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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, September 10, 2017

रवींद्र का दलित विमर्श-20 क्या यह देश हत्यारों का है? हम किस देश के वासी हैं? भविष्य के प्रति जबावदेही के बदले घूसखोरी? गौरी लंकेश की हत्या के बाद 25 कन्नड़, द्रविड़ साहित्यकार निशाने पर! मौजूदा सत्ता वर्ग की रिश्वत खाकर भविष्य से दगा करने से इंकार करनेवाले लोग निशाने पर हैं,बाकी किसी को खतरा नहीं है। भारत के किसान हजारों साल से धर्मसत्ता और राजसत्ता के खिलाफ लड़ते रहे हैं।जिसका कोई ब्

रवींद्र का दलित विमर्श-20

क्या यह देश हत्यारों का है? हम किस देश के वासी हैं?

भविष्य के प्रति जबावदेही के बदले घूसखोरी?

गौरी लंकेश की हत्या के बाद 25 कन्नड़, द्रविड़ साहित्यकार निशाने पर!

मौजूदा सत्ता वर्ग की रिश्वत खाकर भविष्य से दगा करने से इंकार करनेवाले लोग निशाने पर हैं,बाकी किसी को खतरा नहीं है।

भारत के किसान हजारों साल से धर्मसत्ता और राजसत्ता के खिलाफ लड़ते रहे हैं।जिसका कोई ब्यौरा हमारे इतिहास और साहित्य में नहीं है।अब हम फिर उसी धर्मसत्ता के शिकंजे में हैं और राजसत्ता निरंकुश है।किसान और कृषि विमर्श से बाहर हैं।

पलाश विश्वास

इंडियन एक्सप्रेस की खबर है।गौरी लंकेश की हत्या के बाद कन्नड़ के 25 साहित्यकारों को जान के खतरे के मद्देनर सुरक्षा दी जा रही है।

जाहिर है कि दाभोलकर,पनासरे,कुलबर्गी,रोहित वेमुला,गौरी लंकेश के बाद वध का यह सिलसिला खत्म नहीं होने जा रहा है।

हम किस देश के वासी हैं?

अब यकीनन राजकपूर की तरह यह गाना मुश्किल हैःहम उस देश के वासी हैं,जहां गंगा बहती है।

सत्तर के दशक में हमारे प्रिय कवि नवारुण भट्टाचार्य ने लिखा थाःयह मृत्यु उपत्यका मेरा देश नहीं है।

अब वही मृत्यु उपत्यका मेरा देश बन चुका है।शायद अब यह कहना होगा कि मेरा देश हत्यारों का देश है।सत्य,अहिंसा और प्रेम का भारत तीर्थ अब हत्यारों का देश बन चुका है,जिसमें भारतवासी वही है जो हत्यारा है।बाकी कोई भारतवासी हैं ही नहीं।

रवींद्रनाथ के लिखे भारतवर्षेर इतिहास की चर्चा हम कर चुके हैं।जिसमें उन्होंने साफ साफ लिखा है कि शासकों के इतिहास में लगता है कि भारतवर्ष हत्यारों को देश है और भारतवासी कहीं हैं ही नहीं।आज समय और समाज का यही यथार्थ है।

रवींद्र नाथ की लिखी कविता दो बीघा जमीन की भी हम चर्चा कर चुके हैं।जल जंगल जमीन के हकहकूक के बारे में उन्होंने और भी बहुत कुछ लिखा है।क्योंकि वे जिस भारतवर्ष की बात करते रहे हैं,वह समाज का मतलब जनपदों का ग्रामीण समाज है।किसानों का समाज है।ईंट के ऊपर ईंट से बनी नयी सभ्यता के मुक्तबाजार में कीट बने मनुष्यों की कथा विस्तार से उन्होंने लिखी है।

साहित्य के बारे में लिखते हुए उन्होंने सम्राट अशोक के शिला लेखों की चर्चा की है।उनके निबंध साहित्य पर हम आगे चर्चा करेंगे।

रोम में कुलीन तंत्र में आदिविद्रोही स्पार्टकस के नेतृत्व में दासों के विद्रोह के बाद करीब दो हजार साल हो गये हैं,मनुष्यों को दास बनाने का वह कुलीन तंत्र खत्म हुआ नहीं है।

जर्मनी और इंग्लैंड समेत यूरोप में राजसत्ता और धर्म सत्ता के विरुद्ध किसानों के विद्रोह के बाद सही मायने में स्वतंत्रता का विमर्श शुरु हुआ।इंग्लैंड में 1381 के किसान विद्रोह से एक सिलसिला शुरु हुआ किसानों के विद्रोह और आंदोलन का,जिसके तहत राजसत्ता और धर्मसत्ता के कुलीन तंत्र में दास मनुष्यों का मुक्ति संघर्ष शुरु हुआ।इंग्लैंड और जर्मनी के किसानों ने धर्मसत्ता को सिरे से उखाड़ फेंका।

1381 के इंग्लैंड में किसानों का वह विद्रोह का एक बड़ा कारण प्लेग से हुई व्यापक पैमाने पर मृत्यु को बताया जाता है तो दूसरा कारण सौ साल के धर्मयुद्ध क्रुसेड के लिए किसानों पर लगा टैक्स है।यह पहला युद्ध विरोधी किसान विद्रोह भी है।यूरोप की रिनेशां भी इसी धर्मयुद्ध की परिणति है।

धर्मसत्ता और राजसत्ता के कुलीन तंत्र के खिलाफ फ्रांसीसी क्रांति हुई और अमेरिकी क्रांति में लोकतंत्र  की स्थापना से धर्म सत्ता और राजसत्ता के विरुद्ध मनुष्यता और स्वतंत्रता के मूल्यों की जीत का सिलसिला शुरु हुआ।

पूंजीवाद, साम्राज्यवाद और औद्योगीकीकरण से पहले इतिहास बदलने में किसानों की निर्णायक भूमिका रही है।वह भूमिका अभी खत्म नहीं हुई है।

विचारधारा की राजनीति करने वालों को शायद ऐसा नहीं लगता और वे अपना अपना लालकिला बनाकर भगवा आतंक के प्रतिरोध का जश्न मनाते हुए नजर आते हैं।

यह सारा इतिहास विश्व इतिहास का हिस्सा है और कला साहित्य,माध्यमों और विधाओं का विषय भी है।

इसके विपरीत पश्चिमी देशों की नगरकेंद्रित आधुनिक सभ्यता के मुकाबले डिजिटल मुक्तबाजार के बहुसंख्यक मनुष्य अब भी किसान हैं।

शहरीकरण और औद्योगीकीकरण के नतीजतन पेशा बदलने की वजह से जो शहरी लोग अब किसान नहीं हैं,उऩकी जड़ें भी गांवों में हैं।

भारत के किसान हजारों साल से धर्मसत्ता और राजसत्ता के खिलाफ लड़ते रहे हैं।जिसका कोई ब्यौरा हमारे इतिहास और साहित्य में नहीं है।अब हम फिर उसी धर्मसत्ता के शिकंजे में हैं और राजसत्ता निरंकुश है।

किसान और कृषि विमर्श से बाहर हैं।

ब्रिटिश हुकूमत की शुरुआत से भारत के किसान औपनिवेशिक शासन के खिलाफ लगातार विद्रोह करते रहे हैं,लेकिन यह इतिहास भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में शामिल नहीं है।

साहित्य से भी किसान बहिस्कृत हैं।ऐसा क्यों है?

अभी वर्धा के छात्रों ने सारस पत्रिका के प्रवेशांक मे किसानों पर एक विमर्श की शुरुआत की है।इसकी निरंतरता बनाये रखने की जरुरत है।पत्रिका अभी हम तक पहुंची नहीं है।जब आयेगी तब इसपर अलग से चर्चा करेंगे।इस शुरुआत के लिए उन्हें बधाई।

रवींद्रनाथ ने राष्ट्रवाद पर लिखते हुए भारत की समस्या को सामाजिक माना है और इस सामाजिक समस्या को उन्होंने  विषमता की समस्या कहा है। इस विषमता की वजह नस्ली वर्चस्व है और इसीलिए नस्ली वर्चस्व पर आधारित पश्चिम के फासीवादी राष्ट्रवाद का उन्होंने शुरु से लेकर अंत तक विरोध किया है।

जाति वर्ण व्यवस्था के तहत भारत के किसान शूद्र, अछूत, आदिवासी या विधर्मी हैं।यही भारत का किसान समाज है।इसी वजह से इतिहास और साहित्य, कला, माध्यमों में किसान वर्ग वर्ण नस्ली वर्चस्व की वजह से अनुपस्थित हैं।

बाकी दुनिया में और फासीवादी राष्ट्रवाद की जमीन पर भी किसानों को ऐसा बहिस्कार नहीं है।न अन्यत्र कहीं अन्नदाता किसान और मेहनतकश लोग शूद्र या अछूत हैं।विषमता का यह नस्ली वर्चस्ववाद श्वेत आतंकवाद से भी भयंकर है।

बंगाल में भुखमरी के बाद गणनाट्य आंदोलन में किसानों को पहली बार विमर्श के केंद्र में रखा गया और फिर नक्सलबाड़ी आंदोलन में भारतीय कृषि पर फोकस हुआ।सत्तर के दशक के अंत के हिंदुत्व पुनरूत्थान और मुक्तबाजार अर्थव्यवस्था के तहत मनुस्मृति की धर्मसत्ता और राजसत्ता के एकाकार हो जाने से बहुसंख्य बहुजन अवर्ण आदिवासी और विधर्मी गैरनस्ली अनार्य द्रविड़ किसान,उनके गांव, जनपद, जल, जंगल जमीन वैदिकी सभ्यता की अश्वमेधी नरसंहार संस्कृति के निशाने पर हैं और सत्ता वर्ग को उनसे कोई सहानुभूति नहीं है।किसान से पेशा बदलकर भद्रलोक बने शहरी मुक्तबाजारी सत्ता समर्थकों को भी किसानों से कोई सहानुभूति नहीं है।

गौरतलब है कि भारतीय किसान समाज,उनकी लोकसंस्कृति और उनके आंदोलन  देशी विदेशी शासकों,जमींदारों,महाजनों और सूदखोरों के साथ साथ इस भद्रलोक बिरादरी के खिलाफ रहे हैं तो जाहिर है कि भद्रलोक बिरादरी के सत्ता वर्ग,उनकी राजनीति,उनके इतिहास और उनके साहित्य में बहुजन, अवर्ण, शूद्र, अछूत, आदिवासी,अनार्य,द्रविड़ किसानों की कोई जगह नहीं है।

कल हमने  विश्वभऱ के किसान आंदोलनों के बारे में उपलब्ध समाग्री शेयर करने की कोशिश की तो ज्यादातर सामग्री अंग्रेजी या बांग्ला में मिली और हिंदी में कम से कम सूचना क्रांति में ओतप्रोत हिंदी समाज की तरफ से दर्ज किसान आंदोलनों का कोई दस्तावेज हमें नहीं मिला।

शोध पुस्तकें हैं लेकिन वे खरीदने के लिए हैं और अंग्रेजी और बांग्ला की तरह ओपन सोर्स नहीं है।

बांग्ला में भी ज्यादातर सामग्री बांग्लादेश से है.जहां सवर्ण वर्चस्व नहीं है।

हिंदी में 1857 की क्रांति से पहले 1757 में पलाशी युद्ध के तत्काल बाद शुरु चुआड़ विद्रोह और पूर्वी बंगाल के पाबना और रंगपुर के किसान विद्रोहों के बारे में कुछ भी उपलब्ध नहीं है।शोध सामग्री हो सकता है कि हो,लेकिन आम जनता के लिए उपलब्ध जनविमर्श में ऐसे दस्तावेज नहीं है।

कल हमने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ फकीर संन्यासी विद्रोह के दस्तावेज भी शेयर पेश किये है,जिसके बारे में हिंदी में आनंदमठ के संन्यासी विद्रोह और वंदेमातरम प्रसंग में चर्चा होती रही है।बंगाल में विद्रोह दमन के बावजूद यह विद्रोह नेपाल, बिहार, असम और पूर्वी बंगाल में जारी रहा है और इसके नेतृ्त्व में फकीर बाउल सन्यासी के अलावा आदिवासी और किसान भी थे।

भारत में धर्मसत्ता का वर्चस्व कभी नहीं रहा है।वैदिकी सभ्यता के ब्राह्मण धर्म या बौद्धमय भारत के बौद्ध धर्म या पठान मुगलों के सात सौ साल के दौरान  इस्लाम धर्म शासकों का धर्म होने के बावजूद यूरोप में धर्म सत्ता और राजसत्ता के किसी दोहरे तंत्र को  भारत में आम जनता के किसान समाज ने स्वीकारा नहीं है।कुलीन सत्ता वर्ग के धर्म और राजनीति से अलग उनकी लोक संस्कृति की साझा विरासत गांव देहात जनपदों में मनुष्यता के धर्म के रुप में हमेशा जीवित रही है।

यही भारत की सूफी संत गुरु परंपरा है,जो सत्ता वर्ग के दायरे से बाहर जल जंगल जमीन और जनपद का विमर्श रहा है।

सात सौ साल के इस्लामी राजकाज के दौरान आम जनता का व्यापक जबरन धर्मांतरण हुआ होता तो भारत में बौद्धों की तरह हिंदुओं की जनसंख्या भी कुछ लाख तक सीमित हो जाती और अस्सी प्रतिशत से ज्यादा यह जनसंख्या उसी तरह नहीं होती जैसे बौद्ध शासकों के बाद भारत में बौद्धों की जनसंख्या का अंत हो गया।

बंगाल में तेरहवीं सदी में जिस तरह बौद्धों का धर्मांतरण हुआ है,भारत के इतिहास में सात सौ साल के मुसलमान शासकों के राजकाज के दौरान उतना व्यापक धर्मंतरण हुआ नहीं है।होता तो जैसे भारत फिर बुद्धमय नहीं बना,उसीतरह हिंदू राष्ट्र का विमर्श चलाने वाले पुरोहित तंत्र और सत्ता वर्ग् के साथ हिंदू भी नहीं होते।

इस्लामी शासन के दौरना भी हिंदुओं की दिनचर्या जीवन यापन मनुस्मृति विधान के कठोर अनुशासन में पुरोहित तंत्र के निंयत्रण में रहने का इतिहास है  और मुसलमान शासकों ने अंग्रेजों की तरह ब्राह्मणतंत्र में कोई हस्तक्षेप नहीं किया है।

मनुस्मृति विधान ईस्ट इंडिया कंपनी के राजकाज के दौरान समाज सुधार के ब्राह्मणतंत्र विरोधी बहुजन आंदोलनों को तहत टूटना शुरु हुआ क्योंकि अंग्रेजी हुकूमत के दौरान उन्हें उनके वे हकहकूक मिलने शुरु हो गये जो मनुस्मृति विधान के तहत निषिद्ध थे।

अब आजादी के बाद हिंदुत्व के पुनरुत्थान के फासीवादी नस्ली राजकाज और राष्ट्रवाद के तहत फिर मनुस्मृति विधान लागू है तो जाहिर है कि बहजनों, अवर्णों, आदिवासियों,द्रविड़ और अनार्य, किसान और मेहनतकश समुदायों का सफाया लाजिमी है।

इसीलिए मुक्त बाजार में किसान समाज की हत्या हो रही है तो बोलियों का लोकतंत्र खत्म है और लोकसंस्कृति जनपदों के साथ साथ विलुप्तप्राय है।

साहित्य,कला,इतिहास और संस्कृति का प्रस्थानबिंदू सिरे से खत्म है तो वर्तमान सामाजिक यथार्थ हत्यारों का आतंकराज है,जहां कबीर सूर नानक तुकाराम लालन फकीर या रवींद्र या गांधी या प्रेमचंद के लिए कोई स्पेस नहीं है।

भारत में लोक संस्कृति का आध्यात्म,आस्था और धर्म प्रकृति और पर्यावरण, जल जंगल जमीन और सामुदायिक जीवन पर आधारित है जो उपभोक्तावाद और नस्ली फासीवादी राष्ट्रवाद दोनों, धर्म सत्ता और राजसत्ता दोनों के विरुद्ध है।

रवींद्रनाथ ने पल्ली प्रकृति में लिखा हैः

आम जनता में विशेष कालखंड में सामयिक तौर पर भावनाओं की सुनामी बनती है-सामाजिक,राष्ट्रवादी या धार्मिक संप्रदायिक। आम जनता की भावनाओं की इस सुनामी की ताकीद अगर ज्यादा हो गया तो भविष्य की यात्रापथ की दिशाएं बदल जाती हैं।कवियों में यह प्रवृत्ति होती है कि कई बार वे वर्तमान से रिश्वत लेकर भविष्य को वंचित कर देते हैं।कभी कभी ऐसा समय आता है,जब रिश्वत का यह बाजार बेहद लोभनीय बन जाता है।देशभक्ति,सांप्रदायिकता के खाते खुल जाते हैं।तब नकदी की लालच से बचना मुश्किल हो जाता है..(रवींद्र रचनावली,जन्मशतवार्षिकी संस्करण,पल्ली प्रकृति,पृष्ठ 570)

मौजूदा सत्ता वर्ग की रिश्वत खाकर भविष्य से दगा करने से इंकार करनेवाले लोग निशाने पर हैं,बाकी किसी को खतरा नहीं है।

जल जंगल जमीन और प्रकृति के विरुद्ध मनुष्य के सर्वग्रासी लोभ और आक्रमण के खिलाफ अरण्य देवता निबंध में उन्होंने लिखा है कि अपने लोभ के कारण मनुष्य अपनी मौत को दावत दे रहा है। इसी कृषि विरोधी जनपद विरोधी विकास को गांधा ने पागल दौड़ कहा और सत्ता वर्ग इसे आज आर्थिक सुधार कहता है।

जंगलों के अंधाधुंध कटान के खिलाफ पर्यावरण बचाओ चिपको आंदोलन से बहुत पहले रवींद्र नाथ ने लिखा हैः

রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর এসব বুঝেছিলেন বলে 'অরণ্য দেবতা' প্রবন্ধে বলেছেন- 'মানুষের সর্বগ্রাসী লোভের হাত থেকে অরণ্য সম্পদ রক্ষা করাই সর্বত্র সমস্যা হয়ে দাঁড়িয়েছে। বিধাতা পাঠিয়েছিলেন প্রাণকে, চারিদিকে তারই আয়োজন করে রেখেছিলেন। মানুষই নিজের লোভের দ্বারা মরণের উপকরণ জুগিয়েছে।… মানুষ অরণ্যকে ধ্বংস করে নিজেরই ক্ষতি ডেকে এনেছে। বায়ুকে নির্মল করার ভার যে গাছের উপর, যার পত্র ঝরে গিয়ে ভূমিকে উর্বরতা দেয়, তাকেই সে নির্মূল করেছে। বিধাতার যা কিছু কল্যাণের দান, আপনার কল্যাণ বিস্মৃত হয়ে মানুষ তাকেই ধ্বংস করেছে।'

रवींद्र नाथ ने मनुष्य के लिए जो भी कुछ हितकर है,उसे प्रकृति पर निर्भर माना है।उनके मुताबिक प्रकृति से तादाम्य ही मनुष्यता का धर्म है। प्रकृति से व्याभिचार के लिए धर्म कर्म से विचलन के खिलाफ वे मुखर रहे हैंः

আমরা লোভবশত প্রকৃতির প্রতি ব্যভিচার যেন না করি। আমাদের ধর্মে-কর্মে, ভাবে-ভঙ্গিতে প্রত্যহই তাহা করিতেছি, এই জন্য আমাদের সমস্যা উত্তরোত্তর জটিল হইয়া উঠিয়াছে- আমরা কেবলই অকৃতকার্য এবং ভারাক্রান্ত হইয়া পড়িতেছি। বস্তুত জটিলতা আমাদের দেশের ধর্ম নহে। উপকরণের বিরলতা, জীবনযাত্রার সরলতা আমাদের দেশের নিজস্ব- এখানেই আমাদের বল, আমাদের প্রাণ, আমাদের প্রতিজ্ঞা।'

छिन पत्र और तपोवन में भी उन्होंने जल जंगल जमीन के हकहकूक की आवाज बुलंद की हैः

বৃক্ষের প্রয়োজনীয়তা সম্পর্কে এ এক বিস্ময়কর অনুধ্যান নিঃসন্দেহে। ছিন্নপত্রের ৬৪ তথা ছিন্নপত্রাবলির ৭০ সংখ্যক পত্রে কবি বৃক্ষের সঙ্গে নিজের সম্পর্কের পরিচয় উন্মোচন করে বলেন-


'এক সময়ে যখন আমি এই পৃথিবীর সঙ্গে এক হয়ে ছিলাম, যখন আমার উপর সবুজ ঘাস উঠত, শরতের আলো পড়ত, সূর্যকিরণে আমার সুদূর বিস্তৃত শ্যামল অঙ্গের প্রত্যেক রোমক‚প থেকে যৌবনের সুগন্ধ উত্তাপ উত্থিত হতে থাকত, আমি কত দূরদূরান্তর দেশদেশান্তরের জলস্থল ব্যাপ্ত করে উজ্জ্বল আকাশের নীচে নিস্তব্ধভাবে শুয়ে পড়ে থাকতাম, তখন শরৎসূর্যালোকে আমার বৃহৎ সর্বাঙ্গে যে-একটি আনন্দরস, যে-একটি জীবনীশক্তি অত্যন্ত অব্যক্ত অর্ধচেতন এবং অত্যন্ত প্রকাণ্ড বৃহৎভাবে সঞ্চারিত হতে থাকত, তাই যেন খানিকটা মনে পড়ল। আমার এই যে মনের ভাব, এ যেন এই প্রতিনিয়ত অঙ্কুরিত মুকুলিত পুলকিত সূর্যনাথ আদিম পৃথিবীর ভাব। যেন আমার এই চেতনার প্রবাহ পৃথিবীর ঘাসে এবং গাছের শিকড়ে শিকড়ে শিরায় শিরায় ধীরে ধীরে প্রবাহিত হচ্ছে, সমস্ত শস্যক্ষেত রোমাঞ্চিত হয়ে উঠেছে, এবং নারকেল গাছের প্রত্যেক পাতা জীবনের আবেগে থর থর করে কাঁপছে।'


আবার 'তপোবন' এ তিনি বলেন-


'…ভারতবর্ষের একটি আশ্চর্য ব্যাপার দেখা গেছে এখানকার সভ্যতার মূল প্রস্রবণ শহরে নয়, বনে। ভারতবর্ষের প্রথমত আশ্চর্য বিকাশ দেখিতে পাই সেখানে, মানুষের সঙ্গে মানুষের অত্যন্ত ঘেঁষাঘেঁষি একেবারে পিণ্ড পাকিয়ে ওঠেনি। সেখানে গাছপালা, নদী সরোবর মানুষের সঙ্গে মিলে থাকার যথেষ্ট অবকাশ পেয়েছিল।'

जल जंगल जमीन और किसानों के समाज का यह विमर्श ही सूफी संत आंदोलन का धर्म कर्म और रचनाधर्मिता है तो यही रवींद्र का दलित विमर्श है।

इसलिए कबीर,सूरदास,तुलसी, नानक,तुकाराम,नामदेव,गुरुनानक ,बसेश्वर, चैतन्य, जयदेव, लालन फकीर और रवींद्र को समझने के लिए भारतीय कृषि,किसान और कृषक समाज,आदिवासी और किसान आंदोलन में रची बसी जनपदों की लोक जमीन पर खड़ा होना जरुरी है।


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