अवैध धंधा न होता तो चूल्हा न जलता
तीन-तीन दिन का सफ़र तय कर साइकिलों से अवैध कोयला ढो रहे लोगों की जिंदगी बैलों से बदतर है.दूर से देखने वालों को यह काला धंधा भले ही चोखा दिखता हो, लेकिन सच यह है कि इस धंधे में लगे लोगों की जिंदगी पीढ़ियों से बदतर ही है...
गिरिडीह से राजीव
धनबाद, गिरिडीह, हजारीबाग, दुमका, पटना, रांची से रामगढ़ जाने वाले मार्ग पर प्रतिदिन सुबह से लेकर शाम तक एक साइकिल पर 15 से 20 बोरा कोयला लादे लोगों को लंबी दूरी तय करते हुए देखा जा सकता है.रांची से रामगढ़ जाने वाले मार्ग पर तो कोयला साइकिल पर लाद कर ढोने में तो लोगों को पिठौरिया व पतरातू घाटी की चढ़ान चढ़ना हिमालय पर चढ़ने जैसा है.
साइकिल पर 5 से 10 मन कोयला लादे घाटियों की चढ़ान चढ़ते लोगों के चेहरे लाल और पूरे शरीर से पसीना पानी की तरह बहता हुआ प्रतिदिन देखा जा सकता है.हालांकि कोयला का यह धंधा प्रत्यक्ष रूप से गैरकानूनी है, लेकिन हजारों गरीबों के घरों में चुल्हा इसी कोयला से जलता है.
उल्लेखनीय है कि कायेला का यह अवैध व्यापार राजधानी रांची समेत राज्य के सभी कोयला क्षेत्रों में एक उद्योग का रूप ले चुका है.इस अवैध धंधे की व्यापकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पुलिस-प्रशासन के सामने वर्षों से यह अवैध धंधा चल रहा है.इस अवैध धंधे को जारी रखने की छूट पुलिस-प्रशासन द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से दिए जाने के पीछे शायद कारण यह भी रहा है कि इस अवैध धंधे से एक-दो नहीं बल्कि हजारों गरीब व मध्यम परिवारों के घरों में चुल्हा जलता आ रहा है परंतु सरकार की नीतियों की वजह से इस अवैध धंधे का कोयला नहीं पहुंचे तो कई गरीबत्र मध्यम व सुदूरवर्ती गांवों में रहने वाले लोगों के घरों में चुल्हा भी जलना मुश्किल हो जाए.
साइकिल से कोयला लाने वाले लोग यह धंधा अकेले नहीं, महिलाओं-बच्चों के साथ करते हैं.ये लोग सूबह के तीन बजे से गिरिडीह स्थित कोयला खदानों में पहुंच जाते है.कोयला बोरे में भरने के बाद फिर शुरू होता है एक बोझ का सफर जो पति-पत्नी-बच्चों के साथ सारे दिन में गंतव्य पर पहुंचता है.अगर रास्ते में पुलिस का चक्कर पड़ गया तो 100-50 रूपए पुलिसवाले ले लेते है.कोयला खदानों से कोयला लाने के पहले खदान वाले भी इन गरीबों से 300 रूपए लेते है तब कही जाकर इन्हें कोयला ले जाने की अनुमति मिल पाती है.
रामगढ़ इलाके से भुरकुंडा खदान से कोयलाढोने वालों की कथा किसी को भी व्यथित करने के लिए काफी है.भुरकंडा से कोयला साइकिल पर लादने के बाद इन्हें रांची पहुंचने में तीन दिन लगता है, दो-दो घाटियों पठौरिया और पतरातू घाटियों की चढ़ान बहुत ज्यादा होने के कारण बहुत ही धीरे-धीरे ये लोग घाटी चढ़ते है और रात होने पर खुले आसमान के नीचे जाड़ा, गर्मी और बरसात के मौसम में बिताते है.इनके साथ घर का बना हुआ रूखी-सूखी राटियां, प्याज, सूखी सब्जी वगैरह होती है जिसे खाकर अपने साइकिल के इर्द-गिर्द पूरा परिवार रात बिताता है और फिर शुरू होता है दूसरे दिन का सफर और कहीं तीसरे दिन जाकर ये लोग रांची पहुंचते है.
अगर रांची के बाहरी इलाके में इनके कोयले बिक जाते हों तो उसकी कीमत भी कम लगभग 1600 से 1800 रूपए तक होती है और अगर रांची शहर तक पहुंच गए तो कीमत लगभग 2000 या 2200 रूपए तक होती है.कोयला बेच कर ये लोग घर चले जाते है और फिर एक दिन थकान मिटा कर बोझा ढ़ोने के लिए तैयार हो जाते है.
असहनीय बोझा ढोने वाले ये लोग इतने विवश है कि इन्हें बोझा ढोने के कारण कई जानलेवा बीमारियां जैसे यक्ष्मा, तपेदिक, एनेमिया आदि भी हो जाया करती है.ऐसा परिवार जो कोयला का बोझ ढोता रहा है ज्यादा दिनों तक ऐसा नहीं कर सकता.10 से 15 वर्षों में शारीर जबाव दे देता है और फिर शुरू होता है उसके घर के बच्चे जो बोझा ढोने में पहले मददगार हुआ करते थे, अब मुख्य बोझा ढोनेवाले बन जाते है.पुश्त दर पुश्त बोझा ढोने का यह सिलसिला जारी रहता है.महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हाड़तोड़ मेहनत के बावजूद इन कोयला ढोने वाले लोगों के आर्थिक स्थिति में कोई सुधार आता नहीं दिखता है.
महीने में आठ से दस बार कोयला ढोने के बावजूद इन लोगों के पास महीने में इतना भी रकम नहीं बचता कि कोई दूसरा स्वरोजगार कर सके.बोझा ढोते-ढो ते ही ऐसे परिवारों का अंत हो जाता है.
सरकार की महत्वाकांक्षी योजना मनरेगा का पोल खोलते ये कोयला ढोने वाले मजदूर मनरेगा मजदूर की अपेक्षा इसी अवैध धंधे को करना पंसद करते है.एक कोयला ढोने वाले हरखुआ ने बताया कि दो-तीन दिन मेहनत करके 1700-1800 रूपए तो कमा ही लेते है मनरेगा में मजदूरी करे तो ठीकेदार मजदूरी देगा भी या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं है.मजदूरी करके भी भूखे मरने से तो बेहतर है कोयला ढो कर कमाना, जिसमें कमाई की तो गराटी है.
http://www.janjwar.com/society/1-society/3772-avaidh-dhandha-na-hota-to-chulha-na-jalta-rajeev
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