Total Pageviews

THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Tuesday, April 21, 2015

बुरांश खिले पहाड़ जंगल दहक रहा दावानल कि पक रही है मिट्टी भूमिगत आग अब फोड़ देगी जमीन जलकर खाक होगी लुटेरों की यह नकली दुनिया पलाश विश्वास

बुरांश खिले पहाड़ जंगल

दहक रहा दावानल कि

पक रही है मिट्टी

भूमिगत आग अब

फोड़ देगी जमीन

जलकर खाक होगी

लुटेरों की यह

नकली दुनिया

पलाश विश्वास

बुरांश खिले पहाड़ जंगल

कि पलाश खिले पहाड़ जंगल

कि जंगल में हो मंगल

कि जारी रहे संसदीय दंगल

दहक रहा दावानल कि

पक रही है मिट्टी

भूमिगत आग अब

फोड़ देगी जमीन

जलकर खाक होगी

लुटेरों की यह

नकली दुनिया


जब लघु पत्रिका आंदोलन का जलवा था सत्तर के दशक में,जब मथुरा से सव्यसाची उत्तरार्द्ध के साथ साथ जन जागरण के लिए सिलसिलेवार ढंग से जनता का साहित्य- सूचनाओं और जानकारियों का साहित्य रच रहे थे,उत्कट साहित्यिक महत्वाकांक्षाओं और अभिव्यक्ति के दहकते हुए ज्वालामुखी के मुहाने पर था हमारा कैशोर्य।


तभी आनंद स्वरुप वर्मा वैकल्पिक मीडिया के बारे में सोचने लगे थे।


तब कामरेड कारत,येचुरी और सुनीत चोपड़ा भी जवान थे।जेएनयू परिसर लाल था।हालांकि वहां न कभी बुरांश खिले और न ही पलाश।न वहां कोई दावानल महका हो कभी।गोरख पांडे को वहां खुदकशी करनी पड़ी और डीपीटी जैसों का कायाकल्प होता रहा।


जब पहाड़ों में जंगल जंगल खिले बुरांश की आग दावानल बनकर प्रकृति और पर्यावरण के रक्षाकवच रच रही थी,मध्य भारत में खिल रहे ते पलाश और पहाड़ के चप्पे चप्पे में चिपको आंदोलन की गूंज थी,तभी से आनंद स्वरुप वर्मा हमारे बड़े भाई हैं।


वे हमारी टीम में ठीक उतने ही महत्वपूर्ण रहे हैं जितने वीरेनदा, पंकजदाज्यू, देवेन मेवाड़ी,शमशेर सिंह बिष्ट,गिरदा,शेखर पाठक या राजीव लोचन शाह ,या पवन राकेश और हरुआ दाढ़ी ।


संजोग से आनंद स्वरुप वर्मा आज भी हमारे बड़े भाई हैं।


संजोग से अब हमारी कोई उत्कट साहित्यिक आकांक्षा नहीं हैं।कैरीयर बनाने की हम तो गिरदा की सोहबत में सोचे ही नहीं कभी।


संजोग से छात्र जीवन से जो वैकल्पिक मीडिया की लड़ाई का रास्ता हमने आनंद दादा की दृष्टि से चुन लिया,आज वही हमारा एकमात्र विकल्प है।इस गैस चैंबर की खिड़कियों को तोड़कर बचाव का आखिरी रास्ता है इस कयामती घनघोर नस्ली कारपोरेट समय में।


संजोग से अस्सी के दशक से अब तक लगातार पेशेवर पत्रकारिता में सक्रिय होने के बावजूद हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता आम जनता तक अनिवार्य जानकारी देने की है,जिसका पहला सबक हमने आपातकाल के अंधेरे में मथुरा के एक प्रोफेसर की आजीवन सक्रियता के माध्यम से पढ़ा था।तब हमारे साथ लघुपत्रिका वाले कामरेड भी थे।जिनमें से ज्यादातर अब कामरेड केसरिया हैं।


न अब कहीं लघु पत्रिका आंदोलन है और न कहीं देशव्यापी गूंज पैदा करने वाला कोई जनांदोलन है।आपातकाल से भी भयानक अंधेरे का यह चकाचौंध तेज रोशनियों का मुक्तबाजारी कार्निवाल है और सव्यसाची जैसे प्रतिबद्ध लोग कहीं किसी कोने में जनता का साहित्य प्रसारित करने के लिए निरंतर सक्रिय हैं या नहीं,हमें जानकारी नहीं हैं।दुःसमय।घनघोर दुःसमय।


संजोगवश आज भी आनंद स्वरुप वर्मा न केवल सक्रिय हैं बल्कि आज भी वे हमारे प्रधान सेनापति हैं।


अभी हाल में पौड़ी में वे उमेश डोबाल की स्मृति में आयोजित कार्यक्रम में शामिल होकर पहाड़ होकर आये।


फिर पता लगा कि रामनगर में उत्तराखंड सरकार ने जो कहर ढाया,उसके प्रतिरोध में वे वहां भी पहुंच गये।उस कांड की रपट अभिषेक श्रीवास्तव ने लिखी है।


परसो तरसो हमने आनंद भाईसाहब को फोन लगाया तो वे बोले सोनभद्र जा रहे हैं।कनहर नदी में बहती अपने स्वजनों की रक्तधारा में कातिलों का सुराग निकालने।


हमने उन्हें फोन वैकल्पिक मीडिया पर बहस और तेज करने का अनुरोध करने के लिए किया था,लेकिन उनने मुझसे तराई में बसे थारुओं और बुक्सों के उजाड़ के बारे में कुछ लिखा या नहीं, पूछा।


दादा को हमने बताया कि मुझे जो कुछ मालूम है,वह तो हमने कब तक सहती रहेगी तराई में 1978-79 में लिखा दिया था कि तराई में जो सिडकुल साम्राज्य बसा हुआ है,वह दरअसल बुक्साड़ और थरुवट की बसावट थी। तराई के जंगल में मलेरिया, प्लेग,बाढ़ और तमाम तरह की जानलेवा बीमारियों,सुल्ताना डाकू जैसे लुटेरों और बाहरी हमलों से लड़ते हुए सन सैंतालिस तक पूरी तराई उनकी थी।


जो देश आजाद होते न होते बंगाली और सिख पंजाबी शरणारिथियों की पुनर्वास कालोनियां बसने से पहले देश के बड़े कारोबारी घरानों, उद्योपतियों, फिल्म स्चारों,आर्मी और प्रशासन के अफसरों और राजनेताओं ने 1952 तक खाम सुपरिन्डेंट राज कौड़ियों के मोल धकल करते हुए हजारों हजार एकड़ के फार्म नैनीताल, बरेली, रामपुर, पीलीभीत और मुरादाबाद जिलों में बना लिये।


यह पहली बाड़ाबंदी थी तो सिडकुल के जरिये मुक्तबाजारी कारपोरेट बाड़ाबंदी अब खुल्ला जमीन हड़पो बेचो अभियान विकास के नाम है जो मोदी मत्र का अखंड जाप भी है हिंदुत्व उन्माद के मध्य।


तराई का वह किस्सा हमने नैनीताल समाचार से लेकर दिनमान तक में सत्तर के दशक में ही लिख दिया था।अब सिर्फ उल्लेख कर रहा हूं।आनंद स्वरुप वर्मा संपादित नैनीताल समाचार की स्वर्ण जयंती विशेषांक में तराई कथा है,राजीव दाज्यू को पोन करके या लिखकर इच्छुक पाठक मंगा लें।


सिडकुल रुद्रपुर इलाके में अटवारी मंदिर को घेरे बुक्साड़ से लेकर काशीपुर तक बुक्से गांव ही थे तो सितारगंज से लेकर खटीमा तक के सिडकुल आखेटगाह में थारुओं की बस्तियां शुरु होती थीं,जो नेपाल तक विस्तृत थीं।


हम तब जनमे भी न थे।जब तराई में बसे सैकड़ों थारु बुक्सा गांव बुलडोजर से उजाड़ दिये गये।उनके हक हकूक की बात लिखने के जुर्म में तराई के पहले पत्रकार जगन्नाथ जोशी को सरेबाजार गोलियों से उड़ा दिया गया।जगन्नाथ जी के भाई समाजवादी नेता चंद्रशेखर जी ने हमें बताया कि वे तब वे ऐसे ही किसी बुलडोजर के ज्राइवर थे ,जनके जरिये पेडो़ं को जड़ों समेत उखाड़ने के साथ साथ बुक्सा थारुओं के गांव भी उखाड़ दिया गये।


फिर सन 1978 में पंतनगर गोलीकांड पर नैनीताल से लेकर दिनमान तक हमने,शेखर पाठक और गिरदा ने मिलकर तराई को बसाने के नाम पर तराई को उजाड़ने की जो कथा लिखी,उसके लिए नैनीताल से नजीबाबाद रेडियो स्टेशन में अपने कुमांउनी गीतों की रिकार्डिंग के लिए जा रहे गिरदा को रूद्रपुर में बस से उतारकर धुन दिया गया और खून से लथपपथ वे नैनीताल समाचार लौटे।


कब तक सहती रहेगी तराई सिलसिलेवार नैनीताल में छपने की वजह से तराई में खटीमा से लेकर काशी ढल जो अमर उजाला के लिए तराई से पत्रकारिता करते थे,उनके साथ सितारगंज से साप्ताहिक लघु भारत निकालते वक्त भी हालत यह थी कि हमें बाल एक दम छोटे रखने पड़ते थे और हमारी लंबी दाढ़ी कटवानी पड़ी।ताकि महनले की हालत में कोई हामरा बाल यादाढ़ी पकड़कर पटक न दें।


तराई में तब भी जंगल बचे हुए थे।तराई में तब भी आदमखोर बाघ थे।


अब सारी तराई सीमेंट के जंगल में तब्दील है।सिडकुल की दीवारे दौड़ रही हैं दसों दिशाओं में और तराई में नये सिरे से हजारों हजार एकड़ों वाले बड़े फार्मों में किसानों के बंधुआ मजदूर में तब्दील होते रहने के सिलसिले के मध्य नये सिरे से बाड़ाबंदी हो रही हैं।वे दीवारें अब बसंतीपुर को भी घेरे हुए हैं।


अब तराई ही नहीं, सारा देश सीमेंट के जंगल में तब्दील हैं।


चप्पे चप्पे पर आदमखोर कारपोरेट केसरिया बाघ हमर मेहनतकश आदमी और औरत का हाड़मांस चबा रहे हैं,खून पी रहे हैं शीतल पेय की तरह और सारी नदियां खून की नदियों में तब्दील हैं।


वे खून की नदियां बेदखल पहाड़ों से होकर हिमालय के उत्तुंग शिखरों और ग्लेशियरों,घाटियों,झीलों और झरनों को लहूलुहान कर रही हैं।


तो वे खून की नदियां मरुस्थल और रण में भी निकलती हुी देख रही है जैसे कि लापता सरस्वती फिर मोहंजोदोड़ो और हड़प्पा की नगरियों के बीच विदेशी हमलावरों की तलवारों की धार पर खून से लथपथ पंजाब से लेकर राजस्थान और गुजरात और सीमापार सिंध तलक तमाम नदियां खून से लबालब लापता सरस्वती नदी बन गयी है और नये सिरे से वैदिकी वध संस्कृति के सेनापति इंद्र चारों तरफ अनार्यों के वध के लिए कारपोरेट केसरिया घोड़े और सांढ़ दौड़ा रहे हैं।


रथयात्राएं जारी हैं।जारी रहेंगी।

वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति।

कारपोरेट हिंसा हिंसा न भवति।


बुरांश खिलने का यही मौसम है।

जलवायु बदल गया है।

प्रकृति बदलने लगी है।


तो क्या,खिलेंग ही बुरांश

और खिलेंगे पलाश भी

दावानल कतो फिर दावानल है

आग कहीं भी हो,

आग तो निकलनी चाहिए

दावानल फिर दावानल है


बेमौसम आपदाओं की केसरिया कारपोरेट सुनामी से दसों दिशाओं से हम घेर लिये गये हैं और हर आम भारतीय किसी न किसी चक्रव्यूह में महारथियों के हाथों अकेला वध होने को नियतिबद्ध है इस मुक्तबाजारी महाभारत में कि हर सीने के लिए रिजर्व है कोई नकोई गाइडेड बुलेट या फिर मिसाइल उसकी हैसियत के मुताबिक।ड्रोन की तेज बत्ती वाली नजर से बच भी निकले तो आपकी पुतलियों की तस्वीरें और आपकी उंगलियों की छाप उनके डाटा बैंक में दर्ज है,बचोगे नहीं बच्चू।


देश भर के आदिवासी हमारे मोहनजोदोड़ो हड़प्पा विरासत के वंशधर हैं और उनके घर घर में कालचक्र से उस समय की रक्तधारा को स्पर्श किया जा सकता है अभी।


माननीय  इस मिथ्या लोकतंत्र के निवासियों,आपको बता दें कि भूमि अधिग्रहण के लिए किसी कानून की परवाह कोई नहीं करता।


कानून हो या नहीं, बेदखली हरिकथा अनंत है।आदिगंत अनंत हरिकथा,वैदिकी हिंसा।


बेदखली का सिलसिला हड़प्पा मोहनजोदोड़ो समय से निरंतर जारी है।


सिर्फ सत्ता हस्तातंरण हुआ है।लोकतंत्र इस देश में कभी नहीं आया।


राहुल गांधी के संसदीय उद्गार के जवाब में बिजनेस फ्रेंडली गोडसे सावरकर गोलवलकर की फासिस्ट सरकार जो हीराकुड बांध के शिलान्यास के वक्त दिये गयेभाषण को उद्धृत कर रही है और इंदिरा गाधी के विकास के एजंडे का बाबासाहेब के महिमामंडन की तर्ज पर स्मरण किया जा रहा है,उसका मतलब समझ लें।


हाल में एक जनपक्षधर टीवी चैनल पर हमारे इंडियन एक्सप्रेस के पुराने सीईओ  शेखर गुप्ता के साथ साथ महान  दलित लेखक चंद्रभान प्रसाद दलित उद्यम का विमर्श पेश करते हुए दलित उद्योगपतियों के अरबों डालर के टर्नओवर दिखाते हुए जमशेदपुर के टाटा कारखाना इलाके में खड़े होकर बता रहे थे कि वहां पूरा इलाका सिंहभूम का घनघोर जंगल था जिसे टाटा ने इस्पात कारखाने में तब्दील करके झारखंड के आदिवासियों और दलितों को रोजगार दिये।


यही तर्क कल्कि अवतार का है कि तुम हमें जमीन दो,हम तुम्हें रोजगार देंगे। अबाध भूमि अधिग्रहण का यह आधार है।


सत्ता वर्ग को आम जनता में यह खुशफहमी बनाये रखने की चिंता ज्यादा है कि देश में लोकतंत्र है और लोकतंत्र में कानून का राज है और कानून के राज में हर किसी के साथ न्याय होगा।


सही मायने में न कानून का राज है।

सही मायने में न लोकतंत्र कहीं है।

सही मायने में न न्याय की कोई उम्मीद कहीं है।


तराई के बारे में भी यही कहा जाता है कि वहां घनघोर जंगल था।जैसे कि टाटानगर के बारे में कहा जा रहा है कि वहां कोई आबादी नहीं थी और घनघोर जंगल बीच मंगलकाव्य का सृजन कर दिया टाटा ने।जबकि टाटा नगर सैकड़ों आदिवासियों के गांवों पर बसाया गया और उन आदिवासियों को आजतक न मुआवजा मिला है ,न पुनर्वास और न ही रोजगार।


संविधान की पांचवीं और छठीं अनुसूचियों,वनाधिकार अधिनियम,समुद्रतट सुरक्षा अधिनियम,जीवन चक्र संरक्षण अंतरराष्ट्रीय कानून, पेसा,स्वायत्त इकाई अधिनियम,पर्यावरण कानून,खनन अधिनियम और न जाने कितने कितने कानून हैं,जिन्हें ताक पर रखर खनिज संपदा से समृद्ध आदिवासी सोेने की चिड़िया भारत की रोज रोज हत्या हो रही है।


नेहरु समय में विकास के जो भव्य राममंदिर बने देशभर में, भिलाई, बोकारो, हीराकुड,  डीवीसी से लेकर भाखड़ा नांगल तक,उसके लिए जो बस्तियां उजाड़ी गयीं, उन्हें न आज तक पुनर्वास मिला और न रोजगार।


नया रायपुर बसाने के लिए परखौती के आस पास जो सैकड़ों आदिवासी गांव उखाड़े गये, समूचे मध्य भारत में सलवा जुड़ुम के तहत कारपोरेट परियोजनाओं के तहत कारपोरेट हितों के लिए आम करदाताओं के पैसे से जो चप्पे चप्पे पर सैन्य राष्ट्र की मौजूदगी में हर पल हर छिन बेदखली अभियान जारी है,उसके लिए किसी भूमि अधिग्रहण कानून की जरुरत नहीं है।


बंगाल की शेरनी भूमि अधिग्रहण के सख्त खिलाफ हैं।हावड़ा,हुगली,उत्तर और दक्षिण चौबीस परगना जिलो के जो हजारों हजार गांव उजाड़ दिये जाते रहे हैं और सुंदरवन से लेकर दार्जिलिग तक जो प्रोमोटर बिल्डर माफिया राजकाज है, अबाध जो भूमि डकैती है,उसके लिए किसी कानून की जरुर त नहीं पड़ी।


नई दिल्ली की बहुमंजिली कालोनियों की नींव में जो हजारोंहजार गांव दफन है,उनके वाशिंदे अब कहां है,कितनों को मुआवजा मिला,कितनों को नहीं,इसका कोई हिसाब किताब हो तो बांग्लादेश में जैसे शहरियार कबीर ने अल्पसंख्यक उत्पीड़न का एनसाइक्लोपीडिया छाप दिया,वैसा ही कुछ करें कोई,तो पानी का पानी ,दूध का दूध हो जाये।


नई मुंबई और पनवेल के बेदखल गांवो के मुखातिब होता रहा हूं बार बार ,जिन्हें न मुआवजा मिला है और न रोजगार प्राइम प्रापर्टी हाचप्रापर्टी के उस कारपोरेट अभयारणय में।


घूम घूमकर झूम खेती करने की वजह से हजारों सेल से आदिवासी गांवों की बसावटें बदलती रही हैं।जिस वजह से आदिवासी गावों को राजस्व गांवों की मान्यता बहुत मुश्किल से मिलती है।उन गांवों का कोई रिकार्ड होता नहीं है कहीं।वे हैं तो वे नहीं भी हैं।एकबार वे गांव छोड़ दें तो वे दोबारा गांव लौट नहीं सकते।


सलवा जुड़ुम का महाभारत आदिवासियों को अपना गांव छोड़ने के लिए मजबूर करने का आईपीएल है।एकबार आदिवासी किसी भी वजह से गांव छोड़ दें तो उन्हें दोबारा वहां बसने की इजाजत नहीं मिल सकती और न वे अपनी जल जंगल जमीन और आजीविका का दावा किसी न्यायलय में ठोंक सकते हैं।कानून के राज में उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई।न भविष्य में होगी।


इस देश में कहीं भी,यहां तक की हिमालय की तराई और नेपाल में बसे निरंतर बेदखल बुक्सा थारुओं की भी कहीं सुनवाई नहीं होती।


इस देश में जमीन आदिवासियों की जरुर होती है और कानूनन इस जमीन का ह्तांतरण भी नहीं हो सकता।लेकिन उस जमीन पर सर्वत्र गैर आदिवासी लोग ही ज्यादातर काबिज हैं।


भूमि अधिग्रहण कानून पास कराने का नाटक आम जनता,खासकर किसानों और आदिवासियों को यह भरोसा दिलाने के लिए अनिवार्य है कि वे इस गलत फहमी हरहे कि कानून के मुताबिक ही उनको हलाल या झटके से मार दिया जायेगा।गैर कानूनी कुछ भी नहीं होगा।


यह तिलिस्म जब टूटेगा तो मंजर वही होगाः


बुरांश खिले पहाड़ जंगल

कि पलाश खिले पहाड़ जंगल

कि जंगल में हो मंगल

कि जारी रहे संसदीय दंगल

दहक रहा दावानल कि

पक रही है मिट्टी

भूमिगत आग अब

फोड़ देगी जमीन

जलकर खाक होगी

लुटेरों की यह

नकली दुनिया



No comments:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Tweeter

Blog Archive

Welcome Friends

Election 2008

MoneyControl Watch List

Google Finance Market Summary

Einstein Quote of the Day

Phone Arena

Computor

News Reel

Cricket

CNN

Google News

Al Jazeera

BBC

France 24

Market News

NASA

National Geographic

Wild Life

NBC

Sky TV