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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Saturday, April 9, 2016

बाबा साहेब के सवालों का जवाब अंग्रेजों को नहीं, भाजपा सरकार को देना है

बाबा साहेब के सवालों का जवाब अंग्रेजों को नहीं, भाजपा सरकार को देना है


बाबा साहेब की प्रासंगिकता

– संजय पराते

डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर भारतीय समाज के दलित-शोषित-उत्पीड़ित तबकों के विलक्षण प्रतिनिधि थे, जिन्होंने हिन्दू धर्म में जन्म तो लिया, लेकिन एक हिन्दू के रूप में उनका निधन नहीं हुआ। एक हिन्दू से गैर-हिन्दू बनने की उनकी यात्रा उनकी स्थापित मूर्तियों में साकार होती हैं, जिसमें वे पश्चिमी पोशाक के साथ संविधान हाथ में लेकर, आधुनिक भारतीय समाज का दिशा-निर्देशन करते दिखते हैं। लेकिन उनकी यह यात्रा महज उनकी व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं है, बल्कि वे समूचे भारतीय दलित-वंचित तबकों के दमन के विरूद्ध संघर्षों के नायक के रूप में सामने आते हैं। दलित-वंचित तबकों का यह संघर्ष केवल जातिवाद की बेड़ियों से मुक्ति के लिए नहीं है, इस संघर्ष में केवल आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने का सवाल ही निहित नहीं हैं; बल्कि यह संघर्ष एक ऐसी समाज-व्यवस्था के निर्माण का संघर्ष हैं, जहां मनुष्य को मनुष्य के रूप में सम्मान और इज्जत मिले, जहां पददलित-वंचित तबके के लोगों को मानवीय गरिमा के साथ जीने और अपना समग्र विकास करने का अधिकार मिले। ऐसी व्यवस्था के निर्माण के संघर्ष के सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक और सांस्कृतिक आयाम होते हैं।

इस दृष्टि से बाबा साहेब ने जिस संघर्ष की शुरूआत की थी, वह संघर्ष आज भी अधूरा है और अपनी मंजिल पाने को लड़ रहा है। देश की राजनैतिक आज़ादी के बाद भी वह संघर्ष अधूरा है, तो इसलिए कि हमारे शासक वर्ग ने "गोबर के ढेर पर महल का निर्माण" करने की कोशिश की। नतीजा, आज़ादी के बाद और संविधान के दिशा-निर्देशन के बाद भी, एक ऐसे समतावादी समाज के निर्माण में हम असफल रहे हैं, जो सामाजिक न्याय और दलित-वंचित तबकों की मानवीय गरिमा को सुनिश्चित कर सके।

20 नवम्बर, 1930 को गोलमेज अधिवेशन में बाबा साहेब ने अंग्रेजी साम्राज्यवाद की इन शब्दों में मुखालफत करते हुए 'राजसत्ता' पर अधिकार की मांग की थी —

"… अंग्रेजों के आने के पहले हमारी दलितों की जो स्थिति थी, उसकी तुलना यदि हम आज की परिस्थितियों से करते हैं, तो हम पाते हैं कि आगे बढ़ने के बजाये हम एक स्थान पर कदमताल कर रहे हैं। अंग्रेजों के आने के पहले छुआछूत की भावना के चलते हमारी सामाजिक स्थिति घृणास्पद थी। उसे दूर करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने कुछ किया क्या? अंग्रेजों के आने से पहले हमें मंदिरों में प्रवेश नहीं मिला था। वह हमें आज मिल रहा है क्या?…"

अम्बेडकर आज जीवित होते, तो फिर यही सवाल करते कि आज़ादी से पहले जो स्थिति दलित-वंचितों की थी, आज भी वह जस-की-तस है, तो क्यों? क्यों आज रोहित वेमुला आत्म-हत्या कर रहे हैं और क्यों दलित-दमन के अपराधी अदालतों से बाइज्जत बरी हो रहे हैं?? क्यों आज भी दलित और महिलायें मंदिर प्रवेश के लिए संघर्ष कर रही हैं और क्यों संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद आज नौकरियों में आरक्षित सीटें खाली है???

संविधान की जगह मनुस्मृति को स्थापित करने की कोशिशें क्यों चल रही हैं

वे यह भी पूछते कि आज संविधान की जगह मनुस्मृति को स्थापित करने की कोशिशें क्यों चल रही हैं और क्यों आज भी जनता का बहुमत तबका आर्थिक न्याय और न्यूनतम वेतन तक से वंचित हैं????

आज बाबा साहेब नहीं हैं, लेकिन इन सवालों का जवाब अब अंग्रेजों को नहीं, संघ-निर्देशित भाजपा सरकार को देना है, जिसके मुखिया नरेन्द्र मोदी हैं। यही वह संघी गिरोह हैं, जो 'फेंकने' में तो आगे हैं, लेकिन वास्तविकता यही है कि बाबा साहेब के ' धर्म-निरपेक्ष भारत ' को, ' हिंदू राष्ट्र ' में बदलने के लिए ज़हरीला अभियान चला रही है, जिसके बारे में बाबा साहेब ने कहा था —

"अगर इस देश में हिन्दू राज स्थापित होता है, तो यह एक बहुत बड़ी आपदा होगी। … हिन्दू धर्म स्वतंत्रता का दुश्मन है। हिंदूराज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।"

जो चुनौती बाबा साहेब के सामने थी, वही चुनौती अपने आकार में कई गुना बढ़कर आज हमारे सामने उपस्थित हैं। बकौल, के सी सुदर्शन (संघ के पूर्व सरसंघचालक) — " भारत का संविधान हिन्दूविरोधी है। … इसलिए इसको उठाकर फेंक देना चाहिए और हिन्दू ग्रंथों के पवित्र ग्रंथों पर आधारित संविधान को लागू किया जाना चाहिए।"

इसीलिए संघी गिरोह गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने का अभियान चलाता है, जिसे अम्बेडकर ने 'प्रतिक्रांति का दर्शन' कहा था। इसीलिए जब-जब संविधान पर संघी गिरोह हमला करता है और उसकी समीक्षा करने की बात करता है, इस देश के दलित-उत्पीड़ित-वंचित तबके 'मनुस्मृति' को जलाने के लिए आगे आते हैं। प्रकारांतर से यह लड़ाई एक पुरातनपंथी वर्ण व्यवस्था को स्थापित करने के प्रयत्नों के खिलाफ एक वैज्ञानिक-चेतना संपन्न समतावादी आधुनिक भारत के निर्माण के प्रयास के लिए संघर्ष में तब्दील हो जाती है।

यह संघर्ष कितना कटु है, इसका अंदाज़ केवल इस तथ्य से लगा सकते हैं कि संघी गिरोह भारतीय जन-मानस में आये किसी भी प्रगतिशील-वैज्ञानिक चेतना के अंश को मिटा देना चाहता है। 6 दिसंबर, जो कि बाबा साहेब का निर्वाण दिवस भी है, को बाबरी मस्जिद का विध्वंस कोई आकस्मिक कार्य नहीं, बल्कि सुनियोजित षडयंत्र था। यह संघी कुकृत्य बाबा साहेब के संविधान पर हमला भी था और उनकी स्मृति को जनमानस से पोंछने का प्रयास भी। आज वे बाबा साहेब की समूची विचारधारा को हड़पने का अभियान चला रहे हैं और इस क्रम में हास्यास्पदता की हद तक जाकर वे उन्हें संघ-संस्थापक डॉ. हेडगेवार के 'सहयोगी' के रूप में चित्रित कर रहे हैं तथा दुष्प्रचार कर रहे हैं कि उन्हें संघ की विचारधारा में विश्वास था। जबकि बाबा साहेब के किसी भी सामाजिक-राजनैतिक अभियान/संघर्षों में 'काली टोपी, खाकी निक्कर'-वालों की कोई भागीदारी नहीं मिलती। अम्बेडकर तो क्या, देश के किसी भी स्वाधीनता संग्राम सेनानी से साथ संघियों का कभी कोई इन संबंध ही नहीं रहा हैं, क्योंकि इस समूची अवधि में 1925 से लेकर 1947 तक वे अंग्रेजों के साथ ही खड़े रहे और स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ अंग्रेजों की मुखबिरी करते रहे। आज़ादी के बाद भी, हिन्दू कोड बिल के मामले में उन्होंने बाबा साहेब के पुतले जलाने तथा उन्हें धिक्कारने का ही काम किया था।

इस प्रकार, बाबा साहेब की विचारधारा का संघी गिरोह की 'वर्णाश्रमी समाज-व्यवस्था और हिन्दू-राष्ट्र के निर्माण की कल्पना'-वाली विचारधारा से सीधा टकराव है। दलित-शोषित-उत्पीड़ित व वंचितों का अपने अधिकारों के लिए संघर्ष जितना तेज होगा, यह टकराव भी उतना ही बढ़ेगा।

इस संघर्ष को तेज करने और आगे बढ़ने के लिए मनुष्य को शोषण से मुक्त करने की चाहत रखने वाली सभी ताकतों को एक साथ आना होगा। अपने जीवन काल में ही अम्बेडकर ने इसे समझ लिया था। 1927 में महाड़ के तालाबों के पानी के लिए जो विशाल सत्याग्रह हुआ और जिसमें 'मनुस्मृति' को जलाया गया, उस आंदोलन में ब्राह्मणों के शामिल होने के बारे में बाबा साहेब ने कहा था —

"जन्म से ऊंची और नीची भावनाओं का बना रहना ही ब्राह्मणवाद है। … हम ब्राह्मणों के खिलाफ नहीं हैं। हम ब्राह्मणवाद के विरोधी हैं। …हमारे इस आंदोलन में कोई भी, किसी भी जाति का व्यक्ति भाग ले सकता है।"

उल्लेखनीय है कि बाबा साहेब के जीवन में उदार और ब्राह्मण समाज-सुधारकों का भी बहुत योगदान रहा था। स्वयं बाबा साहेब ने 'अम्बेडकर' सरनेम एक ब्राह्मण शिक्षक से लिया था, जो एक नेक दिल इंसान थे और जिन्होंने उनकी पढ़ाई में काफी मदद की थी।

बाबा साहेब के चिंतन का दायरा केवल जाति-दायरे तक सीमित नहीं था। अपने सामाजिक चिंतन को उन्होंने अर्थनीति और राजनीति से भी जोड़ा। उन्होंने किसानों व मजदूरों का मुद्दा उठाया, कम्युनिस्टों द्वारा हडताल का समर्थन किया तथा कोंकण में जमींदारी प्रथा का विरोध किया। उन्होंने जिस पहली राजनैतिक पार्टी – इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी – का गठन किया, उसका झंडा कम्युनिस्ट पार्टी के झंडे की तरह ही लाल रंग का था। उन्होंने कहा,

"राजनीति वर्ग चेतना पर आधारित होनी चाहिए। जिस राजनीति में वर्ग चेतना ही न होवह राजनीति तो महज ढोंग है। इसलिए आपको ऐसी राजनैतिक पार्टी से जुड़ना चाहिएजो वर्गीय हितों व वर्गीय चेतना पर आधारित हो।"

13 फरवरी, 1938 को नासिक में रेलवे दलित वर्ग कामगार सम्मलेन में बोलते हुए उन्होंने कहा –

-" मेरे ख्याल से ऐसे दो

संजय पराते, माकपा की छत्तीसगढ़ इकाई के सचिव हैं।संजय पराते, माकपा की छत्तीसगढ़ इकाई के सचिव हैं।

शत्रु हैं, जिनसे इस देश के मजदूरों को निपटना ही होगा। वे दो शत्रु हैं — ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद। … यदि समाजवाद लाना है, तो इसे लाने का सही तरीका है — इसे जन-जन तक प्रचारित करना और आमजनों को इस उद्देश्य के लिए संगठित करना। समाजवाद गिने-चुने कुलीन वर्गों या भद्रजनों को रिझाने-फुसलाने से तो नहीं आयेगा।"

1937-38 में बाबा साहेब ने कम्युनिस्टों के साथ मिलकर किसानों की बड़ी-बड़ी रैलियां की। इन रैलियों में प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता  शामलाल परूलेकर, बी टी रणदिवे, जी एस सरदेसाई तथा एस ए डांगे ने भी हिस्सा लिया। खोट प्रथा को समाप्त करने तथा साहूकारी शासन को हटाने की मांग को लेकर 12 मार्च, 1938 को बंबई में 20000 किसानों ने पदयात्रा की। कम्युनिस्टों व क्रांतिकारियों के प्रभाव को रोकने के लिए बंबई प्रांत के कांग्रेस मंत्रालय ने औद्योगिक विवाद विधेयक पेश किया। इसके खिलाफ व्यापक अभियान चलाया गया। 7 नवम्बर को हड़ताल आयोजित की गई और इसके आयोजन के लिए आईएलपी, कम्युनिस्टों तथा उदारवादियों की संयुक्त समिति गठित की गई। हड़ताल जबरदस्त रूप से सफल रही। एक लाख लोगों की सार्वजनिक रैली आयोजित हुई, जिसे अम्बेडकर व डांगे ने संबोधित किया। इस रैली में दलित कामगारों ने पूरी तरह से भाग लिया। रैली में पुलिस के साथ हुई झड़प में 683 मजदूर घायल हुए थे। बंबई में मृत कामगारों की स्मृति में कम्युनिस्टों के नेतृत्व वाली मजदूर यूनियन द्वारा आयोजित जुलूस और सभा में अम्बेडकर भी शामिल हुए।

इस प्रकारइतिहास में बाबा साहेब के संघियों के साथ नहींबल्कि कम्युनिस्टों के साथ संबंधों के ही पुष्ट प्रमाण मिलते हैं।

लेकिन फिर भी यह स्पष्ट है कि बाबा साहेब मार्क्सवादी नहीं थे और कम्युनिस्ट भी अम्बेडकर की विचारधारा के अनुयायी नहीं है। शोषण से मानवता की मुक्ति की चाहत रखने वाली ये दोनों धाराएं कालांतर में समानांतर और सशक्त रूप से विकसित हुई। पहले के लिए जातिप्रथा का उन्मूलन सर्वोच्च था, दूसरे के लिए वर्गीय शोषण के खिलाफ संघर्ष का महत्त्व था। लेकिन स्वतंत्रता के बाद का अनुभव बताता है कि दोनों संघर्ष एक-दूसरे के पूरक हैं और संघर्ष की इन दोनों धाराओं में समन्वय आज सबसे बड़ी जरूरत है। जातिवाद के खिलाफ लड़ाई छेड़े बिना मजदूर के दिल में बैठे "ब्राह्मणवाद" को मारा नहीं जा सकेगा। यह 'ब्राह्मणवाद' वर्गीय एकता का सबसे बड़ा दुश्मन है, जो एक मेहनतकश को दूसरे मेहनतकश से अलग करता है। इसी प्रकार, वर्ग संघर्ष को तेज किये बिना संपत्ति के असमान वितरण की समस्या से नहीं जूझा जा सकता, क्योंकि वर्गीय शोषण जातीय भाईचारा नहीं देखता और अपने आर्थिक प्रभुत्व को बनाए रखने के लिए एक धनी दलित दूसरे गरीब दलित के शोषण से भी नहीं हिचकता। इसलिए वर्गीय दृष्टि से शोषित वर्ग की सामाजिक दृष्टि से दलित-वंचित-उत्पीड़ित तबकों के साथ एकता समाज के रूपांतरण के लिए बहुत जरूरी है — एक ऐसे समाज के निर्माण के लिए जहां सामाजिक न्याय, आर्थिक स्वतंत्रता व राजनैतिक अधिकार सुनिश्चित किये जा सके।

1890 में ज्योतिबा फुले ने कहा था –

"शिक्षा के अभाव में ज्ञान का लोप हो जाता हैज्ञान के अभाव में विकास का लोप हो जाता है,विकास के अभाव में धन का लोप हो जाता हैधन के अभाव में शूद्रों का विनाश हो जाता है।"

ज्योतिबा का यह कथन आर्थिक और सामाजिक मुद्दों को जोड़ने की राह दिखाता है।

आज ये दलित-उत्पीड़ित-वंचित तबके उत्पादन के साधनों व क्रय-शक्ति की सामर्थ्य – दोनों से वंचित हैं। जमीन पर अधिकार का मुद्दा इस तबके को एकजुट करता है और उसे वर्गीय शोषण और जातीय उत्पीड़न से लड़ने के लिए प्रेरित करता है। जल, जंगल, जमीन, खनिज व अन्य प्राकृतिक संसाधनों को जिस प्रकार कार्पोरेट लूट के हवाले किया जा रहा है और इस लूट को सुनिश्चित करने के लिए जिस प्रकार संविधान के बुनियादी आधारों पर हमला किया जा रहा है, उसके खिलाफ संघर्ष केवल वामपंथी तथा अम्बेडकर की विचारधारा से प्रतिबद्ध ताकतें ही चला सकती हैं। लाल रंग वर्ग संघर्ष का और नीला रंग सामाजिक न्याय का प्रतीक है। लाल और नीले की एकता – कुंओं और कारखानों, खेतों व मंदिरों पर लाल व नीले झंडे की फरफराहट – ही इस देश में बुनियादी परिवर्तन के संघर्ष को आगे बढ़ा सकती हैं। यही समय की मांग है। इसी मायने में बाबा साहेब आज भी प्रासंगिक हैं।

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