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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Saturday, December 7, 2013

अब बामसेफ के आगे सोचना है। बदले राष्ट्र,समाज व अर्थव्यवस्था में अंबेडकरी आंदोलन को समय के मुताबिक बदलना होगा।

अब बामसेफ के आगे सोचना है। बदले राष्ट्र,समाज व अर्थव्यवस्था में अंबेडकरी आंदोलन को समय के मुताबिक बदलना होगा।


इस आलेख को बामसेफ औरर बामसेफ एकीकरण,दोनों से मेरा औपचारिक अलगाव मान लिया जाये।


पलाश विश्वास


मुंबई और नागपुर के एकीकरण सम्मेलनों में देशभर के कार्यकर्ताओं और समविचारी संगठनों के फैसले के तहत पटना में राष्ट्रीय एकीकरण सम्मेलन करके नया संविधान लागू करके अंबेडकरी आंदोलन को नयी दिशा देने की हमारी घोषणा अब निरर्थक हो गयी है।


वहां ताराराम मैना के बामसेफ धड़े का राष्ट्रीय सम्मेलन हो रहा है।


ऐसा संदेश देशभर में प्रसारित करने और बामसेफ एकीकरण के कार्यक्रम को अपना तीन साल का समयबद्ध कार्यक्रम बताते हुए उसे पूरा कर लेने के दावे के साथ हो रहे इस सम्मेलन ने तमाम ईमानदार कार्यकर्ताओं और समविचारी संगठनों की नयी शुरुआत की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है।उनकी साख को जबर्दस्त चोट पहुंचायी है।


कार्यकर्ता अंबेडकरी आंदोलन के प्रति समर्पण और प्रतिबद्धता की वजह से एकजुट हुए,न कि किसी व्यक्ति या धड़े के एजंडे के मुताबिक,इसे साफ करने के मकसद से पटना सम्मेलन से अलग रहने का फैसला सर्व सहमति से हुई है।


मैंने निजी तौर पर लगातार सभी पक्षों से संवाद करते हुए पुरातन मित्रों के गालीगलौज के बीच चीजों को सुधारने का हरसंभव प्रयत्न किया है।


लेकिन तीस साल से बामसेफ आंदोलन में शामिल लोग निश्चय ही हमसे ज्यादा बुद्धिमान हैं,वे जैसा उचित समझ रहे हैं,कर रहे हैं।


इसी बीच मुंबई में एकीकरण समिति की बैठक मुंबई में हो गयी और पटना न जाने का फैसला हुआ है।अब अगर समिति पटना जाने का फैसला भी कर लें,तो मैं पचना नहीं जा रहा हूं।


अब बामसेफ जिन्हें चलाना है,चलायें,जिन्हें न चलाना हो,न चलायें,जिन्हें राजनीति करके सत्ता में हिस्सेदारी करनी हैं,करें,अब बामसेफ की कोई प्रासंगिकता नहीं रह गयी है मेरे लिए।


हम बचपन से वामपंथी आंदोलनों और विचारधारा से जुड़े रहे हैं। लेकिन शरणार्थी समस्या के संदर्भ में हमारे वामपंथी मित्रों की अजब तटस्थता ने हमें 2007 से पहले कभी न पढ़े अंबेडकर को पढ़ने और सही मायने में भारतीय से आमने सामने टकराने का मौका मिला।


2005 में बामसेफ की और से नागरिकता संशोधन कानून के विरुद्ध सम्मेलन में शामिल होने के बावजूद हमें अपने वामपंथी मित्रों से अनुसूचित शरणार्थियों,आदिवासियों और नगरों महानगरों में गंदी बस्तियों में रहने वाले सर्वहारा आम जनता के हक हकूक की लड़ाई शुरु करने की उम्मीद थी।लेकिन निरंतर संवाद के बावजूद नतीजा नहीं निकला।


इसी बीच माननीय वामन मेश्राम की अगुवाई में मूलनिवासी बामसेफ ने नागरिकता संशोधन कानून और आधार योजना पर हमारा समर्थन कर दिया। हमने 2007 से लेकर वामन मेश्राम के राजनीतिक दल बनाने के फैसले से पहले गुलबर्गा सम्मेलन तक बामसेफ के मंच से देशभर में इन मुद्दों को लेकर बहुजन जनता को संबोधित किया।हमें यह मौका देने के लिए मैं पुराने साथियों का आभारी हूं।


अब बंगाली शरमार्थी आंदोलन भी अपने हिसाब से अलग चलाया जा रहा है और उससे मेरा कोई लेना देना नहीं है।लेकिन निराधार आधार और बायोमेट्रिक डिजिटल नाटो सीआईए योजना के खिलाफ हमारी मुहिम बतौर एक मामूली पत्रकरा लेखक जारी रहेगी।


दरअसल मैं बामसेफ के तमाम धड़ों के, धड़ों से बाहर के सभी साथियों का आभारी हूं कि उनकी वजह से मैं भरतीय यथार्थ के संदर्भ में अंबेडकर विचारधारा और आंदोलन को जान सका,जिनके बिना मेरा यह निमित्त मात्र आम आदमी का जीवन निश्चय ही अधूरा रहता।


मैं एक अस्पृश्य विस्थापित शरणार्थी किसान परिवार का सदस्य हूं।पढ़ा लिखा मैं बना अपने किसान पिता की अथक कोशिशों के कारण।जनांदोलनों में मेरी निरंतर हिस्सेदारी भी उनकी ही विरासत की वजह से। बाकी मेरा समाज को,परिवार को या राष्ट्र को कोई योगदान नहीं है।


पेशेवर नौकरी में भी मैं बुरी तरह असफल नगण्य पत्रकार हूं। रचनाकर्म की किसी ने नोटिस कभी ली नहीं है।


इसका मुझे अफसोस नहीं हैं।


बामसेफ में होने और फिर बामसेफ के खास धड़े से अलग हो जाने की वजह से हुई गालीगलौज का लक्ष्य बन जाने का भी मुझे कोई अफसोस नहीं है।


मैं आभारी हूं कि मामूली प्रतिभा,मामूली हैसियत के बावजूद देशभर में लोग अब तक मुझे पढ़ते रहे हैं,सुनते रहे हैं।


मुझे अयोग्य होने  के बावजूद आपने जो प्यार और समर्थन दिया.वह मेरे बाकी जीवन का रसद है।


पिछले कई दिनों से देशभर से मित्रों के आ रहे फोन का मैंने कोई जवाब नहीं दिया है। मैं भहुत असमंजस में था कि अब क्या करना चाहिए।


मैं राजनेता नहीं हूं।मुझे चुनाव नहीं लड़ना है।न मुझे वोट बैंक साधने हैं।इसलिए किसी समीकरण की मुझे परवाह कभी नहीं रही है।


पेशेवर जीवन में भी मैंने कभी किसी समीकरण की परवाह नहीं की।


जो मुझे हमारी जनता के हित में लगा,आजतक वही बोलता लिखता रहा हूं।वही करता रहा हूं।


देश में जो हालात हैं, नियुक्तियां सिरे से बंद हैं और सारी नौकरियां ठेके पर  हैं।रिक्तियां भरी नहीं जा रही हैं।कंप्यूटर की जगह अब रोबोट ले रहे हैं।


कर्मचारियों के वजूद का ही भारी संकट है।उनके हाथ पांव निजीकरण,ग्लोबीकरण,उदारीकरण और मुक्त बाजार की अर्थ व्यवस्था ने काट दिये हैं।


जुबान तालाबंद है,जो बामसेफ की चाबी से खुलनी नहीं है।


आरक्षण को लेकर देशभर में गृहयुद्ध परिस्थितियां हैं। लेकिन जब स्थाई नौकरियां किसी भी क्षेत्र में हैं ही नहीं,जब नियुक्तियां हो नहीं रही है,मनुष्य के बदले रोबोट और कंप्यूटर सारे काम कर रहे हैं,तब आरक्षण को सिरे से गैरप्रासंगिक बना देने में कोई कसर बाकी नहीं रह गयी है।


लेकिन विडंबना है कि अब ब्राह्मणों को भी आरक्षण चाहिए।सबको आरक्षण चाहिए।मुसलमानों का कल्याण भी आरक्षण से।


कल सुबह सोदपुर से रवाना होकर करीब चार बजे के करीब मैं आईआईटी खड़गपुर में प्रसिद्ध विद्वान,लेखक और तकनीक व प्रबंधन विशेषज्ञ आनंद तेलतुंबड़े के स्कूल आफ मैनेजमेंट स्थित चैंबर में पहुंचा।देशभर के मित्रों से अगले कार्यभार तय करने के सिलसिले में थी यह मुलाकात।


मैं आनंद जी को लगातार पढ़ता रहा हूं लेकिन उनसे संवाद का कोई मौका अब तक बना नहीं था।संजोग बना तो चला गया। अंबेडकरी आंदोलन प्रसंग में लगभग ढाई घंटे तक हमारी बात होती रही।


इस मुलाकात की वजह से यह अनिवार्य आलेख थोड़ा विलंबित हो गया।


अब जो लोग हमारे आवेदन पर पटना जाने का कार्यक्रम बना रहे थे,उन्हें बताना बेहद जरुरी है कि जैसे बामसेफ के बाकी दो सम्मेलन नागपुर और लखनऊ में हो रहे हैं,वैसी ही एक और बामसेफ सम्मेलन पटना में हो रहा है।


हम अपना आवेदन वापस ले रहे हैं और अब पटना,लखनऊ या नागपुर जाने या न जाने का फैसला उनका है।


हम कहीं नहीं जा रहे हैं।क्योंकि अब हम कहीं नहीं हैं।


तेलतुंबड़े जी ने बाकायदा आंकड़े और तथ्य देकर साबित किया है कि सन 1997 से आरक्षण लगातार घटते घटते अब शून्य पर है।


जबकि बेरोजगारी के आलम में दिशाहीन देश के करोड़ों युवाओं को आपस में लड़ाने के लिए सरकारे निरंतर आरक्षण का कोटा बढ़ा रही हैं,आरक्षण लेकिन किसी को मिल ही नहीं रहा है।


सवर्णों की क्या कहे,आरक्षण की लड़ाई में पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यक और तमाम दलित समुदाय अब एक दूसरे के खिलाफ अपने अपने समूह के हितों केलेए लामबंद हैं।


निराकार ईश्वर की आस्था में जैसे भक्तजनों में मारामारी है वैसे ही निराकार आरक्षण को लेकर भारतीय जन गण एकदूसरे को लहूलुहान कर रहे हैं।


तेलतुंबड़े बाकायदा लिस्टेड कारपोरेट कंपनी पेट्रो नेट के कारपोरेट हेड बचौर सीआईआई की उस समिति में थे,जिसे निजी क्षेत्र में आरक्षण लागूकरने पर विचार करना था।


उस समिति की कार्यवाही का हवाला देते हुए तेलतुंबड़े ने बताया कि मुक्त बाजार में कंपनियों को कर्मचारियों की जरुरत ही नहीं है।कर्मचारी अब नियुक्त नहीं किये जाते,हायर किये जाते हैं। कर्मचारी जिस कंपनी के लिए काम कर रहे होते हैं,वे वहां ठेके पर भी नहीं होते बल्कि वे दूसरी कंपनियों की तरफ से भाड़े पर लगाये गये लोग हैं।


जब कर्मचारी किसी कंपनी के हैं ही नहीं तो उनको आरक्षण कंपनियां कैसे दे सकती हैं?निरंतर विनिवेश से सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का हाल भी यही है।


अब अंबेडकरी आंदोलन या तो आरक्षण बचाओ का प्रायय बन गया है या फिर सत्ता में भागेदारी का।या विशुद्ध जाति अस्मिता का।जातियां रहेंगी तो तो जाति वर्चस्व भी रहेगा। जाति से बाहर जो लोग हैं मसलन आदिवासी,उन्हें बहुजन कहकर गले लगाने से  ही वे जाति अस्मिता के नाम पर आपके साथ खड़े नहीं हो सकते।अंबेडकरी आंदोलन में आदिवासियों की अनुपस्तिति की सबसे बड़ी वजह यही है।


तेलतुंबड़े और मेरा मानना है कि अंबेडकर विमर्श का बुनियादी मुद्दा जाति उन्मूलन है।जाति को मजबूत करके आप अंबेडकर के अनुयायी हो ही नहीं सकते।बल्कि अनजाने उनके अनुयायी हैं,जिनका विरोध अंबेडकर आंदोलन का घोषित लक्ष्य है।




अब जबकि सरकारी गैरसरकारी कंपनियों,प्रतिष्ठानों,केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के अधीन संगठित क्षेत्रों और असंगठित क्षेत्र में बेहद असुरक्षित हैं कर्मचारी और उनके पांव के नीचे कोई जमीन है ही नहीं।जुगाड़ बाजी से वे हवाई जिंदगी जी रहे हैं।


तो ऐसे कर्मचारियों को विचारधारा के नाम पर गोलबंद कैसे किया जा सकता है,देशभर के मित्र लगातार यह सवाल पूछ रहे थे।


हम संगठित क्षेत्र में पहल के जरिये फिरभी चाह रहे थे कि शायद मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था में निरंकुश आर्थिक अश्वमेधी अभियान के प्रतिरोध की शुरुआत कर पाये हम।


लेकिन बामसेफ बहुसंख्यक  कार्यकर्ताओं को कारपोरेट राजनीति में ही भविष्य दीख रहा है और उनके इस मानस को हम बदल नहीं सकते।जो लोग निरंतर तानाशाही में जीने मरने के अभ्यस्त हैं,उन्हें रातोरात संस्तागत लोकतांत्रिक संगठन सके लिए सक्रिय किया ही नहीं जा सकता।


 बाकी जो लोग अब भी सामाजिक राजनीतिक आंदोलन की बात करते हैं,वे अब भी उदारीकऱण,ग्लोबीकरण और निजीकरण बायोमेट्रिक डिजिटल जमाने से पहले के समय में जी रहे हैं।


उनका मोड बदलना असंभव है। वे प्रोग्राम्ड हैं।


वे सारे लोग डीएक्टिवेटेड फेसबुक प्रोफाइल हैं,जिनसे संवाद की कोई गुंजाइश ही नहीं है।


आंदोलन बहुत दूर की बात है। किन्ही दो अंबेडकरी संगठन के लोग एक साथ बैठ भी नहीं सकते।


हम कहीं भी अंबेडकरी आंदोलन के विभिन्न संगठनों की राज्यवार बैठक कर पाने में असमर्थ हैं।संगठन निर्माण की प्रक्रिया तो बहुत दूर की बात है।


ऐसे में पटना बामसेफ एकीकरण सम्मेलन के गर्भपात के बाद इस सिरे से गैरप्रासंगिक हो गये बामसेफ का टैग धारण किये हुए आगे कोई प्रगति असंभव हैं,यह साबित हो गया है।


बल्कि इस टैग  की वजह से बामसेफ और अंबेडकरी आंदोलन से बाहर जो संगठन जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता की लड़ाई लडड रहे हैं,उनसे हमारा कोई संवाद नहीं हो पा रहा है।


तेलतुंबड़े और मेरा मानना है कि राष्ट्र,समाज और अर्थ व्यवस्था अब ठीक उसीतरह नहीं है,जैसे कि बाबासाहेब अंबेडकर से लेकर मान्यवर कांशीराम ने देखा है।


अंबेडकर को ईश्वर या बोधिसत्व या उससे भी कुछ बनाकर हम उन्हें भी मुक्त  बाजार का सचिन तेंदुलकर ही बना रहे हैं।


देश काल परिस्थिति के मुताबिक तमाम विचारधाराओं और आंदोलन को जड़ता तोड़कर आगे बढ़ना पड़ा है।


लेकिन अबेडकर के अनुयायी नये संदर्भो,और नये प्रसंगों में अंबेडकर की प्रासंगिकता पर विचार करने के लिए कतई तैयार नहीं है,यह आत्मघाती है।


जैसा कि विजय कुजुर और भास्कर वाकड़े जैसे हमारे तमाम आदिवासी साथी मानते हैं कि लडाई के बिना कोई विकल्प है ही नहीं और भाववादी चिंतन और कर्म से हम अपने ही अंधकार में फिर पिर कैद हो रहे हैं,भावनात्मक मुद्दों के बजाय एकदम वस्तुनिष्ठ तरीके से अंबेडकरी आंदोलन को पुनर्जीवित करने की तैयारी है।


इस सिलसिले में इच्छुक साथियों से आगे भी विचार विमर्श होता रहेगा।


बाकी अंबेडकर अनुयायियों की तरह मुक्त बाजार को हम बहुजनों का स्वर्ण युग नहीं मानते।


मुक्त बाजार में फालतू मनुष्यों का मार देना ही राष्ट्र का मुख्य कार्यभार है।


इसमें बहुजनों को सत्यानाश और मृत्यु के अलाव कुछ हासिल नहीं होना है।


इस पर मैं और आनंद तेलतुंबड़े शत प्रतिशत सहमत हैं।


इस अवस्थान के बाद अब अगर हमारे मित्र हमें अबंडकर आंदोलन से हमेशा के लिए बहिस्कृत कर दें तो भी हमें इसकी कोई परवाह नहीं है।


बहरहाल मेरे जीवन के बामसेफ अध्याय का यही पटाक्षेप हैं।


हम देशभर के साथियों से निवेदन करना चाहते हैं कि वे देश के हालात और दूसरे मुद्दों पर जरुर बात कर सकता हैं,लेकिन बामसेफ के बारे में मुझे भविष्य में कुछ भी कहना नहीं है।


हम देशभर के साथियों से निवेदन करना चाहते हैं कि बामसेफ की अब कोई प्रासंगिकता नहीं है और न ही इसका एकीकरण संभव है।


हम देशभर के साथियों से निवेदन करना चाहते हैं कि अगर मुक्त बाजार के जायनवादी तंत्र यंत्र से टकराना है तोअब बामसेफ के आगे सोचना है।


हम देशभर के साथियों से निवेदन करना चाहते हैं कि जो सहमत हैं,उनका स्वागत है।बाकी लोगों का आभार।


मैंने बामसेफ एकीकरण अभियान से जुड़े साथियों को निरंतर अपना पक्ष बताया है और यह मेरा कोई आकस्मिक फैसला नहीं है।


हम देशभर के साथियों से निवेदन करना चाहते हैं कि एकीकरण प्रक्रिया की तार्किक परिणति है।


हम देशभर के साथियों से निवेदन करना चाहते हैं कि बामसेफ का एकीकरण असंभव है और इसीलिए कार्यकर्ताओं और समविचारी संगठनों की एकता के लिए भी बामसेफ के अलग अलग धड़ों समेत समूचे बामसेफ आंदोलन से अलगाव जरूरी है।


हम देशभर के साथियों से निवेदन करना चाहते हैं कि हमारा लक्ष्य चूंकि बामसेफ नहीं,मुक्त बाजार व्यवस्था के विरुद्ध,जनसंहार संस्कृति के विरुद्ध निनानब्वे फीसद जनता की चट्टानी गोलबंदी है,इसलिए अतीत से भावात्मक नाता ख्तम करने का यह मौजूं वक्त है।


मैंने अपने फैसले की सूचना साथियों को दे दी है और इस पर पुनर्विचार की कोई संभावना नहीं है।


इस आलेख को बामसेफ और बामसेफ एकीकरण,दोनों से मेरा औपचारिक अलगाव मान लिया जाये।


तेलतुंबड़े और देशभर में दूसरे समविचारी मित्रों से संवाद उनकी सहमति से मैं आप सबके साथ शेयर करता रहूंगा।

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