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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, March 24, 2013

माओ के बाद का चीन : मिथक और यथार्थ

माओ के बाद का चीन : मिथक और यथार्थ

चीन की आर्थिक वृद्धि की दर सबको लुभा रही है. लेकिन चीन के पिछवाड़े में क्या है, यह जानने की कोशिश की है टी जी जैकब और पी बंधू ने इस लेख में. इस आलेख का अनुवाद किया है अभिषेक श्रीवास्तव ने. जल्दी ही हम चीनी मामलों के विशेषज्ञ राबर्ट वेल से हाशिया और रविवारकी एक लम्बी बातचीत भी पढेंगे. 





'हम कहते हैं कि चीन एक विशाल परिक्षेत्र वाला देश है, संसाधन संपन्न है और आबादी में विशाल; सचाई यह है कि वे हान राष्ट्रीयता के लोग हैं जिनकी आबादी विशाल है तथा वे लोग अल्पसंख्यक राष्ट्रीयता वाले हैं जिनकी विशाल जमीनें हैं और जिनके संसाधन काफी सम्पन्न हैं...'
-सेलेक्टेड वक्र्स आफ माओ त्से-तुंग, अंक 5, फारेन लैंगवेजेज प्रेस, 1977, पृष्ठ 295

चीनी क्रांति और क्रांति के बाद के चीन के सबसे अग्रणी नेता माओ की उपर्युक्त उक्ति बिल्कुल सही और निरपेक्ष सूत्रीकरण है जिसकी वैधता क्रांति के 60 साल से ज्यादा वक्त के बाद भी बनी हुई है। दरअसल, यह वैधता 30 साल पहले चीन के वैश्विक नवउदारवादी तंत्र में शामिल हो जाने के बाद उन भौतिक परिवर्तनों के साथ ज्यादा से ज्यादा पुष्ट होती गई है जिनसे चीन गुजर रहा है। यह माओ की उपर्युक्त यथार्थवादी स्वीकारोक्ति थी और साथ ही चीन की पश्चिमी सीमाओं तथा मध्य एशिया व यूरोप के साथ व्यापार मार्गों को सुरक्षित करने के रणनीतिक सरोकार जिसने पहले से हान वर्चस्व वाली चीनी जन मुक्ति सेना को चीनी क्रांति की विजय के ठीक बाद विशाल और तथाकथित अल्पसंख्यक राष्ट्रीयताओं वाले क्षेत्रों पर आक्रमण करने को प्रेरित किया। इन आक्रमणों को सामंती व साम्राज्यवादी दमनकारियों के शिकंजे से इन राष्ट्रीयताओं के गरीबों की 'मुक्ति' के लिहाफ में लपेट कर पेश किया गया। इस तरह का इतिहास लेखन किया गया जिसमें प्रचारित किया गया कि ये तमाम भौगोलिक क्षेत्र और इसमें रहने वाले लोग लंबे समय से चीन का अभिन्न हिस्सा थे। 
चीनी क्रांति के वक्त वर्तमान चीन का सिर्फ एक-तिहाई ही मुख्य चीन था जिसमें मोटे तौर पर मंदारिन बोलने वाले हान लोग रहा करते थे। इनमें कम वर्चस्व वाले क्षेत्रों में तिब्बत, पूर्वी तुर्किस्तान, भीतरी मंगोलिया और मंचूरिया थे- ये सभी विभिन्न राष्ट्रीय इकाइयां थीं जिनके प्रशासन की प्रणाली, भाषाएं तथा प्राचीन सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक इतिहास अपने-अपने थे। लेकिन, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी इन्हें अल्पसंख्यक राष्ट्रीयताएं मानती थी जिन्हें चीनी गणराज्य के साथ स्वायत्त संघीय आधार पर एकीकृत किया जाना था। पूर्वी तुर्किस्तान के मामले में जैसा हुआ, सिल्क रूट पर इसके होने के कारण रणनीतिक महत्व के चलते 1912 की गणतांत्रिक क्रांति के बाद इसे पूर्ण प्रांत के रूप में चीन में शामिल कर लिया गया। इस क्षेत्र में सदियों से विद्रोहों और शासन परिवर्तन का लंबा सिलसिला रहा है। 1949 में कम्युनिस्ट सत्ता द्वारा इस पर कब्जे के बाद इसे एक बार फिर स्वायत्त दर्जा दे दिया गया, लेकिन यह चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्ण नियंत्रण में रहा। पांच स्वायत्त क्षेत्रों को संविधान और स्थानीय स्वायत्ता कानून के तहत दिया गया स्वायत्ता का दर्जा मोटे तौर पर प्रतिकात्मक है। इन तथाकथित स्वायत्त क्षेत्रों में सभी प्रमुख नीतिगत फैसले चीन की कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा लिए जाते हैं और स्थानीय व क्षेत्रीय सीसीपी कमेटियों में तकरीबन सभी वरिष्ठ पदों पर हान चीनी काबिज हैं। 
आज चीन जिस विशाल रूप में दिखता है, वह दरअसल इन विशाल स्वायत्त क्षेत्रों के विलय और संख्या बल में कम लोगों की उपेक्षा का परिणाम है। विलय किए गए इन क्षेत्रों में चीजें कभी भी सहजता से नहीं चलीं और समय-समय पर राष्ट्रीयताओं के उभार ने चीन की राजनीति को हिला कर रखा। पूर्वी तुर्किस्तान के 1912 में विलय के बाद से ही वहां स्वप्रशासन का एक आंदोलन चल रहा है। 1933 और 1944 से 1949 के बीच दो बार पूर्वी तुर्किस्तान के स्वतंत्र गणराज्यों का गठन हुआ जिन्हें सोवियत रूस का समर्थन था। हालांकि ये गणराज्य टिक नहीं सके, लेकिन आज भी वे उघुर लोगों के राष्ट्रीयता के संघर्ष का प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं, जिन्होंने पिछले वर्षों के दौरान अक्सर हिंसा का रास्ता अपनाते हुए इस क्षेत्र की तथाकथित शांतिपूर्ण मुक्ति को झुठलाया है। 
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के हान नेतृत्व ने कभी भी बने बनाए राजनीतिक ढांचों को तोड़ने की संभावना को हल्के में नहीं लिया। इस लिहाज से उसने दीर्घकालिक रणनीतियां ईजाद की जिनका उद्देश्य उन राष्ट्रीय अस्मिताओं का  उन्मूलन था जो अपने चरित्र में यानी सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से  बहुपक्षीय थीं। 
पूर्वी तुर्किस्तान में तुर्किक बोलने वाले उघुर मुस्लिमों का आबादी में वर्चस्व है। यहां कजाक, उजबेक, किरगिज, ताजिक, टारटार और हुइ (चीनी) मुस्लिमों के छोटे-छोटे समूह भी रहते हैं। पीआरसी में इस क्षेत्र को जबरन शामिल किए जाने के बाद यहां हान चीनियों के पुनस्र्थापन को आसान बनाने का काम जिनजियांग प्रोडक्शन एंड कंस्ट्रक्शन काप्र्स  (चीनी में इसे बिंग्तुआन कहते हैं) ने किया, जिसकी स्थापना 50 के दशक के शुरुआत में हुई थी। बिंग्तुआन एक विशाल सैन्यकृत प्रशासनिक व विकास संगठन होता है। इसे सीमा के पास तथा जिनजियांग उघुर स्वायत्त क्षेत्र के तकरीबन मध्य में स्थापित किया गया और यह उत्तरी क्षेत्र को बांटता है जहां दक्षिणी उघुर से आकर अधिकतर कजाक रहते हैं। यह कई करोड़ हेक्टेयर जमीन पर नियंत्रण रखता है जहां की अधिसंख्य आबादी चीनी जातीयताएं हैं। पिछले बरसों के दौरान इसका विस्तार हुआ है और जब जरूरत पड़ी है, इसने जमीनों पर कब्जा किया है। ऐसा उघुर और कजाकों के पारंपरिक पेशे पशुपालन की कीमत पर किया गया है। नब्बे के दशक  के बाद यह क्षेत्रीय सरकार के तहत नहीं रह गया है, बल्कि सीधे चीन की केन्द्र सरकार के अंतर्गत आ गया है। इसका अपना पुलिस बल, न्यायालय, कृषि और औद्योगिक उद्यम हैं। इसके पास श्रमिकों को रखने के लिए शिविरों व कैदखानों का एक विशाल नेटवर्क है। बिंग्तुआन एक साथ दो उद्देश्य पूरे करता है। यह क्षेत्र की अर्थव्यवस्था का विकास करता है और इसे आंतरिक व बाहरी खतरों से बचाता है। इसकी सशस्त्र पुलिस इकाइयों ने जातीयताओं के उभार को कुचलने का काम किया है। 

(देखें, एमनेस्टी इंटरनेशनलः ग्रास वायलेशंस आफ ह्यूमन राइट्स इन द जिनजियांग उघुर आटोनोमस रीजन, 21 अप्रैल 1999 पृष्ठ 7)
इनकी पारंपरिक घुमंतु अर्थव्यवस्था भी छिन्न-भिन्न हो गई। भेड़ों की चरागाहें और गेहूं के खेतों को कपास, अंगूर आदि के फार्मों में हान चीनियों ने तब्दील कर दिया। 1949 में हान चीनी आबादी का महज 6 फीसदी थे, लेकिन 2004 तक यह आंकड़ा आश्चर्यजनक ढंग से 40 फीसदी को पार कर गया। तिब्बत, पूर्वी तुर्किस्तान, मंगोलिया और मंचूरिया की भी यही कहानी है। मसलन, ल्हासा और उरुमकी जैसे शहरों में आज हान चीनियों की सबसे ज्यादा संख्या हो गई। बड़े पैमाने पर इस पलायन के बारे में चीन के आधिकारिक वक्तव्य बताते हैं कि इन 'पिछड़े' क्षेत्रों के आर्थिक विकास के लिए ऐसा जरूरी है। राजनीतिक रूप से देखें, तो यह हान चीनियों द्वारा उपनिवेशीकरण के रूप में दिखाई पड़ता है जिसका सीधा मकसद इन राष्ट्रीयताओं को समाप्त करना है।
एक अन्य रणनीति कठोर तरीकों से जनसंख्या नियंत्रण है। पीएलए ने इन विलय किए गए क्षेत्रों में अनिवार्य रूप से परिवार नियोजन को लागू किया। इन क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व पहले से ही बहुत कम था और जमीनें पर्याप्त से भी ज्यादा थीं। सरकारी जन्म नियंत्रण नीति के तहत अल्पसंख्यक राष्ट्रीयता वाले दंपतियों को गांवों में तीन और शहरों में दो बच्चे पैदा करने की अनुमति है, लेकिन यह कहा जाता है कि जिनजियांग में बैठे अधिकारियों ने लोगों पर लगातार दबाव बनाया है कि वे इस संख्या को दो और एक पर ले आएं। जहां तक बाकी देश का सवाल है किसी निश्चित क्षेत्र में एक निश्चित अवधि के लिए मंजूर किए गए जन्म के कोटे के मुताबिक महिलाओं को नियोजित तरीके से गर्भ धारण करना होता है। ऐसा हो सकता है कि यदि 'योजना' से मंजूरी न मिले, तो एक दंपति को कई साल तक बच्चे पैदा करने की छूट नहीं दी जा सकती। कई महिलाएं जो इस योजना का उल्लंघन करते हुए गर्भ धारण कर लेती हैं, उनका कथित तौर पर जबरन गर्भपात करवा दिया जाता है। जो महिलाएं योजना के बाहर बच्चे को जन्म दे देती हैं, उन्हें दंड भोगना पड़ता है जिससे अक्सर परिवार की आजीविका खतरे में पड़ जाती है। जबरन बंध्याकरण की खबरें भी हैं, हालांकि परिवार नियोजन को पुरस्कार और दंड की प्रणाली के रूप में भी माना जाता है। 
धार्मिक स्वतंत्रता का दमन भी चीनी राज्य की एक अन्य नीति है। चीनी सरकार ने इन क्षेत्रों में कब्जे के बाद मस्जिदें और मदरसे बंद करवा दिए, धार्मिक संस्थानों की जमीनों को जब्त कर लिया गया तथा तमाम धार्मिक नेताओं को कैद कर कठोर श्रम की सजा सुनाई गई। चीनी स्कूल स्थापित किए गए और 18 साल के नीचे बच्चों की धार्मिक शिक्षा पर रोक लगा दी गई। सत्तर के दशक के अंत में देंग द्वारा शुरू किए गए उदारीकरण व आर्थिक सुधार के दौर में तिब्बत और पूर्वी तुर्किस्तान दोनों ही जगह नियंत्रण में ढील दी गई और धार्मिक गतिविधियों के दमन को कम किया गया। कई मस्जिदों को दोबारा खोल दिया गया और अन्य इस्लामिक देशों के अनुदान से नई मस्जिदों के निर्माण को मंजूरी दी गई। मुस्लिमों को फिर से इस्लामिक व अन्य देशों में यात्रा करने की अनुमति दी गई। 
अस्सी के दशक के अंत तक आते-आते एक बार फिर प्रतिबंधों को लागू किया जाने लगा। ऐसा इस बार सोवियत संघ के विघटन तथा कई मध्य एशियाई देशों में कट्टर धार्मिक राष्ट्रवाद के उभार के परिदृश्य में किया गया। इस बार यह भय था कि जिनजियांग में भी कहीं इस्लाम एक बार फिर जातीय राष्ट्रवाद का आधार न बन जाए और अलगाववादी प्रवृत्तियां दोबारा न भड़क जाएं। वास्तव में 1990 में बैरन टाउनशिप में एक उभार हुआ था जिसे चीनी सरकार ने 'प्रतिक्रांतिकारी विद्रोह' का नाम दिया था। एक बार फिर मस्जिदों और मदरसों को बंद कर दिया गया तथा अरबी के इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई। जो मौल्वी काफी स्वतंत्र या विद्रोही किस्म के थे, उन्हें या तो बर्खास्त या फिर गिरफ्तार कर लिया गया। सरकारी दफ्तरों और अन्य संस्थानों में काम करने वाले मुस्लिमों को इस दौरान धार्मिक आचार से वर्जित किया गया, और ऐसा न करने पर उनकी नौकरियां चली जाती थीं। 1996 के बाद सरकार ने 'धार्मिक अतिवादियों' तथा 'गैरकानूनी धार्मिक गतिविधियों' के खिलाफ अपने अभियान को तेज कर दिया। सरकार ने नास्तिक शिक्षा का एक अभियान शुरू किया ताकि जमीनी स्तर पर कम्युनिस्ट पार्टी की कमेटियों और अन्य आस्तिक मुस्लिमों की संस्थाओं को खत्म किया जा सके। यहां धार्मिक मामलों पर नियंत्रण कायम करने का काम टाउनशिप, शहर और ग्रामीण स्तर पर धार्मिक नियंत्रण कमेटियां करती हैं। 
सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों का भी हनन किया गया है। पारंपरिक कपड़ों को पहनने के लिए लोगों को प्रोत्साहित नहीं किया जाता। इल्ली और कुछ अन्य क्षेत्रों में एक सामाजिक और सांस्कृतिक मंच हुआ करता था जिसका नाम था 'मेश्रेप', इसे 1995 में अधिकारियों ने प्रतिबंधित कर दिया। मेश्रेप  पारंपरिक किस्म की पार्टियां होती हैं जिनमें महिलाएं, पुरुष, युवा या एक मिश्रित समूह हिस्सा लेता है और इसे एक नाटक की तरह किया जाता है जिसमें एक व्यक्ति समूह का नेतृत्व करता है और सभी एकत्रित लोगों को पारी-पारी से बोलने, संगीत बजाने, गीत गाने या कविताएं पढ़ने का मौका देता है। इल्ली युवा मेश्रेप का आयोजन गिलजा में 1994 के अंत में उघुर समुदाय के कुछ युवाओं ने किया था जिसके लिए नगर प्रशासन की सहमति ली गई थी। यह उघुर समुदाय के युवाओं के बीच फैल चुकी नशीली दवाओं की लत से निपटने का एक प्रयास था, जिनमें अधिकतर बेरोजगार और अशिक्षित थे। इसी तरह मेश्रेप स्थानीय उघुर समुदाय को प्रभावित करने वाले मुद्दों और समस्याओं को भी उठाते थे। उन्होंने सांस्कृतिक और इस्लामिक परंपराओं को बहाल करने की कोशिश की तथा नैतिक मूल्यों की एक समझदारी कायम करते हुए ऐसे नियमों को लागू किया जिनके तहत शराब पीना, धूम्रपान  और नशीली दवाएं लेना वर्जित था। वे कुछ हद तक इस काम में सफल भी हुए। 
यह अभियान लोकप्रिय हो गया और दूसरे क्षेत्रों में भी फैलने लगा। धीरे-धीरे इस इलाके में करीब 400 मेश्रेप बन गए। सरकारी अधिकारियों के लिए यह चिंता के विषय थे क्योंकि ये सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करते थे। इसी वजह से इन पर सरकारी दमन बरपा और इसके नेता को गिरफ्तार कर लिया गया। धीरे-धीरे स्थिति यह आ गई कि मेश्रेप गुप्त तरीके से चलने लगे तथा उनके सदस्यों व अनुयायियों के खिलाफ मनमानी कार्रवाइयों और गिरफ्तारियों की रफ्तार भी बढ़ती रही। 24 अक्टूबर 1998 को एक आदेश आया जिसमें हज यात्रा को प्रतिबंधित कर दिया गया। 
धार्मिक और सांस्कृतिक अधिकारों के हनन, फसलों की पैदावार को जबरिया बदलने के कारण आने वाले सूखे, आर्थिक बदहाली और सामान्य तौर पर जीने की बदहाल स्थितियों ने इन लोगों को बड़े पैमाने पर पलायन कर जाने को मजबूर कर दिया जिससे ये शरणार्थियों की स्थिति में आ गए। जाहिर है, चीन का समाज संरक्षणवादी है जहां नियंत्रण के तरीके काफी बर्बर हैं, लिहाजा यह पलायन इस दृष्टि से काफी कम रहा क्योंकि किसी और किस्म के समाज में यह काफी ज्यादा होता। इसके बावजूद जो लोग आंतरिक रूप से विस्थापित हुए ओर जो देश छोड़ कर चले गए, उनकी संख्या कम नहीं कही जा सकती। आंतरिक रूप से विस्थापित लोग आम तौर पर बदहाल आजीविकाओं के शिकार होते हैं, जबकि जो लोग देश छोड़ कर चले जाते हैं उनमें राजनीतिक रूप से सचेतन लोगों की संख्या काफी होती है।

पश्चिमी विकास योजना
जैसा कि माओ ने बिल्कुल सटीक कहा था, ये क्षेत्रप्राकृतिक संसाधनों के मामले में काफी संपन्न थे। तिब्बत का पारंपरिक नाम पष्चिमी खजाना है जबकि पूर्वी तुर्किस्तान को उम्मीदों का महासागर कहा जाता है क्योंकि यह तेल और गैस के मामले में काफी संपन्न है। यहां कोयले के भी विशाल भंडार हैं- और ये सभी ऊर्जा के भूखे चीन के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। चीन ने अस्सी के दशक में जब बहुराष्ट्रीय पूंजी के लिए अपने द्वार खोले, उस वक्त पूर्वी तटवर्ती क्षेत्र वैश्विक पूंजी का केंद्र बना जिसके मध्य में शंघाई रहा। चीन को दो अंकों की विकास दर दिलाने वाले तमाम विशेष आर्थिक क्षेत्र इसी पट्टी में स्थित हैं, लेकिन इनके लिए संसाधनों को मुख्यतः पश्चिमी पट्टी से आना था। इसी परिस्थिति ने 1999 में पश्चिमी विकास योजना की नींव रखी। इस योजना के तहत सुपर हाइवे, रेलवे और विमानपत्तन सुविधाओं जैसी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं का निर्माण पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी इलाकों, खासकर संसाधन संपन्न तिब्बत और पूर्वी तुर्किस्तान के इलाकों में किया गया। पूर्वी तुर्किस्तान को बाद में सिंकियांग या जिनजियांग का नाम दे दिया गया जिसका चीनी में अर्थ होता है नई सीमा। इन विकास गतिविधियों ने इस इलाके में तीव्र शहरीकरण की प्रक्रिया को जन्म दिया जिससे तटवर्ती चीन में आर्थिक गतिविधियों की गति काफी तेज हो गई। पूर्वी तुर्किस्तान के सकल घरेलू उत्पाद में 2004 से 2007 के बीच 60 फीसदी की वृद्धि देखी गई और इसकी राजधानी बेहद कम समय के भीतर ही महानगर में तब्दील हो गई। 
पश्चिमी चीन के तेल भंडार चीन के कुल तेल भंडारों के 60 फीसदी से ज्यादा हिस्सा रखते हैं। पूर्वी तट के तीव्र औद्योगीकरण का पेट भरने के लिए तेल और अन्य खनिजों की खनन गतिविधियों में काफी तेजी आई। इस वजह से इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर हान चीनी श्रमिकों का पलायन हुआ। मध्य एशिया की थ्री गाॅर्जेज परियोजना के कारण विस्थापित करीब एक लाख चीनी 1998 में इस क्षेत्र के कृषि कम्यूनों में पुनस्र्थापित किए गए जिसकी वजह से स्थानीस लोगों के साथ उनके तनाव बढ़े। बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में एक बड़ा निवेश 4000 किलोमीटर की एक लंबी तेल पाइपलाइन में किया गया जो तारिम बेसिन में पूर्वी तुर्किस्तान के तेल के मैदानों को शंघाई के वाणिज्यिक महानगर से जोड़ती थी। राजमार्गों और रेलरोड परियोजनाओं को खोले जाने का उद्देश्य यूरोप के साथ 
सीधे सड़क मार्ग से व्यापार था। जैसा कि तिब्बत के मामले में हुआ है, पश्चिमी कंपनियों को यहां पर्यटन, निर्माण व तेल परिशोधक संयंत्रों के विकास में निवेश करने को प्रोत्साहित किया गया। 
चमकदार आंकड़ों और गगनचुंबी इमारतों के बावजूद जमीनी सच्चाई यहां बहुत सकारात्मक नहीं रही है। पिछले कुछेक दशकों के दौरान समूचे चीन में आय की असमानता ने आसमान छू लिया है और यही हाल पूर्वी तुर्किस्तान का भी है। यहां असमानताएं सिर्फ वर्ग भेदों पर आधारित नहीं हैं, बल्कि ये जातीय विभाजनों को ज्यादा अभिव्यक्त करती हैं। यहां जो नया संपन्न वर्ग उभरा है, उसमें उघुर जातीयता और अन्य छोटी अल्पसंख्यक जातीयताएं हाशिये पर चली गई हैं। उघुर अब आबादी का सिर्फ 40 फीसद ही रह गए हैं। इसका कुल फायदा यहां पलायन कर आए हान चीनियों को ही मिला है। यहां जो औद्योगीकरण हुआ है, उसका आधार पारंपरिक घुमंतू आर्थिक गतिविधियों को नहीं बनाया गया जिससे कि मुख्य लाभ मूलवासियों को मिल सके। यह सब कुछ संसाधनों के दोहन के लिए किया गया है जिससे चीनी मुख्यभूमि को लाभ मिल सके। अच्छे वेतन वाले कामों पर पलायन कर आई हान चीनी आबादी का दबदबा है जिसका नतीजा यह हुआ हे कि यहां की मूल जनता दोयम दर्जे की नागरिक बन कर रह गई है और सबसे कम वेतन-भत्ते वाले कामों से अपना गुजारा कर रही है। इसके बावजूद बेरोजगारी का आलम यह है कि उघुर जातियों में इसकी दर 65 फीसदी तक पहुंच चुकी है। 
इसी निराशाजनक स्थिति का नतीजा रहा कि उघुर जाति के युवा चीन के तटवर्ती इलाकों में पलायन कर गए जहां उन्होंने हान चीनी श्रमिकों का हिस्सा मारना शुरू कर दिया। इसने एक नए नए किस्म के तनाव को जन्म दिया। वैश्विक मंदी ने पहले से ही चली आ रही असमान स्थितियों को और तीखा किया है। चीनी सरकार की शिक्षा नीति ने जातीय भेदभाव को बढ़ाते हुए हान चीनियों का पक्ष लिया है। अच्छे वेतन वाले किसी भी रोजगार के लिए मंदारिन भाषा की जानकारी को अनिवार्य कर दिया गया है। इस इकलौती कसौटी ने ही स्थानीय लोगों को रोजगार के बाजार में हाशिये पर डालने का काम किया है। बिल्कुल यही हालात तिब्बत में भी हैं। उघुर अब यह महसूस करते हैं कि तुर्किक की जगह मंदारिन को अनिवार्य दर्जा दिया जाना दरअसल उनकी सांस्कृतिक जड़ों और जातीय अस्मिता को नष्ट करने का ही एक और प्रयास है।

दमन और प्रतिरोध

उघुर कलाकारों, लेखकों और बुद्धिजीवियों की कविताओं, नाटकों व अन्य रचनाओं को या तो प्रतिबंधित कर दिया गया है अथवा राष्ट्रवादी भावनाएं भड़काने के आरोप में इनकी घोर निंदा की जाती रही है। पिछले कुछ दशकों के दौरान स्थिति अब टूटन के कगार पर आ गई हे और कई बार तो इसने विस्फोटक रूप भी ले लिया है। चीनी सरकार ने 'प्रतिक्रांतिकारी संगठनों' की अपनी सूची में 60 संगठनों का दनाम डाला हुआ है। नब्बे के दशक में कई नेता अफगानिस्तान, मध्य एशियाई देशों व तुर्की में निर्वासन में चले गए। इस क्षेत्र के पहाड़ी इलाकों में इनकी एक निर्वासित सरकार है। इनके अपने सैन्य  शिविर हैं जहां सैन्य प्रशिक्षण भी दिया जाता है। इनमें सबसे प्रमुख समूह पूर्वी तुर्किस्तान इस्लामिक आंदोलन (ईटीआईएम) है, जो चीन से पूर्ण आजादी के लिए संघर्ष में विश्वास करता है। यह एक कट्टर इस्लामी समूह है जिसे संयुक्त राष्ट्र ने 2002 में वैश्विक आतंकी सूची में डाल दिया था। विश्व उघुर कांग्रेस को अमेरिका का समर्थन है। यहां कई अन्य समूह भी हैं जिन्होंने अल कायदा, तालिबान, चेचेन विद्रोहियों और ऐसे ही अन्य संगठनों के साथ करीबी रिश्ते बना लिए हैं। इस क्षेत्र की सदियों पुरानी सूफी परंपरा के उलट कई उघुर विद्रोही संगठनों ने वहाबी या सलाफी विचारधारा को अपना लिया है। 
उघुर समूहों ने अब तक कई चीनी अधिकारियों और मौलवियों की हत्या की है। देश के कई हिस्सों में बम विस्फोट किए गए हैंः इनका निशाना डाकघर, सैन्य प्रतिष्ठान, पुलिस स्टेशन और तेल के संयंत्र रहे हैं। परमाणु परीक्षण, जन्म नियंत्रण और हान चीनियों के पलायन के खिलाफ छात्रों के प्रदर्शन भी हुए हैं। इसके अलावा सरकारी भ्रष्टाचार, भेदभाव, अपराध से निपटने में सरकारी अधिकारियों की नाकामी और नशे की लत व वेश्यावृत्ति जैसी सामाजिक समस्याओं के खिलाफ भी यहां कई प्रदर्शन हुए हैं। बीजिंग ओलंपिक 2008 की तैरूारियों के दौरान ईटीआईएम के गुरिल्लों ने चीनी सुरक्षा बलों को निशाना बना कर हमले किए। हालिया जन उभार और असंतोष और इनका व्यापक दमन दरअसल उन सटीक अंतर्विरोधों का तार्किक विकास ही है जो लंबे समय के दौरान चीनी समाज में विकसित हुए हैं और जिनका प्रसार किया जाता रहा है। जैसा कि क्षेत्रीय प्रशासक बताते हैं, चीन की आधिकारिक नीति 'अलगाववादियों' का तीव्र दमन है। बीजिंग के शासक किसी किस्म के राजनीतिक समाधान के बारे में नहीं सोच रहे। जाहिर है कि इससे पहले से चले आ रहे अंतर्विरोध और तीखे होंगे तथा भविष्य के संघर्ष और ज्यादा खूनी होंगे। 
पिछले कुछ वर्षों के दौरान 'राष्ट्रवादी', 'अलगाववादी', 'कट्टर धार्मिक', 'गैर-कानूनी धार्मिक' गतिविधियों के लिए जिन्हें गिरफ्ार किया गया है, उनमें किसान, छात्र, मौलवी, व्यापारी, इस्लामिक विद्वान, लेखक, कवि और अध्यापक रहे हैं। राजनीतिक बंदियों को अक्सर उनकी सुनवाई से पहले महीनों या बरसों तक एकल कारावास में रखा जाता है। यहां उत्पीड़न और सजाएं बर्बर होती हैं। कुछ ही कैदियों की पहुंच वकीलों तक होती है, कुछ को ही औपचारिक रूप से सुनवाई का मौका दिया जाता है और कई को लंबी अवधि के कारावास की सजा सुनाई जाती है और यहां तक कि झूठे मुकदमों के बाद मौत की सजा भी दे दी जाती है। कई मामलों में सार्वजनिक सुनवाइयां भी होती हैं जिनमें सैकड़ों-हजारों लोग इसे देखने आते हैं। वहीं पर सजा घोषित कर दी जाती है। एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसे कई मानवाधिकार संगठनों ने इस बात पर चिंता जाहिर की है कि मौत की सजा सुनाए गए कई ऐसे मामले रहे हैं जिनमें अंतरराष्ट्रीय न्याय कानूनों का उल्लंघन किया गया है। बड़े पैमाने पर उघुर राजनीतिक बंदियों को मौत के घाट उतारा गया है। जिनजियांग-उघुर क्षेत्र में बाकी चीन के मुकाबले मौत की सजा सुनाए गए लोगों और आबादी का अनुपात कई गुना ज्यादा है। इस साल जुलाई में यहां हुए दंगे के बाद बड़े पैमाने पर सुरक्षा बलों को यहां तैनात कर दिया गया था और इस असंतोष के दौरान हत्या के आरोपियों को उरुमकी की कम्युनिस्ट पार्टी के मुखिया ली झी ने बर्बर तरीके से मौत का दंड दे दिया था। 

वर्तमान हालात
कानून प्रणाली का विनाश और 80 के दशक के अंत से जमीन के निजीकरण के कारण चीन में अभूतपूर्व पैमाने पर किसान उजड़ गए। रिपोर्टें और अध्ययन बताते हैं कि 90 के दशक की शुरुआत तक 5 करोड़ से ज्यादा किसान सड़क पर रोजगार की तलाश में भटक रहे थे और ये सभी अपनी जमीन से उजड़ कर पूर्वी तटवर्ती क्षेत्रों में पहुंच गए जहां बहुराष्ट्रीय पूंजी के लिए ये सस्ते श्रमिकों में तब्दील हो गए। चीनी अर्थव्यवस्था के उच्च विकास और भारी मुनाफे के पीछे तमाम वजहों में यह वजह प्रमुख थी। आज वैश्विक आर्थिक मंदी के दौर में चीन में बेरोजगारी की दर दुनिया में सबसे ज्यादा है। रिपोर्टों के मुताबिक मंदी की शुरुआत से लेकर अब तक चीन में 2 करोड़ से ज्यादा श्रमिक सड़कों पर आ गए हैं। इसमें कोई शक नहीं कि वैश्विक पूंजी के साथ अपने मजबूत आर्थिक एकीकरण के कारण मंदी से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले देशों में चीन रहा है। जैसे-जैसे मंदी के हालात खींचते जाएंगे , आने वाले दिनों में सामाजिक व राजनीतिक तनाव भी बढ़ेंगे। चीन में राष्ट्रीयताओं और जातीयताओं के सवाल अभी सुप्त नहीं हुए हैं और वे वैश्विक मंदी के परिणामों के साथ और ज्यादा मजबूती से उभर कर सामने आएंगे। वास्तव में, यही वह प्रक्रिया है जो वर्तमान चीन में धीरे-धीरे करवट ले रही है। ऐसी स्थिति में जमीनी वास्तविकताओं में जड़ जमाए लोकप्रिय असंतोष के प्रति चीन के शासक पूरी तरह उपेक्षा की दृष्टि अपनाए हुए हैं। 
चीन के पास पूर्व सोवियत संघ के विघटन का उदाहरण है। 1989-91 के दौरान अफगानिस्तान में जब सोवियत कब्जे के खिलाफ मुजाहिदीनों की लड़ाई चल रही थी, तो उसे न सिर्फ अमेरिका, बल्कि चीन का भी समर्थन प्राप्त था। आज इस क्षेत्र में अमेरिका की मौजूदगी के कारण इस्लामिक चरमपंथी उसी को निशाना बना रहे हैं। इस क्षेत्र के सभी इस्लामिक देशों में धार्मिक सैन्यवाद एक मजबूत ताकत है क्योंकि उत्तर-सोवियत युग में वह यहां कायम सामाजिक-आर्थिक समस्याओं की ही देन है। 
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेता बार-बार कहते हैं कि वे उन गलतियों को नहीं दोहराएंगे जिनके चलते सोवियत रूस टूट गया, लेकिन 1949 में सत्ता में आने के बाद से लेकर अब तक चीनी साम्यवाद का समूचा विकास यह दिखाता है कि उसने वास्तव में रूस के उदाहरण से कुछ नहीं सीखा है। उदाहरण के लिए, बाहरी संसाधन सम्पन्न राष्ट्रों के प्रति चीन की नीति में कोई अंतर नहीं है। माक्र्सवाद-लेनिनवाद सैद्धांतिक तौर पर राष्ट्रीयता के सवाल पर आत्मनिर्णय के राष्ट्रों के अधिकार का वहां तक पक्ष लेता है जहां तक यह अलगाव के अधिकार में तब्दील हो जाए। माक्र्स ने कहा था, 'कोई भी राष्ट्र जो दूसरे का दमन करता है, खुद अपने लिए बेड़ियां मजबूत करता है।' माक्र्सवाद का लक्ष्य अंतरराष्ट्रीयतावाद था। राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार को लेनिन का समर्थन तात्कालिक और अपने चरित्र में अस्थायी था और यह सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयतावाद के उद्देश्य के अधीन था। चूंकि, एक 'स्वायत्त' राष्ट्र को एक 'संप्रभु' राष्ट्र के बराबर अधिकार प्राप्त नहीं होते, इसलिए उन्होंने जोर देकर कहा था कि सिर्फ अलगाव का अधिकार ही लंबी अवधि में राष्ट्रों के बीच एकीकरण तथा स्वतंत्र और स्वैच्छिक एका व सहयोग  को संभव बना सकता है। 
व्यवहार में देखें, तो रूसी बोल्शेविकों ने कई मामलों में अलगाव के अधिकार को दबाया नहीं, बल्कि अतीत में ज़ार के साम्राज्य पर निर्भर देशों को संघीय गणराज्य के रूप में संघ में शामिल करने के लिए सैन्य हस्तक्षेप का प्रयोग किया। उक्रेन, जाॅर्जिया, बाल्टिक राष्ट्रों व मध्य एशिया के मुस्लिम राष्ट्रों के साथ ऐसा ही किया गया। शुरुआत में धार्मिक आस्था, पारंपरिक आचार व सांस्कृतिक व राष्ट्रवादी संस्थानों को पूर्ण स्वतंत्रता का वादा किया गया, लेकिन आखिरकार इस्लाम और उसकी परंपराओं व व्यवहार के खिलाफ यह हमले में ही तब्दील हो गया क्योंकि मुस्लिमों के राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व अक्सर मौलवियांे के हाथों में होता था। अंततः स्टालिन के नेतृत्व में विकास की एक केन्द्रीय योजना बनाई गई जिसके तहत इन बाहरी राष्ट्रों को एक बार फिर उपनिवेशों में तब्दील कर दिया गया जिनका काम मोटे तौर पर रूस के औद्योगीकरण के लिए कच्चे माल की आपूर्ति करना था। इस योजना के साथ इन राष्ट्रों की समूची संस्कृति और इतिहास को पूरी तरह समाप्त करने की कोशिश की गई। अरबी की जगह सिरिलिक को बैठा दिया गया, मस्जिदें तोड़ दी गईं और मदरसे बंद कर दिए गए। अखिल इस्लामिक विश्व के साथ सभी रिश्ते खत्म कर दिए गए। घुमंतू अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। जिस तरीके से मध्य एशिया के वर्चस्व वाली सरकार ने सीमाओं का पुनर्निर्धारण किया, उसने तमाम जातीय समूहों के बीच संघर्षों को जन्म दिया। सोवियत तंत्र के भीतर जिन विशिष्ट जनजातीय और कबीलाई समूहों को शामिल किया गया था, उनके भेदभावपूर्ण व्यवहार और भ्रष्टाचार ने समूची आबादी में भारी असंतोष को पैदा कर दिया। 
उपर्युक्त तमाम तथ्यों को पढ़ कर यदि हम बाहरी देशों के साथ चीन की नीतियों की इनसे तुलना करें, तो हमें वास्तव में कोई अंतर नहीं दिखाई देता। दोनों के नतीजे भी समान हैं। वास्तव में, तिब्बत और पूर्वी तुर्किस्तान में जारी प्रतिरोध तथाकथित चीनी कम्युनिस्टों के बुर्जुआ साम्राज्यवादी चेहरे को ही बेनकाब करता है। ऐसी सत्ता के तहत राष्ट्रीयताओं और जातीयताओं के सवाल को हल नहीं किया जा सकता। जिस चीनी माॅडल का इतना हल्ला है, वह वास्तव में आज पतन के एक महान खतरे से जूझ रहा है। आज दुनिया 19वीं सदी के उसी खेल का दोहराया जाना देख रही है जहां तमाम बड़ी ताकतें अपने पूंजीवादी औद्योगीकरण के लिए बेहद अनिवार्य ऊर्जा संसाधनों को हड़प लेने की साजिशों में जुटी हैं।(समयांतर से साभार) 

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