वे मुझे क्रांतियों, विद्रोहों और जनउभार के दौरान खत्म नहीं कर सके / वे मुझे भीड़ भरी सड़कों पर निशाना नहीं बना सके / अपने नरसंहारों में भी वे मुझे नहीं मार सके, कि मुझे मेरे भाई और बहनें याद हैं... / अपनी तमाम साजिशों से वे मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सके / तब तंग आकर उन्होंने मुझे फांसी दे दी।-अजामू एम. नासर
3/16/2013
लाश के इंतज़ार में एक मज़ार: अरुंधति राय
अरुंधति राय |
अफज़ल गुरु की सुनवाई पर दिसंबर 2006 में एक किताब आई थी ''13 दिसंबर- दि स्ट्रेंज केस ऑफ दि अटैक ऑन दि इंडियन पार्लियामेंट: ए रीडर''। इस पुस्तक को पेंगुइन ने छापा था जिसमें अरुंधति रॉय, नंदिता हक्सर, प्रफुल्ल बिदवई आदि कई लोगों के लेख थे। अब अफज़ल को फांसी हो जाने के बाद इस किताब का नया संस्करण आया है जिसका नाम है ''दि हैंगिंग ऑफ अफज़ल गुरु एंड दि स्ट्रेंज केस ऑफ दि अटैक ऑन दि इंडियन पार्लियामेंट'', जिसकी नई भूमिका अरुंधति ने लिखी है। प्रस्तुत है वह भूमिका। अनुवाद किया है जितेंद्र कुमार ने।
नई दिल्ली की जेल में ग्यारह साल के बाद, जिसमें से ज्यादातर वक्त एकांत मेंकालकोठरी में मृत्युदंड की प्रतीक्षा में बीता था, फरवरी की एक साफ-सुथरी सुबह,अफज़ल गुरु को फांसी पर लटका दिया गया। भारत के एक पूर्व सॉलिसिटर जनरलव सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता ने इसे हड़बड़ी में छुपाकर लिया गया फैसलाबताया है; फांसी दिए जाने का यह ऐसा फैसला, जिसकी वैधता पर गंभीर प्रश्नचिह्न लग गए हैं।
जिस व्यक्ति को देश के सर्वोच्च न्यायालय ने तीन उम्र कैद और दो मृत्युदंड की सजातजबीज की हो और जिसे लोकतांत्रिक सरकार ने फांसी पर लटकाया हो, उस प्रक्रियापर वैधानिक प्रश्न कैसे लगाया जा सकता है? क्योंकि फांसी पर लटकाए जाने केसिर्फ दस महीने पहले अप्रैल 2012 में सुप्रीम कोर्ट में वैसे कैदियों की याचिका परकई बैठकों में सुनवाई पूरी हुई थी जिसमें कैदियों को बहुत ज्यादा समय तक जेल मेंरखा गया है। उन कई मुकदमों में एक मुकदमा अफज़ल गुरु का भी था जिसमेंसुप्रीम कोर्ट की बेंच ने अपना फैसला सुरक्षित रखा है। लेकिन अफज़ल गुरु कोफैसला सुनाए जाने से पहले ही फांसी दे दी गई है।
सरकार ने अफज़ल के परिवार को उनका शरीर सौंपने से मना कर दिया है। उनकेशरीर को अंतिम रस्म किए बगैर जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) केसंस्थापक मकबूल भट्ट, जो कश्मीर की आज़ादी के सबसे बड़े आइकन थे, की कब्रके बगल में दफ़ना दिया गया। और इस तरह तिहाड़ जेल की चहारदीवारी के भीतरही दूसरे कश्मीरी की लाश अंतिम रस्म अदा किए जाने की प्रतीक्षा कर रही है। उधरकश्मीर में मज़ार-ए-शोहदा के कब्रिस्तान में एक कब्र लाश के इंतजार में खालीपड़ी है। जो लोग कश्मीर को जानते-समझते हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि कैसेकल्पित, भूमिगत आदमकद कोटरों ने अतीत में कितने चरमपंथी हमलों को जन्मदिया है।
दिसंबर 2006 में छपी मूल पुस्तक |
हिन्दुस्तान में, 'कानूनका राज कायम होने' का ढिंढोरापीटे जाने का जश्न थम गया है,सड़कों और गलियों में गुंडों द्वाराफांसी पर चढ़ाए जाने की खुशीमें मिठाई बंटनी बंद हो गई है(आप कितनी देर बिना चायब्रेक के मुर्दे के पोस्टर को फूंकसकते हैं?), कुछ लोगों कोफांसी की सज़ा दिए जाने परआपत्ति जताने और अफज़लगुरु के मामले में निष्पक्षसुनवाई (फेयर ट्रायल) हुई यानहीं, कहने की छूट दे दी गई।वह बेहतर और सामयिक भीथा, एक बार फिर हमने ज़मीरसे लबालब जनतंत्र देखा।
बस उन बहसों को नहीं देख सके जो छह साल पहले ही चार साल देर से शुरू हुई थीं।सबसे पहले यह किताब 2006 के दिसंबर में छपी थी जिसके पहले भाग के लेखों मेंविस्तार से सुनवाई के बारे में चर्चा हुई है। इसमें कानूनी विफलता, ट्रायल कोर्ट मेंउन्हें वकील नहीं मिलने की बात, कैसे सूत्रों की तह तक नहीं जाया गया और उससमय मीडिया ने कितनी घातक भूमिका निभायी, सब कुछ है।
इस नए संस्करण के दूसरे खंड में फांसी दिए जाने के बाद लिखे गए लेखों औरविश्लेषणों का एक संकलन है। पहले संस्करण के प्राक्कथन में कहा गयाहै- 'इसलिए इस पुस्तक से एक आशा जगती है', जबकि यह संस्करण गुस्से मेंप्रस्तुत किया गया है।
इस प्रतिहिंसक समय में, अधीरता से कोई भी यह पूछ सकता है: विवरणों औरकानूनी बारीकियों को छोड़िए, क्या वह दोषी था या वह दोषी नहीं था? क्या भारतसरकार ने एक निर्दोष व्यक्ति को फांसी पर लटका दिया है?
नया संस्करण |
जो भी व्यक्ति इस किताब को पढ़ने का कष्टकरेगा, वह इस निष्कर्ष पर पहुंचेगा किअफज़ल गुरु के ऊपर जो आरोप लगाए गएथे, उसके लिए वह दोषी साबित नहीं हुआ था-भारतीय संसद पर हमला रचनेका षडयंत्रकारी या फिर जिसे फैशन में'भारतीय लोकतंत्र पर हमला' भी कहा जाताहै (जिसे मीडिया लगातार गलत तरीके सेअपराधी ठहराता रहा है जबकि अभियोजनपक्ष द्वारा उस पर हमला करने का आरोपनहीं लगा है और न ही उन्हें किसी का हत्याराकहा गया है। उसके ऊपर हमलावरों कासहयोगी होने का आरोप था)। सुप्रीम कोर्ट नेइस अपराध के लिए उन्हें दोषी पाया औरउन्हें फांसी की सज़ा दी। अपने इसविवादास्पद फैसले में, जिसमें 'समाज केसामूहिक विवेक को तुष्ट करने के लिए'किसी को फांसी पर लटका दिए जाने की बात कही गई है, उनके खिलाफ कोईप्रत्यक्ष सबूत नहीं था, केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्य थे।
आतंकवाद विशेषज्ञ और अन्य विश्लेषक गौरव के साथ बता रहे हैं कि ऐसे मामलों में'पूरा सच' हमेशा ही मायावी होता है। संसद पर हमले के मामले में तो बिल्कुल यहीदिखता है। इसमें हम 'सच' तक नहीं पहुंच पाए हैं। तार्किक रूप से, न्यायिक सिद्धांतके अनुसार 'उचित संदेह' की बात उठनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। एकआदमी को जिसका अपराध महज 'उचित संदेह से परे' स्थापित नहीं हो पाया, फांसीपर लटका दिया गया।
चलिए हम मान लेते हैं कि भारतीय संसद पर हमला हमारे लोकतंत्र पर हमला है।तो क्या 1983 में तीन हज़ार 'अवैध बांग्लादेशियों का नेली नरसंहार क्या भारतीयलोकतंत्र पर हमला नहीं था? या 1984 में दिल्ली की सड़कों पर तीन हज़ार सेअधिक सिखों का नरसंहार क्या था? 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस भारतीयलोकतंत्र पर हमला नहीं था क्या? 1993 में मुंबई में शिवसैनिकों के नेतृत्व में हज़ारोंमुसलमानों की हत्या भारतीय लोकतंत्र पर हमला नहीं था? गुजरात में 2002 में हुएहज़ारों मुसलमानों का नरसंहार क्या था? वहां प्रत्यक्ष और परिस्थितिजन्य, दोनोंप्रकार के सबूत हैं जिसमें बड़े पैमाने पर हुए नरसंहारों में हमारे प्रमुख राजनीतिकदलों के नेताओं के तार जुड़े हैं। लेकिन ग्यारह साल में क्या हमने कभी इसकीकल्पना तक की है कि उन्हें गिरफ्तार भी किया जा सकता है, फांसी पर चढ़ाने कीबात को तो छोड़ ही दीजिए। खैर छोड़िए इसे। इसके विपरीत, उनमें से एक को- जोकभी किसी सार्वजनिक पद पर नहीं रहे- और जिनके मरने के बाद पूरी मुंबई कोबंधक बना दिया था, उनका राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया।जबकि दूसरा व्यक्ति अगले आम चुनाव में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र मेंप्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहा है।
इस ठंड, बुज़दिली भरे रास्ते में, खाली, अतिरंजित इशारों की नकली प्रक्रिया केतहत भारतीय मार्का फासीवाद हमारे ऊपर आ खड़ा हुआ है।
श्रीनगर के मज़ार-ए-शोहदा में, अफज़ल की समाधि के पत्थर (जिसे पुलिस ने हटादिया था और बाद में जनता के आक्रोश की वजह से फिर से रखने के लिए बाध्य हुई)पर लिखा है:
'देश का शहीद, शहीद मोहम्मद अफज़ल, शहादत की तिथि 9 फरवरी 2013,शनिवार। इनका नश्वर शरीर भारत सरकार की हिरासत में है और अपने वतनवापसी का इंतज़ार कर रहा है।'
हम क्या कर रहे हैं, यह जानते हुए भी अफज़ल गुरु को एक पारंपरिक योद्धा के रूपमें वर्णन करना काफी कठिन होगा। उनकी शहादत कश्मीरी युवकों के अनुभवों सेआती है जिसके गवाह दसियों हज़ार साधारण युवा कश्मीरी रहे हैं। उन्हें तरह-तरहकी यातनाएं दी जाती हैं, उन्हें जलाया जाता है, पीटा जाता है, बिजली के झटके दिएजाते हैं , ब्लैकमेल किया जाता है और अंत में मार दिया जाता है।( उन्हें क्या-क्यायातनाएं दी गईं उसका विवरण आप परिशिष्ट तीन में पढ़ सकते हैं)। जब अफज़लगुरु को अतिगोपनीय तरीके से फांसी पर लटका दिया गया, उन्हें फांसी पर लटकाएजाने की प्रक्रिया को बार-बार प्रहसन के रूप में पर्दे पर दिखाया गया, जब पर्दा नीचेसरका और रोशनी आई तो दर्शकों ने उस प्रहसन की तारीफ की। समीक्षाएं मिश्रितथीं लेकिन जो कृत्य किया गया था, वह सचमुच ही बहुत घटिया था।
'पूरा' सच यह है कि अब अफज़ल गुरु मर चुका है और अब शायद हम कभी नहींजान पाएंगे कि भारतीय संसद पर हमला किसने किया था। भारतीय जनता पार्टी सेउसका भयानक चुनावी नारा लूट लिया गया है: 'देश अभी शर्मिंदा है, अफज़ल अभीभी जि़ंदा है' । अब भाजपा को एक नया नारा तलाशना होगा।
गिरफ्तारी से बहुत पहले अफज़ल गुरु एक इंसान के रूप में पूरी तरह टूट चुका था।अब जब कि वह मर चुका है, उनकी सड़ी लाश पर राजनीतिक लाभ लेने की कोशिशकी जा रही है। लोगों के गुस्से को भड़काया जा रहा है। कुछ समय के बाद हमें उनकीचिट्ठियां मिलेंगी, जो उसने कभी लिखी नहीं, कोई किताब मिलेगी, जो उसनेलिखी नहीं। साथ ही, कुछ ऐसी बातें भी सुनने को मिलेंगी जो उन्होंने कभी कहीनहीं। यह बदसूरत खेल बदस्तूर जारी रहेगा लेकिन इससे कुछ भी नहीं बदलेगा।क्योंकि जिस तरह वह जीता था और जिस तरह वह मरा, वह कश्मीरी स्मृति मेंलोकप्रिय रहेगा, एक नायक के रूप में, मकबूल भट्ट के कंधे से कंधा मिलाकर औरउसकी मिली-जुली आभा से हिल-मिल कर।
हम बाकी लोगों के लिए, उनकी कहानी तो बस ये है कि भारतीय लोकतंत्र परवास्तविक हमला कश्मीर में सैनिकों के बल पर भारतीय साम्राज्य का है।
मोहम्मद अफज़ल गुरु, शांति से रहें।
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