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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Thursday, March 14, 2013

पूंजीवाद के अंतर्विरोध और मौजूदा संकट

पूंजीवाद के अंतर्विरोध और मौजूदा संकट

Posted by Reyaz-ul-haque on 3/14/2013 10:54:00 AM

अरुण फरेरा एक लेखक, कलाकार और कार्यकर्ता हैं, जो झूठे आरोपों के तहत कई वर्षों तक जेल में रहने के बाद कुछ महीनों पहले छूट कर आए हैं. यहां उन्होंने पूंजीवादी संकट, इसके खिलाफ दुनिया में जनता के संघर्षों और भारत में क्रांतिकारी मार्क्सवाद की संभावनाओं और चुनौतियों का संक्षेप में आकलन किया है.

हाल ही में लालच को लेकर दैनिक टाइम्स ऑफ इंडिया में लेखों की एक शृंखला प्रकाशित हुई। सप्ताह में दो दिन छपने वाले इन लेखों की परिणति आखिरकार दिसंबर, 2012 के मुंबई के साहित्योत्सव में हुई। इस तरह की विषय- वस्तु (थीम) के चुनाव की तार्किकता का कारण आयोजकों ने रजत गुप्ता और विजय माल्या जैसे बड़े पूंजीपतियों का 'लालच' बताया (जिनका उल्लेख पतित हुए देवदूत के रूप में किया गया न कि गंभीर पाप के तौर पर!)। लालच के प्रति ये घृणा विडंबना ही थी क्योंकि यह एक ऐसे समाचारपत्र से आ रही थी जो कि 1990 के बाद के आर्थिक सुधारों का कट्टर समर्थक रहा है और जो भारत के शासक वर्गों के हितों का पुरजोर समर्थन करता है।

2008 में जब सबप्राइम मॉर्गेज यानी (आवासीय ऋण) की समस्या पैदा हुई थी तो उसने पूरी दुनिया को वित्तीय संकट में डाल दिया था। तब से अब तक पूंजीपति वर्ग और उस पर पलनेवाला मीडिया सरलीकृत कारणों जैसे कि 'लालच का अतिरेक' की बात करता है। अर्थव्यवस्था और वैश्विक अर्थव्यवस्था में दिलचस्पी रखने वाला हर कोई गंभीर छात्र जानता है कि पूंजीवाद शोषण और मांग (इसे लालच पढ़ा जाए) के दो पक्षों पर टिका है। गोकि कीन्स स्कूल के मतावलंबी सिर्फ अमेरिका के सेंट्रल बैंक को ही कोसते हैं कि यह मुख्य वित्तीय संस्थानों और बैंकों को सही ढंग से नियमित नहीं कर पाया। इस स्कूल का मानना है कि इस तरह की मुद्रा नीति की वजह से ही लगातार गुब्बारा अर्थव्यवस्थाओं के पैदा होने का चक्र चलता है जिसका परिणाम रह-रह कर होने वाले दिवालियापन में होता है। सदी की शुरुआत में डॉट कॉम गुब्बारे के फूटने के बाद आवासीय ऋण का गुब्बारा भी ऐसे ही फूटा। लेकिन अत्यंत जोखिम भरे आवासीय ऋणों के व्यापक वित्तीयकरण और सट्टे से यह संकट सिर्फ आवासीय क्षेत्र तक सीमित नहीं रहा और अंतत: इससे वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था का पूरा ढांचा ही चरमरा गया। यद्यपि यह विश्लेषण एक हद तक सही है पर यह पूंजीवाद की आंतरिक कार्यप्रणाली और इसके अंतर्निहित अंतरविरोधों का सही मूल्यांकन नहीं करता। यह नवउदारवाद को कटघरे में खड़ा करना है, पूंजीवाद को नहीं। 

दूसरी ओर मार्क्सवाद उत्पादन के सामाजिक चरित्र और संपत्ति के निजी क्षेत्र द्वारा हथियाये जाने के अंतरविरोध को ही बीमार पूंजीवाद सबसे अहम और खतरनाक द्वंद्व मानता है। ज्यादा से ज्यादा धन की होड़ के लालच में पूंजीपति वर्ग मजदूर वर्ग के श्रम से पैदा हुए अतिरिक्त मूल्य पर, उनकी मजदूरी को दबा कर कब्जा करता है। नतीजतन मजदूरों की क्रय क्षमता कम होती जाती है जिससे सामाजिक उपभोग में गिरावट आ जाती है। इसके बाद से अति उत्पादन का संकट बारबार पैदा होता जाता है। पर्याप्त मांग के न होने से जब मुनाफा कम होने लगता है तो पूंजीपति निवेश में कटौती करता है और मजदूरों की छंटनी करना शुरू करता है। इस कदम से संकट कम नहीं होता बल्कि और बढ़ जाता है। पूंजीवाद के जन्म से ही वैश्विक अर्थव्यवस्था ऐसे संकट से बार-बार और चक्राकार रूबरू होती रही है। मौजूदा संकट भी इसी की एक कड़ी है। सबप्राइम मॉर्गेज के संकट में भी अमेरिका (और दुनिया भर) में वेतन या मजदूरी को जिस तरह से बारबार कम किया गया उसके कारण आवासीय ऋण की अदायगी असंभव हो गई। ऐसे में बकायेदार यानी डिफॉल्टर्स की तादाद बढ़ती गई। वित्तीय क्षेत्र के विस्तार और उत्पादन क्षेत्र के ठहराव ने सोने पर सुहागे का काम किया। आखिरकार 2008 में विश्व अर्थव्यवस्था चरमरा गई। 

वित्तीय पूंजी के भरभराकर गिरने की हकीकत के साथ अब अंतरराष्ट्रीय पूंजीवाद के सामने मुद्दा था कि वह इसे कैसे संभाले और फैलने से कैसे रोके। अपने शुरुआती दिनों में उसने मान लिया था कि यूरोप को बचाया जा सकता है। परंतु ब्रिटेन में नॉर्दर्न रॉक बैंक के तुरंत ढहने के साथ ही यह भी गलत साबित हो गया। पिछले कुछ सालों में यूरोपीय संघ (ईयू) इस संकट से बहुत गहरे प्रभावित रहा है। तब इसने इस संकट से पूरे यूरोपीय आर्थिक ब्लॉक को ढहने से रोकने के लिए ग्रीस, इटली और पुर्तगाल में व्यापक पैमाने पर राजनीतिक और ढांचागत सुधार किए। 

भारत ने अपनी तथाकथित उभरती हुई आर्थिक ताकत की हैसियत के साथ, मान लिया था कि वह अपने को इस संकट से अलग करने में समर्थ है। परंतु पिछले कुछ वर्षों के आकलन ने इसको भी गलत साबित कर दिया। आठ जनवरी 2008 को बंबई स्टॉक एक्सचेंज का सूचकांक जो 20,873 अंक की ऊंचाई पर था वह 20 नवंबर 2008 को 8541 अंक तक गिर गया। वास्तव में, भारत के शासक वर्ग ने दलाल बुर्जुआ और सामंत वर्ग तथाकथित आजादी के पिछले 65 वर्षों के दौरान, साम्राज्यवाद के हितों के मुताबिक अर्थव्यवस्था को विकसित किया है। सोवियत संघ के ढहने के बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका की ओर स्पष्ट और उत्तरोतर शिफ्ट हुआ है। इस नव उपनिवेशीय चालित अर्थव्यवस्था, विशेषकर 1990 के दशक के आर्थिक सुधारों के बाद, ने भारत को विश्व साम्राज्यवाद के साथ बहुत अधिक एकीकृत कर लिया और उसे विकास के लिए विदेशी निवेश और व्यापार पर आश्रित बना दिया। यही कारण है कि घरेलू अर्थव्यवस्था अपने आप को विश्व संकट से नहीं बचा पाई। वर्ष 2010 में भारत में आने वाला प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 42 प्रतिशत तक गिर गया, जो संकट के पहले के आंकड़े से भी कम है; और वर्ष 2012 की पहली छमाही में उन्होंने इसे 42.8 प्रतिशत से 10.4 अरब डॉलर तक पहुंचा दिया। विदेशी निवेश में कमी का भारत की विकास दर में तुरंत रुकावट के रूप में असर पड़ा, जिसमें 2003 से 2008 के बीच नौ प्रतिशत तक की गति आई थी। इस स्थिति से निपटने के लिए शासक वर्गों ने पूर्व में लगाई गई पाबंदियों में और ढील देनी शुरू कर दी। और तो और अब तो मीडिया में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को व्यापक स्तर पर मंजूरी दे दी गई और खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेश निवेश को पूरी दृढता से लागू किया गया। 

भारत के दलाल बुर्जुआ ने इसका इस्तेमाल दक्षिण एशिया के अपने परंपरागत पास-पड़ोस से अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने के लिए किया और अफ्रीका जैसे दूसरे महाद्वीपों में रास्ता बनाया। वर्ष 2011-12 के दौरान अफ्रीका में कुल भारतीय सहायता और निवेश 150 करोड़ रुपए हो गया, जो कि वर्ष 1997-98 में महज दस करोड़ था। इसी तरह भारत और अफ्रीका के बीच व्यापार वर्ष 2000 में तीन अरब डॉलर से बढ़कर 2011 में करीब 60 अरब डॉलर तक पहुंच गया। बीते दशक में भारत-अमेरिका परमाणु सौदे के मामले में भारत के दलाल बुर्जुआ ने अपने साम्राज्यवादी आकाओं से अधिक रियायतें लेने की कोशिश की थी। कभी-कभी तो अधिकतम रियायतें हासिल करने के लिए इस बुर्जुआ वर्ग ने साम्राज्यवादी आकाओं की प्रतिस्पर्धा का फायदा उठाने की भी कोशिश की है। रक्षा सौदे इसके कुछ उदाहरण हैं। अमेरिकी लड़ाकू विमानों को फ्रांसीसी राफेल के लिए ठुकरा दिया गया। यह दस अरब डॉलर का सौदा था। एक और मामले में अमेरिकी दावेदारी को रूस के पक्ष में ठुकरा दिया गया। 35 अरब डॉलर का यह सौदा भारत के पांचवीं पीढ़ी के विमान को विकसित करने के लिए था। ऐसा करने के बाद भी भारत में ये शासक वर्ग भारत में नव उपनिवेशीय शोषण का मुख्य वाहक बना हुआ है। 

मार्क्सवाद समाज की महज व्याख्या भर से ही संतुष्ट नहीं होता, बल्कि ये इसके बदलाव के साथ सरोकार रखता है। और मजदूर वर्ग के नेतृत्व में वर्ग संघर्ष की धार को पैनी करके ही इसे हासिल किया जा सकता है। मौजूदा वित्तीय संकट और इससे पैदा हुए जनसंघर्ष, दोनों ही पूंजीवाद के मार्क्स वादी विश्लेषण को सही ठहराते हैं। अंतरराष्ट्रीय पटल पर पिछले दशक में योरोपीय देशों के मितव्ययिता उपायों के खिलाफ श्रमिक वर्ग के संघर्ष छाए रहे हैं। इससे पहले भी ग्रीस, इटली और फ्रांस में मजदूरों का काफी उग्र और राजनीतिक संघर्ष हुआ था। यहां तक की 'ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट मूवमेंट' की शृंखलाओं से संयुक्त राज्य अमेरिका भी अछूता नहीं रहा और उसके कई शहरों में फैल गया। वर्ष 2011 के विसकॉन्सिन विरोध प्रदर्शन ने वित्तीय संकट से निपटने के लिए अमेरिकी चुनावी विकल्पों के खोखलेपन पर सवाल उठाया था। हालांकि यह 'ऑक्युपाई मूवमेंट' पूंजीवाद में सुधारों के लाभ तक सीमित था, बजाय कि इसे उखाड़ फेंकने के। 

इस संकट के दौरान पूंजी और श्रम के बीच का अंतर्विरोध तेज हुआ है, इसलिए भी विश्व पूंजीवाद के अन्य अंतर्विरोध तीखे हुए हैं। साम्राज्यवाद और उत्पीडि़त राष्ट्रों के बीच अंतर्विरोध को अमेरिकी कब्जे के खिलाफ अफगानी प्रतिरोध साम्राज्यवाद और उत्पीडि़त राष्ट्रों के बीच अंतर्विरोध का प्रतीक है। खर्चों में बढ़ोतरी और प्रतिरोध के बावजूद अमेरिकी साम्राज्यवाद के लिए अपने आपको अफगान झंझट से छुड़ाना मुश्किल हो गया है। इसी तरह अरब वर्ल्ड में आंदोलनों ने साम्राज्यवादी कवच में दरार को उजागर कर दिया है। अमेरिका उनको या तो अपने साथ कर लेना चाहता था या उनके गुस्से को वहां के स्थानीय शासकों, जिन्हें वह 'नापंसद' करता था, के खिलाफ भड़का देना चाहता था, जैसे कि लीबिया और सीरिया के साथ किया। परंतु, क्रांतिकारी बदलाव के लिए होने वाले आंदोलनों के अभाव में सच्चे लोकतंत्र से अरब देशों की जनता वंचित रही। मिस्र में पहले मुबारक और अब मोरसी की सत्ता के खिलाफ जनता के इन निरंतर विरोध प्रदर्शनों ने सच्चे जनतंत्र के प्रति लोगों की दृढ़ता को ही प्रदर्शित किया है। 

तथाकथित भारतीय आजादी के पिछले 65 वर्षों में भारत में मार्क्सवाद दो विपरीत धाराओं का गवाह रहा है। एक संसदीय वामपंथ है, जिसका नेतृत्व मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) और अन्य संसदीय दल जैसे रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी (आरएसपी), फॉरवर्ड ब्लॉक आदि करते हैं। संसद में पहले यह प्रभावी ताकत थी, लेकिन बाद में इनका प्रभाव कुछ राज्यों जैसे पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा तक ही सिमट कर रह गया। अब बंगाल में वाम मोर्चो सरकार की हार के साथ ही इनका पतन और भी स्पष्ट हो गया है। इसे कुछ लोग भारत में मार्क्सवाद की असफलता के तौर पर उछाल रहे हैं। दूसरी क्रांतिकारी मार्क्सवादी धारा है। यह तेलंगाना और तेभागा संघर्षों के दौरान चिंगारी के रूप में उभरी और बाद में नक्सलबाड़ी के बाद मजबूत हुई। घोर राजकीय दमन और आघातों के बावजूद यह क्रांतिकारी धारा धीरे-धीरे मुकम्मल 'नव जनवादी' विपक्ष में तब्दील हुई है, जिसमें सशस्त्र वर्ग संघर्ष उसका मुख्य अंग है। यह गरीबों में गरीब की तबके का प्रतिनिधित्व करता है, जो शासक वर्ग के विकास मॉडल को सीधे तौर पर चुनौती देता है। इस धारा का मुख्य रूप से प्रतिनिधित्व सीपीआई (माओवादी) करती है (जिसे शासक वर्ग ने देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया है), और देश के विभिन्न हिस्सों में बहुत सारे क्रांतिकारी समूह स्वतंत्र रूप से काम कर रहे हैं।

पहली धारा का पतन मार्क्सवादी सिद्धांतों पर टिके नहीं रहने के कारण हुआ। सच्चाई यह है कि जिन राज्यों में इस वाममोर्चे ने शासन किया वहां इसने बहुत ही प्रतिक्रियावादी तत्वों के साथ गठजोड़ किया, जो कि दलाल बुर्जुआ और सामंती शासक वर्गों के हितों का प्रतिनिधित्व करते थे। साथ ही अन्य संसदीय दलों की तरह जन विरोधी नीतियों में संलिप्त रहा। नंदीग्राम और सिंगूर के विस्थापन विरोधी संघर्ष और बाद में राज्य सरकार की प्रतिक्रिया और दमन इसकी साफ तस्वीर पेश करता है। संसद में वाममोर्चा खुद को राष्ट्र की संप्रभुता और धर्मनिरेपक्षता के रक्षक के तौर पर पेश करता है, लेकिन संभावित चुनावी गठजोड़ों की खातिर अपने स्टेंड के साथ आसानी से समझौता कर लेता है। वे कश्मीर और पूर्वोत्तर की उत्पीडि़त राष्ट्रीयताओं तथा दक्षिण एशिया के देशों के बरअक्स भारतीय बुर्जुआ की अंधराष्ट्रवाद तथा विस्तारवाद की भूमिका को समझने में भी असफल रहे हैं। विचाराधारत्मक तौर पर यह संशोधनवादी प्रवृत्ति मार्क्सवाद के लिए मुख्य खतरा बनी हुई है। भारत में क्रांतिकारी मार्क्सवाद की सफलता इस पर निर्भर करेगी कि वह इस संशोधनवाद का विचारधारत्मक और साथ ही व्यवहार में कितने प्रभावी तरीके से करता है। क्रांतिकारी मार्क्सवाद की दूसरी चुनौती गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) का विकास है। कभी खुले और कभी छिपे तौर पर इनका साम्राज्यवाद के साथ जुड़ाव रहता है, ये सामाजिक और राजनीतिक विरोध के हर क्षेत्र पर छाए रहते हैं और राज्य के हर प्रतिरोध से तालमेल बैठा लेते हैं। बहुत सारे पूर्व मार्क्सवादी, प्रगतिशील और ग्रास रुट एक्टिविस्ट राजनीतिक सक्रियता के बेहतर आमदनी वाले सुरक्षित पर आकर्षक जाल में लगातार फंसते जा रहे हैं। 

क्रांतिकारी धारा का विकास उसके भारतीय वर्ग समाज का सही विश्लेषण और क्रांति की स्पष्ट रणनीति से माना जा सकता है। छत्तीसगढ़ और झारखंड के सबसे पिछड़े इलाकों में प्राथमिक तौर पर केंद्रित करने का चुनाव, दरअसल शहरों को घेरने की रणनीति से प्रेरित है, ताकि क्रांतिकारी ताकतों के भ्रूण केंद्र के रूप में आधार क्षेत्रों को तेजी से बढ़ाया जा सके। हालांकि जबरदस्त दमन ने उन्हें सशस्त्र संघर्ष के अपने इलाके में सीमित कर दिया है, जहां वे भारतीय शासक वर्ग के लिए अजेय ताकत बने हुए हैं। उनके नेताओं और शहर में बसे कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और मार दिए जाने के कारण क्रांतिकारी आंदोलन को बड़ा नुकसान पहुंचा है। इस सघन दमन के कारण मजदूर वर्ग और शहरी आंदोलनों और राजनीतिक प्रचार पर उनके असर को सीमित कर दिया गया है। हालांकि इस धारा के पास राजनीतिक क्षमता है कि वह भारतीय जनमानस के व्यापक गुस्से को भारत में क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए दिशा दे सके।  

सोवियत संघ और चीन के समाजवादी आधारों को धक्का लगने के बाद, अब यह दावा किया जा रहा है कि वेनेजुएला मार्क्सवादी विकास के नव वाम मॉडल को दिखा रहा है। इसे '21वीं सदी के समाजवाद' के तौर पर पेश किया जा रहा है। अक्टूबर 2012 में हुगो शावेज की चौथी चुनावी जीत के बाद से इस तरह के व्यक्तव्यों की बाढ़ सी आ गई। वर्तमान शावेज सरकार 1990 के दशक के उत्तरार्ध में वाम झुकाव वाले दक्षिण अमेरिकी सरकारों जैसे ब्राजील, उरुगुवे, बोलिविया, इक्वाडोर और निकारागुआ की लहर में सत्ता में आई थी, जिसे 'पिंक टाइड' के नाम से भी जाता है। लातिन अमेरिका पारंपरिक रूप अमेरिकी साम्राज्यवाद का पिछलग्गू माना जाता है और वहां अमेरिका विरोधी उग्र जन आंदोलन होते रहते हैं। तथापि, संयुक्त राज्य अमेरिका के वर्चस्व का धीरे-धीरे कमजोर पडऩा, लातिन अमेरिका में चीन का प्रमुख भागीदार के रूप प्रवेश और पेट्रो डॉलर का उभार इस क्षेत्र में अमेरिका विरोधी 'राष्ट्रवादी' सरकारों के उत्थान का कारण है। वेनेजुएला की अर्थव्यवस्था में चीन अमेरिका के बाद दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है। (समयांतर, फरवरी, 2013 से साभार)

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