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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Saturday, September 16, 2017

रवींद्र का दलित विमर्श-26 राजसत्ता धर्म सत्ता में तब्दील यूरोप का मध्यकालीन बर्बर धर्मयुद्ध भारत के वर्तमान और भविष्य का सामाजिक यथार्थ। राजसत्ता,धर्मसत्ता,राष्ट्रवाद और शरणार्थी समस्या के संदर्भ में रोहिंग्या मुसलमान और गुलामी की विरासत पलाश विश्वास

रवींद्र का दलित विमर्श-26

राजसत्ता धर्म सत्ता में तब्दील

यूरोप का मध्यकालीन बर्बर धर्मयुद्ध भारत के वर्तमान और भविष्य का सामाजिक यथार्थ।

राजसत्ता,धर्मसत्ता,राष्ट्रवाद और शरणार्थी समस्या के संदर्भ में रोहिंग्या मुसलमान और गुलामी की विरासत

पलाश विश्वास

कोलकाता में रोहिंग्या मुसलमानों के समर्थन में लाखों मुसलमानों ने रैली की और इस रैली के बाद बंगाल में रोहिंग्या मुसलमानों को लेकर नये सिरे से धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण तेज हुआ है।भारत में सिर्फ मुसलमान ही म्यांमार में नरसंहार और मानवाधिकार हनन के खिलाफ मुखर है,ऐसा नहीं है।

पंजाब के गुरुद्वाराओं से सीमा पर जाकर सिख कार्यकर्ता बड़े पैमाने पर इन शरणार्थियों के लिए लंगर चला रहे हैं तो भारत के गैर मुसलमान नागरिकों का एक बड़ा हिस्सा भी रोहिंग्या नरसंहार के खिलाफ विश्वजनमत के साथ है।

हिंदू मुसलमान दो राष्ट्र के सिद्धांत पर भारत विभाजन और जनसंंख्या स्थानांतरण भारत में शरणार्थी समस्या का मौलिक कारण है।धर्म आधारित राष्ट्रीयता की यह विरासत भारत की नहीं है।यूरोप के धर्म युद्ध की राष्ट्रीयता है और फिलीस्तीन विवाद को लेकर यूरोप का यह धर्म युद्ध अरब मुसलमान दुनिया के खिलाफ आज भी जारी है और इसी धर्म युद्ध के रक्तबीज बनकर तमाम आतंकवादी धर्म राष्ट्रीयता के संगठन रो दुनिया को लहूलुहान कर रहे हैं।

धर्म आतंकवाद का पर्याय बन गया है।

रोहिंगा मुसलमानों की समस्या भी राजसत्ता के धर्म सत्ता में बदल जाने की कथा है जिसके तहत एक धारिमिक राष्ट्रीयता दूसरी धार्मिक राष्ट्रीयता का सफाया करने में लगी है।अखंड भारत और म्यांमार दोनों ब्रिटिश हुकूमत के उपनिवेश रहे हैं तो यह धर्म युद्ध भी उसी औपनिवेशिक गुलामी की विरासत है,जो भारत के 1947 में और म्यांमार के 1948 में आजाद होने के बावजूद लगातार मजबूत होती जा रही है।

म्यांमार में करीब 8 लाख रोहिंग्या मुसलमान रहते हैं और वे इस देश में सदियों से रहते आए हैं, लेकिन बर्मा के लोग और वहां की सरकार इन लोगों को अपना नागरिक नहीं मानती है। बिना किसी देश के इन रोहिंग्या लोगों को म्यांमार में भीषण दमन का सामना करना पड़ता है। बड़ी संख्या में रोहिंग्या लोग बांग्लादेश और थाईलैंड की सीमा पर स्थित शरणार्थी शिविरों में अमानवीय स्थितियों में रहने को मजबूर हैं।ऐसे जो रोहिंगा शरणार्थी भारत में हैं,म्यांमार से भारत के संबंध सुधरते जाने के बाद उन्हें अब भारत में रहने की इजाजत नहीं है और उन्हें खदेड़ने की तैयारी है।जबकि रोहिंगा मुसलमानों की राष्ट्रीयता की लड़ाई म्यांमार की आजादी से पहले से जारी है।अचानक म्यांमार में यह गृहयुद्ध शुरु नहीं हुआ है।बदला है तो भरतीय राजनय का दृष्टिकोण बदला है जो सीधे तौर पर म्यांमार की सैन्य सत्ता के साथ है।

फिलीस्तीन पर कब्जा का धर्म युद्ध भी इसके पीछे है क्योंकि रोहिंग्या मुसलमानों के सफाया कार्यक्रम में इजराइल का भी सक्रिय समर्थन है।

अश्वेतों,लातिन मेक्सिकान मूल के लोगों और भारतीयों के साथ मुसलमानों के खिलाफ श्वेत आतंकवादी नस्ली अमेरिकी राष्ट्रवाद और इजराइल के जायनी आतंकवाद से नाभिनाल संबंध है भारत में धर्मसत्ता की और बतौर राष्ट्र भारत अमेरिका और इजराइल का समर्थक है तो रोहिंगाविरोधी धर्मोन्मादी धूर्वीकरण का रसायनशास्त्र समझना उतना मुश्किल भी नहीं है।

गौरतलब है कि 1937 से पहले ब्रिटिश ने अंग्रेजों ने बर्मा को भारत का राज्य घोषित किया था लेकिन फिर अंगरेज सरकार ने बर्मा को भारत से अलग करके उसे ब्रिटिश क्राउन कालोनी (उपनिवेश) बना दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापान ने बर्मा के जापानियों द्वारा प्रशिक्षित बर्मा आजाद फौज के साथ मिल कर हमला किया। बर्मा पर जापान का कब्जा हो गया। बर्मा में सुभाषचंद्र बोस के आजाद हिन्द फौज की वहां मौजूदगी का प्रभाव पड़ा। 1945 में आंग सन की एंटीफासिस्ट पीपल्स फ्रीडम लीग की मदद से ब्रिटेन ने बर्मा को जापान के कब्जे से मुक्त किया लेकिन 1947 में आंग सन और उनके 6 सदस्यीय अंतरिम सरकार को राजनीतिक विरोधियों ने आजादी से 6 महीने पहले उन की हत्या कर दी। आज आंग सन म्यांमार के 'राष्ट्रपिता' कहलाते हैं। आंग सन की सहयोगी यू नू की अगुआई में 4 जनवरी, 1948 में बर्मा को ब्रिटिश राज से आजादी मिली ।

जिस नस्ली राष्ट्रवाद के राष्ट्रीयता सिद्धांत के तहत भारत का विभाजन हुआ, उसी के तहत सत्ता समीकरण के मुताबिक रोहिंगा मुसलमानों के सवाल पर देश भर में मुसलमानों के खिलाफ नस्ली घृणा अभियान  की राजनीति और राजनय के तहत यह धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण है जो ब्रिटिश हुक्मरान की गुलामी की विरासत है।

गुलामवंश के शासन का पुनरूत्थान है यह।

भारत में राजसत्ता इसी नस्ली  वर्चस्व के राष्ट्रवाद के कारण धर्मसत्ता में तब्दील है और यूरोप का मध्यकालीन बर्बर धर्मयुद्ध भारत के वर्तमान और भविष्य का सामाजिक यथार्थ बनने लगा है,जिसकी आशंका रवींदरनाथ को थी।नेशन की इस नस्ली वर्चस्व की भावना पर प्राचीनता आरोपित करने का कार्यभार जर्मन रोमानी राष्ट्रवाद के हाथों पूरा हुआ।

गौरतलब है कि मुसोलिनी का नाजी राष्ट्रवाद भी धर्मसत्ता को मजबूत करने के हक में था तो अमेरिकी लोकतंत्र में भी उसी नस्ली धर्म सत्ता का बोलबाला है और नवनिर्वाचित अमेरिका राष्ट्रपति को कार्यभार संभालने से पहले गिरजाघर जाकर अपनी निष्ठा समर्पित करनी पड़ती है।

मजे की बात यह है कि ये रोहिंगा मुसलमान मूलतः अखंड बंगाल के चटगांव से भारत में ब्रिटिश हुकूमत के मातहत अंग्रेजों के प्रोत्साहन से ही म्यांमार के अराकान प्रदेश में बड़ी संख्या में उसी तरह जा बसे थे जैसे म्यांमार के रंगून और दूसरे प्रांतों के साथ सिंगापुर में भी बड़ी संख्या में भारत के दूसरे प्रांतों से लोग आजीविका और रोजगार के लिए जाकर बसे थे।अराकान में वैसे बंगाली मध्ययुग से बसते रहे हैं और वहां दुनिया के दूसरे हिस्सों से मुसलमान जाते रहे हैं लेकिन उनकी जनसंख्या में सबसे ज्यादा बंगाली मूल के लोग हैं।

यह शरणार्थी समस्या द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वर्ष 1948 में कुछ रोहिंग्या मुसलमानों के अराकान को एक मुस्लिम देश बनाने के लिए सशस्त्र संघर्ष आरंभ कर देने से लगातार चली आ रही है। वर्ष 1962 में जनरल नी विंग की सैन्य क्रांति तक यह आंदोलन बहुत सक्रिय था।

जनरल नी विंग की सरकार ने रोहिंग्या मुसलमानों के विरुद्ध व्यापक स्तर पर सैन्य कार्यवाही की जिसके कारण कई लाख मुसलमानों ने वर्तमान बांग्लादेश में शरण ली। उनमें से बहुत से लोगों ने बाद में कराची का रूख़ किया और उन लोगों ने पाकिस्तान की नागरिकता लेकर पाकिस्तान को अपना देश मान लिया।

मलेशिया में भी पच्चीस से तीस हज़ार रोहिंग्या मुसलमान आबाद हैं।

बर्मा के लोगों ने लंबे संघर्ष के बाद तानाशाह से मुक्ति प्राप्त कर ली है और देश में लोकतंत्र की बेल पड़ गयी है। वर्ष 2012 के चुनाव में लोकतंत्र की सबसे बड़ी समर्थक आन सांग सू की की पार्टी की सफलता के बावजूद रोहिंग्या मुसलमानों की नागरिक के दरवाज़े बंद हैं और उन पर निरंतर अत्याचार जारी है जो लोकतंत्र के बारे में सू के बयानों में भारी विरोधाभास है। इसी वजह से उनसे नोबेल पुरस्कार वापस करने की मांग भी की जा रही है।

बांग्लादेश के युद्ध के दौरान करीब नब्वे लाख शरणार्थी भारत आये थे और उनमें बड़ी संख्या में मुसलमान भी थे। सत्तर के दशक के उन शरणार्थियों के मुकाबले बांग्लादेश में सबसे ज्यादा करीब पांच लाख रोहिंग्या मुसलमान शरणार्थी हैे तो भारतभर में इनकी संख्या तिब्बत से आये बौद्ध और श्रीलंका से आने वाले तमिल शरणार्थियों की तुलना में कम हैं।

बांग्लादेश के लिए रोहिंग्या शरणार्थी उनकी अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी समस्या जरुर हैं लेकिन भारत विभाजन के बाद सीमापार से लगातार आ रहे शरणार्थियों की समस्या से जूझने वाले भारत के लिए रोहिंग्या शरणार्थी संख्या के हिसाब से उतनी बड़ी समस्या है नहीं।उनकी नस्ल की वजह से यह समस्या बड़ी समस्या जरुर बन गयी  है।

क्योंकि रोहिंगा शरणार्थियों को उऩकी राष्ट्रीयता आंदोलन की वजह से आतंकवाद और भारत की एकता और अखंडता के लिए खतरा बता रही है भारत की हिंदुत्ववादी सरकार और इन शरणार्थियों को खदेड़ने का ऐलान किया जा चुका है।

भारतीय राजनय भी इस मामले में म्यांमार में रोहिंगा मुसलमानों के नरसंहार और मानवाधिकार हनन के मुद्दे को सिरे से नजरअंदाज करते हुए म्यांमार की सैनिक  जुंटा सरकार का साथ देने की नीति पर चल रही है।

जैसे भारत में धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का हिंदू धर्म से कुछ लेना देना नहीं है उसी तरह रोहिंगा मुसलमानों के खिलाफ सैन्य जुंटा सरकार के धर्मोन्मादी राजकाज की इस नरसंहारी संस्कृति से बौद्धधर्म का कुछ लेना देना नहीं है और न ही यह बौद्ध और इस्लाम धर्म के अनुयायियों के बीच कोई फिलीस्तीन युद्ध है।

फिलीस्तीन के धर्मयुद्ध के वारिशान जो बाकी दुनिया के खिलाफ धर्मयुद्ध जारी रखे हुए हैं ,यह उनका ही धर्मयुद्ध है।ऐसा समझ सकें तो रोहिंगा पहेली बूझ सकेंगे।

भारत में ऐसे धर्मयुद्ध का कोई इतिहास नहीं है,इसे पहले समझना जरुरी है।

क्योंकि भारत में धर्म मनुष्यता के लिए हमेशा मुक्तिमार्ग रहा है।धर्म को नस्ली वर्चस्व का माध्यम अब पश्चिम के अनुकरण में बनाया जा रहा है।

क्योंकि भारत में यूरोप की तरह धर्म की सत्ता नहीं रही है।धर्म को लेकर सारे विवाद अब धर्म की सत्ता कायम करने के कारपोरेट एजंडे से हो रहे हैं।

भारत में ब्राह्मण धर्म और वैदिकी सभ्यता की वर्ण व्यवस्था के खिलाफ खिलाफ समानता और न्याय पर आधारित समाज की स्थापना के लिए विश्व में पहली रक्तहीन क्रांति का नेतृत्व महात्मा गौतम बुद्ध ने किया तो प्रतिक्रांति के तहत पुष्यमित्र शुंग ने मनुस्मृति अनुशासन लागू करते हुए वर्ण व्यवस्था को पहले से मजबूत करने के लिए भारतीय समाज को जाति व्यवस्था के तहत हजारों टुकड़ों में बांट डाला।फिरभी बौद्धमय भारत की विरासत खत्म नहीं हुई और आर्यावर्त के भूगोल से बाहर बंगाल में ग्यारहवीं शताब्दी तक बौद्धकाल जारी रहा तो दक्षिण भारत में राजसत्ता और दैवीसत्ता को एकाकार करते हुए भव्य मंदिरों में केंद्रित चोल और पल्लव राजाओं के भक्ति आंदोलन को बौद्ध श्रमणों और जैन धर्म के अनुयायियों ने मनुस्मृति व्यवस्था के खिलाफ बहुजन आंदोलन में तब्दील कर दिया।

बंगाल,बिहार और ओडीशा में भी बड़े पैमाने पर जैन धर्म का प्रभाव रहा है।

इस्लामी शासन के अंतर्गत उत्तर भारत में सूफी संत आंदोलन ने मनुस्मृति विरोधी सामंतवाद विरोधी दैवीसत्ता विरोधी और राजसत्ता विरोधी बहुजन आंदोलन को समूचे भारत में धर्म जाति नस्ल की विविध बहुल विभिन्न संस्कृतियों के विलय की प्रक्रिया में बदल दिया जौ ब्रिटिश औपनिवेशिक हुकूमत के दौरान औद्योगीकरण और शहरीकरण के साथ जाति तोड़ो आंदोलन में तब्दील हो गयी।

आजादी के बाद वह जाति तोड़ो आंदोलन जाति मजबूत करो आंदोलन में बदल गया तो बहुजन आंदोलन का भी पटाक्षेप हो गया और जाति आधारित मनुसमृति व्यवस्था की बहाली के लिए धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की सुनामी है और यही सुनामी म्यांमार में शुरु से चल रही है।जिसके शिकार रोहिंगा मुसलमान हैं।

इसके विपरीत भारतीय इतिहास की प्रवाहमान धारा आर्य अनार्य द्रविड़ शक हुण कुषाण सभ्यताओं के एकीकरण के हजारों साल की भारतीय सभ्यता और संस्कृति है, जिसमें पठान और मुगल शासन काल में इस्लाम के सिद्धांतों का समावेश भी होता रहा जिसके तहत भारतीय जनमानस पर सूफी संत फकीर बाउल आंदोलन का इतना घना असर रहा है।इस इतिहास को बदलने के लिए धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की सुनामी है।

रवींद्रनाथ शासकों के इतिहास के बदले भारतीय जन गण की इस सभ्यता और संस्कृति में देश और समाज को देखते थे।इसीलिए पश्चिम के पूंजीवादी साम्राज्यवादी और फासिस्ट नाजी राष्ट्रों के राष्ट्रवाद का विरोध करते थे और हम इसके बारे में मनुष्यता के धर्म और सभ्यता के संकट के संदर्भ में उऩके विचारों की चर्चा पहले ही कर चुके हैं।रवींद्रनाथ मानते थे कि पश्चिम का राष्ट्रवाद पूंजीवाद के निजी हितों को साधने का नस्ली राष्ट्रवाद है और भारत में विषमता की सामाजिक समस्या, असमानता, अन्याय और अस्पृश्यता की सामाजिक संरचना के लिए नस्ली वर्चस्व के इस राष्ट्रवाद का वे विरोध लगातार करते रहे।

अपने अंतिम निबंध में सभ्यता के संंकट  में भारत के भविष्य को लेकर वे इसीलिए चिंतित थे कि ब्रिटिश हुकूमत नस्ली राष्ट्रवादियों की सांप्रदायिक राजनीति के तहत राष्ट्रीयता के सिद्धांत के तहत भारत के विभाजन पर आमादा थे और सत्ता हस्तातंरण के बाद यूरोपीय राष्ट्रवाद की नकल के तहत भारत में नस्ली वर्चस्व के फासीवादी राष्ट्रवाद के दुष्परिणामों से वे भारत के भविष्य को लेकर चिंतित थे।हम इस पर चर्चा कर चुके हैं।

भारत में दैवीसत्ता और राजसत्ता के खिलाफ भक्ति आंदोलन,सूफी संत आंदोलन,आदिवासी किसान विद्रोह और बाउल फकीर सन्यासी आंदोलन,चंडाल और बहुजन आंदोलनों की चर्चा हमने रवींद्र रचनाधर्मिता के तहत की है ताकि पश्चिमी राष्ट्रवाद के मुकाबले भारतीय इतिहास,सभ्यता और संस्कृति की साझा विरासत की जमीन पर रवींद्र के दलित विमर्श की प्रासंगिकता निरंकुश नस्ली वर्चस्व के फासीवादी राष्ट्रवाद की नरसंहारी संस्कृति के प्रतिरोध के सिलसिले में हम समझ सकें।

पश्चिम के इस राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि में धर्मयुद्धों का इतिहास है तो संस्कृतियों के युद्धों की निरतंरता है।पश्चिम का यह राष्ट्रवाद नस्ली वर्चस्व का राष्ट्रवाद है जिसका विकास धर्मयुद्धों के दौरान धरमोन्मादी नस्ली वर्चस्व की दैवी सत्ता और राजसत्ता के पूंजीवादी तंत्र में बदलते जाने में हुआ जिसकी परिणति फासीवाद और साम्राज्यवाद में हुई।दक्षिण एशिया के भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास धर्मयुद्धों का इतिहास नहीं है और न यहां उस तरह के नस्ली वर्चस्व के राष्ट्रवाद का इतिहास कभी रहा है।

राष्ट्रीयता के सिद्धांत के जरिये भारत विभाजन के साथ भारत में नस्ली वर्चस्व के लिए पश्चिम के पूंजीवादी राष्ट्रवाद का आयात हुआ।भारत में भी संविधान के संघीय ढांचा को तोड़ते हुए पूजीवादी कारपोरेटएजंडे के तहत  एक निरंकुश  सर्वसत्तावादी सैन्य राष्ट्र  का उदय हुआ जो सम्प्रभुता, केंद्रीकृत शासन और स्थिर भू-क्षेत्रीय सीमाओं के लक्षणों से सम्पन्न है। पश्चिम में धर्मयुद्धों के नतीजतन बने पश्चिमी राष्ट्रों की नकल के तहत दुनियाभर में आज के आधुनिक राज्य में भी यही ख़ूबियां हैं।इसीलिए पूरी दुनिया नस्ली  फासिज्म के शिकंजे में है और दुनियाभर की आधी मनुष्यता धर्मोन्मादी राष्ट्रवादी आतंकवाद,पूजीवाद और साम्राज्यवाद के युद्धों गृहयुद्धों के कारण शरणार्थी है।

रोहिंग्या की पहचान को लेकर भी साफ समझ की कमी इतिहास के घालमेल की वजह से है।आखिर  रोहिंग्या शब्द कहां से निकला?

इस बारे में रोहिंग्या इतिहासकारों में मतभेद पाये जाते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि यह शब्द अरबी के शब्द रहमा अर्थात दया से लिया गया है और आठवीं शताब्दी ईसवी में जो अरब मुसलमान इस क्षेत्र में आये थे, उन्हें यह नाम दिया गया था जो बाद में स्थानीय प्रभाव के कारण रोहिग्या बन गया किन्तु दूसरे इतिहासकारों का मानना है कि इसका स्रोत अफ़ग़ानिस्तान का रूहा स्थान है और उनका कहना है कि अरब मुसलमानों की पीढ़ीयां अराकान के तटवर्ती क्षेत्र में आबाद हैं जबकि रोहिग्या अफ़ग़ानिस्तान के रूहा क्षेत्र से आने वाली मुसलमान जाती है।

इसके मुक़ाबले में बर्मी इतिहासकारों का दावा है कि रोहिंग्या शब्द बीसवीं शताब्दी के मध्य अर्थात 1950 के दशक से पहले कभी प्रयोग नहीं हुआ और इसका आशय वे पूर्वी बंगाल औऱ खास तौर पर चटगांव के  बंगाली मुसलमान हैं जो अपना घर बार छोड़कर अराकान में आबाद हुए।

राष्ट्रपति थीन सेन और उनके समर्थक इस दावे को आधार बनाकर रोहिंग्या मुसलमानों को नागरिक अधिकार देने से इन्कार कर रहे हैं।

उनका यह दावा गलत है।रोहिंग्या शब्द का प्रयोग अट्ठारहवीं शताब्दी में प्रयोग होने का ठोस प्रमाण मौजूद है। बर्मा में अरब मुसलमानों के घुसने और रहने पर सभी सहमत हैं। उनकी बस्तियां अराकीन के मध्यवर्ती क्षेत्रों में हैं जबकि रोहिंग्या मुसलमानों की अधिकांश आबादी बांग्लादेश के चटगांव डिविजन से मिली अराकान के सीमावर्ती क्षेत्र मायो में आबाद है।

कॉमन ईरा (सीई) के वर्ष 1400 के आसपास ये लोग ऐसे पहले मुसलमान  हैं जो कि बर्मा के अराकान प्रांत में आकर बस गए थे। इनमें से बहुत से लोग 1430 में अराकान पर शासन करने वाले बौद्ध राजा नारामीखला (बर्मीज में मिन सा मुन) के राज दरबार में नौकर थे। इस राजा ने मुस्लिम सलाहकारों और दरबारियों को अपनी राजधानी में प्रश्रय दिया था।

अराकान म्यांमार की पश्चिमी सीमा पर है और यह आज के बांग्लादेश (जो कि पूर्व में बंगाल का एक हिस्सा था) की सीमा के पास है। इस समय के बाद अराकान के राजाओं ने खुद को मुगल शासकों की तरह समझना शुरू किया। ये लोग अपनी सेना में मुस्लिम पदवियों का उपयोग करते थे। इनके दरबार के अधिकारियों ने नाम भी मुस्लिम शासकों के दरबारों की तर्ज पर रखे गए।

वर्ष 1785 में बर्मा के बौद्ध लोगों ने देश के दक्षिणी हिस्से अराकान पर कब्जा कर लिया। तब उन्होंने रोहिंग्या मुस्लिमों को या तो इलाके से बाहर खदेड़ दिया या फिर उनकी हत्या कर दी। इस अवधि में अराकान के करीब 35 हजार लोग बंगाल भाग गए जो कि तब अंग्रेजों के अधिकार क्षेत्र में था। वर्ष 1824 से लेकर 1826 तक चले एंग्लो-बर्मीज युद्ध के बाद 1826 में अराकान अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया।

तब अंग्रेजों ने बंगाल के स्थानीय बंगालियों को प्रोत्साहित किया कि वे अराकान ने जनसंख्या रहित क्षेत्र में जाकर बस जाएं। रोहिंग्या मूल के मुस्लिमों और बंगालियों को प्रोत्साहित किया गया कि वे अराकान (राखिन) में बसें। ब्रिटिश भारत से बड़ी संख्या में इन प्रवासियों को लेकर स्थानीय बौद्ध राखिन लोगों में विद्वेष की भावना पनपी और तभी से जातीय तनाव पनपा जो कि अभी तक चल रहा है।

बर्मा में ब्रिटिश शासन स्थापना की तीन अवस्थाएँ हैं। सन्‌ 1826 ई. में प्रथम बर्मायुद्ध में अँग्रेजों ने आराकान तथा टेनैसरिम पर अधिकार प्राप्त किया। सन्‌ 1852 ई. में दूसरे युद्ध के फलस्वरूप वर्मा का दक्षिणी भाग इनके अधीन हो गया तथा 1886 ई. में संपूर्ण बर्मा पर इनका अधिकार हो गया और इसे ब्रिटिश भारतीय शासनांतर्गत रखा गया।

बहरहाल अराकान में बंगाली मुसलमानों के बसने के प्रथम प्रमाण पंद्रहवीं ईसवी शताब्दी के चौथे दशक से मिलते हैं।

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बर्मा पर जापान के क़ब्ज़े के बाद आराकान में बौद्धमत के अनुयाई रख़ाइन और रोहिंग्या मुसलमानों के मध्य रक्तरंजित झड़पें हुईं। रख़ाइन की जनता जापानियों की सहायता कर रही थी और रोहिंग्या अंग्रेज़ों के समर्थक थे इसीलिए जापान ने भी रोहिंग्या मुसलमानों पर जम कर अत्याचार किया।

बर्मा 4 जनवरी 1948 को ब्रिटिश उपनिवेशवाद के चंगुल से मुक्त हुआ और वहाँ 1962 तक लोकतान्त्रिक सरकारें निर्वाचित होती रहीं। 2 मार्च, 1962 को जनरल ने विन के नेतृत्व में सेना ने तख्तापलट करते हुए सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया और यह कब्ज़ा तबसे आजतक चला आ रहा है। 1988 तक वहाँ एकदलीय प्रणाली थी और सैनिक अधिकारी बारी-बारी से सत्ता-प्रमुख बनते रहे। सेना-समर्थित दल बर्मा सोशलिस्ट प्रोग्राम पार्टी के वर्चस्व को धक्का 1988 में लगा जब एक सेना अधिकारी सॉ मॉंग ने बड़े पैमाने पर चल रहे जनांदोलन के दौरान सत्ता को हथियाते हुए एक नए सैन्य परिषद् का गठन कर दिया जिसके नेतृत्व में आन्दोलन को बेरहमी से कुचला गया। अगले वर्ष इस परिषद् ने बर्मा का नाम बदलकर म्यांमार कर दिया।

ब्रिटिश शासन के दौरान बर्मा दक्षिण-पूर्व एशिया के सबसे धनी देशों में से था। विश्व का सबसे बड़ा चावल-निर्यातक होने के साथ शाल (टीक) सहित कई तरह की लकड़ियों का भी बड़ा उत्पादक था। वहाँ के खदानों से टिन, चांदी, टंगस्टन, सीसा, तेल आदि प्रचुर मात्रा में निकले जाते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध में खदानों को जापानियों के कब्ज़े में जाने से रोकने के लिए अंग्रेजों ने भारी मात्र में बमबारी कर उन्हें नष्ट कर दिया था। स्वतंत्रता के बाद दिशाहीन समाजवादी नीतियों ने जल्दी ही बर्मा की अर्थ-व्यवस्था को कमज़ोर कर दिया और सैनिक सत्ता के दमन और लूट ने बर्मा को आज दुनिया के सबसे गरीब देशों की कतार में ला खड़ा किया है।

दूसरे द्वितीव विश्व युद्ध के दौरान दक्षिण पूर्व एशिया में जापान के बढ़ते दबदबे से आतंकित अंग्रेजों ने अराकान छोड़ दिया और उनके हटते ही मुस्लिमों और बौद्ध लोगों में एक दूसरे का कत्ले आम करने की प्रतियोगिता शुरू हो गई। इस दौर में बहुत से रोहिंग्या मुस्लिमों को उम्मीद थी कि वे ‍अंग्रेजों से सुरक्षा और संरक्षण पा सकते हैं। इस कारण से इन लोगों ने एलाइड ताकतों के लिए जापानी सैनिकों की जासूसी की। जब जापानियों को यह बात पता लगी तो उन्होंने रोहिंग्या मुस्लिमों के खिलाफ यातनाएं देने, हत्याएं और बलात्कार करने का कार्यक्रम शुरू किया। इससे डर कर अराकान से लाखों रोहिंग्या मुस्लिम फिर एक बार बंगाल भाग गए।

द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति और 1962 में जनरल नेविन के नेतृत्व में तख्तापलट की कार्रवाई के दौर में रोहिंग्या मुस्लिमों ने अराकान में एक अलग रोहिंग्या देश बनाने की मांग रखी, लेकिन तत्कालीन बर्मी सेना के शासन ने यांगून (पूर्व का रंगून) पर कब्जा करते ही अलगाववादी और गैर राजनीतिक दोनों ही प्रकार के रोहिंग्या लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की। सैनिक शासन ने रोहिंग्या लोगों को नागरिकता देने से इनकार कर दिया और इन्हें बिना देश वाला (स्टेट लैस) बंगाली घोषित कर दिया।

तब से स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है। संयुक्त राष्ट्र की कई रिपोर्टों में कहा गया है कि रोहिंग्या दुनिया के ऐसे अल्पसंख्यक लोग हैं, जिनका लगातार सबसे अधिक दमन किया गया है। बर्मा के सैनिक शासकों ने 1982 के नागरिकता कानून के आधार पर उनसे नागरिकों के सारे अधिकार छीन लिए हैं। ये लोग सुन्नी इस्लाम को मानते हैं और बर्मा में इन पर सरकारी प्रतिबंधों के कारण ये पढ़-लिख भी नहीं पाते हैं तथा केवल बुनियादी इस्लामी तालीम हासिल कर पाते हैं।

बर्मा के शासकों और सैन्य सत्ता ने इनका कई बार नरसंहार किया, इनकी बस्तियों को जलाया गया, इनकी जमीन को हड़प लिया गया, मस्जिदों को बर्बाद कर दिया गया और इन्हें देश से बाहर खदेड़ दिया गया। ऐसी स्थिति में ये बांग्लादेश की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं, थाईलैंड की सीमावर्ती क्षेत्रों में घुसते हैं या फिर सीमा पर ही शिविर लगाकर बने रहते हैं। 1991-92 में दमन के दौर में करीब ढाई लाख रोहिंग्या बांग्लादेश भाग गए थे। इससे पहले इनको सेना ने बंधुआ मजदूर बनाकर रखा, लोगों की हत्याएं भी की गईं, यातनाएं दी गईं और बड़ी संख्या में महिलाओं से बलात्कार किए गए।

संयुक्त राष्ट्र, एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी संस्थाएं रोहिंया लोगों की नारकीय स्थितियों के लिए म्यांमार की सरकारों को दोषी ठहराती रही हैं, लेकिन सरकारों पर कोई असर नहीं पड़ता है। पिछले बीस वर्षों के दौरान किसी भी रोहिंग्या स्कूल या मस्जिद की मरम्मत करने का आदेश नहीं दिया गया है। नए स्कूल, मकान, दुकानें और मस्जिदों को बनाने की इन्हें इजाजत ही नहीं दी जाती है।

इनके मामले में म्यांमार की सेना ही क्या वरन देश में लोकतंत्र की स्थापना का श्रेय लेने वाली आंग सान सूकी का भी मानना है कि रोहिंग्या मुस्लिम म्यांमार के नागरिक ही नहीं हैं। वे भी देश की राष्ट्रपति बनना चाहती हैं, लेकिन उन्हें भी रोहिंग्या लोगों के वोटों की दरकार नहीं है, इसलिए वे इन लोगों के भविष्य को लेकर तनिक भी चिंता नहीं पालती हैं। उन्हें भी राष्ट्रपति की कुर्सी की खातिर केवल सैनिक शासकों के साथ बेतहर तालमेल बैठाने की चिंता रहती है।

उन्होंने कई बार रोहिंग्या लोगों की हालत पर चिंता जाहिर की, लेकिन कभी भी सैनिक शासकों की आलोचना करने का साहस नहीं जुटा सकीं। इसी तरह उन्होंने रोहिंग्या लोगों के लिए केवल दो बच्चे पैदा करने के नियम को मानवाधिकारों का उल्लंघन बताया, लेकिन उन्होंने इसका संसद में विरोध करने की जरूरत नहीं समझी।

रोहिंग्या लोगों के खिलाफ बौद्ध लोगों की हिंसा तो समझ में आती है, लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि इस हिंसा में अब बौद्ध भिक्षु भी भाग लेने लगे हैं। इस स्थिति को देखने के बाद भी आंग सान सूकी म्यांमार के लोकतंत्र के लिए संघर्ष में भारत की चुप्पी की कटु आलोचना करती हैं, लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों की यह वैश्विक नायिका रोहिंग्या मुस्लिमों के बारे में कभी एक बात भी नहीं कहती हैं। और अगर कहती हैं तो केवल यह कि रोहिंग्या म्यांमार के नागरिक नहीं हैं और कोई भी उन्हें देश का नागरिक बनाने की इच्छा भी नहीं रखता है।

संयुक्त राष्ट्र प्रमुख ने म्यांमार को चेतावनी दी है कि यदि वह एक विश्वसनीय देश के रूप में देखा जाना चाहता है तो उसे देश के पश्चिमी हिस्से में रह रहे अल्पसंख्यक मुसलमानों पर बौद्धों के हमले रोकना होगा।

गौरतलब है  कि गत वर्ष बौद्ध देश म्यांमार में अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ गुटीय हिंसा में बड़ी संख्या में लोग मारे गए थे और करीब एक लाख 40 हजार लोग बेघर हो गए थे। कुछ लोगों का मानना है कि यह स्थिति म्यांमार के राजनीतिक सुधारों के लिए खतरा है क्योंकि इससे सुरक्षा बल फिर से नियंत्रण स्थापित करने के लिए प्रेरित हो सकते हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून ने हाल ही में कहा कि म्यांमार के अधिकारियों के लिए यह जरूरी है कि वह मुस्लिम-रोहिंग्या की नागरिकता की मांग सहित अल्पसंख्यक समुदायों की वैधानिक शिकायतों को दूर करने के लिए आवश्यक कदम उठाएं। उन्होंने कहा कि ऐसा करने में असफल रहने पर सुधार प्रक्रिया कमजोर होगी और नकारात्मक क्षेत्रीय दुष्परिणाम ही मिलेंगे।

खुद संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि कुल आठ लाख रोहिंग्या आबादी का करीब एक चौथाई भाग विस्थापित है और उससे ज्यादा बुरा हाल अभी दुनिया की अन्य किसी भी विस्थापित कौम का नहीं है। रोहिंग्या विस्थापितों का सबसे बड़ा हिस्सा थाईलैंड और बांग्लादेश में रह रहा है, लेकिन अब भारत, मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे नजदीकी देशों में भी उनके जत्थे देखे जाने लगे हैं।


यह सचाई है कि बर्मा में बहुसंख्यक बौद्ध आबादी के बीच पिछले एक-दो सालों से ऐसा कट्टरपंथी प्रचार अभियान चलाया जा रहा है, जिसका शिकार वहां के सभी अल्पसंख्यकों को होना पड़ रहा है। बर्मा के फौजी शासकों ने आंग सान सू की के नेतृत्व वाले लोकतांत्रिक आंदोलन का असर कम करने के लिए दो फॉर्मूलों पर अमल किया है। एक तो चीन के साथ नजदीकी बनाकर भारत के लोकतंत्र समर्थक रुझान को कुंद कर दिया और दूसरा, बहुसंख्यक कट्टरपंथ की पीठ पर अपना हाथ रखकर खुद को धर्म-संस्कृति और राष्ट्रीय अखंडता के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में पेश किया।

राष्ट्र की उत्पति के इतिहास देखें तो यूरोप में तत्कालीन राज्य पर ऐसे राजा का शासन था जो घमण्ड से कह सकता था कि मैं ही राज्य हूँ। लेकिन, इसी सर्वसत्तावादी चरित्र के भीतर सांस्कृतिक, भाषाई और जातीय समरूपता वाले 'राष्ट्र' की स्थापना की परिस्थितियाँ मौजूद थीं। सामंती वर्ग को प्रतिस्थापित करने वाला वणिक बूर्ज़्वा (जो बाद में औद्योगिक बूर्ज़्वा में बदल गया) राजाओं का अहम राजनीतिक सहयोगी बन चुका था। एक आत्मगत अनुभूति के तौर पर राष्ट्रवाद का दर्शन इसी वर्ग के अभिजनों के बीच पनपना शुरू हुआ। जल्दी ही ये अभिजन अधिक राजनीतिक अधिकारों और प्रतिनिधित्व के लिए बेचैन होने लगे। पूरे पश्चिमी युरोप में विधानसभाओं और संसदों में इनका बोलबाला स्थापित होने लगा। इसका नतीजा युरोपीय आधुनिकता की शुरुआत में राजशाही और संसद के बीच टकराव की घटनाओं में निकला। 1688 में इंग्लैण्ड में हुई ग्लोरियस रेवोल्यूशन इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। इस द्वंद्व में पूँजीपति वर्ग के लिए लैटिन भाषा का शब्द 'नेशियो' महत्त्वपूर्ण बन गया। इसका मतलब था जन्म या उद्गम या मूल। इसी से 'नेशन' बना।अट्ठारहवीं सदी में जब सामंतवाद चारों तरफ़ पतनोन्मुख था और युरोप औद्योगिक क्रांति के दौर से गुज़र रहा था, पूँजीपति वर्ग के विभिन्न हिस्से राष्ट्रवाद की विचारधारा के तले एकताबद्ध हुए। उन्होंने ख़ुद को एक समरूप और घनिष्ठ एकता में बँधे राजनीतिक समुदाय के प्रतिनिधियों के तौर पर देखा।

सामंती और पूंजीवादी हित में आधुनिक पश्चिमी राष्ट्रवाद है तो यह बारत के सत्ता वर्ग का कारपोरेट एजंडा भी है।ख़ुद को नेशन कह कर यह नस्ली वर्ण वर्ग वर्चस्व का सत्तावर्ग डिजिटल सैन्य राष्ट्र  के राजनीतिक राजनीतिक इस्तेमाल से अपने निजी और कारपोरेट हित साध सकता है। बहरहाल यूरोप में  सत्ता  वर्ग से बाहर का साधारण जनता ने राष्ट्रवाद के विचार का इस्तेमाल राजसत्ता के आततायी चरित्र के ख़िलाफ़ ख़ुद को एकजुट करने में किया। जनता को ऐसा इसलिए करना पड़ा कि पूँजीपति वर्ग के समर्थन से वंचित होती जा रही राजशाहियाँ अधिकाधिक निरंकुश और अत्याचारी होने लगी थीं। जनता बार-बार मजबूरन सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर थी जिसका नतीजा फ़्रांसीसी क्रांति जैसी युगप्रवर्तक घटनाओं में निकला। कहना न होगा कि हुक्मरानों के ख़िलाफ़ जन-विद्रोहों का इतिहास बहुत पुराना था, पर अट्ठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के युरोप में यह गोलबंदी राष्ट्रवाद के झण्डे तले हो रही थी।  इनका नेतृत्व अभिजनों के हाथ में रहता था और लोकप्रिय तत्त्व घटनाक्रम में ज्वार- भाटे का काम करते थे। किसी भी स्थानीय विद्रोह का लाभ उठा कर पूँजीपति वर्ग  राजशाही के ख़िलाफ़ सम्पूर्ण राष्ट्रवादी आंदोलन की शुरुआत कर देता था।


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