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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Friday, December 27, 2013

यह तिलमिलाहट वाजिब नहीं

यह तिलमिलाहट वाजिब नहीं
Friday, 27 December 2013 11:55

विकास नारायण राय

जनसत्ता 27 दिसंबर, 2013 : अमेरिका ने वीजा-छल और नौकरानी उत्पीड़न की आरोपी

भारतीय राजनयिक देवयानी खोबरागड़े पर कानूनी कार्रवाई क्या की, भारतीय राजनीति और सरकारी तंत्र में मानो भूचाल आ गया। अपने एक सहयोगी को आम अपराधी की तरह अपमानित होते हुए देख कर भारतीय विदेश सेवा के अफसरों को तो उबलना ही था, इस भूचाल और उबाल के चलते देश के राजनीतिकों में भी जवाबी आक्रोश दिखाने की होड़ लग गई है।

 

 

वर्गीय ठेस को राष्ट्रीय अपमान का नाम दे दिया गया और अमेरिकी सरकार से माफी मांगने को कहा गया। यहां तक कि बिना भारतीय जनता के सामने सारी जानकारी रखे मांग की जा रही है कि अमेरिकी सरकार देवयानी खोबरागड़े के विरुद्ध आपराधिक मामला खत्म करे। जबकि देवयानी ने विदेशी धरती पर एक अन्य भारतीय नागरिक के विरुद्ध ही गंभीर अपराध किया है। अमेरिका ने, सही ही, न माफी मांगी और न ही मामला खारिज किया। लिहाजा, बदले में भारत स्थित अमेरिकी राजनयिकों पर चौतरफा कूटनीतिक गाज गिराई जा रही है।

अमेरिकी कानून के मुताबिक, न्यूयार्क में भारत की उप-महावाणिज्य दूत देवयानी खोबरागड़े ने एक संगीन और भारत को लज्जित करने वाला अपराध किया है- जालसाजी से घरेलू नौकरानी संगीता रिचर्ड्स के लिए अमेरिकी वीजा लेने का और फिर उसे न्यूयार्क लाकर श्रम-दासता में रखने का। दासता के प्रश्न पर तो अमेरिका ने गृहयुद्ध तक झेला है और यह उनकी ऐतिहासिक विरासत का एक बेहद संवेदनशील पहलू है। पर भारतीय शासक वर्ग तो कानून अपने जूते पर रखने का आदी रहा है।

अपने देश में घरेलू नौकरानी को नियमानुसार वेतन देने या उससे नियत घंटों के अनुसार काम कराने संबंधी कानून का पालन करने की बात तो वह सोच भी नहीं सकता। कमजोर वर्ग के प्रति वह दया तो दिखा सकता है, पर मानवीय हरगिज नहीं हो सकता। मानवाधिकार की बड़ी-बड़ी बातें वह करता है, अपना सांस्कृतिक और राजनीतिक चेहरा चमकाने के लिए, न कि कमजोर तबकों को सामाजिक और आर्थिक न्याय उपलब्ध कराने के लिए। देवयानी प्रकरण ने इस विरोधाभास को तीखे ढंग से उजागर किया है।

देवयानी एक अनुसूचित जाति परिवार से हैं। उनके पिता महाराष्ट्र सिविल सेवा के अफसर रहे और आइएएस होकर रिटायर हुए। देवयानी खुद 1999 में भारतीय विदेश सेवा में आ गर्इं। पिता की शान और राजनीतिक प्रभाव की बात तो छोड़िए, देवयानी भी आज करोड़ों की चल-अचल संपत्ति की मालकिन हैं। शासक तबकों के स्वाभाविक वर्गीय सोच के तहत ही वे हिंदुस्तान से संगीता को घरेलू कामगार के रूप में न्यूयार्क ले गर्इं। अमेरिकी वीजा कानूनों का पेट भरने के लिए देवयानी ने संगीता के साथ दिल्ली में एक करार का नाटक किया, जिसके अनुसार वे संगीता को अमेरिकी श्रम कानूनों के तहत नौ डॉलर प्रति घंटे की दर से वेतन देंगी। अमेरिकी वीजा अधिकारियों की आंख में धूल झोंकने के लिए संगीता के वीजा आवेदन में इस करार को भी नत्थी किया गया। पर यह सिर्फ दिखावा था।

भारतीय विदेश सेवा के अफसरों के लिए विभिन्न देशों में घरेलू कामगारों को ले जाने के लिए इस तरह की जालसाजी सामान्य है। एक बार प्रभु वर्ग में शामिल होने के बाद देश के कमजोर तबकों का शोषण उनका मूलभूत अधिकार जो बन जाता है। जाहिर है, उन्हें कामगारों से किए करार निभाने तो होते नहीं हैं। जब देश में ही घरेलू कामगार को नयूनतम वेतन देने का चलन नहीं है, तो विदेशों में तो उसकी स्थिति और दयनीय हो जाती है। वहां तो वे पूरी तरह देवयानी जैसे मालिकों के रहमो-करम पर होते हैं।

देवयानी ने न्यूयार्क में न सिर्फ संगीता को बहुत कम वेतन दिया, बल्कि असीमित श्रम के तरीकों से भी उसे उत्पीड़ित किया, जो अमेरिकी कानूनों के अनुसार गंभीर अपराध है। यह और बात है कि देवयानी की पोल जल्दी खुल गई और वे खुद ही अमेरिकी न्याय व्यवस्था के हत्थे चढ़ गर्इं।

हुआ यों कि जुलाई 2012 में कम वेतन और काम के लंबे घंटों से तंग आकर संगीता एक दिन देवयानी के न्यूयार्क आवास से निकल गई। घटनाक्रम से लगता है कि वह मैनहट्टन (न्यूयार्क) के अभियोजन अटार्नी प्रीत भरारा के कार्यालय के संपर्क में रही होगी। उसका पति और परिवार के कुछ अन्य सदस्य दिल्ली में विदेशी दूतावासों के लिए काम करते हैं। लिहाजा, वे विदेशों में अपने अधिकारों को लेकर अपेक्षाकृत जागरूक भी होंगे ही। भारतीय मूल के अमेरिकी अटार्नी भरारा ने पहले भी कई विशिष्ट भारतीयों की अमेरिका में आर्थिक-व्यावसायिक जालसाजी पकड़ी है।

मौजूदा मामले में उनका कार्यालय लगातार अमेरिका स्थित भारतीय दूतावास को लिखता रहा कि देवयानी अपनी स्थिति स्पष्ट करें। पर बजाय यह कानूनी विकल्प इस्तेमाल करने के, देवयानी ने संगीता के खिलाफ अमेरिका और भारत में कानूनी पेशबंदी का मोर्चा खोल दिया। उन्होंने एक ओर मैनहट्टन में संगीता के फरार होने की रपट दर्ज कराई और दूसरी ओर दिल्ली की अदालत में संगीता पर करार तोड़ने का केस कर दिया।

देवयानी की गिरफ्तारी के लिए भरारा की मैनहट्टन (न्यूयार्क) पुलिस का बर्ताव भारतीयों को अपमानजनक लग सकता है। उन्हें अदालत में पेश करते समय हथकड़ी लगाई गई और पुलिस हिरासत में उनकी पूरी शारीरिक तलाशी ली गई। उन्हें अन्य आरोपियों के साथ हवालात में रखा गया। पर ऐसा ही बर्ताव उनके यहां हर गिरफ्तारी में किया जाता है। इन मामलों में वे अमीर, गरीब या ताकतवर, कमजोर में भेदभाव नहीं करते। गिरफ्तार व्यक्ति को हथकड़ी लगाना वहां की सामान्य कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा है। भारत में अमीर या ताकतवर को तो जेल में भी विशिष्ट व्यवहार मिलता है, जबकि गरीब या कमजोर आरोपी को सौ गुना अधिक अपमान झेलना पड़ता है।

अगर देवयानी को अमेरिका में अमेरिकी कानूनों के अनुसार गिरफ्तार किया गया तो इसमें गलत क्या है? कुछ हलकों में देवयानी के अनुसूचित जाति का होने का सवाल भी उठाया जा रहा है। सवाल है कि अगर कोई अश्वेत अमेरिकी अधिकारी भारत में आकर किसी अनुसूचित जाति के व्यक्ति को जातिसूचक अपशब्द कहे तो क्या उस पर उचित कानूनी कार्रवाई नहीं की जाएगी?

यह भी कहा गया है कि सारा 'तमाशा' संगीता द्वारा खुद को पीड़ित दिखा कर अमेरिकी नागरिकता हथियाने के लिए किया गया और देवयानी की गिरफ्तारी के ऐन दो दिन पहले अटार्नी भरारा के कार्यालय ने संगीता के पति और बच्चों को अमेरिका बुला लिया, जो उनके भी इस षड्यंत्र में शामिल होने का सूचक है। सोचने की बात है कि संगीता या उसके पति जैसे सामान्य भारतीयों का मैनहट्टन अटार्नी कार्यालय पर क्या जोर हो सकता है?

पति को अमेरिकी कानूनों के तहत देवयानी मामले में आवश्यक गवाह होने के नाते बुलाया गया और छोटे बच्चे पीछे अकेले नहीं छोड़े जा सकते थे। देवयानी के प्रभावशाली पिता के अनुसार संगीता सीआइए एजेंट हो सकती है। अगर ऐसा है तो उसे दिल्ली में रखना सीआइए के लिए ज्यादा फायदेमंद होता, न कि न्यूयार्क भेजना। अन्यथा भी वह भारतीय राजनयिक के घरेलू कामगार के रूप में सीआइए को उपयोगी सूचनाएं दे पाती, न कि उसके घर से भाग कर।

जगजाहिर है कि अमेरिका महाबली होने के नशे में अपने नागरिकों और राजनयिकों के लिए सारी दुनिया में विशिष्ट अपवादों की मांग करता आया है। भारतीय मानस, दिसंबर 1984 की भोपाल गैस त्रासदी की हजारों मौतों के लिए जिम्मेदार यूनियन कारबाइड कंपनी के भगोड़े मुख्य कार्यकारी अधिकारी एंडरसन को माफ  नहीं कर सका है, जिसे अमेरिका ने कानूनी कार्रवाई भुगतने के लिए भारत भेजने से लगातार इनकार किया है। पाकिस्तान भी जनवरी 2011 में लाहौर में दो पाकिस्तानियों की अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआइए के अनुबंधित कर्मचारी रेमंड डेविस द्वारा सरे-राह हत्या को नहीं भुला सकता।

इस मामले में, अमेरिकी कूटनीतिक दबाव के चलते, आरोपी के बजाय हत्या का मुकदमा भुगतने के, उससे मृतकों के रिश्तेदारों को हर्जाना (ब्लड मनी) दिला कर मामला खत्म करा दिया गया था। पर इन जैसे मामलों को अमेरिकी राजनीतिकों या मीडिया ने कभी राष्ट्रीय अपमान का मामला बना कर नहीं पेश किया; न एंडरसन या डेविस को उन्होंने अपना राष्ट्रीय हीरो बनाया।

अमेरिका में रहने वाले लाखों प्रवासी भारतीयों और भारतीय मूल के अमेरिकियों के लिए भारत सरकार के आक्रामक रवैए को समझ पाना मुश्किल है। अमेरिका में वे कागजों में नहीं, व्यवहार में कानून के समक्ष बराबरी के सिद्धांत के आदी हैं। वे समझ नहीं पा रहे कि मौजूदा प्रकरण में कानून तोड़ने वाली देवयानी को भारत में इतना जबरदस्त कूटनीतिक, राजनीतिक और प्रशासनिक समर्थन कैसे मिल रहा है, जबकि उत्पीड़ित संगीता के बारे में इनमें से किसी को सहानुभूति से सोचने तक की फुर्सत नहीं।

वैसे, अपने बाप-दादों के देश को हर वर्ष अरबों डॉलर की बचत भेजने वाले इस 'भारतीय' समूह को दूतावासों में बैठे भारतीय विदेश सेवा के अधिकारियों के प्रभुता संपन्न रवैए से दो-चार होने का भी खासा अनुभव होता है। पर देवयानी जैसे मामले उन्हें सार्वजनिक रूप से व्यापक अमेरिकी समाज में बेहद पिछड़ा हुआ सिद्ध कर जाते हैं।

इस दौरान संगीता के पक्ष में भी घरेलू कामगार संगठनों के कुछ छिटपुट प्रदर्शन हुए हैं। पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग या राष्ट्रीय महिला आयोग जैसी संस्थाओं की इस मामले में चुप्पी समझ से बाहर है। उन्होंने मामले में अमेरिकी सरकार या अमेरिका स्थित भारतीय दूतावास से कोई स्थिति-रिपोर्ट तक नहीं ली है। भारत का विदेश मंत्रालय तो पूरी तरह से अफसरवाद की गिरफ्त में है, पर श्रम मंत्रालय को तो वस्तुपरक समीक्षा करनी चाहिए थी।

क्या हमें नजर नहीं आता कि अमेरिकी अधिकारियों का नहीं, देवयानी का व्यवहार भारतीय राष्ट्र के लिए शर्म का विषय है। परिस्थिति की मांग है कि भारत सरकार विदेश सेवा के इस दोषी अधिकारी पर, घरेलू कामगार के उत्पीड़न के आरोप में ही नहीं, बल्कि भारत का नाम विदेशों में बदनाम करने के लिए भी, अपने अनुशासनात्मक नियमों के अनुसार कार्रवाई करे।

 

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