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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Thursday, April 23, 2015

कई चुनौैतियों से जूझ रहा अरब स्प्रिंग का देश

कई चुनौैतियों से जूझ रहा अरब स्प्रिंग का देश


ट्युनिस में वर्ल्ड सोशल फोरम की बैठक

अरब स्प्रिंग के देश के समक्ष कई चुनौतियां

हाल ही में सामाजिक कार्यकर्ता एडवोकेट इरफान इंजीनियर वर्ल्ड सोशल फोरम की बैठक में भाग लेने ट्युनिसिया गए। ट्युनिसिया 2011 के अरब वसंत- अरब स्प्रिंग के चलते सारी दुनिया में सुर्खियों आया। ट्युनिसिया से लौटकर इरफान इंजीनियर की रिपोर्ट…

photo कई चुनौैतियों से जूझ रहा अरब स्प्रिंग का देश

एडवोकेट इरफान इंजीनियर

 ''वसुधेव कुटुम्बकम'' व ''साउथ एशियन डॉयलाग्स ऑन इकोलॉजिकल डेमोक्रेसी'' के सौजन्य से मुझे ट्युनिस में आयोजित ''वर्ल्ड सोशल फोरम'' की हालिया बैठक में भाग लेने का अवसर मिला। इसके पहले मैं इस फोरम की मुंबई और नेरोबी में आयोजित बैठकों में हिस्सेदारी कर चुका था। इन बैठकों का मेरा अनुभव मिश्रित था।

वर्ल्ड सोशल फोरम, दुनियाभर के नागरिक समाज संगठनों का सांझा मंच है। ये संगठन अलग-अलग देशों में व अलग-अलग क्षेत्रों में कार्यरत हैं। इनमें शामिल हैं पर्यावरण और मूलनिवासियों, दलितों व श्रमिकों के अधिकारों और लैंगिक न्याय के लिए काम करने वाले संगठन। इनके अलावा, इस फोरम में ऐसे संगठन भी शामिल हैं जिनका उद्देश्य बड़ी औद्योगिक कंपनियों को जवाबदेह बनाना, तीसरी दुनिया के देशों के कर्ज माफ करवाना, सीमित प्राकृतिक संसाधनों का युक्तियुक्त उपयोग सुनिश्चित करना, दुनिया में चल रही हथियारों की दौड़ पर रोक लगाना, परमाणु शस्त्रों का उन्मूलन, युद्ध का विरोध, दुनिया से उपनिवेशवाद का खात्मा, बहुवाद व विविधता को स्वीकृति दिलवाना और बढ़ावा देना, जवाबदारी पूर्ण शासन सुनिश्चित करना, नागरिकों का सशक्तिकरण, प्रजातंत्र को मजबूती देना आदि है। फोरम की बैठक में विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया, जिनमें प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता व शिक्षाविद, सामाजिक संगठनों व आंदोलनों के प्रतिनिधि आदि शामिल थे। इतनी बड़ी संख्या में विद्वान और अनुभवी लोगों को सुनना और उनसे सीखना अपने आप में एक अत्यंत रोमांचकारी व सुखद अनुभव था। विभिन्न आंदोलनों के जरिए दुनिया को बदलने की कोशिश में जुटे ऐसे लोगों के बीच समय बिताना, किसी के लिए भी प्रेरणा और ऊर्जा का स्त्रोत हो सकता है। ये सभी लोग घोर आशावादी हैं और उन्हें यह दृढ़ विश्वास है कि ''एक बेहतर दुनिया बनाई जा सकती है''। ऐसे लोगों से मिलने और बातचीत करने से हमारे मन में कबजब उठने वाले निराशा के भाव से लड़ने में हमें मदद मिलती है।

अगर हम यह मान भी लें कि एक नई, बेहतर दुनिया का निर्माण संभव है तब भी यह प्रश्न मन में उठना स्वाभाविक है कि क्या वर्ल्ड सोशल फोरम जैसे मंच इस लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक हो सकते हैं? कुछ लोग यह मानते हैं कि वर्ल्ड सोशल फोरम, समाज के हाशिये पर पड़े समुदायों की आवाज है परंतु चूंकि इसमें भागीदारी करने वाले लोग विविध क्षेत्रों में काम करने वाले होते हैं और उनकी पृष्ठभूमि में इतनी विविधताएं होती हैं कि इस तरह की बैठकों का कोई ठोस नतीजा नहीं निकल पाता। दूसरे शब्दों में, वे वर्ल्ड सोशल फोरम को विचारधाराओं और दृष्टिकोणों का एक ऐसा सुपरमार्केट मानते हैं जिसमें संभावित 'ग्राहक' कुछ दुकानों पर जाते हैं, सामान उलटते-पुलटते हैं परंतु खरीदते कुछ भी नहीं हैं।

इस फोरम के अन्य आलोचकों का कहना है कि यह उतना प्रजातांत्रिक व स्वतंत्र मंच नहीं है जितना कि इसे बताया जाता है। फोरम पर विकसित देशों के कुछ ऐसे नागरिक समाज संगठनों का कब्जा है जो बैठकों के लिए धन जुटाते हैं। वे ही इसकी प्राथमिकताएं तय करते हैं, इसका एजेंडा बनाते हैं और बैठकों में किसे बोलने का मौका मिलेगा और किसे नहीं, इसका निर्णय भी वे ही करते हैं। यह ''अलग-अलग रहकर यथास्थितिवाद पर अलग-अलग प्रहार करने'' का उदाहरण है, जिसके चलते सभी की ऊर्जा व्यर्थ जाती है, सभी अलग-अलग दिशाओं में काम करते हैं और यथास्थिति बनी रहती है। ''गुलिवर इन लिलिपुट'' की प्रसिद्ध कहानी की तरह, अगर लिलिपुट के लाखों छोटे-छोटे रहवासी, यथास्थितिवाद के विशाल और ताकतवर गुलिवर पर समन्वय के साथ संगठित हमला नहीं करेंगे तो वे गुलिवर को कभी हरा नहीं सकेंगे। आखिरकार, गुलिवर के पास दमनकारी शक्तियां हैं और अगर उस पर योजनाबद्ध हमला नहीं होगा तो लिलिपुट वासी अपना पूरा जोर लगाने के बावजूद भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं पायेंगे। उलटे, वह और शक्तिशाली बनकर उभरेगा। यहां गुलिवर प्रतिनिधि है हथियार उद्योग का, विशाल कार्पोरेशनों का, नव परंपरावादियों, राष्ट्रवादियों, नस्लवादियों व पितृसत्तात्मकता और श्रेष्ठतावाद की विचारधाराओं में विश्वास रखने वालों का। जाहिर है कि हमारा शत्रु संगठित है और उसका मीडिया व शैक्षणिक और धार्मिक संस्थानों पर नियंत्रण है। इसलिए वह सच्चाई को छुपा सकता है, लोगों के दमन की कहानियों को पर्दे के पीछे रख सकता है और गैर-बराबरी व सामाजिक वर्चस्ववाद को औचित्यपूर्ण ठहरा सकता है। वह एक ऐसी दुनिया का निर्माण करना चाहता है जिसमें उत्पादों की मुक्त आवाजाही हो ताकि अन्यायपूर्ण व्यापार व्यवस्था बनी रहे। वह ऐसी दुनिया चाहता है जिसमें पूंजी का स्वतंत्र हस्तांतरण हो ताकि पूरी दुनिया के प्राकृतिक संसाधनों और सस्ते श्रम का भरपूर शोषण कर ढेर सारा मुनाफा कमाया जा सके और इस मुनाफे पर कम से कम कर लगें। यह गुलिवर सांस्कृतिक परंपराओं का भी इस्तेमाल अपने एजेंडे को लागू करने के लिए करता है। वह एक ऐसा विश्व बनाना चाहता है जिसमें असमानता का बोलबाला हो। आमजनों की गरीबी और भूख से उसे कोई लेनादेना नहीं है। वह जनसंस्कृतियों, परंपराओं और प्रथाओं में से वह सब मिटा देना चाहता है, जो समानाधिकारवादी है। वह विभिन्न धर्मों के नैतिक मूल्यों को नष्ट कर देना चाहता है, वह संस्कृति और परंपराओं में इस तरह के बदलाव चाहता है जिससे स्वार्थ और लिप्सा में वृद्धि हो और व्यक्तिवाद को बढ़ावा मिले-ऐसा व्यक्तिवाद को जो हर व्यक्ति को यह सिखाता है कि उसे आक्रामक और क्रूर बनना चाहिए ताकि वह अपने से नीचे के लोगों का शोषण और दमन कर सके और केवल अपने लाभ की सोचे। वह उपभोक्तावाद को प्रोत्साहन देना चाहता है। वह चाहता है कि सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से वर्चस्वशाली वर्ग की नकल समाज का हर तबका करे। वह मानव-निर्मित आपदाओं और क्रूर हिंसा को स्वीकार्य बनाना चाहता है। वह चाहता है कि स्त्रियों का दर्जा समाज में नीचा बना रहे और स्त्रियों के शरीर के साथ खिलवाड़ को समाज सहर्ष स्वीकार करे। वह इसे 'आधुनिकता' बताता है। गुलिवर, एकजुटता की संस्कृति और संवेदना के मूल्यों को नष्ट कर देना चाहता है। वर्ल्ड सोशल फोरम, सैंकड़ों लिलिपुटवासियों को एक स्थान पर इकट्ठा तो कर रहा है परंतु क्या वह उनमें एकता भी कायम कर रहा है?

अगर फोरम, नागरिक समाज संगठनों का मिलनस्थल है तो भी क्या यह सही नहीं है कि जो संगठन अधिक योजनाबद्ध ढंग से काम करेगा वह इस फोरम का उपयोग अपने जैसे अन्य संगठनों को साथ लेने के लिए ज्यादा सफलतापूर्वक कर सकेगा?

पूर्व के सम्मेलनों की तरह, फोरम का ट्युनिस सम्मेलन भी एक ऐसा मंच था जहां हम अपने संगठन के सरोकार, परिप्रेक्ष्य और अनुभव दूसरों के साथ बांट सकते थे, अपने जैसे मुद्दों पर काम करने वाले अन्य संगठनों से वैचारिक आदान-प्रदान कर सकते थे और उनके अनुभवों से सीख सकते थे। हम अपने जैसे अन्य संगठनों के साथ मिलकर काम करने की योजना भी बना सकते थे। ''वसुधैव कुटुम्बकम्'' और ''साउथ एशियन डॉयलाग्स ऑन इकोलॉजिकल डेमोक्रेसी'' के प्रतिनिधि बतौर, सोशल फोरम की बैठक में मुझे विभिन्न संगठनों और आंदोलनों के प्रतिनिधियों से मेलमिलाप करने का पर्याप्त मौका मिला। ट्युनिस का अपना एक अलग आकर्षण था क्योंकि यह वही शहर है जहां से ''अरब स्प्रिंग''-प्रजातंत्र के लिए जनांदोलन-शुरू हुआ था।

ट्युनिस

वर्ल्ड सोशल फोरम की बैठक में भाग लेने के पीछे मेरा एक उद्देश्य यह भी था कि मैं दुनियाभर के और विशेषकर ट्युनिस के लोगों से मिल सकूं। यद्यपि भाषा की बाधा थी तथापि ट्रेनों, बसों व टैक्सियों में सफर के दौरान मुझे ट्युनिस के लोगों का व्यवहार बहुत दोस्ताना जान पड़ा। बहरहाल, मैंने अंग्रेजी के वे शब्द जो फ्रेंच में इस्तेमाल होते हैं और संकेतों की भाषा के जरिए भाषा की बाधा से कुछ हद तक निजात पाई।

ट्युनिस के लोग भारतीयों के साथ अत्यंत मैत्रीपूर्ण व्यवहार करते हैं और भारतीयों के प्रति उनके मन में बहुत आदर और स्नेह है। इसका एक कारण यह है कि वहां बॉलीवुड की फिल्में बहुत लोकप्रिय हैं और किशोर लड़के-लड़कियां हिंदी के कई वाक्य बोल लेते हैं। जिन लोगों से मैं मिला, उनमें से ज्यादातर ने भारत की यात्रा करने की इच्छा जताई, विशेषकर बॉलीवुड के शहर मुंबई की। ट्युनिस से लगभग 170 किलोमीटर दूर, मोनास्टिर में हम एक ऐसी दुकान में गये, जिसे भारत में हम किराना दुकान कहते हैं। भाषा की समस्या के बावजूद, दुकानदार ने बड़ी मेहनत से हमें समझाया कि एक विशेष आटा किन अनाजों को पीसकर बनाया जाता है। उसने हर अनाज के दाने भी हमें दिखलाये। बाद में हमें यह पता चला कि वह 'बसीसा' आटा है, जिसमें जैतून का तेल और मीठा स्वाद देने वाली कोई चीज मिलाकर, वहां के लोगों का मुख्य आहार बनाया जाता है। उस दुकानदार ने आटे में जैतून का तेल मिलाकर हम सबको एक-एक पैकेट में रखकर दिया और इसके लिए हमसे पैसे भी नहीं लिये।

ट्युनिस का समाज हमें बहुत उदारवादी प्रतीत हुआ और यह हमारी इस धारणा के विपरीत था कि अरब, धार्मिक मामलों में दकियानूसी और कट्टरपंथी होते हैं। हमने सड़कों पर कई ऐसी महिलाओं को देखा जो फ्रेंच व पश्चिमी परिधान पहने हुए थीं। जाहिर है कि वहां महिलाओं पर यह दबाव नहीं है कि वे बुर्के या हिजाब में रहें।  ट्युनिस के 99 प्रतिशत निवासी मुसलमान हैं। वे अरब हैं और ट्यूनिसियाई अरबी भाषा बोलते हैं। शेष एक प्रतिशत, ईसाई व यहूदी हैं। हमें ऐसी महिलाएं भी दिखीं जो सिर पर स्कार्फ बांधे हुए थीं परंतु उनकी संख्या बहुत कम थी। मैंने पाया कि महिलाएं और पुरूष सार्वजनिक स्थानों पर एक-दूसरे से खुलकर मिल रहे थे और बातचीत कर रहे थे। वर्ल्ड सोशल फोरम की बैठक में अल् मुनार विश्वविद्यालय के कई विद्यार्थी स्वयंसेवकों की भूमिका में थे और उनमें लड़के और लड़कियां दोनों शामिल थे। वे बिना किसी संकोच के आपस में घुलमिल रहे थे, नाच और गा रहे थे और एक-दूसरे के गाल से गाल मिलाकर अभिवादन कर रहे थे। जिस होटल में मैं रूका था उससे करीब आधा किलोमीटर दूर एक मस्जिद थी परंतु मुझे मेरे प्रवास के दौरान एक बार भी अजान की आवाज सुनाई नहीं पड़ी, यद्यपि मैं रोज पांच बजे सुबह उठता था और छः बजे अलग-अलग दिशाओं में सुबह की सैर पर निकल जाता था। इसी तरह की धार्मिक और सामाजिक उदारता ने ट्युनिस में सन 2011 के प्रजातांत्रिक आंदोलन को जन्म दिया था।

यद्यपि शराब और सुअर का मांस इस्लाम में हराम है तथापि ट्युनिस में दोनों आसानी से उपलब्ध हैं। किसको क्या खाना है और क्या पीना है, यह संबंधित व्यक्तियों पर छोड़ दिया गया है और राज्य, खाने-पीने की किसी भी चीज पर प्रतिबंध नहीं लगाता। एक मॉल में हमने लोगों को ऐसा मांस खाते देखा जो सुअर का प्रतीत हो रहा था परंतु हम विश्वास से कुछ नहीं कह सकते क्योंकि लेबिल अरबी और फ्रेंच में थे।

जिस तरह जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रजातंत्र और धर्मनिरपेक्षता को भारतीय राज्य के मूल सिद्धांत के रूप में अपनाया था वैसा ही कुछ हबीब बुरग्विबा ने किया, जो कि ट्युनिसिया के स्वाधीनता संग्राम के नेता तो थे ही, साथ ही जिन्होंने स्वतंत्रता के तुरंत बाद ट्युनिसिया का नेतृत्व भी किया था। सन् 2005-06 में ट्युनिसिया की सरकार ने अपने बजट का 20 प्रतिशत शिक्षा के लिए आवंटित किया था। ट्युनिसिया में शिक्षा, विशेषकर उच्च शिक्षा, फ्रेंच भाषा में दी जाती है और सरकार ने देश के अरबीकरण को प्रोत्साहन नहीं दिया। नतीजे में देश का तेजी से विकास हुआ और सन् 2007 में ट्युनिसिया, मानव विकास सूचकांक के अनुसार, 182 देशों में से 98वें स्थान पर था।

हबीब बुरग्विबा के नेतृत्व (1956-1987) में नव-स्वतंत्र ट्युनिसिया की सरकार ने धर्मनिरपेक्षीकरण का कार्यक्रम हाथों में लिया। बुरग्विबा प्रतिबद्ध धर्मनिरपेक्ष थे और उन्होंने शिक्षा का धर्मनिरपेक्षीकरण किया और सभी धर्मों के निवासियों के लिए एक ही कानून बनाया। उन्होंने ''अज़ जिटौना धार्मिक विश्वविद्यालय'' के प्रभाव को कम करने के लिए उसे उसे ट्युनिस यूनिवर्सिटी के धर्मशास्त्र विभाग का दर्जा दे दिया। उन्होंने महिलाओं के सिर पर स्कार्फ बांधने पर प्रतिबंध लगा दिया और मस्जिदों के रखरखाव और मौलवियों के वेतन पर होने वाले सरकारी खर्च को बहुत घटा दिया। नेहरू को तो हिंदू कोडबिल वापिस लेना पड़ा था परंतु बुरग्विबा ने शरियत के स्थान पर विवाह, उत्तराधिकार व अभिभावकता संबंधी नये कानून बनाए। उन्होंने बहुपत्नी प्रथा पर प्रतिबंध लगाया और तलाक के मामलों में न्यायालयों को हस्तक्षेप का अधिकार दिया।

यह स्पष्ट है कि बुरग्विबा, धार्मिक संस्थानों का प्रभाव कम करना चाहते थे ताकि वे उनके धर्मनिरपेक्षीकरण के कार्यक्रम में बाधक न बन सकें। हां, उन्होंने यह जरूर सुनिश्चित किया कि वे अपने निर्णयों को इस्लाम-विरोध नहीं बल्कि इज्तिहाद (जहां कुरान और हदीस का आदेश साफ न हो वहां अपनी राय से उचित रास्ता निकालना) के रूप में प्रस्तुत करें। इस्लाम, ट्युनिसिया के लिए भूतकाल था और आधुनिक भविष्य के लिए वह पश्चिम की तरफ देख रहा था। वहां के इस्लामवादी अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और उनका आमजनों पर प्रभाव भी है। मुस्लिम ब्रदरहुड व हिज्ब-उत-तहरीर ऐसे ही दो संगठन हैं। वहां की एक मध्यमार्गी इस्लामवादी पार्टी को संविधानसभा के लिए 2011 में हुए चुनाव में 37 प्रतिशत मत मिले और 217 में से 89 सीटों पर उसके उम्मीदवार विजयी हुए। आज ट्युनिसिया से सबसे अधिक संख्या में युवा, दाइश या इस्लामिक राज्य योद्धा बनते हैं और हाल में बार्डो संग्रहालय के बाहर विदेशियों पर हुए हमले से यह पता चलता है कि ट्युनिसिया की सरकार के समक्ष गंभीर चुनौतियां हैं।

आर्थिक मोर्चे पर भी ट्युनिसिया को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। ट्युनिसिया की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है जैतून और जैतून के तेल का उत्पादन और निर्यात। पर्यटन भी आय का एक प्रमुख स्त्रोत है। बड़ी संख्या में ट्युनिसिया के नागरिक अलग-अलग देशों में काम कर रहे हैं। उनके द्वारा देश में भेजा जाने वाला धन भी आय का एक स्त्रोत है। दक्षिणी ट्युनिसिया में फास्फेट की खदानें हैं। हमें बताया गया कि ट्युनिसिया में 2011 की क्रांति के बाद से बेरोजगारी की दर बहुत तेजी से बढ़ी है। सन् 2012 में बेरोजगारों में से 72.3 प्रतिशत 15 से 29 वर्ष आयु के थे। नवंबर 2013 में ''सेंटर फॉर इंटरनेशनल प्राइवेट इंटरप्राईज'' द्वारा प्रकाशित एक लेख में ट्युनिसिया की आर्थिक बदहाली और बढ़ती बेरोजगारी के कारणों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि:

''2011 की क्रांति के बाद से ट्युनिसिया की अर्थव्यवस्था, क्रांति के पहले की गति नहीं पकड़ पा रही है। पिछले कुछ वर्षों में उत्तरी अफ्रीका में अलकायदा की मौजूदगी बढ़ी है। पड़ोसी लीबिया में राजनैतिक अस्थिरता का भी ट्युनिसिया पर असर पड़ा है क्योंकि पर्यटन, देश का आमदनी का मुख्य स्त्रोत है और सुरक्षा कारणों के चलते ट्युनिसिया आने वाले पर्यटकों की संख्या में कमी आई है। इसके अलावा, यूरोपियन यूनियन को ट्युनिसिया का निर्यात घटा है।''

युवाओं में बढ़ती बेरोजगारी, ट्युनिसिया के शासकों के लिए चिंता का विशय है और इसी के चलते वहां के युवा, कट्टरपंथी इस्लामिक संगठनों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। (मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)

-ट्युनिसिया से लौटकर इरफान इंजीनियर

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