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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Wednesday, March 13, 2013

अपनी भाषाओं का विस्थापन

अपनी भाषाओं का विस्थापन


Tuesday, 12 March 2013 12:01

मृणालिनी शर्मा 
जनसत्ता 12 मार्च, 2013: आखिर संघ लोक सेवा आयोग पर अंग्रेजी का झंडा फहर ही गया। 2013 में संघ की भारतीय प्रशासनिक और अन्य केंद्रीय सेवाओं में भर्ती के लिए सिविल सेवा परीक्षा के रूप में होने वाली संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा से भारतीय भाषाओं का परचा आखिर गायब हो गया। यों इसकी शुरुआत 2011 में ही प्रारंभिक परीक्षा (नया नाम: अभिक्षमता परीक्षण उर्फ एप्टिट्यूट टेस्ट) में कर दी गई थी, जिसमें कोठारी आयोग की सिफारिशों के आधार पर 1979 से चली आ रही प्रारंभिक परीक्षा में संशोधन करने के बहाने अंग्रेजी का ज्ञान पहले चरण पर ही अनिवार्य कर दिया गया था। 
कुछ छिटपुट विरोध की आवाजें उठीं, मामला जनहित याचिका के जरिए अदालत में भी चल रहा है। लेकिन समूचे हिंदी क्षेत्र में- दिल्ली से लेकर इलाहाबाद, पटना, जयपुर, भोपाल तक- कहीं कोई ऐसा सार्वजनिक विरोध नहीं हुआ जो सरकार को दो वर्ष बाद (2013 की) मुख्य परीक्षा में भारतीय भाषाओं को पूरी तरह से बाहर करने के बारे में चेताता। नतीजा सामने है। दो साल के अंदर-अंदर अंग्रेजी का रथ विजयी भाव से मुख्य परीक्षा तक पहुंच गया। चंद शब्दों में कहा जाए तो नई प्रणाली में कोई भारतीय भाषा न जानने के बावजूद अभ्यर्थी आइएएस या किसी भी केंद्रीय सेवा में जाने का हकदार है। बस अंग्रेजी जरूर आनी चाहिए।   
पहले कुछ तथ्य। कुछ दिन पहले घोषित नई परीक्षा प्रणाली के तहत सामान्य ज्ञान के तीन-तीन सौ के दो परचों के स्थान पर ढाई सौ-ढाई सौ अंकों के चार परचे होंगे। छह-छह सौ अंकों के दो वैकल्पिक परचों के बजाय ढाई-ढाई सौ अंकों के एक ही वैकल्पिक विषय के दो परचे होंगे। यहां तक तो चलो ठीक है। तीन सौ नंबरों का जो एक और परचा होगा उसके दो खंड होंगे। दो सौ नंबर का निबंध और सौ नंबर का अंग्रेजी ज्ञान, आदि। पुरानी प्रणाली में अपनी किसी भी भारतीय भाषा का दसवीं तक का ज्ञान अनिवार्य था, जो अब समाप्त हो गया है।
आइए, इस नई प्रणाली को कोठारी आयोग की मूल अनुशंसाओं के आईने में परखते हैं। कोठारी आयोग (1974-76) ने अपनी सिफारिश (अनुशंसा 3.22; शीर्षक- भारतीय भाषा और अंग्रेजी) में स्पष्ट रूप से लिखा- ''अखिल भारतीय सेवाओं की नौकरी में जाने के इच्छुक हर भारतीय को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कम से कम एक भाषा का ज्ञान जरूरी होना चाहिए। अगर किसी को इस देश की एक भी भारतीय भाषा नहीं आती तो वह सरकारी सेवा के योग्य नहीं माना जा सकता। 
एक अच्छी समझ के लिए उचित तो यह होगा कि सिर्फ भाषा नहीं, उसे भारतीय साहित्य से भी परिचित होना चाहिए। इसलिए हम एक भारतीय भाषा की अनिवार्यता की अनुशंसा करते हैं।'' आयोग ने (अनुशंसा 3.23 में) अंग्रेजी के पक्ष पर भी विचार किया है। दुनिया के ज्ञान से जुड़ने और कई राज्यों में परस्पर संवाद की अनिवार्यता को देखते हुए अंग्रेजी के ज्ञान को भी उसने जरूरी समझा। 
कोठारी आयोग की इन सिफारिशों पर गहन विचार-विमर्श के बाद सरकार ने यह फैसला किया कि अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं को बराबरी का दर्जा मिलना चाहिए। इसीलिए 1979 से शुरूहुई मुख्य परीक्षा में सभी अभ्यर्थियों के लिए भारतीय भाषा के ज्ञान के लिए दो सौ नंबरों का एक परचा रखा गया और दो सौ अंग्रेजी का। दोनों का स्तर दसवीं तक का। और भी महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि इन दोनों ही भाषाई ज्ञान के नंबर चयन की वरीयता के अंतिम नंबरों में नहीं जुड़ेंगे। 
प्रशासनिक सेवा में या देश के ऊपर फिर अचानक कौन सा संकट आ गया कि अपनी भाषा का परचा तो गायब हो गया लेकिन अंग्रेजी के सौ नंबर पिछले दरवाजे से निबंध के परचे में जोड़ दिए गए और वे नंबर अंतिम मूल्यांकन में जोड़े भी जाएंगे। क्या चार-पांच लाख मेधावी छात्रों के बीच गलाकाट प्रतियोगिता में सौ नंबर कम होते हैं? और क्या भारतीय संविधान अपनी भाषाओं को खारिज करके अंग्रेजी को उसके ऊपर रखने की इजाजत देता है? क्या इतने महत्त्वपूर्ण फैसले पर संसद या विश्वविद्यालयों में बहस नहीं होनी चाहिए? 
यूपीएससी परीक्षा के एक पक्ष की तारीफ की जानी चाहिए कि यह अकेली ऐसी संवैधानिक संस्था है जो कोठारी आयोग की सिफारिशों का पालन करते हुए लगभग हर दस साल में इस प्रणाली की विधिवत समीक्षा करती रही है। उदाहरण के लिए, ध्यान दिला दें कि आरक्षण नीति की, संविधान निर्माताओं की सिफारिशों के बावजूद, साठ बरस में समीक्षा नहीं की गई। 
उसे 'धर्म' की श्रेणी में रख दिया गया है और आपको पता ही होगा कि धर्म के संरक्षक क्या-क्या अधर्म करते हैं। क्रीमीलेयर के चलते आरक्षण के फायदों को गरीबों तक पहुंचने की कितनी कम गुंजाइश बचती है।  
वर्ष 1979 में संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में कोठारी आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद से समय-समय पर दूसरी समितियों ने भी परीक्षा पद्धति, भर्ती प्रणाली आदि का मूल्यांकन किया है।


वर्ष 1990 के आसपास बनी सतीश चंद्र समिति ने इस पर विचार किया था कि कौन-से विषय मुख्य परीक्षा में रखे जाएं या बाहर किए जाएं और यह भी कि किन केंद्रीय सेवाओं को इस परीक्षा से बाहर रखा जाए। लगभग दस साल पहले जाने-माने अर्थशास्त्री और शिक्षाविद प्रो वाइके अलघ की अध्यक्षता में बनी समिति को भी ऐसी समीक्षा की जिम्मेदारी दी गई, जिससे अपेक्षित अभिक्षमता के नौजवान इन सेवाओं में आएं। उनके सामने यह चुनौती भी थी कि भर्ती के बाद प्रशिक्षण कैसे दिया जाए, विभाग किस आधार पर आबंटित हों, आदि।  
अलघ समिति की संस्तुतियों में अन्य बातों के साथ-साथ यह भी कहा गया था कि   अभ्यर्थियों की उम्र अगर कम की जाए तो अच्छा रहेगा। शायद इसके पीछे यह सोच था कि एक पक्की उम्र में आने वाले नौकरशाहों और उनकी आदतों को बदलना आसान नहीं होता। हालांकि 'इंडियन एक्सप्रेस' में छपे अपने एक लेख में उन्होंने स्पष्ट कहा था कि उम्र की वजह से गरीब और अनुसूचित जाति-जनजाति के अभ्यर्थियों की संख्या पर उलटा असर नहीं पड़ना चाहिए। इसके अलावा 'होता समिति' ने भी कुछ मुद््दों पर सुझाव दिए।
लेकिन 2011 में गठित अरुण निगवेकर समिति की सिफारिशों से यह नहीं लगता कि भारतीय भाषाओं के इतने संवेदनशील मुद््दे पर बहुत गहराई से विचार हुआ है। अब भी इसमें सुधार की तुरंत गुंजाइश है। वह यह कि कोठारी आयोग द्वारा लागू मातृभाषा और अंग्रेजी की अनिवार्य अर्हता वाले परचों को पुरानी प्रणाली की तरह ही रहने दिया जाए।  इससे एक तो हर नौकरशाह को एक भारतीय भाषा को जानने-समझने, पढ़ने की अनिवार्यता बनी रहेगी, और दूसरे, अंग्रेजी वालों को अतिरिक्त लाभ भी नहीं मिलेगा। 
पहले ही, 2011 से, पहले चरण से (प्रीलीमिनरी में) अंग्रेजी आ गई है। ये सामान्य ज्ञान की परीक्षा अंग्रेजी में देंगे। निबंध अंग्रेजी में, इंटरव्यू अंग्रेजी में। यानी कोई सारी उम्र इंग्लैंड, अमेरिका में रहा या वहीं पढ़ाई हुई है, तब भी भारत की सर्वोच्च प्रशासनिक सेवा में जाने से उसे कोई नहीं रोक सकता। तंत्र में आने के बाद वह इस दंभ में भी इतरा सकता है कि दिल्ली के रामजस कॉलेज की तो छोड़ो, सिवान या इलाहाबाद वालों को वह अंग्रेजी नहीं आती जो सेंट स्टीफन या इंग्लैंड में पढ़े हुए की बराबरी कर सके। 
भारतीय भाषाओं का माध्यम जरूर अभी बचा हुआ है। लेकिन यही दौर रहा तो आने वाले वर्षों में वह भी समाप्त हो जाएगा। पर वे अंग्रेजी की बाधाओं के बाद अंतिम चुनाव तक पहुंचेंगे कैसे? 
इसीलिए भारतीय नौकरशाही के संदर्भ में कोठारी आयोग की रिपोर्ट प्रशासनिक सुधारों में सबसे क्रांतिकारी मानी जाती है और यह हकीकत भी है। पिछले तीस सालों के विश्लेषण बताते हैं कि कैसे कभी पूना के मोची का लड़का तो कभी पटना के रिक्शे वाले ने अपनी भाषा में परीक्षा देकर भारतीय प्रशासनिक सेवा में प्रवेश किया है। हर वर्ष सैकड़ों ऐसे विद्यार्थी इन नौकरियों में आते रहे हैं। किसी सर्वेक्षण से यह सामने नहीं आया कि अपनी भाषा से आए हुए ये नौजवान कर्तव्य-निष्ठा, कार्य-क्षमता में किसी से कम साबित हुए हैं। कहां तो यूपीएससी की भारतीय इंजीनियरिंग, मेडिकल, वन, सांख्यिकी, सभी परीक्षाओं में कोई भारतीय भाषा आनी थी, कहां उसका एक मात्र द्वीप भी डूब रहा है।
यूपीएससी की होड़ाहोड़ी, कर्मचारी चयन आयोग की भी सभी परीक्षाओं में अंग्रेजी और दो कदम आगे है। यहां तो भारतीय भाषाएं हैं ही नहीं। वर्ष 2011 में लागू परीक्षा प्रणाली के दुष्परिणाम आने शुरू हो गए हैं। 'इंडियन एक्सप्रेस' में पिछले साल इकतीस जुलाई को छपी रिपोर्ट बताती है कि 2002 से 2011 के बीच प्रशासनिक सेवा में ग्रामीण युवा छत्तीस प्रतिशत से घट कर उनतीस प्रतिशत रह गए हैं। जबकि 2009 में उनकी हिस्सेदारी अड़तालीस फीसद थी। कोठारी आयोग की सिफारिशों के चलते आजाद भारत में पहली बार ग्रामीण क्षेत्र के युवा नौकरियों में आ रहे थे। वह रथ अब उलटा चल पड़ा है। क्योंकि उसके सारथी अब वे हैं जो पढ़े तो अमेरिका, इंग्लैंड में हैं लेकिन शासन यहां करना चाहते हैं। सवाल यह है कि जिन पर शासन करना चाहते हैं उनकी भाषा, साहित्य से परहेज क्यों? 
खबर है कि महाराष्ट्र से मराठी के पक्ष में आवाज उठी है और उन्होंने धमकी दी है कि अगर मराठी बाहर रही तो यूपीएससी की परीक्षा नहीं होने देंगे। कोठारी आयोग की सिफारिशों का सबसे अधिक फायदा हिंदीभाषी राज्यों के विद्यार्थियों को मिला। हर वर्ष हिंदी माध्यम से औसतन पंद्रह प्रतिशत विद्यार्थी चुने गए, विशेषकर गरीब, दलित, आदिवासी तबके के। लेकिन कहां गए वे लोग, जो रोज दिल्ली में भोजपुरी और अवधी अकादमी की मांग रखते हैं? 
उर्दू की प्रसिद्ध लेखिका कुर्रतुल हैदर ने दशकों पहले कहा था कि जो भाषा रोटी नहीं दे सकती उस भाषा का कोई भविष्य नहीं है। अगर भारतीय भाषाओं की जरूरत नौकरी के लिए नहीं रही तो लेखकों के पोथन्नों को भी कोई नहीं पढ़ेगा। हिंदी के लेखकों और संस्कृतिकर्मियों को यह याद रखना चाहिए।

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