किया था। वह कहीं ज्‍यादा ठोस तरीका था, कि महाभोज में जब हम शामिल ही नहीं हैं तो हाज़मा अपना क्‍यों खराब हो। यह बात कहने के वैसे कई और तरीके हैं। कल गिरीश कर्नाड की तस्‍वीर देखी तो याद आया।

कोई 2009 की बात रही होगी। इंडिया इंटरनेशनल की एक रंगीन शाम थी। रज़ा फाउंडेशन का प्रोग्राम था। मैं कुछ मित्रों के साथ एक परचा लेकर वहां पहुंचा था। एक हस्‍ताक्षर अभियान चल रहा था छत्‍तीसगढ के सलवा जुड़ुम के खिलाफ़। सोचा, सेलिब्रिटी लोग आए हैं, एकाध से दस्‍तखत ले लेंगे। प्रोग्राम भर ऊबते हुए बैठे रहे। गिरीश कर्नाड जब मंच से नीचे आए तो मैं परचा लेकर उनके पास गया। ब्रीफ किया। काग़ज़ आगे बढ़ाया। उन्‍होंने दस्‍तखत करने से इनकार कर दिया। क्‍या बोले, अब तक याद है- ''मैं समझता हूं लेकिन साइन नहीं करूंगा। मेरा इस सब राजनीति से कोई वास्‍ता नहीं।'' और वे अशोकजी वाजपेयी के साथ रसरंजन के लिए निकल पड़े।

इसी के छह साल पहले की बात रही होगी जब 2003 में एरियल शेरॉन भारत आए थे। जबरदस्‍त विरोध प्रदर्शनों की योजना बनी थी। इंडिया गेट की पांच किलोमीटर की परिधि सील कर दी गई थी। उससे पहले राजेंद्र भवन में एक साहित्यिक आयोजन था। मैं हमेशा की तरह परचा लेकर दस्‍तखत करवाने वहां भी पहुंचा हुआ था। प्रोग्राम खत्‍म हुआ। नामवरजी बाहर आए। मैंने परचा पकड़ाया, ब्रीफ किया, दस्‍तख़त के लिए काग़ज़ आगे बढ़ाया। उन्‍होंने दस्‍तख़त करने से इनकार कर दिया। मुंह में पान था, तो इनकार में सिर हिला दिया और सुब्रत रॉय की काली वाली गाड़ी में बैठकर निकल लिए।

इंडिविजुअल के साथ यही दिक्‍कत है। वह प्रोटेस्‍ट में सेलेक्टिव होता है। मूडी होता है। दूसरे इंडिविजुअल पर जल्‍दी भरोसा नहीं करता, जब तक कि भीड़ न जुट जाए। अच्‍छी बात है कि अलग-अलग फ्लेवर के लिबरल लोग प्‍लेकार्ड लेकर साथ आ रहे हैं, लेकिन ऐसा तो होता ही रहा है। निर्भया को भूल गए या अन्‍ना को? भारत जैसे धार्मिक देश में मेला एक स्‍थायी भाव है। उसका राजनीतिक मूल्‍य कितना है, पता नहीं। वैसे, आप अगर फोकट के वामपंथी प्रचारक रहे हों तो चमकदार लिबरलों को आज मेले में देखकर पुराने किस्‍से याद आ ही जाते हैं। एक सूक्ष्‍म शिकायत है मन में गहरे दबी हुई जो कभी जाती नहीं। पार्टी के बीचोबीच ''किसी बात पर मैं किसी से ख़फ़ा हूं...'' टाइप बच्‍चनिया फीलिंग आने लगती है। खैर, सर्वे भवन्‍तु सुखिन:... !


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