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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Wednesday, May 2, 2012

अब किसी की मौत पर भीतर से कुछ टूटने या अंदर ही अंदर चुभते किरचों से लहूलुहान होने का कोई अहसास नहीं होता

अब किसी की मौत पर भीतर से कुछ टूटने या अंदर ही अंदर चुभते किरचों से लहूलुहान होने का कोई अहसास नहीं होता



अब किसी की मौत पर भीतर से कुछ टूटने या अंदर ही अंदर चुभते किरचों से लहूलुहान होने का कोई अहसास नहीं होता

अब किसी की मौत पर भीतर से कुछ टूटने या अंदर ही अंदर चुभते किरचों से लहूलुहान होने का कोई अहसास नहीं होता

By  | May 2, 2012 at 6:50 pm | No comments | मुद्दा

क्या आप जानते हैं मणिपुर भारत का ही अंग है? यदि हाँ तो हमें मणिपुर सहित समूचे पूर्वोत्तर भारत में घाट रही घटनाओं पर चिंता तभी क्यों होती है जब वहाँ कोई धमाका होता है. कुछ दिन पूर्व बेंगलुरु में एक मणिपुरी छात्र की रहस्यमयी मृत्यु पर वरिष्ठ पत्रकार पलाश विश्वास का मर्मस्पर्शी आलेख हम यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं जो १९ साल के मणिपुरी छात्र रिचर्ड लोइतम की हत्या के बहाने कई घटनाओं पर हमारी संवेदना को झकझोरता है. इसी के साथ हम लोइतम के माता पिता की तरफ से मिले एक मेल को भी संलग्न कर रहे हैं.

प्रसंग मणिपुर,

मनुष्य की इंद्रियां जब काम नहीं करतीं, ऐसे अजब गजब हालात का आप क्या कहेंगे?

पलाश विश्वास

मनुष्य की इंद्रियां जब काम नहीं करतीं, ऐसे अजब गजब हालात को आप क्या कहेंगे? मगर अक्सर ऐसा हो जाता है कि हमारी इंद्रियां काम नहीं करतीं। मजे की बात तो यह है कि ऐसे में हमें कोई असुविधा भी नहीं होती और हम​ ​ सामान्य जीवन जी रहे होते हैं क्योंकि यह स्थिति शारीरिक विकलांगता के बजाय एक मानसिक निस्पृह सुरक्षित अवस्थान की होती है, हमें अमूमन इसका असर नहीं होता। मणिपुरी छात्र १९ साल के रिचर्ड लोइतम की हत्या का विरोध अभी तक कुल मिलाकर पूर्वोत्तर के छात्रों और दिल्ली बेंगलुरू के छात्र समाज को उद्वेलित कर रहा है। बाकी देश को नहीं। बाकी देश पूर्वोत्तर में अलगाववादी, उग्रवादी गतिविधियों के बढ़ने से राष्ट्र की एकता और अखंडता के खतरों को लेकर जितना परेशान रहता है, जातिभेद, रंगभेद और इलाका भेद के ऐतिहासिक भौगोलिक उत्पीड़न की इस ज्वलन्त घटना के अनदेखे आयाम से अभी परिचित नहीं है। उसे चिंता तब होगी, जबकि पूर्वोत्तर में इसकी प्रतिक्रिया में धमाके शुरू होंगे।  बेंगलूरु में मणिपुर के एक छात्र की संदिग्ध हालात में हुई मौत की जांच की मांग को लेकर राष्ट्रीय राजधानी के इंडिया गेट पर मणिपुर और पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों के 200 से अधिक छात्रों ने हाथों में मोमबत्तियां लेकर मौन जुलूस निकाला। उधर, बेंगलूरु में भी एक रैली निकाली गई। मणिपुरी छात्र रिचर्ड लोइतम (19) आचार्य एनआरवी स्कूल ऑफ आर्किटेक्चर में द्वितीय सेमेस्टर का स्टूडेंट था। उसका शव 18 अप्रैल की दोपहर होस्टल से मिला। पुलिस पहले इसे सड़क दुर्घटना के कारण हुई मौत बता रही थी लेकिन लोइतम के दोस्तों और परिवार के लोगों ने आरोप लगाया है कि उसके शरीर पर मिले जानलेवा चोट के निशान वरिष्ठ छात्रों द्वारा की गई मारपीट के हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र तथा मणिपुर स्टूडेंट्स के प्रतिनिधि आर्यमान ने कहा, "कॉलेज प्रशासन दावा कर रहा है कि रिचर्ड लोइतम की मौत 15 अप्रैल को एक मोटरसाइकिल दुर्घटना में हुई। हालांकि प्रारम्भिक पोस्टमार्टम रिपोर्ट में कहा गया है कि लोइतम की मौत पिटाई से हुई। "उन्होंने कहा, "इसके बावजूद पुलिस ने अप्राकृतिक कारणों से मौत होने का मामला दर्ज किया है। किसी के दबाव में आकर इस मौत को आत्महत्या की श्रेणी में रखा जा रहा है।" प्रदर्शकारियों ने घटना की जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) से कराने और दोषियों तथा छात्रावास के अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग की। मोमबत्ती जुलूस निकालने से पहले प्रदर्शनकारी जंतर मंतर पर जुटे और पूर्वोत्तर के छात्रों के साथ भेदभाव के खिलाफ नारे लगाए। इस मौके पर प्रसिद्ध मणिपुरी लेखिका बीनालक्ष्मी निरूपम भी मौजूद थीं। उधर, बेंगलूरु में छात्रों ने रैली निकाली। शहर के बीच में स्थित टाउन हॉल में जुटे छात्र हाथों में तख्तियां लिए हुए थे, जिस पर लिखा था 'रिचर्ड लोइतम को न्याय चाहिए।' छात्रों ने लोइतम की मौत की जांच में हो रही देरी के विरोध में प्रदर्शन किया। छात्रों के एक समूह ने लोइतम को न्याय दिलाने के लिए फेसबुक पर अभियान शुरू किया है।

माणिक बंद्योपाध्याय के क्लासिक उपन्यास पुतुल नाचेर इतिकथा के पहले अध्याय में एक वटवृक्ष के नीचे आंधी पानी में आश्रित किसान की ​​वज्रपात से मृत्यु का दृश्य देशकाल के परिप्रेक्ष्य में खासकर देहात, किसान और खेती के लिए अशनिसंकेत को भयंकर निर्ममता से उपस्थापित​ ​करता है। दो दिन पहले शाम के वक्त जब हम अपने कार्यस्थल पर थे, हावड़ा के अंकुरहाटी में मुंबई रोड के किनारे अपने बहुमंजिली आलीशान दफ्तर में, तब टीवी पर बगल ही में उदयनारायणपुर के एक गांव में पूजा के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम की तैयारियां देखने इकट्ठा ग्रामीण आंधी पानी की चपेट में आ गये और बचने के लिए एक पुरानी इमारत में उन्होंने शरण ली। तभी उस इमारत पर वज्रपात हो गया। एक मुश्त दस किसानों की मौत हो गयी। सोलह ​​लोग झुलस गये। तुरत फुरत मां माटी मानुष की परिवर्तन सरकार ने हर मृतक के लिए उनके परिजनों को दो दो लाख रूपये का मुआवजा देने का ऐलान कर दिया। टीवी पर देर तक खबर लाइव होती रही। बाद में अखबारों ने भी ब्यौरा छापा। पर भीतर से कुछ टूटने या अंदर ही अंदर चुभते किरचों से लहूलुहान होने का कोई अहसास नहीं हुआ। जैसा कि माणिक को पढ़ते हुए हो रहा था। फिर ब्रह्मपुत्र नदी में नौकाडूबी से करीब डेढ़ सौ दो सौ लोगों के मरने की खबर अभी ताजा है। जाहिर है कि असम में हुई यह घटना हमें उस तरह छू नहीं सकती। विदर्भ में किसानों की थोक आत्महत्याओं की घटनाओं पर बाकी देश की क्या कहें, बाकी महाराष्ट्र के निष्पृह भाव को क्या कहेंगे? हमने राम मंदिर आंदोलन के दौरान महीनों तक दंगों की आग में जलते मेरठ में रहने का अनुभव बाहैसियत एक पेशेवर पत्रकार जिया है। इंसानी​ ​ हड्डियों के आग में जलते हुए चिटखने की आवाज सुनी हैं। पत्रकार साथियों तक को नंगा होकर हिंदू होने का सबूत देते देखा है। हवा में जलते हुए आदमी की गंध से दम घुटने का अहसासा किया है। अफवाहों के जरिये कत्लेआम होते देखा है। हाशिमपुरा और मलियाना नरसंहार देखे हैं। महज हिंदू या फिर महज मुसलमान होने की वजह से लोगों पर गिरते त्रासदियों के पहाड़ में मनुष्यता की इंद्रियों को विकलांग होते देखा है। फिर अस्सी के दशक में आपरेशन ब्लू स्टार के बाद सिख विरोधी दंगों का वह तांडव क्या भुलाया जा सकता है, जब मेरठ में शायर बशीर बद्र तक का घर फूंक दिया गया था और बुजुर्ग पत्रकार खुशवंत सिंह को राम विलास पासवान की मदद से जान बचानी पड़ी।

यह सही है कि हम लोग अब दुर्घटनाओं और हादसों के आदी हो गये हैं। टीवी पर लाइव कवरेज के चलते और इंटरनेट पर तुरत ही वीडियो अपलोड होते रहने से चश्मदीद हैं हम देश दुनिया की तमाम घटनाओं के। अमेरिका के न्यूयार्क महानगर में गगनचुंबी जुड़वां टावर पर आतंकवादी हमला, इराक और अफगान युद्ध हमने लाइव देख​ लिया। सुनामी और भूकंप भी अब हम लाइव देखते हैं।हालीवूड बालीवूड की एक्शन फिल्मों, लाइव क्रिकेट और फुटबाल मैच के प्रसारण से कोई ज्यादा असर इन घटनाओं का हमारी इंद्रियों पर होना अब मुश्किल ही है। निष्पाप शिशुओं को भी अब इन घटनाओं, अभूतपूर्व हिंसा और घृणा, खौफनाक से भी डरावना दृश्यों, ध्वंस और सर्वनाश  में कार्टून फिल्मों का मजा आने लगता है। इस विकराल समय की दुष्टता में इंद्रियां शिथिल पड़ जायें, तो यह कोई अनहोनी नहीं है।

अस्सी के दशक में जब हमने पत्रकारिता की शुरुआत की थी तो कहीं लाठीचार्ज हो जाये तो वह खबर भी लीड लायक बन जाती थी। हड़ताल, पुलिस फायरिंग बड़ी खबरें थीं उन दिनों। तब तक धमाके शुरू नहीं हुए थे। न तेल के लिए युद्ध चल रहा था और न आतंकवाद के खिलाफ युद्ध। १९६२, ६५ और ७१ का युद्ध को अखबारों और रेडियो से देखने सुनने को मिला। जाहिर है कि खबरों की कोमोत्तेजक उत्तेजना तब सिरे से नदारद थी। आजकल तो बांग्ला चैनलों में सुर्खियों से पहले जापानी तेल का विज्ञापन ​​होता है और टीवी के हिंदी अंग्रेजी खबरों पर कंडोम चढा दिखता है। इन दिनों सेलिब्रिटी की दिनचर्या और उनके प्रेम प्रसंग या विनोदन की खबरें जितनी बड़ी होती हैं, मानवीय सरोकार की खबरें उतनी छोटी हो गयी हैं। पोर्टलों पर खबरों की गंभीरता उनके साथ चस्पां नंग धड़ंग वीडियो और नंगी तस्वीरों में निष्मात हो जाती हैं।

लेकिन बंगलूर में मणिपुर के एक छात्र की हत्या के बाद जो कुछ हुआ, उससे माणिक बंदोपाद्याय के पुतुल नाचेर इतिकथा की झटके के साथ याद आ गयी। इस अशनिसंकेत को हमारी इंद्रियां नजरअंदाज करती हैं तो इससे बड़ा खतरनाक हादसा कोई दूसरा नहीं हो सकता।मणिपुर भारत का एक राज्य है। इसकी राजधानी है इंफाल। मणिपुर के पड़ोसी राज्य हैं: उत्तर में नागालैंड और दक्षिण में मिज़ोरम, पश्चिम में असम; और पूर्व में इसकी सीमा म्यांमार से मिलती है। इसका क्षेत्रफल 22,347 वर्ग कि.मी (8,628 वर्ग मील) है। यहां के मूल निवासी मेइती जनजाति के लोग हैं, जो यहां के घाटी क्षेत्र में रहते हैं। इनकी भाषा मेइतिलोन है, जिसे मणिपुरी भाषा भी कहते हैं। यह भाषा १९९२ में भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में जोड़ी गई है, और इस प्रकार इसे एक राष्ट्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त हो गया है। यहां के पर्वतीय क्षेत्रों में नागा व कुकी जनजाति के लोग रहते हैं। मणिपुरी को एक संवेदनशील सीमावर्ती राज्य माना जाता है। मणिपुर का शाब्दिक अर्थ 'आभूषणों की भूमि' है। भारत की स्वतंत्रता के पहले यह रियासत थी। आजादी के बाद यह भारत का एक केंद्रशासित राज्य बना। यहाँ की राजधानी इंफाल है। यह संपूर्ण भाग पहाड़ी है। जलवायु गरम एवं तर है तथा वार्षिक वर्षा का औसत 65 इंच है। यहाँ नागा तथा कूकी जाति की लगभग 60 जनजातियाँ निवास करती हैं। यहाँ के लोग संगीत तथा कला में बड़े प्रवीण होते हैं। यहाँ यद्यपि कई बोलियाँ बोली जाती हैं। पहाड़ी ढालों पर चाय तथा घाटियों में धान की उपजें प्रमुख हैं। यहीं से होकर एक सड़क बर्मा को जाती है।

हमारे फिल्मकार मित्र जोशी जोसेफ की वजह से हम पहली बार पूर्वोत्तर को जा पाये। नैनीताल के हमारे पुराने मित्र राजीव कुमार की पहली ​​फीचर फिल्म वसीयत की हमने पटकथा और संवाद लिखे थे। मूलतः केरल के एक द्वीप के निवासी जोशी कोलकाता में राजीव के साथ फिल्म डिवीजन में काम करते हैं। जोशी अपने वृत्त चित्रों के लिए विख्यात हैं और पूर्वोत्तर से उनका जुड़ाव अद्भुत है। जोसी की पहली फीचर फिल्म इमेजिनेरी लाइंस के संवाद हमने लिखे तो शूटिंग के दौरान हमें भी यूनिट के साथ मणिपुर जाना पड़ा। इस अनुभव को हमने अपनी मणिपुर डायरी में विस्तार से लिखा है, जिसके कुछ अंश वागार्थ और दस्तक में प्रकाशित हुए।वागर्थ से अकस्मात प्रभाकर क्षोत्रिय के हट जाने से वह डायरी पूरी तरह छपी नहीं है।राघव आलोक का भी असमय अवसान हो गया।

कोहिमा से महज तीन किमी की दूरी पर मरम गांव हमने डेरा डाला। पहले ही दिन नगा आदिवासियों के उस गांव के राजा ने हमें पकड़ लिया और​ ​ मरमघाटी में बसे गांव की सबसे ऊंचे पहाड़ की चोटी पर ले गये, जहां उनके पुरखों का अंतिम संस्कार किया गया है और वे पुरखे वहां​ ​ मोनोलिथ, अकेली पाषाणशिला की आकृति में बने हुए हैं। राजा और उनकी प्रजा मरमगांव की अपनी नगा उपभाषा मरम में बोलते हैं। पर चूंकि वहां ईसाई मिशनरी भी हैं और वे पढ़े लिखे भी हैं, इसलिए बाहरी लोगों से अंग्रेजी में भी बातचीत करते हैं।​

​​​ राजा ने पहाड़ की चोटी पर खड़े होकर हमें भूगोल और दिशाओं के बारे में बताया। उनके मुताबिक उनका गांव पृथ्वी का केंद्र है। उत्तर में उन्होंने ​​नगालैंड, पूरब में म्यांमार और पश्चिम में इंडिया बताया। बाद में शूटिंग के दौरान जब मैतेई कलाकार नगा चरित्रों के बतौर काम करने लगे और मणिपुरी मैतेई भाषा में उनके संवाद बोले जाने लगे, तो नगा आदिवासियों का गुस्सा देखने लायक था। जिनके आतिथ्य में हम राजकीय अतिथि थे. वे कब हमें अपने शिकार पर्व में भाले की नोंक पर सीक कबाब बनाकर रख दें , इसका ठिकाना न था। हमने मरम भाषा में संवाद डब करने का भरोसा दिलाकर और रोज फिल्म का रशेज नगा ग्रामीमों को दिखाते हुए अपनी शूटिंग पूरी की।​

​​​ इंफल में तो हिंदी ही प्रतिबंधित थी।लेकिन हम हिंदी फिल्म की शूटिंग कर रहे ते क्योंकि मणिपुर में जोशी को प्रचंड समर्थन हासिल था। सेनापति जिले के मरम घाटी में हमने बारुदी सुरंगों के बीच शूटिंग की तो लोकताक झील में सेना की संगीनों की छांव में। मणिपुर में हवाई अड्डे से लेकर सर्वत्र वे संगीनें​ ​हमारी पीछा कर रही थीं। सैन्य बल विशेष अधिकार कानून का मर्म हमने तब महसूस किया जब फिल्म की हिरोइन, जो तब पुणे फिल्म इंस्टीच्यूट में तैनात आईएएस अफसर थीं, को ही शाम के वक्त सेना ने अगवा करने की कोशिश की।

भला हो , मणिपुरी थिएटर से जुड़े कलाकारों को जो सेना के साथ आये मणिपुर पुलिस के अफसरों के परिचित निकले और हमारी हिरोइन ​​अपहरण से बच गयी। रात्रि कर्फ्यू में कैद, आंदोलित मणिपुर को तभी नजदीक से देखने का मौका मिला। बिना वारंट तलाशी और गिरप्तारियों का चश्मदीद गवाह भी बनना पड़ा। लोकताक में तो हमें सेना के अफसरों ने ही बताया कि कैसे वे राकेट लांचर से गांव के गांव उड़ा देते हैं। उन्होंने गर्व से​ ​ बताया कि इंफल दूर है और बहुत दूर है नई दिल्ली। कहीं कोई पत्ता भी नहीं खड़केगा।​ मणिपुर और बाकी पूर्वोत्तर के लिए भारत अभी विदेश है और यह हकीकत है। बाजारों में भारतीय सामान के बजाय चीनी सामान की मांग ज्यादा है क्योंकि वे सस्ते हैं।सैन्य शासन ने किस हद तक पूर्वोत्तर की जनता या कश्मीर की जनता को भारत का दुश्मन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है, वह एक इरोम शर्मिला के ग्यारह साल से ज्यादा अवधि से चल रहे अनशन से जाहिर है। पर हम हैं कि किसी अन्ना हजारे या बाबा रामदेव के पीछे भेड़ियाधंसान की तरह लामबंद हो जाते हैं और मणिपुरी अस्मिता के जीवंत प्रतीक की अनदेखी करने से बाज नहीं आते।

मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम शर्मिला ने कुछ दिनों पहले एक बार फिर सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे को अपनी जरूरत बताई थी और उनसे गुहार लगाई थी कि वह एक बार मणिपुर आए और उनके आंदोलन को मंजिल तक पहुंचाने में उनका सहयोग करें पर इस मुद्दे पर टीम अन्ना में दो फाड़ हो गया है। कुछ साथियों का कहना है कि टीम को इरोम को सहायता करनी चाहिए पर कुछ की मंशा इससे भिन्न है। टीम अन्ना की कोर टीम के सदस्य और असम के आरटीआई कार्यकर्ता अखिल गोगोई ने इस मामले में पहल की और कहा था कि अन्ना को शर्मिला को समर्थन देना चाहिए। अन्ना इसके लिए तैयार भी थे और उन्होंने अपना अनशन समाप्त करने के बाद 28 अगस्त को मणिपुर जाने का कार्यक्रम भी बनाया, लेकिन कोर कमेटी की बैठक होने तक इसे टाल दिया गया। सूत्रों के मुताबित अन्ना के गांव में हुई बैठक में प्रशांत भूषण अरविंद केजरीवाल और मेधा पाटकर ने अन्ना का प्रस्तावित यात्रा का समर्थन किया, लेकिन पूर्व आईपीएस अधिकारी किरण बेदी औऱ कुमार विश्वास ने इस यात्रा पर विरोध जताया औऱ कहा कि अन्ना को अपनी लड़ाई जनलोकपाल के मुद्दे पर ही केंद्रित करनी चाहिए और शर्मिला के मामले पर या किसी अन्य मामले में अन्ना को शामिल नहीं होना चाहिए।

शर्मिला ने अपना अनशन तीन नवंबर 2000 में शुरू किया था। वे भारत के मणिपुर राज्य की रहनेवाली एक कवियत्री हैं। भारतीय दंड संहिता की धारा 309 के तहत आत्महत्या के प्रयास का आरोप लगा कर उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया था। इसके बाद उन्हें हर साल गिरफ्तार एवं रिहा किया जाता है, क्योंकि इस धारा के तहत किसी व्यक्ति को एक वर्ष से अधिक समय तक जेल में नहीं रखा जा सकता। उसकी नाक में जबरन रबड़ की नाली डालकर तरल खाना खिलाया जाता हैं।  यह सम्भवतः इतिहास का सबसे लम्बा अनशन हैं।राज्य द्वारा अपने ही नागरिकों के विरुद्ध किये जा रहे क्रुरता, दमन और हिंसा के प्रतिरोध में इरोम शर्मिला का यह बहादुराना संघर्ष अपने आप में एक अनोखी मिसाल है, जिसमें उन्होनें अपने अडिग संकल्प से राजकीय हिंसा का अहिंसात्मक प्रतिरोध किया है।इस प्रतिरोध को समझने के लिए मणिपूर की स्थिति को समझना होगा। मणिपूर का भारत में विलय 1949 में हुआ था। 1950 से ही इस क्षेत्र में मणिपूर अस्मिता के आधार पर अलग राज्य की मांग उठने लगी। भारत सरकार ने इसका जवाब सैन्य कार्यवाही से दिया। इसके परिणामस्वरुप मणिपूर को 1958 से ''सैन्य बल (विशेष  अधिकार ) अधिनियम '' के अर्न्तगत लाया गया।

इस कानून के माध्यम से भारतीय सशस्त्र सेनाओं को बिना किसी वारंट के गिरफ्तार करने, किसी भवन या बसाहट को नष्ट करने और सिर्फ शक के आधार पर किसी व्यक्ति को गोली मार देने तक की अनुमति है। इस कानून के माध्यम से पीड़ित व्यक्ति द्वारा न्यायलय से मदद लेने और किसी भी सैन्यकर्मी पर बिना सरकारी पूर्व स्वीकृति के मुकदमा चलाने की अनुमति पर रोक लगा दी गई है।

इस तरह के दमनकारी कानूनों का सबसे ज्यादा नकारात्मक प्रभाव महिलाओं पर पड़ता है। इस कारण मणिपूर की लोगो विशेषकर महिलाओं द्वारा इस कानून का लगातार विरोध किया जा रहा है। महिलाओं ने सशस्त्र राज्य की ताकत के खिलाफ अपने शरीर को अंतिम हथियार के रुप में इस्तेमाल किया है। 2004 में 12 महिलाओं ने सैन्य मुख्यालय के सामने निःवस्त्र हो कर एक युवा महिला की हिरासत में बलात्कार और मौत के खिलाफ प्रदर्षन किया था। इन परिस्थितियों में हमारे देश के सबसे बड़े लोकतंात्रिक राष्ट्र होने के दावे पर सवालिया निशान लगता है

अनशन करते 11 साल गुजर गए, मणिपुर की इरोम चानू शर्मिला ने मां का चेहरा नहीं देखा, अब कुछ लमहे वह मां के आंचल की छांव में बिताना चाहती है। लेकिन, मां भी जीवट की शख्सियत निकलीं। बेटी से मिलने से मना कर दिया, कहा-इरोम पहले अपना मिशन पूरा करो, फिर मां के पास आना। अनशन शुरू करते वक्त इरोम ने भी कुछ ऐसी ही शपथ ली थी।

२, नवम्बर २०००, गुरवार की उस शाम में सब बदल गया, जब आतंकवादियों द्वारा किये गये एक विस्फोट की प्रतिक्रिया में असम रायफल्स के जवानों ने १० नागरिकों को  गोली मार दी। विडम्बना तो यह है कि जिन लोगों को गोली मरी गयी वे अगले दिन एक शांति रैली निकालने कि तैयारी में लगे हुये थे…

भारत का स्विटजरलैंड कहे जाने वाले मणिपुर में मानवाधिकारों सरेआम की जा रही हत्या को शर्मिला बर्दाश्त नहीं कर पाई, वो हथियार उठा सकती थी किन्तु उसने सत्याग्रह और अहिंसा के मार्ग पर चलने का निश्चय किया। ऐसा सत्याग्रह जिसका साहस आजाद भारत के किसी भी हिन्दुस्तानी ने अब तक नहीं किया था।

शर्मिला उस बर्बर कानून के खिलाफ खड़ी हो गयीं जिसकी आड़ में सेना को बिना वारंट के किसी की भी गिरफ़्तारी का और तो और गोली तक मारने का अधिकार मिल जाता हैं। POTA से भी कठोर इस कानून में सेना को किसी के घर में बिना इजाजत घुसकर तलाशी लेने का आधिकार मिल जाता हैं।

शर्मिला का कहना है कि जब तक भारत सरकार AFSPA 1958 को नहीं हटा देती तब तक मेरा अनशन जारी रहेगा। आज शर्मिला का एकल सत्याग्रह सम्पूर्ण विश्व में मानवाधिकारों की रक्षा के लिये किये जा रहे आंदोलनों की अगुवाई कर रहा हैं।

साल 2005 में अनशन शुरू करते वक्त इरोम ने कहा था कि वह लड़ाई पूरी होने तक मां से नहीं मिलेगी। दोनों एक-दूसरे से चंद मीटर की दूरी पर रहती हैं, लेकिन मन मजबूत कर चुकी मां कभी उसकी झलक तक लेने नहीं आई। बीच में दोनों एक दूसरे को तब देखा था जब शाखी जवाहर लाल नेहरू अस्पताल में भर्ती हुई थी और संयोग से इरोम को भी वहीं रखा गया था। लेकिन तब भी दोनों एक दूसरे से बात नहीं की थी। कुछ ही दिन पहले इरोम ने जस्ट पीस फाउंडेशन की मैनेजिंग ट्रस्टी आनंदी के जरिए अपनी मां से मिलने की इच्छा जाहिर की थी। उसके सहयोगी बबलू लोइतोंगबैम कहते हैं कि अगर सरकार ने इजाजत दे दी तो हम उनकी मां को मुलाकात के लिए तैयार कर लेंगे।

1, सितंबर 1958 को संसद में पारित सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (एएफएसपीए) के तहत सशस्त्र बलों को अशांत क्षेत्रों में देखते ही गोली मारने, बिना वारंट के गिरफ्तार करने, यातना देने, संपत्ति जब्त करने या नष्ट करने, तलाशी लेने जैसे विशेषाधिकार दिए गए हैं। इस कानून के तहत सशस्त्र बलों के खिलाफ किसी तरह का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।

सबसे पहले इसे पूर्वोत्तर के अशांत क्षेत्रों में लागू किया गया था, जो पांच दशक बाद आज भी वहां अस्तित्व में है। यह असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, त्रिपुरा और अरुणाचल प्रदेश में लागू हैं। 1980-90 के दशक में पंजाब में भी इसे लागू किया गया था। जम्मू-कश्मीर में इस कानून को लागू करने के लिए 5 जुलाई, 1990 को संसद में सशस्त्र सेना (जम्मू-कश्मीर) विशेष शक्ति अधिनियम, 1990 पारित किया गया। शुरू में इसे नियंत्रण रेखा से 20 किमी तक पड़ने वाले इलाके में लागू किया गया। 1991 में इसे बाकी इलाकों में भी लागू कर दिया गया।

हमारे सही साबूत मणिपुर से लौटकर आते न आते आंदोलनकारियों ने णणिपुर विधानसभा भवन पर धावा बोल दिया। पर बगल में हिंदी भवन ​​को आंच तक नहीं आयी। विडंबना यह है कि हिंदी विरोधी राजनीति की हर खबर हमें होती है, लेकिन हिंदी के लिए मणिपुर समेत समूचे​ पूर्वोत्तर, तमिलनाडु, केरल, आंध्र, कर्नाटक, गुजरात या बंगाल में आजीवन हिंदी के लिए मरने खपने वालों की हमें कोई खबर तक नहीं होती।हमारे मठों से उनकी चर्चा तक नहीं होती।

​​​लेकिन बेंगलूरुन मरम घाटी है , न कश्मीर घाटी, न इंफल है, न लोकताक और न ही बडगाव, पहलगाम या श्रीनगर!

मणिपुरी छात्र रिचर्ड लोइतम की कॉलेज होस्टल में संदिग्ध अवस्था में हुई मौत के सिलसिले में कार्रवाई करने का दबाव बनने पर पुलिस ने दो छात्रों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज किया है। दो छात्रों विशाल और अफजल के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज किया गया है।पुलिस ने अनुसार दोनों छात्र लोइतम के साथ ही पढ़ते थे। घटना के दिन दोनों का लोइतम से झगड़ा हुआ था और कथित तौर पर दोनों ने उसके सिर पर मुक्का मारा था। पुलिस ने बताया, हम अब भी एफएसएल की रिपोर्ट का इंतजार कर रहे हैं। लोइतम की मृत्यु के कारणों का पता लगाने के लिए उसका बिसरा एफएसएल भेजा गया है।पुलिस का कहना है कि छात्रावास के वार्डन एस. सुधाकर ने एक रिपोर्ट दर्ज कराई है जिसके मुताबिक लोइतम और छात्रावास में रह रहे उसके दो दोस्तों में 17 अप्रैल को आईपीएल मैच देखने के दौरान झगड़ा हो गया था। मारपीट के दौरान लोइतम के सिर में चोट लगी। अगले दिन दोपहर बाद करीब डेढ़ बजे वह मृत पाया गया।

उत्तराखंड आंदोलन के दौरान मुजफ्फरनगर में गन्ने के खेतों में धकेलकर महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार या अब उधमसिंहनगर जिले के गदरपुर थाना के अंतर्गत महतोष मोड़ में पूजा पंडाल में पुलिस और भूमाफिया के महिलाओं से किये बलात्कार की घटनाए अब भी रोंगटे खड़े कर देती हैं।​

​​​ ये तमाम घटनाएं इसलिए आसानी से अंजाम दी जाती हैं क्योंकि जाति, संप्रदाय और भूगोल के बहाने पीड़ितों को अलग थलग करके उनके प्रति सामान्य सी मानवीय संवेदना के लिए जरूरी हमारी इंद्रियों को राजनीति शिथिल बना देती है। तसलिमा नसरीन ने भी क्या खूब कहा है कि जब तक धर्म रहेगा, मानवाधिकार सुरक्षित न होंगे।पूर्वोत्तर रहा दूर, मैदानों में तो उत्तराखंड, सिक्किम, गोरखालैंड, हिमाचल, ओड़ीशा, बंगाल, झारखंड और छत्तीसगढ़ के वाशिंदों तक से विदेशी नागरिकों जैसा सलूक किया जाता है। यही सलूक जब महाराष्ट्र में मराटा मानुष के हक हकूक के बहाने तमाम उत्तर भारतीयों के साथ होता है, तो हमारे हाथ पांव​ ​ फूलने लगते हैं।​तब हमें बाल ठाकरे, उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे खलनायक नजर आते हैं । पर अपने खलनायकत्व का अहसास कभी नहीं होता।

​​​ बांग्लादेश के बरिशाल से एक हिंदू महिला आयी थीं कल्याणी के एक विवाह समारोह में कई साल पहले। हमने उससे बांग्लादेश में हिंदुऔं की मौजूदा हालत के बारे में पूछा था। तब उन्होंने हमें चौंकाते हुए कहा था कि हमारी बांग्लादेश में सुरक्षा आप पर निर्भर है। आप अपने यहां मुसलमानों के साथ जो सलूक करते हैं, उसकी प्रतिक्रिया बांग्लादेश में होती है। दंगे धर्म की वजह से  नहीं , राजनीति की वजह से होती हैं। यह लज्जा का उलट बयान था।​आगे उनसे संवाद का सिलसिला टूट गया क्योंकि कोलकाता से लौटने के कुछ ही दिनों बाद कैंसर से उनका असामयिक निधन हो गया।हाल में ढाका से कक्षा दो में पढ़ने वाली हमारे पड़ोस के रायचौधरी परिवार की पोती पूर्वाशा आयी थी। उसने ईद की सेवी खिलाने के वायदे के​ ​ साथ यह भी जोड़ा कि ईद मनाने का मतलब यह नहीं कि वह मुसलमान है जैसे कि दुर्गापूजा में उसकी खुशी में शरीक होने वाले उसके मुसलमान दोस्त हिंदू नहीं हैं।हमारी प्रिय निर्वासित मित्र तसलिमा के साहित्य में जिस बांग्लादेश से हम परिचित हैं, उसमें पेश तस्वीरों का यह दूसरा रुख भी देखिये!

​​​ मैदानों में और बाकी देश में अस्पृश्य भूगोल के वाशिंदों के साथ जो कुछ होता है, उसकी प्रतिक्रिया जब उस  भूगोल में होने लगती है , तब हम​​ उसे तुरत फुरत आतंकवाद उग्रवाद का तमगा देते हुए सैनिक विकल्प के पक्ष में खड़े हो जाते हैं और वहां के लोगों पर बरसने वाली कहर की घड़ियों के लिए इंद्रिय निरपेक्ष हो जाते हैं।

अपने सीने पर हाथ रखकर कृपया कबूल  करें कि आपने समूचे हिमालय को कब अपने देश में शामिल समझा है?

जब मैं मेरठ में था, तब वहां लिटिल हर्ट कारखाने के एक प्रवासी बंगाली से हमारी भारी अंतरंगता हो गयी थी। वे बुजुर्ग थे और उनकी कोई बेटी नहीं थी। सविता को वे बेटी जैसा मानते थे। टुसु तब बहुत छोटा था और उनकी आंखों का तारा हुआ करता था। एकदिन अकस्मात वह अंतरंगता खत्म हो​ ​ गयी, जब उस बुजुर्ग ने हमारे गृहइलाका दिनेशपुर के बारे में कहा कि वहां तो रिफ्यूजी अस्पृश्य नोमोशूद्र लोग रहते हैं। बंगाल के भद्रजनों का देशभर में छितरा दिये गये दलित शरणार्थियों और बंगाल में बस गये पूर्वी बंगाल से आये शरमार्थियों के बारे में यही उच्च विचार हैं।

लालू प्रसाद अपनी लाश पर झारखंड बनने की बात करते थे,पर झारखंड के प्रति बाकी बिहार का नजरिया क्या था?

दंडकारण्य के बारे में मध्य भारत के भद्रजनों की क्या राय है?

त्रिपुरा के बंगालियों को कितना बंगाली मानता है बंगाल?

दार्जिलिंग के जिन पहाड़ों को बंगाल का अविभाज्य अंग बताते थकते नहीं हैं बंगाली भद्रजन, पहाड़ों के स्निग्ध सौंदर्य से अभिभूत उन लोगों से तनिक​ ​गोरखा जन समुदाय के बारे में राय पूछिये!

महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, कर्नाटक, तमिलनाडु, मध्यप्रदेश, आंध्र के लोगों से इन राज्यों के आदिवासियों के बारे में राय जान लीजिए!

बंगाल के आदिवासी इलाके अब भी परिवर्तन के बाद भी ममता राज के अंतर्गत सैन्य शासन में जीने को मजबूर हैं। क्यों?

कश्मीर के बारे में आगे कुछ कहना बेमायने हैं, जब हम अपने आस पड़ोस के लोगों की अस्पृश्यता के प्रति इतने गहन निरपेक्ष हैं, तो मुस्लिम कश्मीर के बारे में भला हमारी क्या राय हो सकता है?

मालूम हो कि संयुक्त राष्ट्र के विशेष प्रतिनिधि ने भारत को नसीहत दी कि देश में विशेषकर जम्मू कश्मीर और पूर्वोत्तर क्षेत्र में आतंकवाद और उग्रवाद पर काबू पाने के लिए लागू सैन्य बल विशेष अधिकार कानून सहित केन्द्र और राज्यों के विभिन्न कानूनों को रद्द किया जाए।

संयुक्त राष्ट्र के विशेष रैपोटियर क्रिस्टाफ हेन्स ने भारत में करीब दो हफ्ते तक गैर न्यायिक हत्याओं की जांच करने के बाद अपनी रिपोर्ट जारी की जिसमें आतंकवादियों और नक्सलवादियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए बनाए गए केन्द्र और राज्य सरकार के कानूनों को अलोकतांत्रिक और काला कानून बताया गया है।

हेन्स ने भारत सरकार को सुझाव दिया है कि वह सैन्य बल विशेष अधिकार कानून 1958 और जम्मू.कश्मीर सैन्य बल विशेष अधिकार कानून 1990 को वापस ले ले। उन्होंने जम्मू कश्मीर जन सुरक्षा कानून, जम्मू कश्मीर अशांत क्षेत्र कानून 2005, गैर कानूनी गतिविधि निरोधक कानून 1967 और छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा कानून 2005 को भी रद्द किए जाने की मांग की है। उन्होंने भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 को रद्द करने का सुझाव दिया है जिसमें ड्यूटी पर तैनात सुरक्षा बल कर्मियों के खिलाफ मामला दायर करने के लिए केन्द्र की पूर्व अनुमति दरकार है।

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना ।

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