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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, January 29, 2012

अब तेज होगी दलित मुद्दों की लड़ाई लेखक : नैनीताल समाचार :: अंक: 08 || 01 दिसंबर से 14 दिसंबर 2011:: वर्ष :: 35 :December 18, 2011 पर प्रकाशित

अब तेज होगी दलित मुद्दों की लड़ाई

अब तेज होगी दलित मुद्दों की लड़ाई

Dalit-sammelanसुकून देने वाली आम धारणा है कि उत्तराखंड में जाति आधारित भेद-भाव और शोषण देश के अन्य भागों जैसा नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि जिस दलित समुदाय के साथ दा, दीदी, आमा, दाज्यू, भौजी जैसे रिश्ते लगाते हैं, क्या उन्हें वास्तव में उन रिश्तों का सम्मान भी देते हैं। सर्वत्र की तरह पहाड़ों में भी दलितों का सवर्णों के घरों के भीतर प्रवेश करना आज भी वर्जित है। सवर्ण और दलितों की दोस्ती केवल घर के बाहर तक ही सीमित है। उत्तराखंड की समृद्ध काष्ठ, प्रस्तर और धातु शिल्प में यहाँ के शिल्पकारों का ही योगदान है। मगर अपने ही बनाये मंदिरों में शिल्पकारों को प्रवेश की अनुमति नहीं है। पत्थरों को काट-तराश कर वे जो नौले बनाते हैं, वहाँ से वे पानी नहीं ले सकते। जो घर वे बनाते हैं, उनमें गृह प्रवेश के समय उन्हें बाहर ही बैठाकर भोजन कराया जाता है। बारात में हुड़दंगी बाराती सबसे देर तक ढोलियों को बजाने और नाचने के लिए बाध्य करते हैं, लेकिन उन्हें भोजन सबसे देर में परोसा जाता है।

'उत्तराखंड में दलित मुद्दों की पहचान एवं उनके मानवाधिकार' विषय पर उत्तराखंड समता आंदोलन, महिला समाख्या, दलित फाउंडेशन और हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान के सहयोग से मसूरी में तीन और चार नवम्बर को हुई दो दिवसीय गोष्ठी में यह बात सामने आई कि आज दलितों का विरोध और छूआछूत नए तरीकों से सामने आ रहे हैं। शहरों के निकट बढ़ती जमीनों की कीमतों ने दलितों की जमीनों को उनका ही दुश्मन बना दिया है। मसूरी जैसे कई क्षेत्रों में दलितों की जमीनों को जबरन हड़पे जाने के मामले भी सामने आए हैं। बैठक में प्रदेश के विभिन्न संगठनों के 100 से अधिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया। पहले दिन अनुसूचित जाति एवं जनजाति की शैक्षिक स्थिति पर रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए प्रवीन कुमार भट्ट ने कहा कि 2001 की जनगणना के मुताबिक उत्तराखंड की कुल जनसंख्या 84,89,349 में अनुसूचित जाति की आबादी 15,17,186 थी। राज्य की साक्षरता दर 71.62 प्रतिशत की तुलना में अनुसूचित जाति वर्ग के केवल 63.4 प्रतिशत लोग ही साक्षर थे। इनमें 77.3 प्रतिशत पुरुष साक्षर थे तो महिलाएँ केवल 48.7 प्रतिशत। साक्षरता के मामले में अनुसूचित जाति की महिलाएँ जनजाति महिलाओं से भी एक प्रतिशत पीछे हैं। जनपदवार देखने पर देहरादून कुल साक्षरता 79.0 प्रतिशत के मुकाबले दलितों की साक्षरता 52.9 प्रतिशत है। यहाँ महिलाएँ 35 प्रतिशत से भी कम साक्षर हैं। टिहरी में कुल 66.7 की तुलना में 46.64 प्रतिशत दलित साक्षर हैं। पौड़ी में 58.66, उत्तरकाशी में 46.29, चमोली में 56.58, रुद्रप्रयाग में 52.76, पिथौरागढ़ में 56.08, बागेश्वर में 52.60, अल्मोड़ा में 54.47, नैनीताल में 59.76, ऊधमसिंह नगर में 44.22, हरिद्वार में 45.72 और चंपावत में 50.04 प्रतिशत दलित ही साक्षर थे। जबकि इन सभी जिलो में सामान्य साक्षरता का प्रतिशत 65 से ऊपर था।

महिला समाख्या की निदेशक गीता गैरोला ने कहा कि दलित महिलाओं को दोहरे शोषण का शिकार होना पड़ता है, महिला होने के नाते और दलित होने के कारण। आरक्षण के बावजूद स्कूलों में भोजन माता, आशा कार्यकत्री, आँगनबाड़ी कार्यकत्री और सेविका जैसे पदों पर दलित महिलाओं की नियुक्ति नहीं हो पा रही है। कई स्थानों पर तो दलित महिला को भोजनमाता के रूप में नियुक्ति पर विवाद हो चुका है। इन स्कूलों में शिक्षकों तक ने नियुक्तियों का विरोध किया। समता आंदोलन के संयोजक प्रेम पंचोली ने उत्तराखंड सरकार के 2003 के उस आदेश, जिसमें राज्य के प्रत्येक परिवार के पास 63 नाली जमीन होनी चाहिए, के संदर्भ में दलितों को भूमि दिये जाने का मामला उठाया। उन्होंने राज्य की गैर वन भूमि को बंदोबस्त के आधार पर बाँटने की मांग की। पंचोली ने बीपीएल परिवार के दलित छात्रों को छात्रवृत्ति से वंचित रखने के लिए उनका आय प्रमाण पत्र अधिक आजीविका का बनाने के षड़यंत्र का भी जिक्र किया। सुप्रसिद्ध साहित्यकार लक्ष्मण सिंह बिष्ट 'बटरोही' ने कहा कि पहाड़ में दलितों का शोषण जिस सुनियोजित और व्यवस्थित तरीकों से होता है, उसकी पहचान करना तक मुश्किल है। सामाजिक कार्यकर्ता सुरेश भाई ने कहा कि उत्तराखंड में हजारों दलितों के लिए आरक्षित पद खाली पड़े हैं या उन्हें बैकडोर से अन्य जातियों के लिए सुरक्षित किया जा रहा है। पदोन्नति के लिए भी दलितों को कोर्ट की शरण में जाना पड़ता है। बैठक में नौगाँव ब्लाक के किमी गाँव से आए कक्षा दस के छात्र मनोज कुमार ने बताया कि किस प्रकार स्कूल के प्रधानाचार्य से लेकर शिक्षक तक दलित छात्रों को प्रतियोगिताओं में शामिल होने से लेकर नेतृत्व करने तक से रोकते हैं। वहीं कोटा के प्रधान सुरेन्द्र ने बताया कि दलित होने के कारण उनके ऊपर एक साल में 18 जाँचें बिठाई गईं, लेकिन कोई दोष साबित नहीं हुआ।

भूमि अधिकारों को लेकर कार्य कर रहे राजू महर ने कहा कि जब तक कि आपके नाम से कोई भूमि नहीं होगी तब तक आपको बीपीएल होने के बावजूद भी इन्दिरा आवास योजना में घर नहीं मिल पाएगा। जब तक दलितों के पास जमीन नहीं होगी तब तक वे किसी योजना का लाभ नहीं ले सकते। बंगाल और जम्मू कश्मीर की तरह उत्तराखंड में भी भूमि सुधार लागू करने की आवश्यकता है। सामाजिक कार्यकर्ता जबर सिंह ने दलितों की भूमि हड़पने के बढ़ते मामले गिनाते हुए मसूरी और उसके आसपास के क्षेत्रों के अनेक उदाहरण दिए और कहा कि जहाँ-जहाँ बाजार और सड़कों का विस्तार होने के कारण जमीनें महंगी हो रही हैं, वहाँ जमीनों के नाम पर दलितों का शोषण बढ़ रहा है। मसूरी क्षेत्र में तो दलितों को रात में घर से उठाकर दबंगों ने जमीनें अपने नाम पर करवा दीं, जिनके मुकदमें अभी भी न्यायालयोें में लंबित हैं। सामाजिक कार्यकर्ता कमल जोशी ने दलितों के अधिकारों को लेकर सघन आंदोलनों और रणनीति पर जोर दिया तो पत्रकार चंद्रवीर गायत्री ने समरसता बढ़ाने वाले प्रयासों पर जोर दिया। अजीमजी प्रेमजी फाउंडेशन के समन्यवयक अमरेन्द्र विष्ट ने दोहरी शिक्षा व्यवस्था को भी इन स्थितियों के लिए जिम्मेदार माना। सत्र की अध्यक्षता कर रहे कथाकार ओम प्रकाश बाल्मीकि ने कहा कि दलित शब्द से कई संगठनों और लोगों को सहमति नहीं है, जबकि इसी शब्द ने पूरे देश में दलितों को एकजुट करने का काम किया है। महिला समाख्या की राष्ट्रीय संदर्भ व्यक्ति रेवती नारायणन ने आयोजकों को धन्यवाद दिया।

बैठक के दूसरे दिन समता आंदोलन को अधिक प्रभावी बनाने के लिए सभी जिलों में इसके संयोजक नियुक्त करने के साथ ही प्रदेश में कार्यकारिणी बनाई गई। यह निर्णय लिया गया कि उत्तराखंड में खाली पड़े दलितों के पदों के लिए न्यायालय में पैरवी की जाएगी। एक दलित घोषणा पत्र बनाकर उसे राजनीतिक दलों को सांैपने तथा उन पर उसे अपने चुनाव घोषणा पत्र में शामिल कराने के लिए दबाव बनाने पर भी सहमति बनी।

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