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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Saturday, March 16, 2013

बांग्लादेश की नई राह

बांग्लादेश की नई राह

Saturday, 16 March 2013 11:54

शिवदयाल 
जनसत्ता 16 मार्च, 2013: शाहबाग की क्रांति कई मायनों में खास है। ढाका के इस व्यस्त चौक पर जो लोग उमड़-उमड़ कर आ रहे हैं उनका वास्ता वर्तमान से कम, इतिहास से ज्यादा है। वे अरब वसंत के क्रांतिकारियों की तरह जनविरोधी सरकार को उखाड़ फेंकने नहीं आ रहे, बल्कि चालीस साल पहले मुक्ति संग्राम के दौर में पाकिस्तानी सेना की छत्रछाया में अपने ही देश के नर-नारियों को मारने और सताने वाले चरमपंथी युद्ध-अपराधियों को दंडित करवाने के लिए उन्होंने कमर कस ली है, जो आज तक आजाद घूम रहे हैं। 
बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में पाकिस्तानी सेना और उसके द्वारा खड़ी की गई मिलिशिया ने लाखों लोगों को मारा था। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यह सबसे बड़ा जनसंहार माना जा सकता है। इसके बाद अस्सी के दशक में कंबोडिया के खमेररूज शासन में पोलपोट ने लाखों हमवतनों को मारा। पाकिस्तानी सेना ने भी अपने हमवतनों (भले ही पूर्वी पाकिस्तानी, बंगाली) का संहार किया, उनका जिनका पाकिस्तानी राष्ट्र के निर्माण में भारी योगदान था, बल्कि पश्चिमी पाकिस्तान से भी अधिक।
इस क्षेत्र में 'धार्मिक राष्ट्रीयता' के बीज तो अंग्रेजों ने 1905 में ही बो दिए थे, जब जनसंख्या के धार्मिक चरित्र और संकेंद्रण के आधार पर बंगाल का विभाजन किया था -मुसलिम बहुल पूर्वी बंगाल और हिंदू बहुल पश्चिमी बंगाल। हालांकि राष्ट्रवादी आंदोलन के दबाव में अंग्रेजों को यह फैसला बदलना पड़ा और बंगाल पुन: 1912 में एक हो गया। लेकिन वास्तव में बंग-भंग भारत के सांप्रदायिक आधार पर विभाजन का एक प्रयोग ही था, उसकी पूर्व पीठिका थी। अंग्रेजों की मंशा यह थी कि कांग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रवादी आंदोलन कमजोर पड़े, मुसलमानों को इससे (कांगेस से) दूर रख कर। 
बंग-भंग के अगले ही साल 1906 में, और वह भी ढाका में, मुसलिम लीग की स्थापना हुई। पुन: 1909 में मॉर्ले-मिंटो सुधार के तहत मुसलमानों के लिए सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था का प्रस्ताव आया। 1907 में ही पूर्वी बंगाल के कोमिल्ला में दंगे हुए, बाद में जिसकी कड़ी भी बनी जमालपुर और अन्य स्थानों में। इसी दौरान ऐसे पर्चे भी छापे और बांटे गए जिनमें मुसलमानों से हिंदुओं से पूरी तरह दूर रहने की अपील की गई। इसकी उग्र प्रतिक्रिया स्वदेशी आंदोलन के कार्यकर्ताओं में हुई।
भले ही 1912 में बंगाल का एकीकरण हो गया, लेकिन भारत के सांप्रदायिक विभाजन की नींव पड़ चुकी थी और वह भी बंगाल में। बाद के दशकों में हालांकि मुसलिम राजनीति में उत्तर भारतीय अधिक प्रभावी रहे, और अलीगढ़, लाहौर और फिर कराची जैसे शहर मुसलिम राजनीति के केंद्र रहे, लेकिन इस पूरी राजनीति का अभ्युदय ढाका से ही हुआ था। बाद में जिन्ना ने पाकिस्तान के लिए जो सीधी कार्रवाई की धमकी या चेतावनी दी तो उसके पीछे असली ताकत ढाका और पूर्वी बंगाल की ही थी। 'सीधी कार्रवाई' का सबसे ज्यादा असर भी बंगाल में ही दिखाई दिया।
पूर्वी बंगाल, भारत विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान बना, जो पाकिस्तानी राष्ट्रीयता की उद्भव-भूमि था। क्या विडंबना है कि पाकिस्तानी राष्ट्रीयता की रक्षा और पाकिस्तानी राष्ट्र को एकजुट रखने के नाम पर पाकिस्तान निर्माण के पचीस साल के अंदर ही पूर्वी पाकिस्तान के लाखों लोगों को मारा गया। वजह? पाकिस्तानी राष्ट्रीयता के ऊपर बंगाली राष्ट्रीयता का हावी होना! विभाजन की राजनीति भी कैसे खेल खेलती है! लेकिन यह बंगाली राष्ट्रीयता अंध 'इस्लामी राष्ट्रीयता' से अलग कैसे पांव पसार सकी, जिसने भारत विभाजन के माध्यम से हजार साल की साझी विरासत को छिन्न-भिन्न कर दिया था? 
दरअसल, सत्ता-प्राप्ति की मुहिम में साझेदारी या उसकी अगुआई का अनिवार्य परिणाम यह नहीं कि सत्ता-भोग में भागीदारी, वह भी बराबर की, हो ही। पूर्वी पाकिस्तान गरीब था और समाज के प्रभावशाली तबके में शिक्षक, वकील, डॉक्टर और किरानी जैसे कुछ पेशेवर लोग थे। पश्चिमी पाकिस्तान में रईस थे, इजारेदार थे, कारखानेदार थे, जमींदार थे, और फौजी थे। पाकिस्तानी सेना में लगभग सभी अधिकारी पश्चिमी पाकिस्तानी थे, उसमें भी पंजाबी अधिक थे। 
पूर्वी पाकिस्तान के अधिकारी नाममात्र के थे। बहुत सालों बाद एक मेजर जनरल हुआ था। नए देश के इस संपन्न, प्रभुत्वशाली तबके ने एक ओर तो अधिक से अधिक राजनीतिक और आर्थिक शक्ति अपने हाथों केंद्रित कर ली, तो दूसरी ओर, ये सत्ता के षड््यंत्रों में भी शामिल हो गए, वह भी इस तरह की राजनीति में लगातार सेना हावी होती चली गई। 
मुसलिम लीग को अवामी लीग ने विस्थापित कर दिया। राजनीति, अर्थव्यवस्था और प्रशासन में लगातार उपेक्षा से बंगाली राष्ट्रीयता धीरे-धीरे पाकिस्तानी राष्ट्रीयता पर हावी होती गई। स्वाभाविक है कि इस नई राजनीति में हिंदुओं के लिए भी जगह थी, जो भले ही संख्या में बहुत कम रह गए थे, तब भी उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर थी। 1953 में ही आॅल पाकिस्तान अवामी मुसलिम लीग में से पार्टी ने 'मुसलिम' का परित्याग कर दिया। अब तक बांग्ला को पाकिस्तान की एक राजभाषा का दर्जा मिल चुका था, हालांकि बहुत जद्दोजहद के बाद। 1948 में ही नोटों-सिक्कों, और स्टैंप टिकटों आदि से बांग्ला लिपि गायब कर दी गई और उसके स्थान पर उर्दू आ गई। 
भारी आक्रोश पैदा होने के बाद स्वयं जिन्ना को ढाका जाना पड़ा, जहां उन्होंने निर्णायक रूप से उर्दू की तरफदारी की और उसके पक्ष में फैसला सुना दिया। इसके बाद ही 1952 का बांग्ला भाषा आंदोलन खड़ा हुआ। तब तक 1949 में आॅल पाकिस्तान अवामी मुसलिम लीग की   स्थापना ढाका में हो चुकी थी, मुसलिम लीग के खिलाफ बंगाली राष्ट्रीयता को मजबूत करना जिसका ध्येय था। बाद में 1956 में पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में अवामी लीग और रिपब्लिकन पार्टी की गठबंधन सरकार को बहुमत मिलने के बाद लीग के नेता हुसैन शहीद सुहरावर्दी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने। 

उन्होंने जब पूर्वी पाकिस्तान को पश्चिम के समकक्ष लाने की कोशिशें शुरू कीं तो राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा ने उनसे इस्तीफा ले लिया। इन्हीं मिर्जा ने 1958 में मार्शल लॉ लागू कर जिस जनरल अयूब खान को मार्शल लॉ प्रशासक बनाया उसी ने राष्ट्रपति मिर्जा को अपदस्थ कर दिया। बाद में सुहरावर्दी ने अयूब खान के खिलाफ एक गठबंधन बनाया, लेकिन 1963 में बेरुत के एक होटल में वे मृत पाए गए। 
शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व में अवामी लीग की राजनीति पूर्वी पाकिस्तान को पाकिस्तान की मुख्यधारा की राजनीति से लगातार अलग कर रही थी, लेकिन इसके लिए जिम्मेवार स्वयं पाकिस्तानी सेना और राजनीतिक थे। शेख मुजीब के छह सूत्री मांगपत्र पाकिस्तानी सरकार के समक्ष रखते ही समझदारों को अहसास हो गया था कि विलगाव में पड़ा पूर्वी भाग अब अलग रास्ता अख्तियार करने के लिए तैयार है। लेकिन विडंबना यह कि भुट्टो जैसा नेता भी परिस्थिति की गंभीरता का अंदाजा नहीं लगा पा रहा था। 1970 के आम चुनावों में मुजीब की अवामी लीग को पूर्वी पाकिस्तान की 169 में से 167 सीटें मिलीं, जबकि पश्चिमी पाकिस्तान की 138 में से एक भी नहीं। सरकार बनाने का मुजीब का दावा खारिज कर दिया गया और इस प्रकार 'बांग्लादेश' के निर्माण का आधार पूरी तरह तैयार हो गया। और इसी के साथ भयानक दमन और उत्पीड़न का वह दौर शुरू हुआ जिसके बारे में ऊपर बताया गया। 'आॅपरेशन सर्चलाइट' पूर्वी पाकिस्तान को एकदम से रौंद डालने के लिए शुरू किया गया। 
एक विचित्र बात यह थी कि तब के पूर्वी पाकिस्तान में इस्लामी कट्टरपंथी 'द्विराष्ट्र सिद्धांत' के आधार पर अब भी 'एक पाकिस्तान' के पक्षधर थे और पाकिस्तानी सेना का खुल कर साथ दे रहे थे। इनके कई गुट थे, जैसे रजाकार, अलशम्स, अलबद्र आदि। बांग्ला राष्ट्रवादियों और उनके समर्थकों को मारने और यातनाएं देने में इन्होंने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। इन पर हजारों बेगुनाहों के खून और सैकड़ों स्त्रियों के साथ बलात्कार का इल्जाम था। 
वर्ष 1975 में तख्तापलट और शेख मुजीब की हत्या के बाद बांग्लादेशी समाज के ये तत्त्व एकदम निर्भय हो गए। अवामी लीग, जो नेपथ्य में चली गई थी, 1990 में मार्शल लॉ हटने के बाद पुन: उभर कर आई और इसने लोगों को मुक्ति संग्राम की याद दिलाई। अवामी लीग की नेता शेख हसीना वाजेद, शेख मुजीब की बेटी हैं; दूसरी बार प्रधानमंत्री बनी हैं। 
कट्टरपंथी पहले सैन्य शासन और अब बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के साथ हैं। पूर्व राष्ट्रपति जियाउर्रहमान की बेटी खालिदा जिया जिनकी नेता हैं। ये वही जनरल जियाउर्रहमान थे जिन्होंने सैनिक तख्ता पलट कर मुजीब की हत्या के बाद गद््दी हथियाई थी। सत्ता में आने के पहले भी शेख हसीना ने मुक्ति संग्राम के युद्ध अपराधियों को दंड दिलवाने का वादा किया था। सत्ता में आते ही युद्ध अपराधियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई तेज कर दी। दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट ने कार्यवाहक (केयरटेकर) सरकार की व्यवस्था को अपने एक निर्णय में लोकतांत्रिक आदर्शों और सिद्धांतों के विरुद्ध ठहराया। इसे देखते हुए हसीना सरकार एक संविधान संशोधन प्रस्ताव लेकर आई, ताकि संसद में प्रचंड बहुमत के रहते इसे पारित करवा लिया जाए। बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने इसके विरुद्ध अभियान छेड़ दिया। कट्टरपंथी और युद्ध अपराधी भी इसमें शामिल हो गए। खालिदा जिया ने तो 'वाशिंगटन पोस्ट' में अमेरिकी सरकार से देश में लोकतंत्र को बचाने के लिए हस्तक्षेप तक की अपील कर दी, जिसकी व्यापक प्रतिक्रिया हुई और उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलाने की मांग हुई। 
इसी बीच चार फरवरी को युद्ध अपराध न्यायाधिकरण ने जमात-ए-इस्लामी के सहायक महासचिव अब्दुल कादेर मुल्ला को उम्रकैद की सजा सुनाई। मुल्ला पर तीन सौ हत्याओं का आरोप है। बांग्लादेश के राष्ट्रवादियों और आज की युवा पीढ़ी को यह फैसला मान्य नहीं हुआ। मृत्युदंड से कम कुछ भी नहीं की मांग करते वे ढाका के शाहबाग चौक पर आ गए और वहीं डेरा डाल दिया। शाहबाग आंदोलन के एक सक्रिय कार्यकर्ता और ब्लॉगर की हत्या के बाद आंदोलन और उफान पर आ गया है। 
वास्तव में शाहबाग आंदोलनकारी शेख हसीना सरकार के फैसलों को वैधता प्रदान कर रहे हैं। आंदोलन में युवाओं की संख्या अधिक है, वह भी लड़कियों की। ये लोग एक खुला, लोकतांत्रिक, प्रगतिशील और स्त्री संवेदी समाज चाहते हैं और इसके लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हैं। यह आंदोलन की शक्ति का ही परिणाम है कि शेख हसीना सरकार ने बीएनपी और चरमपंथियों के आगे झुकने से मना कर दिया है। उसने कार्यवाहक सरकार की व्यवस्था से भी इनकार कर दिया है, चुनावों की निष्पक्षता के लिए उसने मजबूत चुनाव आयोग को पर्याप्त माना है।
हाल के वर्षों में एक भरोसेमंद पड़ोसी के रूप में बांग्लादेश ने भारत की सुरक्षा चिंताओं के प्रति संवेदनशीलता दिखाई है, और तत्परतापूर्वक उन सभी आतंकी और चरमपंथी समूहों के खिलाफ कार्रवाई की है, जो अपनी गतिविधियां उसकी जमीन से संचालित कर रहे थे। अब भारत को आगे बढ़ कर इस सौहार्द को स्थायी बनाने की कोशिश करनी चाहिए। एक मुख्यमंत्री की जिद के कारण भारत तीस्ता नदी जल बंटवारे पर अपनी   प्रतिबद्धता पूरी नहीं कर पाया है। भूमि-सीमा विवाद हल करने का वादा राष्ट्रपति मुखर्जी कर आए हैं। पता नहीं इस पर कब अमल होगा। भारत की सकारात्मक पहल हर तरह से दोनों देशों के हित में होगी। यह अवसर गंवा देना दोनों देशों के लिए नुकसानदेह साबित होगा।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/40855-2013-03-16-06-25-34

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