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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Saturday, September 23, 2017

रवींद्र का दलित विमर्श-33 वंदेमातरम् की मातृभूमि अब विशुद्ध पितृभूमि है। जहां काबूलीवाला जैसा पिता कोई नहीं है। काबूलीवाला,मुसलमानीर गल्पो और आजाद भारत में मुसलमान रवींद्रनाथ की कहानियों में सतह से उठती मनुष्यता का सामाजिक यथार्थ,भाववाद या आध्यात्म नहीं! आजाद निरंकुश हिंदू राष्ट्र का यह धर्मोन्माद भारत के किसानों ,आदिवासियों,स्त्रियों और दलितों के खिलाफ है,इसे हम सिर्फ मुसल�

रवींद्र का दलित विमर्श-33

वंदेमातरम् की मातृभूमि अब विशुद्ध पितृभूमि है।

जहां काबूलीवाला जैसा पिता कोई नहीं है।


काबूलीवाला,मुसलमानीर गल्पो और आजाद भारत में मुसलमान

रवींद्रनाथ की कहानियों में सतह से उठती मनुष्यता का सामाजिक यथार्थ,भाववाद या आध्यात्म नहीं!

आजाद निरंकुश हिंदू राष्ट्र का यह धर्मोन्माद भारत के किसानों ,आदिवासियों,स्त्रियों और दलितों के खिलाफ है,इसे हम सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ समझने की भूल कर रहे हैं।

पलाश विश्वास

kabuliwala এর ছবি ফলাফল


रवींद्रनाथ की कहानियों में सतह से उठती सार्वभौम मनुष्यता का सामाजिक यथार्थ है।विषमता की पितृसत्ता का प्रतिरोध है।अन्य विधाओं में लगभग अनुपस्थित वस्तुवादी दृष्टिकोण है।मनुस्मृति के खिलाफ,सामाजिक विषमता के खिलाफ,नस्ली वर्चस्व के खिलाफ अंत्यज,बहिस्कृतों की जीवनयंत्रणा का चीत्कार है।कुचली हुई स्त्री अस्मिता का खुल्ला विद्रोह है।न्याय और समानता के लिए संघर्ष की साझा विरासत है।

रवींद्रनाथ की गीताजंलि,उनकी कविताओं,उनकी नृत्य नाटिकाओं,नाटकों और उपन्यासों में भक्ति आंदोलन,सूफी संत वैष्णव बाउल फकीर गुरु परंपरा के असर और इन रचनाओं पर वैदिकी,अनार्य,द्रविड़,बौद्ध साहित्य और इतिहास,रवींद्र के आध्यात्म और उनके भाववाद के साथ उनकी वैज्ञानिक दृष्टि की हम सिलसिलेवार चर्चा करते रहे हैं।इन विधाओं के विपरीत अपनी कहानियों में रवींद्रनाथ का सामाजिक यथार्थ भाववाद और आध्यात्म के बजाय वस्तुवादी दृष्टिकोण से अभिव्यक्त है।इसलिए उनकी कहानियां ज्यादा असरदार हैं।

आज हम रोहिंगा मुसलमानों को भारत से खदेड़ने के प्रयास के संदर्भ में आजाद भारत में मुसलमानों की स्थिति समझने के लिए उनकी दो कहानियों काबूलीवाल और मुसलमानीर गल्पो की चर्चा करेंगे।इन दोनों कहानियों में मनुष्यता के धर्म की साझा विरासत के आइने में रवींद्र के विश्वमानव की छवि बेहद साफ हैं।

गुलाम औपनिवेशिक भारत में सामाजिक संबंधों का जो तानाबाना इस साझा विरासत की वजह से बना हुआ था,राजनीतिक सामाजिक संकटों के मध्य वह अब मुक्तबाजारी डिजिटल इंडिया में तहस नहस है।

उत्पादन प्रणाली सिरे से खत्म है।

खात्मा हो गया है कृषि अर्थव्यवस्था,किसानों और खेती प्रकृति पर निर्भर सारे समुदायों के नरसंहार उत्सव के अच्छे दिन हैं इन दिनों,जहां अपनी अपनी धार्मिक पहचान के कारण मारे जा रहे हैं हिंदू और मुसलमान किसान,आदिवासी,शूद्र,दलित,स्त्री और बच्चे।

आजाद निरंकुश हिंदू राष्ट्र का यह धर्मोन्माद भारत के किसानों ,आदिवासियों,स्त्रियों और दलितों के खिलाफ है,इसे हम मुसलमानों के खिलाफ समझने की भूल कर रहे हैं।

आज धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की सुनामी में धार्मिक जाति नस्ली पहचान की वजह से मनुष्यों की असुरक्षा के मुकाबले विकट परिस्थितियों में भी सामाजिक सुरक्षा का पर्यावरण है।भारतविभाजन के संक्रमणकाल में भी घृणा,हिंसा,अविश्वास,शत्रुता का ऐसा स्रवव्यापी माहौल नहीं है जहां हिंदू या मुसलमान बहुसंख्य के आतंक का शिकार हो जाये।रवींद्रनाथ की कहानियों में उस विचित्र भारत के बहुआयामी चित्र परत दर परत है,जिसे खत्म करने पर आमादा है श्वेत आतंकवाद का यह नस्ली धर्मयुद्ध।

उनकी कहानियों में औपनिवेशिक भारत की उत्पादन प्रणाली का सामाजिक तानाबाना है जहां गांवों की पेशागत जड़ता औद्योगिक उत्पादन प्रणाली में टूटती हुई नजर आती है तो नगरों और महानगरों की जड़ें भी गांवों की कृषि व्यवस्था में है।

कृषि निर्भर जनपदों को बहुत नजदीक से रवींद्रनाथ ने पूर्वी बंगाल में देखा है और इसी कृषि व्यवस्था को सामूहिक सामुदायिका उत्पादन पद्धति के तहत आधुनिक ज्ञान विज्ञान के सहयोग से समृद्ध संपन्न भारत जनपदों की जमीन से बनाने का सपना था उनका।जो उनके उपन्यासों का भी कथानक है।

इस भारत का कोलकाता एक बड़ा सा गांव है जिसका कोना कोना अब बाजार है।

इस भारत में शिव अनार्य किसान है तो काली आदिवासी औरत।धर्म की सारी प्रतिमाएं कृषि समाज की अपनी प्रतिमाएं हैं।

जहां सारे धर्मस्थल धर्मनिरपेक्ष आस्था के केंद्र है,जिनमें पीरों का मजार भी शामिल है। जहां हिंदू मुसलमान अपने अपने पर्व और त्योहार साथ साथ मनाते हैं।पर्व और त्योहारों को लेकर जहां कोई विवाद था ही नहीं।

रवींद्रनाथ प्रेमचंद से पहले शायद पहले भारतीय कहानीकार है,जिनकी कहानियों में बहिस्कृत अंत्यज मनुष्यता की कथा है।

जिसमें कुचली हुई स्त्री अस्मिता का ज्वलंत प्रतिरोध है और भद्रलोक पाखंड के मनुस्मृति शासन के विरुद्ध तीव्र आक्रोश है।

आम किसानों की जीवन यंत्रणा है और अपनी जमीन से बेदखली के खिलाफ गूंजती हुई चीखें हैं तो गांव और शहर के बीच सेतुबंधन का डाकघर भी है।

दासी नियति के खिलाफ पति के पतित्व को नामंजूर करने वाला स्त्री का पत्र भी है।

रवींद्रनाथ की पहली कहानी भिखारिनी 1874 में प्रकाशित हुई।सत्तावर्ग से बाहर वंचितों की कथायात्रा की यह शुरुआत है।

1890 से बंगाल के किसानों के जीवन से सीधे अपनी जमींदारी की देखरेख के सिलसिले में ग्राम बांग्ला में बार बार प्रवास के दौरान जुड़ते चले गये और 1991 से लगातार उनकी कहानियों में इसी कृषि समाज की कथा व्यथा है।

उन्होंने कुल 119 कहानियां लिखी हैं।उऩके दो हजार गीतों में जो लोकसंस्कृति की गूंज परत दर परत है,उसका वस्तुगत सामाजिक यथार्थ इन्हीं कहानियों में हैं।

कविताओं की साधु भाषा के बदले कथ्यभाषा का चमत्कार इन कहानियों में है,जो क्रमशः उनकी कविताओं में भी संक्रमित होती रही है।

अपनी कहानियों के बारे में खुद रवींद्रनाथ का कहना हैः

..'এগুলি নেহাত বাস্তব জিনিস। যা দেখেছি, তাই বলেছি। ভেবে বা কল্পনা করে আর কিছু বলা যেত, কিন্তু তাতো করিনি আমি।' (২২ মে ১৯৪১)

রবীন্দ্রনাথের উক্তি। আলাপচারি

इसी सिलसिले में बांग्लादेशी लेखक इमरान हुसैन की टिप्पणी गौरतलब हैः

তার গল্পে অবলীলায় উঠে এসেছে বাংলাদেশের মানুষ আর প্রকৃতি। তার জীবনে গ্রামবাংলার সাধারণ মানুষের জীবনাচার বিশ্ময়ের সৃষ্টি করে। তার গল্পের চরিত্রগুলোও বিচিত্র_ অধ্যাপক, উকিল, এজেন্ট, কবিরাজ, কাবুলিওয়ালা, কায়স্থ, কুলীন, খানসামা, খালাসি, কৈবর্ত, গণক, গোমস্তা, গোয়ালা, খাসিয়াড়া, চাষী, জেলে, তাঁতি, নাপিত, ডেপুটি ম্যাজিস্ট্রেট, দারোগা, দালাল প-িতমশাই, পুরাতন বোতল সংগ্রহকারী, নায়েব, ডাক্তার, মেথর, মেছুনি, মুটে, মুদি, মুন্সেফ, যোগী, রায়বাহাদুর, সিপাহী, বাউল, বেদে প্রমুখ। তার গল্পের পুরুষ চরিত্র ছাড়া নারী চরিত্র অধিকতর উজ্জ্বল। বিভিন্ন গল্পের চরিত্রের প্রসঙ্গে রবীন্দ্রনাথ একসময় তারা শঙ্কর বন্দ্যোপাধ্যায়কে লিখেছিলেন 'পোস্ট মাস্টারটি আমার বজরায় এসে বসে থাকতো। ফটিককে দেখেছি পদ্মার ঘাটে। ছিদামদের দেখেছি আমাদের কাছারিতে।'

अनुवादः उनकी कहानियों में बांग्लादेश के आम लोग और प्रकृति है।उनके जीवन में बांग्लादेश के आम लोगों के रोजमर्रे के  जीवनयापन ने विस्मय की सृष्टि की है।उनकी कहानियों के पात्र भी चित्र विचित्र हैं-अध्यापक, वकील, एजेंट, वैद्य कविराज, काबूलीवाला, कायस्थ, कुलीन, कैवर्त किसान मछुआरा, ज्योतिषी, जमींदार का गोमस्ता, ग्वाला, खासिवाड़ा, हलवाहा, मछुआरा, जुलाहा, नाई, डिप्टी मजिस्ट्रेट, दरोगा, दलाल, पंडित मशाय, पुरानी बोतल बटोरनेवाला, नायब, डाक्टर, सफाईकर्मी, मछुआरिन, बोझ ढोने वाला मजदूर, योगी, रायबहादुर, सिपाही, बाउल, बंजारा, आदि। उनकी कहानियों के पुरुषों के मुकाबले स्त्री पात्र कहीूं ज्यादा सशक्त हैं।अपनी विभिन्न कहानियों के पात्रों के बारे में रवींद्रनाथ ने कभी ताराशंकर बंद्योपाध्याय को लिखा था-पोस्टमास्टर मेरे साथ बजरे (बड़ी नौका) में अक्सर बैठा रहता था।फटिक को पद्मा नदी के घाट पर देखा।छिदाम जैसे लोगों को मैंने अपनी कचहरी में देखा।

अनुवादः यह खालिस वास्तव है।जो अपनी आंखों से देखा है,वही लिख दिया।सोचकर,काल्पनिक कुछ लिखा जा सकता था,लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया है।(22 मई,1941।

रवींद्रनाथ का कथन।आलापचारिता (संवा्द)।

(संदर्भः রবীন্দ্রনাথের ছোটগল্প, http://www.jaijaidinbd.com/?view=details&archiev=yes&arch_date=20-06-2012&feature=yes&type=single&pub_no=163&cat_id=3&menu_id=75&news_type_id=1&index=0)

काबूलीवाला की कथाभूमि अफगानिस्तान से लेकर कोलकाता के व्यापक फलक से जुड़ी है,जहां इंसानियत की कोई सरहद नहीं है।काबूली वाला पिता और बंगाली पिता,काबूली वाला की बेटी राबेया और बंगाल की बालिका मिनी में कोई प्रति उनकी जाति,उनके धर्म,उनकी पहचान,उनकी भाषा और उनकी राष्ट्रीयता की वजह से नहीं है।

काबूलीवाला के कोलकाता और आज के कोलकाता में आजादी के बाद क्या फर्क आया है और वैष्णव बाउल फकीर सूफी संत परंपरा की साझा विरासत किस हद तक बदल गयी है वह हाल के दुर्गापूजा मुहर्रम विवाद से साफ जाहिर है।

रोहिंग्या मुसलमान तो फिरभी विदेशी हैं और भारत और बांग्लादेश की दोनों सरकारें रोहिंग्या अलग राष्ट्र आंदोलन की वजह से इस्लामी राष्ट्रवादी संगठनों के साथ इन शरणार्थियों को जोड़कर सुरक्षा का सवाल उठा रहीं हैं।

भारतीय नागरिक जो मुसलमान रोज गोरक्षा के नाम मारे जा रहे हैं,फर्जी मुठभेड़ों में मारे जा रहे हैं,कश्मीर में बेगुनाह मारे जा रहे हैं,दंगो में मारे जा रहे हैं, नरसंहार के शिकार हो रहे हैं और नागरिक मानवाधिकारों से वंचित हो रहे हैं और हरकहीं शक के दायरे में हैं ,शक के दायरे में मारे जा रहे हैं, उनकी आज की कथा और काबूलीवाला के कोलकाता में कितना फर्क है,यह समझना बेहद जरुरी है।

बांग्ला और हिंदी में बेहद लोकप्रिय फिल्में काबूली वाला पर बनी हैं।दक्षिण भारत में भी काबूलीवाला पर फिल्म बनी है।भारतीय भाषाओं के पाठकों के लिए यह कहानी अपरिचित नहीं है।

काबूलीवाला की ख्याति निर्मम सूदखोर की तरह है।वैसे ही जैसे कि  यूरोेप में मध्यकाल में यहूदी सूदखोरों की ख्याति है।

मर्चेंट आफ वेनिस में शेक्सपीअर ने सूदखोर शाइलाक का निर्मम चरित्र पेश किया है।इसके विपरीत रवींद्रनाथ का काबूलीवाला एक मनुष्य है,एक पिता है।

रवींद्रनाथ का काबूलीवाला कोई सूदखोर महाजन नहीं है।

वह  काबूलीवाला अफगानिस्तान में कर्ज में फंसने के कारण अपनी प्यारी बेटी को छोड़कर हिंदकुश पर्वत के दर्रे से भारत आया है तिजारत के जरिये रोजगार के लिए।

काबूलीवाला सार्वभौम पिता है,विश्वमानव विश्व नागरिक है और अपने देश में पीछे छूट गयी अपनी बेटी के प्रति उसका प्रेम मिनी के प्रति प्रेम में बदलकर सार्वभौम प्रेम बन गया है।वह न विभाजनपीड़ित शरणार्थी है,न तिब्बत या श्रीलंका का युद्धपीड़ित, न वह रोहिंग्या मुसलमान है और न मध्य एशिया के धर्मयुद्ध का शिकार।

आज के भारतवर्ष में,आज के कोलकाता में रोहिंग्या मुसलमानों कीतरह काबूलीवाला की कोई जगह नहीं है और आजाद हिंदू राष्ट्र में मुसलमानों, बौद्धों, सिखों, ईसाइयों समेत तमाम गैरहिंदुओं,अनार्य द्रविड़ नस्लों,असुरों के वंशजों, आदिवासियों, किसानों,शूद्रों,दलितों और स्त्रियों के लिए कोई जगह नहींं।

वंदेमातरम् की मातृभूमि अब विशुद्ध पितृभूमि है।

जहां काबूलीवाला जैसे पिता के लिए कोई जगह नहीं है।

देखेंः

वह पास आकर बोला, ''ये अंगूर और कुछ किसमिस, बादाम बच्ची के लिए लाया था, उसको दे दीजिएगा।''

मैंने उसके हाथ से सामान लेकर पैसे देने चाहे, लेकिन उसने मेरे हाथ को थामते हुए कहा, ''आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब, हमेशा याद रहेगी, पिसा रहने दीजिए।'' तनिक रुककर फिर बोला- ''बाबू साहब! आपकी जैसी मेरी भी देश में एक बच्ची है। मैं उसकी याद कर-कर आपकी बच्ची के लिए थोड़ी-सी मेवा हाथ में ले आया करता हूँ। मैं यह सौदा बेचने नहीं आता।''

कहते हुए उसने ढीले-ढाले कुर्ते के अन्दर हाथ डालकर छाती के पास से एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकाला, और बड़े जतन से उसकी चारों तहें खोलकर दोनों हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया।

देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हे-से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप है। फोटो नहीं, तेलचित्र नहीं, हाथ में-थोड़ी-सी कालिख लगाकर कागज के ऊपर उसी का निशान ले लिया गया है। अपनी बेटी के इस स्मृति-पत्र को छाती से लगाकर, रहमत हर वर्ष कलकत्ता के गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है और तब वह कालिख चित्र मानो उसकी बच्ची के हाथ का कोमल-स्पर्श, उसके बिछड़े हुए विशाल वक्ष:स्थल में अमृत उड़ेलता रहता है।

देखकर मेरी आँखें भर आईं और फिर मैं इस बात को बिल्कुल ही भूल गया कि वह एक मामूली काबुली मेवा वाला है, मैं एक उच्च वंश का रईस हूँ। तब मुझे ऐसा लगने लगा कि जो वह है, वही मैं हूँ। वह भी एक बाप है और मैं भी। उसकी पर्वतवासिनी छोटी बच्ची की निशानी मेरी ही मिनी की याद दिलाती है। मैंने तत्काल ही मिनी को बाहर बुलवाया; हालाँकि इस पर अन्दर घर में आपत्ति की गई, पर मैंने उस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। विवाह के वस्त्रों और अलंकारों में लिपटी हुई बेचारी मिनी मारे लज्जा के सिकुड़ी हुई-सी मेरे पास आकर खड़ी हो गई…..


इस कहानी बनी बाग्ला फिल्म में हिंदकुश दर्रे के लंबे दृश्य बेहद प्रासंगिक है क्योंकि इसी दर्रे की वजह से भारत में बार बार विदेशी हमलावर आते रहे हैं।आर्य,शक हुण कुषाण,पठान मुगल सभी उसी रास्ते से आये और भारतीय समाज और संस्कृति के अभिन्न हिस्सा बन गये।सिर्फ यूरोप के साम्राज्यवादी पुर्तगीज,फ्रेंच,डच,अंग्रेज वगैरह उस रास्ते से नहीं आये।वे समुंदर के रास्ते से आये और भारतीय समाज और संस्कृति के हिस्सा नहीं बने। बेहतर हो कि काबुली वाला पर बनी बांग्ला या हिंदी फिल्म दोबारा देख लें।

मुसलमानीर गल्पो की काबुलीवाला की तरह लोकप्रियता नहीं है लेकिन यह कहानी भारतीय साझा विरासत की कथा धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के विरुद्ध है।

14 अप्रैल,1941 को रवींद्रनाथ के 80 वें जन्मदिन के अवसर पर शांतिनिकेतन में उनका बहुचर्चित निबंध सभ्यता का संकट पुस्तकाकार में प्रकाशित और वितरित हुआ।7 अगस्त,1941 में कोलकाता में उनका निधन हो गया।

मृत्यु से महज छह सप्ताह पहले 2425 अप्रैल को उन्होंने अपनी आखिरी कहानी मुसलमानीर गल्पो लिखी,जिसमें वर्ण व्यवस्था और सवर्ण हिंदुओं की विशुद्धतावादी कट्टरता की कड़ी आलोचना करते हुए मुसलमानों की उदारता के बारे में उन्होंने लिखा।हिंदू समाज के अत्याचार और बहिस्कार के खिलाफ धर्मांतरण की कथा भी यह है।आखिरी कहानी होने के बावजूद मुसलमानीर गल्पो की चर्चा बहुत कम हुई है और गैरबंगाली पाठकों में से बहुत कम लोगों को इसकी जानकारी होगी।

गौरतलब है कि अपने सभ्यता के संकट में रवींद्रनाथ नें नस्ली राष्ट्रीयता के यूरोपीय धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद का विरोध भारत के सांप्रदायिक ध्रूवीकरण के संदर्भ में करते हुए ब्रिटिश हुकूमत के अंत के बाद खंडित राष्ट्रीयताओं के सांप्रदायिक ध्रूवीकरण को चिन्हित करते हुए भारत के भविष्य के बारे में चिंता व्यक्त की थी।

दो राष्ट्र के सिद्धांत के तहत जब सांप्रदायिक ध्रूवीकरण चरम पर था,उसी दौरान मृत्यु से पहले धर्मांतरण के लिए वर्ण व्यवस्था की विशुद्धता को जिम्मेदार बताते हुए मुसलमानों की उदारता के कथानक पर आधारित रवींद्रनाथ की इस अंतिम कहानी की प्रासंगिकता पर अभी संवाद शुरु ही नहीं हुआ है।

इस कहानी में डकैतों के एक ब्राह्मण परिवार की सुंदरी कन्या को विवाह के बाद ससुराल यात्रा के दौरान उठा लेने पर हबीर खान नामक एक मुसलमान उसे बचा लेता है और अपने घर ले जाकर उसे अपने धर्म के अनुसार जीवन यापन करने का अवसर देता है। हबीर खान किसी नबाव साहेब की राजपूत बेगम का बेटा है ,जिसे अलग महल में बिना धर्मांतरित किये हिंदू धर्म के अनुसार जीवन यापन के लिए रखा गया था और वही महल हबीर खान का घर है।जहां एक शिव मंदिर और उसके लिए ब्राह्मण पुजारी भी है।कमला अपने घर वापस जाना चाहती हैतो हबीर उसे वहां  ले जाता है।

यह कन्या अनाथ हैं और अपने चाचा के घर में पली बढ़ी,जो उसकी सुंदरता की वजह से उसे अपनी सुरक्षा के लिए खतरा मानते हुए एक विवाहित बाहुबलि के साथ विदा करके अपनी जिम्मेदारी निभा चुका था।अब मुसलमान के घर होकर आयी, डकैतों से बचकर निकली अपनी भतीजी को दोबारा घर में रखने केलिे चाचा चाची तैयार नहीं हुए तो कमला फिर हबीर के साथ उसके घर लौट जाती है।

अपने चाचा के घर में प्रेम स्नेह से वंचित और बिना दोष बहिस्कृत कमला को हबीर के घर स्नेह मिलता है तो हबीर के बेटे से उसे प्रेम हो जाता है। वह इस्लाम कबूल कर लेती है।फिर उसके चाचा की बेटी का डकैत उसीकी तरह अपहरण कर लेते हैं तो मुसलमानी बनी कमला अपनी बहन को बचा लेती है और उसे उसके घर सुरक्षित सौप आती है।

इस कहानी में हबीर को हिंदुओं और मुसलमानों के लिए बराबर सम्मानीय बताया गया है जिसके सामने हिंदू  डकैत भी हथियार डाले देते हैं तो नबाव की राजपूत बेगम की कथा में जोधा अकबर कहानी की गूंज है।हबीर में कबीर की छाया है।दोनों ही प्रसंग भारतवर्ष की साझा विरासत के हैं।

इस कहानी में कमला का धर्मांतरण प्रसंग भी रवींद्रनाथ के पूर्वजों के गोमांस सूंघने के कारण विशुद्धतावाद की वजह से मुसलमान बना दिये जाने और टैगोर परिवार को अछूत बहिस्कृत पीराली ब्राह्मण बना दिये जाने के संदर्भ से जुड़ता है।

सांप्रदायिक ध्रूवीकरण और हिंदू मुस्लिम राष्ट्रवाद के विरुद्ध सभ्यता का संकट लिखने के बाद रवींद्रनाथ की इस कहानी में साझा विरासत की कथा आज के धर्मोन्मादी गोरक्षा तांडव के संदर्भ में बेहद प्रासंगिक है।

इस कथा के आरंभ में सामाजिक अराजकता,देवता अपदेवता पर निर्भरता, कानून और व्यवस्था की अनुपस्थिति और स्त्री की सुरक्षा के नाम पर उसके उत्पीड़न के सिलसिलेवार ब्यौरे के साथ स्त्री को वस्तु बना देने की पितृसत्ता पर कड़ा प्रहार है  तो सवर्णों में पारिवारिक संबंध,स्नेह प्रेम की तुलना में विशुद्धता के सम्मान की चिंता भी अभिव्यक्त है।पितृसत्ता की विशुद्धता के सिद्धांत के तहत सुरक्षा के नाम स्त्री उत्पीड़न की यह कथा आज घर बाहर असुरक्षित स्त्री,खाप पंचायत और आनर किलिंग का सच है।

তখন অরাজকতার চরগুলো কণ্টকিত করে রেখেছিল রাষ্ট্রশাসন, অপ্রত্যাশিত অত্যাচারের অভিঘাতে দোলায়িত হত দিন রাত্রি।দুঃস্বপ্নের জাল জড়িয়েছিল জীবনযাত্রার সমস্ত ক্রিয়াকর্মে, গৃহস্থ কেবলই দেবতার মুখ তাকিয়ে থাকত, অপদেবতার কাল্পনিক আশঙ্কায় মানুষের মন থাকত আতঙ্কিত। মানুষ হোক আর দেবতাই হোক কাউকে বিশ্বাস করা কঠিনছিল, কেবলই চোখের জলের দোহাই পাড়তে হত। শুভ কর্ম এবং অশুভ কর্মের পরিণামের সীমারেখা ছিল ক্ষীণ। চলতে চলতে পদে পদে মানুষ হোঁচট খেয়ে খেয়ে পড়ত দুর্গতির মধ্যে।

এমন অবস্থায় বাড়িতে রূপসী কন্যার অভ্যাগম ছিল যেন ভাগ্যবিধাতার অভিসম্পাত। এমন মেয়ে ঘরে এলে পরিজনরা সবাই বলত 'পোড়ারমুখী বিদায় হলেই বাঁচি'। সেই রকমেরই একটা আপদ এসে জুটেছিল তিন-মহলার তালুকদার বংশীবদনের ঘরে।

কমলা ছিল সুন্দরী, তার বাপ মা গিয়েছিল মারা, সেই সঙ্গে সেও বিদায় নিলেই পরিবার নিশ্চিন্ত হত। কিন্তু তা হল না, তার কাকা বংশী অভ্যস্ত স্নেহে অত্যন্ত সতর্কভাবে এতকাল তাকে পালন করে এসেছে।

তার কাকি কিন্তু প্রতিবেশিনীদেরকাছে প্রায়ই বলত, "দেখ্‌ তো ভাই, মা বাপ ওকে রেখে গেল কেবল আমাদের মাথায় সর্বনাশ চাপিয়ে। কোন্‌ সময় কী হয় বলা যায় না। আমার এই ছেলেপিলের ঘর, তারই মাঝখানে ও যেন সর্বনাশের মশাল জ্বালিয়ে রেখেছে, চারি দিক থেকে কেবল দুষ্টলোকের দৃষ্টি এসে পড়ে। ঐ একলা ওকে নিয়ে আমার ভরাডুবি হবে কোন্‌দিন, সেই ভয়ে আমার ঘুম হয় না।"

এতদিন চলে যাচ্ছিল এক রকম করে, এখনআবার বিয়ের সম্বন্ধ এল।সেই ধূমধামের মধ্যে আর তো ওকে লুকিয়ে রাখা চলবে না। ওর কাকা বলত, "সেইজন্যই আমি এমন ঘরে পাত্র সন্ধান করছি যারামেয়েকে রক্ষা করতে পারবে।"


1 comment:

Anonymous said...

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