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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Monday, February 25, 2013

जमीन अधिग्रहण खत्म हो मेधा पाटकर


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विचार

 

जमीन अधिग्रहण खत्म हो

मेधा पाटकर

जमीन अधिग्रहण


देश भर में चल रहे आंदोलनों में सबसे ज्यादा जनशक्ति अगर किसी मुद्दे पर उभरी है, तो वह हैं 'प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार' का मुद्दा. भले वह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के जैसे रास्ते पर उतरी हुई, शहरों में न दिखाई देती हो, मीडिया में छाई हुई नहीं दिखती हो, लेकिन वर्षों और दशकों तक बनी रही है बल्कि बढ़ती गई है. प्राकृतिक संसाधनों में जमीन भी शामिल होते हुए, ग्रामीण भूमि, खेती संबंधित संघर्षों के अलावा, शहर की भूमि और आवास भूमि के लिए चल रही लड़ाई भी इसमें शरीक समझना चाहिए. 

ये संसाधन, जमीन, जल, जंगल, भूतल के जल और खनिज या नदी और सागर की जल संपदा.. सब कुछ जीने और जीविका के आधार हैं. इसीलिए इन संघर्षों की बुनियाद में है- संवैधानिक अधिकार, जीने का अधिकार, शुद्ध पर्यावरण का अधिकार; साथ ही जीविका इन्हीं पर निर्भर होने से, तमाम बुनियादी जरूरतों की पूर्ति का अधिकार भी है. 

देश के लाखों गांवों में आज हाहाकार है क्योंकि ये पीढ़ियों से वहीं रहे हैंऔर उपयोग में लाये गये संसाधन शासन कब जबरन छीनना चाहेगा, पता भी नहीं चलता है. 'सार्वजनिक हित' के नाम पर किसी भी प्रकार की योजना, राजधानी में बैठकर बनती है तो अपने सार्वभौम अधिकार के साथ, शासन-राज्य या केंद्र की-उन्हें निजी परिवार को कोई किसान, आदिवासी या दलित भी, शासन को दे दे, यह मानकर, 1894 का अंग्रेजों के जमाने का कानून चलाया गया है. भूअर्जन कानून की एक नोटिस, मानो उस जमीनधारी को 'कैंसरग्रस्त' बना देती है. 

यह निश्चित है कि उस कानून में ब्रिटिशों ने भी शासन के निर्णय पर किसी को आपत्ति उठाने का, सुनवाई का मौका नहीं अधिकार, हर संपदा के मालिक को दिया और आपत्ति के कारणों में, वर्षों तक विविध न्यायालयों से उभरे मुद्दे रहे, 'सार्वजनिक हित' नहीं होना, गलत उद्देश्य से जरूरत से ज्यादा जमीन का अर्जन तथा सांस्कृतिक व सुंदर स्थलों का विनाश आदि. इनमें से किसी भी कारण के आधार पर, भूअर्जन पर ही आपत्ति उठाई जा सकती है किंतु अंग्रेजों के बाद, आजाद भारत में भी कोई निर्णायक सुनवाई न होने से, यह अधिकार नाम मात्र का या प्रतीकात्मक ही रह गया है. 

नतीजा यही है कि नोटिस (पहली-धारा 4) के तहत आने से ही संसाधन हाथ से जाते महसूस कर इसका मालिक या तो हताश या उद्विग्न और संतप्त होकर, लड़ने के लिए मजबूर होता है. विरोध के स्वर इसलिए भी प्रखर होते गये हैं क्योंकि शासन न केवल शासकीय, बल्कि निजी हितों-निजी कंपनियों के लिए भी जबरिया भूअर्जन शुरू करती गई है. वैश्वीकरण-उदारीकरणवादी आर्थिक नीतियों के देश में लागू होने पर तो अब कंपनियों द्वारा जल, विद्युत, इन्फ्रास्ट्रक्चर (उच्च पथ) या उद्योगों-कारखानों की हजारों परियोजनाओं के लिए यह 'जबरन अर्जन' का तरीका, लाखों-करोड़ों की जायदाद पर ही नहीं लोगों की जीविका पर आघात कर रहा है.

ऐसे संसाधनों का मूल्य बाजार मूल्य की तुलना में सबसे कम आंका जाता है. फिर इससे विस्थापित होने वालों को वैकल्पिक आजीविका या पुनर्वास का प्रबंध नहीं किया जाता है. विभागवार कुछ आधे-अधूरे प्रावधान और कुछ राज्यों में (जैसे महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक आदि) कानून होने के बावजूद जमीन देने वाली की आजीविका या पुनर्वास की व्यवस्था नहीं हो पाती है. 

उम्र भर बेरोजगार, बेघर होकर करोड़ों विस्थापित भटक रहे हैं. अगर इनमें से कुछ लोग पुनर्वासित हो जाएं तो भी जमीन से उखड़ने की पीड़ा और जीवन स्तर में गिरावट, इस सबके प्रत्यक्ष असर और उदाहरण हैं. इन्हीं परिप्रेक्ष्यों में बढ़ते विरोधों व गतिरोधों के चलते परियोजनाएं रोकी जाती रही हैं. किसान-मजदूर-मछुआरों ने पुनर्वास की भीख मांगना, आदिवासी अंचलों या शहर की गरीब बस्तियों में रहने वाले लोगों ने छोड़ दिया है. 

शासन को कंपनियों की आपत्तियों के चलते भी, भूअर्जन के सिद्धांत एवं विस्थापितों की समस्या पर गंभीरता से सोचना पड़ा. 1998 से ही राष्ट्रीय पुनर्वास नीति की बात शुरू हुई. हम जैसे गिने-चुने सामाजिक कार्यकर्ताओं को निमंत्रित करके ग्रामीण विकास मंत्रालय में चर्चा हुई. 'विकास' और 'सार्वजनिक हित' की संकल्पना पर विचार के साथ-साथ, भूअर्जन की 'सार्वभौम राज्य' के आधार पर हो रही जबरदस्ती को लेकर प्रखर सवाल उठाए गए. अंत में सर्व सहमति से पारित इस राष्ट्रीय पुनर्वास नीति के मसौदे पर भी कोई अमल नहीं हुआ. फिर संघर्ष जारी ही नहीं, बढ़ते भी गए. 

सशस्त्र संघर्षों की व्यापकता बढ़ी तो अहिंसक संघर्षों से भी यह बात पूर्ण रूप से उभर सामने आई कि विकास नियोजन में, भूमि और प्राकृतिक संसाधनों का जबरिया अर्जन न तो किसानों और न ही मजदूरों; किसी को भी मंजूर नहीं है. यह बात पूर्ण रूप से उभर आई.


नए कानून का मसौदा राष्ट्रीय स्तर पर भूअर्जन कानून को खारिज करके बना है. इस मसौदे पर तीन ग्रामीण विकास मंत्रियों से बातचीत और 14वीं तथा इस 15वीं लोक सभा की ग्रामीण विकास स्थायी समितियों के सामने विविध पक्षकारों की- जैसे जन आंदोलन, कंपनियों और उनकी संस्थाएं तथा विविध राज्य सरकारों के प्रतिनिधियों की पेशी हो चुकी है. हालांकि अब इसे एक निश्चित रूप में लोक सभा के समक्ष लाया जाने वाला प्रस्ताव, जनआंदोलनों के कुछ मुद्दे को स्वीकारने पर भी आधा-अधूरा ही है. कुछ बुनियादी कमजोरियों के कारण इस प्रस्ताव से भी विवादों का निपटारा संभव नहीं दिखाई देता है. 

पहला मुद्दा है, विकास नियोजन में इकाई, संसाधनों पर अधिकार तथा नियोजन में जनतंत्र का. गांव या शहरी बस्ती जनतंत्र की प्राथमिक इकाई मानी जानी चाहिए, इसे कोई भी स्वीकारेगा. संविधान में स्थानीय संस्थाओं की व्यवस्था और इससे भी अधिक, 243 वीं धारा (संविधान में 73वां, 74वां संशोधन) से संवैधानिक नजरिया ही 'प्रत्यक्ष जनतंत्र' लाने की ओर, इन बुनियादी इकाइयों के ही अधिकारों की मान्यता है. लेकिन गांव-गांव की भूमि, जिसके साथ सार्वजनिक/सामाजिक संपदा, जैसे चरागाह हो या पेड़-पौधे, खनिज आदि विकास में 'पूंजी' होते हुए, उन्हें स्थानीय लोग, जनप्रतिनिधि आदि किसी से न पूछते हुए या उन्हें बताकर, पहले से ही मिला हुआ मानकर नियोजन में लेना और वह भी जबरन छीनकर यह कितना अ-जनतांत्रिक है! 

निजी हितों के लिए संसाधनों का (भूमि के अर्जन में, भूमि के साथ मकान सहित सभी संसाधन, अंग्रेजों के समय से ही सम्मिलित चले आ रहे हैं.) अर्जन तो अंग्रेजों ने भी न सही माना, न ही किया, लेकिन आज तक हो रहा है. नए मसौदे में, इनमें बदलाव लाने की बात मानी गई है. वह भी हमसे बहस करते हुए लेकिन कंपनियों के लिए भू-अर्जन रद्द करना चाहिए; संसदीय स्थायी समिति की यह सिफारिश मंत्रियों का समूह नहीं मान रहा है. 

मात्र 80 प्रतिशत विस्थापित/भूमिधारकों की सहमति को भूमि अर्जन की अनिवार्य शर्त के रूप में स्वीकार की गई है. शासकीय परियोजनाओं के लिए तो यह शर्त भी नहीं रखी गई है. ऐसा क्यों? ग्राम सभा और बस्ती सभा की सहमति के बिना वहां के संसाधनों पर कोई विकास नहीं होना चाहिए. हमारी ओर से यही संवैधानिक मांग की जा रही है. पूर्ति होने तक यह जारी रहेगी.

दूसरी बात, कानून में सूखी खेती और सिंचित खेती में से सिंचित बहुफसली खेती वाली जमीन का अधिग्रहण एक जिले में पांच प्रतिशत से ज्यादा नहीं होना चाहिए. यह मांग भी पहली बार की जा रही है. पांच एकड़ जमीन से कम वाले 75 प्रतिशत किसान खेती के लिए वर्षा जल पर निर्भर हैं. उनमें अधिकतर आदिवासी, दलित सीमांत व छोटे किसान शामिल रहेंगे तब चंद किसानों को ही भू-अधिग्रहण से बचाने की बात कैसे सही कही जाएगी व वह कैसे न्यायपूर्ण होगी? 10 सालों में 180 हेक्टयर्स खेती की जमीन गैर खेती कायरे के लिए हस्तांतरित कर दी गई है. 

ऐसे में देश में 'अन्न सुरक्षा' की दृष्टि से तथा जीविका बचाने के लिए जरूरी है कि हर राज्यों में हजारों-हजारों हेक्टेयर्स की परती पड़ी जमीन को पहले उपयोग में लाना जरूरी है. अन्यथा हर गांव में खेती की जमीन ही अर्जित करना निश्चित ही व्यावहारिक नहीं है. उसकी कोई योजना बनेगी कैसे? स्थायी समिति की सिफारिश इसमें भी ठुकराई गई है. 

तीसरा महत्त्वपूर्ण मुद्दा है, कानून के दायरे का. इसमें पुनर्वास की बात है और अब 'बिना पुनर्वास विस्थापन नहीं' का दावा किया है. किंतु पहले तो यह कानून मसौदा ही देश के मौजूदा उन 16 कानूनों को अपने दायरे में नहीं लाता है, जिनके आधार पर भू-अर्जन किया जा रहा है. यह क्यों? खदानें, इन्फ्रास्ट्रक्चर आदि की परियोजनाओं के लिए भू-अधिग्रहण राज्यवार बने कुछ कानूनों के तहत होगा और वह भी पिछले 65 सालों के जैसे ही. केवल तीन कानून, जिसमें सेस कानून भी हैं, इसके तहत आएंगे. साथ ही 'पुनर्वास' वह भी इंसानों का, समाजों का किया जाना चाहिए. 

इसका मतलब यह कि केवल मुआवजे की बढ़ाई राशि या नौकरी दी तो भी मुआवजे का विकल्प कायम रखना है. आज वैकल्पिक भूमि तथा जीविका पाना बेहद मुश्किल होते हुए भी पुश्तैनी जीविका के साधन से हटाये जाने वाले, केवल मुआवजे के पैसे लेकर बस नहीं सकते, यही अनुभव है. यही समय है कि देश के संसाधनों में हो रहे भूमि-हस्तांतरण भूमिहीनों की दिशा में नहीं बल्कि कंपनी/पूंजीपतियों की तरफ मोड़ने की जरूरत है. संवैधानिक दायरे में, गांव/बस्ती की बुनियादी इकाई को विकास नियोजन में शामिल करने का. 

भ्रष्टाचार अत्याचार व अन्याय भी रोकना है, जिसके लिए पहले ही बहुत देर हो चुकी है. अभी अगर मसौदे में रही त्रुटियां दूर करके, सर्वदलीय संसदीय समिति की सिफारिशें स्वीकारी नहीं गई तो हम राष्ट्रीय परिवर्तन का विशेष मौका खो देंगे.


10.12.2012, 00.30 (GMT+05:30) पर प्रकाशित

http://raviwar.com/columnist/c302_land-acquisition-law-in-india-medha-patkar.shtml


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