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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Friday, January 6, 2012

दुर्गा चंडी नहीं, “…” थी, उसकी पूजा क्‍यों करें बहुजन?

दुर्गा चंडी नहीं, "…" थी, उसकी पूजा क्‍यों करें बहुजन?

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दुर्गा चंडी नहीं, "…" थी, उसकी पूजा क्‍यों करें बहुजन?

6 OCTOBER 2011 118 COMMENTS
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♦ प्रेमकुमार मणि

दुर्गा कथा के शूद्र पाठ को लेकर मणि जी का यह आलेख काफी उत्तेजक तथ्‍यों को हमारे सामने रखता है। यह आलेख फारवर्ड प्रेस के नये अंक का आमुख आलेख है। हम वहीं से इसे कॉपी-पेस्‍ट कर रहे हैं। शीर्षक में हमने थोड़ी छूट ले ली है : मॉडरेटर

फॉरवर्ड प्रेस का सदस्‍यता अभियान चल रहा है। एक अंक नमूना के तौर पर मुफ्त मंगाएं और पसंद आये, तो ग्राहक बनें। सदस्‍य बनने के लिए संपर्क करें! तीन वर्ष का शुल्‍क 500 रुपये, दो वर्ष का 360 रुपये और एक वर्ष का 200 रुपये है। इसके अलावा छात्रों के लिए भी एक योजना है, जिसके तहत महज 99 रुपये में छह माह की सदस्‍यता दी जाती है, लेकिन इसके लिए संबंधित शैक्षणिक संस्‍थान के परिचय पत्र की छाया प्रति आवश्‍यक होगी। अपना पूरा पता और फोन नंबर समेत लिखें।

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Dharmender Chouhan (सर्कुलेशन विभाग, फारवर्ड प्रेस), Aspire Prakashan Pvt. Ltd.,803/92, Deepali Bldg, Nehru Place,New Delhi 110019
Phone Numbers: 09990848941, 011- 46538687
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क्ति के विविध रूपों, यथा योग्यता, बल, पराक्रम, सामर्थ्‍य व ऊर्जा की पूजा सभ्यता के आदिकालों से होती रही है। न केवल भारत में बल्कि दुनिया के तमाम इलाकों में। दुनिया की पूरी मिथॉलॉजी के प्रतीक देवी-देवताओं के तानों-बानों से ही बुनी गयी है। आज भी शक्ति का महत्व निर्विवाद है। अमेरिका की दादागीरी पूरी दुनिया में चल रही है, तो इसलिए कि उसके पास सबसे अधिक सामरिक शक्ति और संपदा है। जिसके पास एटम बम नहीं हैं, उसकी बात कोई नहीं सुनता, उसकी आवाज का कोई मूल्य नहीं है। गीता उसकी सुनी जाती है, जिसके हाथ में सुदर्शन हो। उसी की धौंस का मतलब है और उसी की विनम्रता का भी। कवि दिनकर ने लिखा है: 'क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो, उसको क्या जो दंतहीन, विषहीन, विनीत, सरल हो।'

दंतहीन और विषहीन सांप सभ्यता का स्वांग भी नहीं कर सकता। उसकी विनम्रता, उसका क्षमाभाव अर्थहीन हैं। बुद्ध ने कहा है – जो कमजोर है, वह ठीक रास्ते पर नहीं चल सकता। उनकी अहिसंक सभ्यता में भी फुफकारने की छूट मिली हुई थी। जातक में एक कथा में एक उत्पाती सांप के बुद्धानुयायी हो जाने की चर्चा है। बुद्ध का अनुयायी हो जाने पर उसने लोगों को काटना-डंसना छोड़ दिया। लोगों को जब यह पता चल गया कि इसने काटना-डंसना छोड़ दिया है, तो उसे ईंट-पत्थरों से मारने लगे। इस पर भी उसने कुछ नहीं किया। ऐसे लहू-लुहान घायल अनुयायी से बुद्ध जब फिर मिले तो द्रवित हो गये और कहा 'मैंने काटने के लिए मना किया था मित्र, फुफकारने के लिए नहीं। तुम्हारी फुफकार से ही लोग भाग जाते।'

भारत में भी शक्ति की आराधना का पुराना इतिहास रहा है। लेकिन यह इतिहास बहुत सरल नहीं है। अनेक जटिलताएं और उलझाव हैं। सिंधु घाटी की सभ्यता के समय शक्ति का जो प्रतीक था, वही आर्यों के आने के बाद नहीं रहा। पूर्व वैदिक काल, प्राक् वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल में शक्ति के केंद्र अथवा प्रतीक बदलते रहे। आर्य सभ्यता का जैसे-जैसे प्रभाव बढ़ा, उसके विविध रूप हमारे सामने आये। इसीलिए आज का हिंदू यदि शक्ति के प्रतीक रूप में दुर्गा या किसी देवी को आदि और अंतिम मानकर चलता है, तब वह बचपना करता है। सिंधु घाटी की जो अनार्य अथवा द्रविड़ सभ्यता थी, उसमें प्रकृति और पुरुष शक्ति के समन्वित प्रतीक माने जाते थे। शांति का जमाना था। मार्क्‍सवादियों की भाषा में आदिम साम्यवादी समाज के ठीक बाद का समय। सभ्यता का इतना विकास तो हो ही गया था कि पकी ईंटों के घरों में लोग रहने लगे थे और स्नानागार से लेकर बाजार तक बन गये थे। तांबई रंग और अपेक्षाकृत छोटी नासिका वाले इन द्रविड़ों का नेता ही शिव रहा होगा। अल्हड़ अलमस्त किस्म का नायक। इन द्रविड़ों की सभ्यता में शक्ति की पूजा का कोई माहौल नहीं था। यों भी उन्नत सभ्यताओं में शक्ति पूजा की चीज नहीं होती।

शक्ति पूजा का माहौल बना आर्यों के आगमन के बाद। सिंधु सभ्यता के शांत-सभ्य गौ-पालक (ध्यान दीजिए शिव की सवारी बैल और बैल की जननी गाय) द्रविड़ों को अपेक्षाकृत बर्बर अश्वारोही आर्यों ने तहस-नहस कर दिया और पीछे धकेल दिया। द्रविड़ आसानी से पीछे नहीं आये होंगे। भारतीय मिथकों मे जो देवासुर संग्राम है, वह इन द्रविड़ और आर्यों का ही संग्राम है। आर्यों का नेता इंद्र था। शक्ति का प्रतीक भी इंद्र ही था। वैदिक ऋषियों ने इस देवता, इंद्र की भरपूर स्तुति की है। तब आर्यों का सबसे बड़ा देवता, सबसे बड़ा नायक इंद्र था। वह वैदिक आर्यों का हरक्युलस था। तब किसी देवी की पूजा का कोई वर्णन नहीं मिलता। आर्यों का समाज पुरुष प्रधान था। पुरुषों का वर्चस्व था। द्रविड़ जमाने में प्रकृति को जो स्थान मिला था, वह लगभग समाप्त हो गया था। आर्य मातृभूमि का नहीं, पितृभूमि का नमन करने वाले थे। आर्य प्रभुत्व वाले समाज में पुरुषों का महत्व लंबे अरसे तक बना रहा। द्रविड़ों की ओर से इंद्र को लगातार चुनौती मिलती रही।

गौ-पालक कृष्ण का इतिहास से यदि कुछ संबंध बनता है, तो लोकोक्तियों के आधार पर उसके सांवलेपन से द्रविड़ नायक ही की तस्वीर बनती है। इस कृष्ण ने भी इंद्र की पूजा का सार्वजनिक विरोध किया। उसकी जगह अपनी सत्ता स्थापित की। शिव को भी आर्य समाज ने प्रमुख तीन देवताओं में शामिल कर लिया। इंद्र की तो छुट्टी हो ही गयी। भारतीय जनसंघ की कट्टरता से भारतीय जनता पार्टी की सीमित उदारता की ओर और अंतत: एनडीए का एक ढांचा, आर्यों का समाज कुछ ऐसे ही बदला। फैलाव के लिए उदारता का वह स्वांग जरूरी होता है। पहले जार्ज और फिर शरद यादव की तरह शिव को संयोजक बनाना जरूरी था, क्योंकि इसके बिना निष्कंटक राज नहीं बनाया जा सकता था। आर्यों ने अपनी पुत्री पार्वती से शिव का विवाह कर सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश की। जब दोनों पक्ष मजबूत हो तो सामंजस्य और समन्वय होता है। जब एक पक्ष कमजोर हो जाता है, तो दूसरा पक्ष संहार करता है। आर्य और द्रविड़ दोनों मजबूत स्थिति में थे। दोनों में सामंजस्य ही संभव था। शक्ति की पूजा का सवाल कहां था? शक्ति की पूजा तो संहार के बाद होती है। जो जीत जाता है वह पूज्य बन जाता है, जो हारता है वह पूजक।

हालांकि पूजा का सीमित भाव सभ्य समाजों में भी होता है, लेकिन वह नायकों की होती है, शक्तिमानों की नहीं। शक्तिमानों की पूजा कमजोर, काहिल और पराजित समाज करता है। शिव की पूजा नायक की पूजा है। शक्ति की पूजा वह नहीं है। मिथकों में जो रावण पूजा है, वह शक्ति की पूजा है। ताकत की पूजा, महाबली की वंदना।

लेकिन देवी के रूप में शक्ति की पूजा का क्या अर्थ है? अर्थ गूढ़ भी है और सामान्य भी। पूरबी समाज में मातृसत्तात्मक समाज व्यवस्था थी। पश्चिम के पितृ सत्तात्मक समाज-व्यवस्था के ठीक उलट। पूरब सांस्कृतिक रूप से बंग भूमि है, जिसका फैलाव असम तक है। यही भूमि शक्ति देवी के रूप में उपासक है। शक्ति का एक अर्थ भग अथवा योनि भी है। योनि प्रजनन शक्ति का केंद्र है। प्राचीन समाजों में भूमि की उत्पादकता बढ़ाने के लिए जो यज्ञ होते थे, उसमें स्त्रियों को नग्न करके घुमाया जाता था। पूरब में स्त्री पारंपरिक रूप से शक्ति की प्रतीक मानी जाती रही है। इस परंपरा का इस्तेमाल ब्राह्मणों ने अपने लिए सांस्कृतिक रूप से किया। गैर-ब्राह्मणों को ब्राह्मण अथवा आर्य संस्कृति मे शामिल करने का सोचा-समझा अभियान था। आर्य संस्कृति का इसे पूरब में विस्तार भी कह सकते हैं। विस्तार के लिए यहां की मातृसत्तात्मक संस्कृति से समरस होना जरूरी था। सांस्कृतिक रूप से यह भी समन्वय था। पितृसत्तात्मक संस्कृति से मातृसत्तात्मक संस्कृति का समन्वय। आर्य संस्कृति को स्त्री का महत्त्व स्वीकारना पड़ा, उसकी ताकत रेखांकित करनी पड़ी। देव की जगह देवी महत्वपूर्ण हो गयी। शक्ति का यह पूर्व-रूप (पूरबी रूप) था जो आर्य संस्कृति के लिए अपूर्व (पहले न हुआ) था।

महिषासुर और दुर्गा के मिथक क्या है?

लेकिन महिषासुर और दुर्गा के मिथक हैं, वह क्या है? दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब तक हमने अभिजात ब्राह्मण नजरिये से ही इस पूरी कथा को देखा है। मुझे स्मरण है 1971 में भारत-पाक युद्ध और बंग्लादेश के निर्माण के बाद तत्कालीन जनसंघ नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अभिनव चंडी दुर्गा कहा था। तब तक कम्युनिस्ट नेता डांगे सठियाये नहीं थे। उन्होंने इसका तीखा विरोध करते हुए कहा था कि 'अटल बिहारी नहीं जान रहे हैं कि वह क्या कह रहे हैं और श्रीमती गांधी नहीं जान रही हैं कि वह क्या सुन रही हैं। दोनों को यह जानना चाहिए कि चंडी दुर्गा दलित और पिछड़े तबकों की संहारक थी।' डांगे के वक्तव्य के बाद इंदिरा गांधी ने संसद में ही कहा था 'मैं केवल इंदिरा हूं और यही रहना चाहती हूं।'

महिषासुर और दुर्गा की कथा का शूद्र पाठ (और शायद शुद्ध भी) इस तरह है। महिष का मतलब भैंस होता है। महिषासुर यानी महिष का असुर। असुर मतलब सुर से अलग। सुर का मतलब देवता। देवता मतलब ब्राह्मण या सवर्ण। सुर कोई काम नहीं करते। असुर मतलब जो काम करते हों। आज के अर्थ में कर्मी। महिषासुर का अर्थ होगा भैंस पालने वाले लोग अर्थात भैंसपालक। दूध का धंधा करने वाला। ग्वाला। असुर से अहुर फिर अहीर भी बन सकता है। महिषासुर यानी भैंसपालक बंग देश के वर्चस्व प्राप्त जन रहे होंगे। नस्ल होगी द्रविड़। आर्य संस्कृति के विरोधी भी रहे होंगे। आर्यों को इन्हें पराजित करना था। इन लोगों ने दुर्गा का इस्तेमाल किया। बंग देश में वेश्याएं दुर्गा को अपने कुल का बतलाती हैं। दुर्गा की प्रतिमा बनाने में आज भी वेश्या के घर से थोड़ी मिट्टी जरूर मंगायी जाती है। भैंसपालक के नायक महिषासुर को मारने में दुर्गा को नौ रात लग गयी। जिन ब्राह्मणों ने उन्हें भेजा था, वे सांस रोक कर नौ रात तक इंतजार करते रहे। यह कठिन साधना थी। बल नहीं तो छल। छल का बल। नौवीं रात को दुर्गा को सफलता मिल गयी, उसने महिषासुर का वध कर दिया। खबर मिलते ही आर्यों (ब्राह्मणों) में उत्साह की लहर दौड़ गयी। महिषासुर के लोगों पर वह टूट पड़े और उनके मुंड (मस्तक) काटकर उन्होंने एक नयी तरह की माला बनायी। यही माला उन्होंने दुर्गा के गले में डाल दी। दुर्गा ने जो काम किया, वह तो इंद्र ने भी नहीं किया था। पार्वती ने भी शिव को पटाया भर था, संहार नहीं किया था। दुर्गा ने तो अजूबा किया था। वह सबसे महत्त्वपूर्ण थीं। सबसे अधिक धन्या शक्ति का साक्षात अवतार!

(प्रेमकुमार मणि। हिंदी के प्रतिनिधि कथाकार, चिंतक व राजनीति कर्मी। जदयू के संस्‍थापक सदस्‍यों में रहे। इन दिनों बिहार परिवर्तन मोर्चा के बैनर तले मार्क्‍सवादियों, आंबेडकरवादियों और समाजवादियों को एक राजनीति मंच पर लाने में जुटे हैं। उनसे manipk25@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)


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