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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, February 24, 2013

वे अचानक स्मृति शेष हो गए

वे अचानक स्मृति शेष हो गए


देवेंद्र मेवाड़ी


Photo: स्मृति शेष   आनंद बल्लभ उप्रेती  अभी-अभी नैनीताल से साथी शेखर पाठक का फोन मिला कि हल्द्वानी निवासी वरिष्ठ पत्रकार और लेखक श्री आनंद बल्लभ उप्रेती जी नहीं रहे। सुन कर हतप्रभ रह गया। विश्वास नहीं हो पा रहा है, इसलिए कि कल सुबह यानी 21 फरवरी को ही तो मैं  8.30 से 9 बजे के बीच उनसे पुराने साथियों के साथ ही हल्द्वानी शहर की पुरानी यादों के पन्ने पलट कर रात को दिल्ली लौटा हूं। क्या वह हंसता, बोलता स्मृतियों के झरोखे से अतीत के दृश्यों को दिखाता जीवंत चेहरा इस तरह अचानक स्मृति शेष हो सकता है? नहीं, विश्वास नहीं होता...लेकिन, शेखर का कहना है, यही सच है।  इतना दुःखद सच? अभी चंद दिन पहले 15 फरवरी को ही तो उनकी सद्यः प्रकाशित पुस्तक 'हल्द्वानीः स्मृतियों के झरोखे से' का साथियों ने विमोचन किया था। 10 फरवरी को नैनीताल में 'नैनीताल समाचार' के संपादक साथी राजीव लोचन साह ने उनकी उस पुस्तक के विमोचन का निमंत्रण कार्ड दिखा कर आने का न्यौता दिया था। हम अशोक होटल के बरामदे में बैंच पर बैठ कर, चाय पीते हुए सुबह-सबेरे का घाम ताप रहे थे। तब 'नैनीताल समाचार' में पिछले दिनों छपी आनंद बल्लभ उप्रेती जी की लेखमाला 'घामतपवे भाबर से साइबर युग में फटक मारता हल्द्वानी' पर बात करते-करते हमने 'हल्द्वानीः स्मृतियों के झरोखे से' तक पर चर्चा की थी...  (शेष मेरे ब्लाग http://devenmewari.in  पर)

 

नैनीताल से साथी शेखर पाठक का फोन मिला कि हल्द्वानी निवासी वरिष्ठ पत्रकार और लेखक श्री आनंद बल्लभ उप्रेती जी नहीं रहे। सुन कर हतप्रभ रह गया। विश्वास नहीं हो पा रहा है, इसलिए कि कल सुबह यानी 21 फरवरी को ही तो मैं 8.30 से 9 बजे के बीच उनसे पुराने साथियों के साथ ही हल्द्वानी शहर की पुरानी यादों के पन्ने पलट कर रात को दिल्ली लौटा हूं। क्या वह हंसता, बोलता स्मृतियों के झरोखे से अतीत के दृश्यों को दिखाता जीवंत चेहरा इस तरह अचानक स्मृति शेष हो सकता है? नहीं, विश्वास नहीं होता...लेकिन, शेखर का कहना है, यही सच है।

 

इतना दु:खद सच? अभी चंद दिन पहले 15 फरवरी को ही तो उनकी सध: प्रकाशित पुस्तक 'हल्द्वानी: स्मृतियों के झरोखे से का साथियों ने विमोचन किया था। 10 फरवरी को नैनीताल में 'नैनीताल समाचार के संपादक साथी राजीव लोचन साह ने उनकी उस पुस्तक के विमोचन का निमंत्रण कार्ड दिखा कर आने का न्यौता दिया था। हम अशोक होटल के बरामदे में बैंच पर बैठ कर, चाय पीते हुए सुबह-सबेरे का घाम ताप रहे थे। तब 'नैनीताल समाचार में पिछले दिनों छपी आनंद बल्लभ उप्रेती जी की लेखमाला 'घामतपवे भाबर से साइबर युग में फटक मारता हल्द्वानी पर बात करते-करते हमने 'हल्द्वानी: स्मृतियों के झरोखे से तक पर चर्चा की थी। मैंने लेखमाला पढ़ी थी और पुस्तक खरीदने का मन था। सोचा, मौका मिलते ही हल्द्वानी में यह पुस्तक खरीद लूंगा।

 

20 फरवरी को मौका मिल गया। मैं, मेरा भतीजा मदन मोहन और नाती गौरव 'पिघलता हिमालय और शकित प्रेस के आफिस में पहुंचे। वहां उनसे भेंट हुई। पुस्तक के बारे में पूछा। बोले, पुस्तक की प्रतियां तो घर में हैं। मैंने कहा, कोई बात नहीं, सुबह घर से ले लूंगा। फिर बोले, 'हल्द्वानी: स्मृतियों के झरोखे से किताब हल्द्वानी का कोई इतिहास नहीं है। उसमें तो मैंने अपनी यादें और अनुभव दिए हैं। हल्द्वानी की पुरानी हस्तियों का जि़क्र आया तो उन्होंने बची गौड़ का भी नाम लिया। मेरे भतीजे मदन मोहन ने कहा, वे मेरे पड़नाना थे। उनके बारे में मैं भी जानना चाहता हूं। मैंने भी किताब लेनी है। उस समय उन्होंने 'राजजात के बहाने (यात्रा वृत्तांत) पुस्तक की एक प्रति निकाल कर मुझे सप्रेम भेंट की। सुबह मिलने का वादा करके हम चले आए। रास्ते में मदन मोहन ने कहा, मुझे उप्रेती जी का ओनेस्ट स्टेटमेंट बहुत अच्छा लगा। कितनी ईमानदारी से उन्होंने कहा कि ये मेरी यादें और अनुभव हैं, कोई इतिहास नहीं।

 

शाम को हम विवाहोत्सव में गए और अर्धरात्रि में लौटे। आते समय गौरव ने उनका घर दिखा दिया था। कहा, जहां संगीत सुनाई देगा, वही घर है। सुबह तैयार होकर पुस्तक लेने उनके घर की तलाश में निकला। पास पहुंचने पर हारमोनियम और तबले की धुन सुनाई दी। सीढि़यों पर सुबह की सुनहरी धूप की चादर बिछी थी। भीतर जाकर पूछा। चंद मिनट बाद उप्रेती जी नुमूदार हुए। बोले, आइए। सीढि़यां चढ़ कर उनके पहली मंजिल के बैठक खाने में पहुंचा।

 

पहले किताब दिखाइए, मैंने कहा तो उन्होंने अपने नाती से 'हल्द्वानी: स्मृतियों के झरोखे से की प्रतियां मंगार्इ। एक प्रति पर लिखा, 'आदरणीय मेवाड़ी जी, को सादर, आनंद बल्लभ उप्रेती, 20.2.2013 और वह मुझे सप्रेम भेंट कर दी। मैंने कहा, लेकिन, आपकी हल्द्वानी पर लिखी किताब मुझे खरीदनी है। आप मसिजीवी हैं इसीलिए किताब हमें खरीदनी चाहिए। उनसे तीन प्रतियां लीं जो उन्होंने छूट के साथ मुझे दे दीं। फिर मुस्कुरा कर बोले, आपको एक बात बताऊं? इस पुस्तक से मुझे सबसे बड़ा संतोष इस बात का मिला है कि विमोचन के समय तक मुझे इसकी प्राडक्शन कास्ट वापस मिल चुकी है। ऐसा पहली बार हुआ है। हम तो छोटे-से प्रकाशक ठहरे। हमारे लिए यह बहुत बड़ी बात हुई। इससे मेरा उत्साह भी बढ़ गया है।

 

मैंने कहा, यह बहुत अच्छा हुआ। ऐसा जो होता रहे तो और अच्छी व नई पुस्तकें आती रहेंगीं। उन्होंने कहा, बिल्कुल। फिर बोले, मुझे कहां पता था कि हम जैसे लोगों की किताबों पर भी कोई पुरस्कार-वुरस्कार मिल सकता है? क्याप-कथप बात हुई। वो एक दिन आशुतोष ने किताबें देखीं। आप जानते होंगे आशुतोष को? मैंने कहा, हां, वे तो भौतिक विज्ञान वाले हैं। तो बोले, उसने 'राजजात के बहाने किताब की कुछ प्रतियां लीं। पैक कीं और बोला, विज्ञापन निकला है सरकारी। खाली छाप देते हो। पुरस्कार के लिए क्यों नहीं भेजते? मैंने कहा, हमें कौन पूछता है? उसने कहा, जब भेजोगे, तभी तो पूछेंगे, और उसने पूछ-पाछ के चिटठी-विटठी लिख कर किताबें भेज दीं। मैं तो उस बात को भूल ही गया था। लेकिन, उस दिन हैरान रह गया जब उस किताब पर पुरस्कार की बात पता चली। बच्चों के जैसे उत्साह से बोले, मुझे भी मिल गया पुरस्कार! पुरस्कार में जो पैसे मिले, उनसे अगली किताब छाप ली।

 

पता लगा, वह भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय का 'राहुल सांस्कृत्यायन पुरस्कार था। उस पुस्तक के बारे में उन्होंने बताया, राजजात यात्रा पर गया था। बहुत कठिन यात्रा होती है। लौट कर थोड़ी तबियत भी खराब जैसी हो गई थी। खाली लेटे-लेटे, बैठे-बैठे बोर हो रहा था तो उस बीच वह किताब लिख दी। कम्प्यूटर-वम्प्यूटर तो चलाना आता नहीं। मैं हाथ से ही लिखता हूं।

 

फिर उन्हें जैसे कुछ याद आया। बोले, आपको कुछ साल पहले कुमाऊं विश्वविधालय के आफिस में मेरा बेटा पंकज भी मिला था ना? मैंने हां कहा तो कहने लगे, वह डी लिट के सिलसिले में गया था। आप शायद पीएच. डी. करना चाह रहे थे। उसने बताया तो था लेकिन पूरी बात में समझ नहीं पाया था। आपसे उसका उतना परिचय ही नहीं ठैरा।मैंने कहा, हां, मैं विज्ञान कथा साहित्य पर पुस्तक लिखना चाहता था। इसलिए वहां आर डी सी की बैठक में इंटरव्यू देने गया था। रजिस्ट्रेशन बहुत दूर अल्मोड़ा कालेज में हुआ। वहां जा नहीं पाया। इसलिए वह काम रह ही गया।

 

मैंने कहा, आप अपनी किताबें बेचते कैसे हैं? तो बोले, ऐसे ही, बस लोग आते हैं, ले जाते हैं। नारायण सिंह जी को जानते हैं? लोक कवि हैं। उन्हें शौक है। झोले में मेरी भी किताबें ले जाते हैं। जो खरीदना चाहता है, उसे दे देते हैं। उनके कमरे पर नजर फिराते हुए मैंने कहा, आप यहां अच्छी किताबों की लाइब्रेरी भी बना सकते हैं। उसमें अपनी और उत्तराखंड के सभी लेखकों की पुस्तकों का भी संकलन कर सकते हैं। हम सभी लेखक सहयोग देंगे। बोले, बहुत-कुछ हो सकता है। बहुत किताबें जमा भी की हैं। लोग आएं तो सही। बैठक-गोष्ठी वगैरह हो। चर्चा की जाए। आप भी जब कभी आएं तो मिलिए।

 

मैंने कहा, अब तो हल्द्वानी में बहुत लेखक-पत्रकार बस गए हैं बल। पानू खोलिया हैं, बटरोही, त्रिनेत्र जोशी, डा. गोविंद सिंह, डा. ताराचंद त्रिपाठी, डा. प्रयाग जोशी, दिनेश कर्नाटक, प्रभात उप्रेती, दिवाकर भटट, प्रभा पंत, ओम प्रकाश गंगोला, प्रमोद जोशी, और भी अनेक लोग हैं। आप लोग मिलते-जुलते रहते हैं? कहां मिलते हैं? यहां मिलने का रिवाज ही जैसा नहीं है। कभी-कभार कोई मिल गया जैसा है। मैंने कहा, मतलब हल्द्वानी दिल्ली होता जा रहा है। उप्रेती जी, यह तो महानगरों का रोग है। इसे यहां फैलने से रोकिए आप लोग। हमारी हल्द्वानी का यह चरित्र तो नहीं था। वे बोले, क्या करूं, बहुत कोशिश की है। एक बार रमेश चंद्र साह जी आए थे। लोगों को बुलाने गया। कई लोगों से कहा। लेकिन, पता नहीं, लोग कम आते हैं। फिर भी, कोशिश करता रहूंगा। मैं तो चाहता हूं मेरे घर पर लोग आते रहें। नीचे के कमरों में हम संगीत सिखा रहे हैं, एक कमरा 'पिघलता हिमालय और प्रकाशन का आफिस है। ऊपर जगह ही जगह है। यहां भेट-घाट और साहित्यिक गोष्ठियां कर लेंगे।

 

आपको याद है, सन 1970-80 के वर्षों में हम आप लोगों को पंतनगर कृषि विश्वविधालय के प्रेस सम्मेलनों में बुला ले जाते थे। तब काफी गतिविधियां होती थीं। हल्द्वानी से आप और नैनीताल से महेश त्रिवेदी जी। आप लोग वरिष्ठ पत्रकार थे। खूब याद है। मैं तो नवभारत टाइम्स, दिनमान, दैनिक हिंदुस्तान वगैरह का संवाददाता रहा था। धीरे-धीरे समय बदलता गया। न वैसे अखबार रहे, न वैसी पत्रकारिता। वह समय ही कुछ और था मेवाड़ी जी।  मेरी भी बहुत यादें जुड़ी हैं हल्द्वानी से। सन 1969 से 1982 तक तेरह साल पंतनगर कृषि विश्वविधालय में रहा। हमारा मुख्य बाजार यही था। हमारे गांव की भी यही मंडी हुई। शादी के बाद पहला ट्रांजिस्टर फिलिप्स का 'कमांडर-2 यहीं खरीदा। यहीं से टूनी के तख्ते चिरवाए जिनसे पंतनगर में दो बड़े तखत और किताबों की शेल्फ बनवाई। वे तखत लखनऊ गए, फिर दिल्ली और अब टी.वी. ट्राली में तब्दील हो गए हैं। इसीलिए हमारी यादों में भी स्थाई रूप से बसा हुआ है हल्द्वानी। आपकी लेखमाला 'घामतपवे भाबर से साइबर युग में फटक मारता हल्द्वानी पढ़ता रहता था तो यादों में हल्द्वानी जीवंत हो उठता था।

 

वे बोले, लेखमाला में तो उतना ही आ सकता था। इस किताब में और भी बहुत कुछ है, विस्तार से लिखा है। अंतिम पृष्ठों में हल्द्वानी के कुछ प्रमुख बाशिंदों और जगहों के पुराने फोटो दे दिए हैं। जैसे, सर हेनरी रैमजे, जिम कार्बेट वगैरह। आप जानते ही हैं कार्बेट तो यहीं के हुए। छोटी हल्द्वानी उन्हीं ने बसाई। लेकिन, जगहें अब वैसी नहीं रहीं, बदल गई हैं। आप देखना इस किताब में हार्डिंग बि्रज का फोटो है। अब वह टूट चुका है। है ही नहीं। और भी फोटो हैं। अनुमान से हल्द्वानी के नक्शे भी बना दिए हैं। उन्हें देख कर किसी को भी उस जगह का पता लग सकता है, जहां उसे जाना है।

 

यह आपने बड़ा अच्छा किया। लोगों को इससे जगह का पता लगाने में मदद मिलेगी, मैंने कहा तो वे बोले, अब क्या बताऊं आपको कि कितना बदल गया है हमारा हल्द्वानी। बहुत पहले जब मैं आता था और रिक्शे वाले से कहता था-अमुक जगह चलोगे, तो वह 'हां कह कर सीधे चल पड़ता था। उसे कुछ नहीं समझाना पड़ता था। पूरे हल्द्वानी को पहचानता था वह। और, अब जब कहीं बाहर से आता हूं और रिक्शे वाले से कहीं चलने के लिए कहता हूं तो वह पूछता है- कहां? किधर है वह जगह? एक बार मैंने पूछ लिया- अंग्रेजी शराब की दुकान जानते हो? चहकते हुए बोला- हां, जानता हूं! मैंने पूछा- और, देशी शराब की? बोला- वह भी पता है! इतना बदल गया है हल्द्वानी.....

 

उनकी यादों के चिराग की लौ बदलाव की हवा के झौंकों से थरथरा रही थी। मैंने सोचा अब उन्हें कुरेदने के बजाए उनकी स्मृतियों के झरोखे से ही हल्द्वानी को देखा जाए। इसलिए कहा, अभी आज्ञा दीजिए उप्रेती जी। जल्दी में हूं। और, किताब की चारों प्रतियां लेकर मैं सीढि़यां उतर कर बाहर खिली-खिली धूप में निकल आया। पीछे कमरे से हारमोनियम के 'रे गा मा, गा मा पा, पा धा नी सा और तबले 'तक धिन धिन ता जैसे सुर बाहर आ रहे थे।

 

अब हतप्रभ हूं कि उनके चेहरे पर तो सुबह की खिली-खिली जैसी उजास थी। वे बातचीत में बिल्कुल स्वस्थ लग रहे थे। फिर ऐसा क्या हो गया कि वे अचानक स्मृति शेष हो गए?

 

Deven Mewari

(देवेंद्र मेवाड़ी)

पता: सी-22, शिव भोले अपार्टमेंटस

प्लाट नं. 20, सैक्टर-7, द्वारका फेज-1, नर्इ दिल्ली- 110075

फोन: 28080602, 9818346064

 

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