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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Wednesday, May 2, 2012

न लिखने को भी पाप मानते थे जैनेंद्र जी

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[LARGE][LINK=/index.php/yeduniya/1278-2012-05-02-06-47-37]न लिखने को भी पाप मानते थे जैनेंद्र जी [/LINK] [/LARGE]
Written by दयानंद पांडेय Category: [LINK=/index.php/yeduniya]सियासत-ताकत-राजकाज-देश-प्रदेश-दुनिया-समाज-सरोकार[/LINK] Published on 02 May 2012 [LINK=/index.php/component/mailto/?tmpl=component&template=youmagazine&link=2666f26801a8f1cf98bdf2fda694a429b83c9a89][IMG]/templates/youmagazine/images/system/emailButton.png[/IMG][/LINK] [LINK=/index.php/yeduniya/1278-2012-05-02-06-47-37?tmpl=component&print=1&layout=default&page=][IMG]/templates/youmagazine/images/system/printButton.png[/IMG][/LINK]
जैनेंद्र जी बोले थे, 'मुझ से पाप हो रहा है, मैं नहीं जानता।' मैं तब किशोर था और धर्मयुग में कन्हैयालाल नंदन जी द्वारा चलाई गई उत्तेजक बहस 'पत्नी के अलावा प्रेयसी की ज़रुरत' पर जैनेंद्र जी की स्थापना अभी बासी नहीं पडी थी। जैनेंद्र जी ने कहा था कि, 'लेखक के लिए पत्नी के अतिरिक्त एक प्रेयसी भी ज़रुरी है।' तब मैं बी. ए. का इम्तहान दे चुका था और थोड़ा बहुत लिखने-छपने लगा था। एक अखबार में छोटी सी नौकरी भी हाथ में थी। प्रेमचंद जन्म शताब्दी पर कुछ सामग्री बटोर रहा था। अमृतलाल नागर जी का स्नेह-सहयोग मिला हुआ था। नागर जी ने ही सुझाया था कि जैनेंद्र जी से भी तुम्हें मिलना चाहिए। मैं ने संकोच जताया तो नागर जी ने फ़ौरन जैनेंद्र जी को एक चिट्ठी लिख दी। चिट्ठी ले कर दिल्ली पहुंचा। शाम के समय दरियागंज पहुंचा तो उस बेदिल दिल्ली में भी दरियागंज में नेता जी मार्ग पर जो उन के घर से एक फर्लांग से कुछ ज़्यादा ही दूर था, लोग उन का घर बताने को तैयार थे। खैर उन के घर पहुंचा तो वह मिल भी गए। नागर जी की चिट्ठी थमाई तो सिमटे-सिमटे से गुरु गंभीर रहने वाले जैनेंद्र जी मुसकुरा पड़े। पर बड़ी जल्दी ही फिर अपनी खोल में समा गए। सोच कर आया था कि पत्नी-प्रेयसी प्रसंग पर नए सिरे से छेड़ूंगा। पर उन का ठंडापन देख कर सवाल भी सर्द हो गया।

कुछ देर इसी तरह चुप्पी में बीता। फिर शब्दों को जैसे नापते-थामते वह बोले, 'क्या..... जानना... चाहते हैं... प्रेमचंद जी के बारे में।.... पूछिए। मैं ने उन से एक लेख लिखने की बात की तो वह उसी तरह शब्द थाम कर बोले, 'इतना कुछ लिख चुका हूं...... और इतनी बार कि उन के बारे में कि कुछ और बचा ही नहीं लिखने को। क्या लिखूं?..... कुछ पुराना छपा ही ले कर काम चला लें। या फिर बातचीत ही कर लें। कुछ निकले इस से तो निकाल लें। फिर प्रेमचंद के बाबत चार-पांच बातें पूछीं। बिलकुल घिसे-पिटे पारंपरिक ढंग से। वह बताते तो गए बडे़ विस्तार से। पर मुझे लगा कि वह तोता रटंत सवालों से कुछ खीझ गए हैं। पर मेरा दोष भी क्या था तब? छात्र था और अतिरिक्त उत्साह में पहुंच गया था साहित्य के उस पुरोधा के पास। वह सहृदय हजारी प्रसाद द्विवेदी नहीं थे, न ही सहज सरल अमृतलाल नागर। वह तो जैनेंद्र कुमार थे। खैर वह खीझ उन से छुपाई नहीं गई। और मुझ से भी टाली नहीं गई। शायद वह ताड़ गए। मेरा मनोविज्ञान समझ गए। बात बदल दी। कुछ नरम पड़े। छत ताकी। गलहत्था लिया और बोले, 'आप क्या लिखते हैं?' मुझ से बताया नहीं गया कुछ। संकोच फिर सवार हो गया। वही बोले, 'सारिका में पढ़ा है दो एक बार। प्रेमचंद वाला रिपोर्ताज अच्छा बन पड़ा था। लिखते रहिए।' अब मैं चलना चाह रहा था। पर बात का सिरा समाप्त नहीं हो रहा था। नागर जी और जैनेंद्र जी में यही फ़र्क था। नागर जी अनायास ही सब को अपना आत्मीय बना लेते थे और खुद सहज बने बतियाते रहते थे। आप की इच्छाएं भी पढ़ और कबूल लेते थे नागर जी। पर मनोवैज्ञानिक कथा-भूमि की समझ से लैस जैनेंद्र जी इस मामले में गरिष्ठ हो लेते थे। नागर जी से आप एक बार मिल लें तो बार-बार उन से मिलते रह सकते थे। पर जैनेंद्र जी से मिलने के बाद दुबारा मिलने के लिए कई-कई बार सोचना पड़ता था।

मैं ने जब उन के लिखने-पढ़ने की बात चलाई तो वह बड़ी देर तक चुप रहे। फिर लंबी उसांस भरी। बोले, 'इधर तो वर्षों से कुछ नहीं लिखा। ६ वर्ष से अखबारी लेखन छोड़ कर कुछ नहीं लिखा है। लेकिन अनुभव कर रहा हूं कि यह पाप हो रहा है। पाप यानी अपनी आत्मा के साथ अन्याय। जो खुल कर कर-धर विशेष नहीं सकता। उस के पास अपने साथ न्याय करने का एक ही उपाय रह जाता है। अर्थात कृति की जगह शब्द।' अब तक वह थोड़ा सहज हो फिर अपनी खोल से बाहर आ गए थे। वह बोले, 'जानते हैं आप मेरा लिखना जीने का अवसर पाने के लिए है। निश्चय के साथ कह सकता हूं कि समय पर ये लिखना न फूट आता तो मैं अब तक जीता बचा नहीं रह सकता था।'

उन दिनों लेखन में प्रतिबद्धता की आंच बड़ी तेज़ हो चली थी। इस की बात चली तो वह बोले, 'लेखन मेरे लिए व्यवसाय या प्रतिबद्धता कुछ भी नहीं है। व्यवसाय की अपनी विवशता प्रतिबद्धता हो जाती है। इसी तरह दूसरी प्रतिबद्धता भी ओढ़ी हुई चीज़ है जिसे उतार दिया जा सकता है। जिन दिनों लिखना होता था, याद कर सकता हूं नितांत सहज भाव से हुआ करता था। अब तो जो है वर्षों से नहीं लिखा है तो लगता है जीवन की सहजता नष्ट हो गई है। और मैं मानी हुई जीवन की जटिलताओं में चकरा पड़ा हूं। जैसे आर्थिक-सामाजिक-राष्ट्रीय-पारिवारिक स्थितियां मेरे लिए वास्तव बन आए हैं। जिन्हों ने मेरे आत्मिक पहलू को मेरे ही निकट गौण बना लिया है। इस दुर्घटना के चक्र में मुझ से पाप हो रहा है, मैं नहीं कह सकता।'  कहते-कहते वह ज़रा खिन्न हुए। और चुप हो गए।

कुछ देर बाद बोले, 'जिजीविषा! यही मुझ से लिखवाती रही। मैं ने पाया कि मैं सर्वथा अकेला, अमान्य किसी लायक नहीं हूं। ये बोझ मुझे बेहद दबाए [IMG]/images/stories/food/dnp.jpg[/IMG]रखता था। संयोग ही कहिए कि आत्मघात से बच गया। नहीं तो वह अपनी व्यर्थता का बोध सर्वथा असह्य था। उसी अवस्था में जाने क्या नीचे से बेबसी ऊपर उठती आई कि मैं ने पीले कागज़ पर पेंसिल से कुछ लकीरें खींच डालीं कुछ कल्पना न थी कि लकीरों का क्या होगा। छपने का तो सपना तक न था। पर उन्हीं पंक्तियों ने छप कर मुझे लोगों के सामने ला दिया। सच कहता हूं - इस में मेरा दोष न था। छपने की कोशिश तक मैं नहीं कर सकता था। पर छपना हो गया और मैं जी गया। क्यों कि इस विधि अपने से बाहर अलक्ष्य में एक पाठक वर्ग से जुड सका।' बात खत्म हो गई थी।

[B]लेखक दयानंद पांडेय लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और उपन्‍यासकार हैं. उनसे संपर्क 09415130127, 09335233424 और   के जरिए किया जा सकता है. इनका यह लेख इनके ब्‍लॉग सरोकारनामा पर भी प्रकाशित हो चुका है.[/B]

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