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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Thursday, August 29, 2013

भाषाओं का विस्थापन

भाषाओं का विस्थापन
Thursday, 29 August 2013 10:44

रवि शंकर

जनसत्ता 29 अगस्त, 2013 : विश्व में छह हजार से ऊपर भाषाएं हैं तो भारत में पचास साल पहले यानी 1961 की जनगणना के बाद सोलह सौ बावन मातृभाषाओं का पता चला था। इनमें से करीब ग्यारह सौ को भाषा का दर्जा मिला हुआ है। उसके बाद ऐसी कोई सूची नहीं बनी, जिससे भाषाओं का सटीक अनुमान लगाया जा सके। हालांकि 1971 में केवल एक सौ आठ भाषाओं की सूची सामने आई थी, क्योंकि सरकारी नीतियों के हिसाब से किसी भाषा को सूची में शामिल करने के लिए उसे बोलने वालों की तादाद कम से कम दस हजार होनी चाहिए। यह कसौटी भारत सरकार ने स्वीकार की थी। लेकिन हाल में वडोदरा के 'भाषा अनुसंधान एवं प्रकाशन केंद्र' द्वारा कराए गए एक सर्वे के मुताबिक यह बात सामने आई है कि पिछले पांच दशक में भारत की करीब बीस फीसद यानी करीब दो सौ बीस भाषाएं खत्म हो गई हैं। 
इस तरह देश में करीब आठ सौ अस्सी भाषाएं हैं, जो कि वर्तमान में बनी हुई हैं। गायब होने वाली भाषाएं देश में फैले घुमंतू समुदायों की हैं। बिहार-झारखंड की सात भाषाओं पर लुप्त होने का संकट मंडरा रहा है। इनमें सोनारी, कैथी लिपि, कुरमाली, भूमिज, पहाड़िया, बिरजिया और बिरहोर शामिल हैं। जबकि मुंबई में तीस से चालीस जनजातीय बोलियां लुप्त होने के कगार पर हैं। इनमें अधिकतर विदर्भ के आदिवासी कबीलों की बोलियां हैं। इसके अलावा मराठवाड़ा और खानदेश की कई जनजातीय बोलियां भी इसमें शामिल हैं। वहीं असम की देवरी, मिसिंग, कछारी, बेइटे, तिवा और कोच राजवंशी सबसे संकटग्रस्त भाषाएं हैं। इन भाषा-बोलियों का प्रचलन लगातार कम हो रहा है। यह आधुनिकता की सबसे बड़ी विडंबना है।
ऐसा नहीं कि केवल भारतीय भाषाएं हाशिये पर हैं, बल्कि आज पूरे विश्व में बहुत-सी भाषाएं लुप्त होने के कगार पर हैं। बंजारे, आदिवासी या अन्य पिछड़े समाजों की भाषाएं पूरे विश्व में लगातार नष्ट होती गई हैं। दुनिया भर में आज कितनी भाषाएं जीवित हैं, इसकी कोई प्रामाणिक गिनती नहीं है। भूमंडलीकरण के कारण दुनिया भर में इस वक्त जिंदा रहने वाली भाषाओं में चीनी, अंग्रेजी, स्पेनिश, जापानी, रूसी, बांग्ला, और हिंदी सहित कुल सात भाषाओं का राज है। दो अरब पचास करोड़ से ज्यादा लोग ये भाषाएं बोलते हैं। इनमें अंग्रेजी का प्रभुत्व सबसे ज्यादाहै और वह वैश्विक भाषा के रूप में स्वीकार कर ली गई है। हालांकि भाषाविज्ञानी इसे खतरनाक रुझान मानते हैं। क्योंकि चीन और अर्जेंटीना ऐसे देश हैं, जहां भाषा की विविधता खत्म हो चुकी है। इसकी वजह वहां सरकारी स्तर पर एक ही भाषा का चुनाव रहा। 
हिंदी इस समय भले यूनेस्को की सुरक्षित भाषाओं वाली श्रेणी में आती हो, लेकिन महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या इस सदी के अंत तक उसकी यही हैसियत बनी रहेगी? या कि हिंदी भी उन छह-सात हजार भाषाओं के लगभग नब्बे प्रतिशत का हिस्सा बनने को अभिशप्त है? क्या वह भी इक्कीसवीं सदी के आखिरी चरण में यूनेस्को द्वारा लुप्त भाषा की श्रेणी में रखी जाएगी?
तसल्ली के लिए यह कहा जा सकता है कि भारत में आज भी अधिकतर लोग हिंदी बोलते हैं, लेकिन हम अच्छी तरह जानते हैं कि भारत में अंग्रेजी के मुकाबले हिंदी की स्थिति क्या है? आज हिंदी अपने उस मुकाम पर नहीं है, जहां उसे होना चाहिए था। अंग्रेजी भाषा हिंदी पर हावी होती जा रही है। और अंग्रेजी को 'स्टेटस सिंबल' के तौर पर अपना लिया गया है। लोग अंग्रेजी बोलना शान समझते हैं, जबकि हिंदीभाषी व्यक्ति को पिछड़ा समझा जाने लगा है। सच्चाई यह है कि जो अंग्रेजी नहीं जानते या उसमें निष्णात नहीं हैं उन्हें कुंठित किया जा रहा है। 
अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ रहा है और हिंदी लगातार किनारे हो रही है। जिस भाषा को कश्मीर से कन्याकुमारी तक सारे भारत में समझा जाता हो, उस भाषा के प्रति घोर उपेक्षा और अवज्ञा के भाव से हमारा कौन-सा राष्ट्रीय हित सधेगा? हिंदी का हर दृष्टि से इतना महत्त्व होते हुए भी प्रत्येक स्तर पर इसकी इतनी उपेक्षा क्यों? यह निश्चित है कि अंग्रेजी विश्व-संपर्क की भाषा बन गई है, पर अगर भारत को एक जनोन्मुखी देश बने रहना है तो हिंदी को तकनीकी और वैज्ञानिक भाषा भी बनाना होगा। 
आज इस देश में अपनी भाषाओं की जो भी स्थिति है उसका कारण मानसिक गुलामी से ग्रसित लोग हैं। मानसिक गुलामी को अवश्यंभावी बता कर ये लोगों को दिग्भ्रमित कर रहे हैं। पूरी दुनिया में चीनी भाषा का जितना सम्मान है उतना किसी भी भारतीय भाषा का नहीं। उसकी वजह सिर्फ हम हैं। 
चीनियों के लिए अंग्रेजी एक व्यावसायिक भाषा है और वे उसका प्रयोग सिर्फ उसी दृष्टिकोण से करते हैं। हमारी तरह उसे वे अपने जीवन का हिस्सा नहीं बनाते। अगर अंग्रेजी किसी देश के विकास के लिए इतनी आवश्यक होती तो भारत आज चीन, जापान और कई अन्य देशों से ज्यादा विकसित होता। अगर चीन में अंग्रेजी सीखने पर जोर दिया जा रहा है तो क्या अमेरिका और ब्रिटेन में भी बच्चों को चीनी नहीं सिखाई जा रही है? 
बहरहाल, यूनेस्को का हालिया सर्वेक्षण इस खतरे की तरफ साफ इशारा करता है। यूनेस्को का कहना है कि भाषाओं के लुप्त होने की रफ्तार बीते दो दशक में काफी तेजी से बढ़ी है।

उसका अनुमान है कि दुनिया भर में इस वक्त जो लगभग छह हजार या उससे अधिक भाषाएं बची हुई हैं, उनमें से आधी या हो सकता है नब्बे प्रतिशत तक इक्कीसवीं सदी का अंत होते-होते मिट जाएंगी। इनकी संख्या भारत में अधिक होगी। यूनेस्को का मानना है कि इक्कीसवीं सदी के अंत तक छह हजार में से छह सौ भाषाएं ही दुनिया में बचेंगी। पंजाबी भाषा, जो इतने बड़े क्षेत्र की एक समृद्ध भाषा है, वह भी खतरे की सूची में है। 
कुछ भाषाएं तो समाप्त हो ही चुकी हैं। इनमें अंडमान, असम, मेघालय, केरल और मध्यप्रदेश की जनजातीय भाषाएं गिनाई गई हैं। इन भाषाओं के लुप्त होने के दो मुख्य कारण हैं। पहला तो यह कि इन्हें बोलने वाले ही समाप्त हो गए। 2007 तक अंडमान में एक भाषा को बोलने वालों की संख्या मात्र दस थी तो असम में एक भाषा को जानने वाले पचास लोग थे। दूसरा यह कि कुछ भाषाओं को बड़ी भाषाओं, जैसे हिंदी, अंगे्रजी ने लील लिया। अपनी मातृभाषाओं से लोग हिंदी या अंग्रेजी की ओर चले गए। 
खैर, अपने जमाने की बात करता हूं। मेरे दादा संस्कृत और खांटी भोजपुरी बोलते थे। पिताजी ने भोजपुरी के साथ हिंदी और टूटी-फूटी कुछ अंग्रेजी बोली। दादा जिन शब्दों के प्रयोग जानते थे, पिताजी उनमें सेअधिकतर शब्द भूल गए। मैं भी नब्बे प्रतिशत भूल गया। इससे भी बदतर हालत यह है कि मेरे बच्चे भोजपुरी बोल ही नहीं सकते और हिंदी भी इनकी पहुंच से दिन-प्रतिदिन दूर होती जा रही है। असल में यह सब भूमंडलीकरण का असर है। वर्तमान पीढ़ी के पास कोई एक समृद्ध भाषा नहीं है। मातृभाषाएं व्यवहार में नहीं बची हैं। 
साढ़े छह लाख गांवों के देश का विकास अंग्रेजी थोपने से संभव नहीं है। कितनी अजीब बात है कि विश्वगुरु बनने का अभिलाषी यह देश संयुक्त राष्ट्र में तो हिंदी का परचम फहराना चाहता है, लेकिन अपनी ही धरती पर उसे राजकाज की भाषा के रूप में नहीं अपनाना चाहता, न ही उसे जनता की रोजी-रोटी की भाषा बनने देना चाहता है। जबकि सबसे ज्यादा बोली जाने वाली बीस में से छह भाषाएं हमारे देश में हैं। ये हैं हिंदी, बांग्ला, तेलुगू, मराठी, तमिल और पंजाबी।  
पूरे देश को भारत बनाम इंडिया या हिंदी बनाम अंग्रेजी के खेमों में बांट दिया गया है। यह मानसिकता बढ़ती जा रही है। इसके अनेक कारण हैं, पर सबसे बड़ा कारण है देश में राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव। इसके चलते हिंदी तो उपेक्षित हो ही रही है, अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का भी बुरा हाल है। राजनेता हिंदी में वोट तो मांगते हैं, पर इसके लिए कुछ ठोस करने को तैयार नहीं हैं। सरकार ने जान-बूझ कर ऐसी नीतियां बनाई हुई हैं कि लोग अधिक से अधिक अंग्रेजी के मोहजाल में फंसते जाएं। भारतीय समाज विश्व में एक ऐसा समाज है, जो अपनी भाषाओं के प्रति सर्वाधिक उदासीन है। इसका बड़ा कारण है रोटी-रोजी के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता। देश की अधिकतर नौकरियां कुछ फीसद अंग्रेजी जानने वालों का वरण करती हैं। 
भाषाओं का इतिहास सत्तर हजार साल पुराना है, जबकि भाषाओं को लिखित रूप देने का इतिहास चार हजार साल से ज्यादा पुराना नहीं है। इसलिए ऐसी भाषाओं के लिए यह संस्कृति का ह्रास है। खासकर जो भाषाएं लिखी ही नहीं गर्इं, जब वे नष्ट होती हैं तो यह बहुत बड़ा नुकसान होता है। सांस्कृतिक क्षति के अलावा यह आर्थिक क्षति भी है। 
चाहे पहले की रसायन विज्ञान, भौतिक विज्ञान या इंजीनियरिंग से जुड़ी तकनीक हो या आज के दौर का यूनिवर्सल अनुवाद या मोबाइल तकनीक, सभी भाषा से जुड़ी हैं। ऐसे में भाषाओं का लुप्त होना एक आर्थिक नुकसान भी है। यही वजह है कि भाषाविद भाषाओं के लुप्त होने को मनुष्य की मृत्यु के समान मानते हैं। भाषाशास्त्री डेविड क्रिस्टल अपनी पुस्तक 'लैंग्वेज डेथ' में कहते हैं, भाषा की मृत्यु और मनुष्य की मृत्यु एक-सी घटना है, क्योंकि दोनों का अस्तित्व एक दूसरे के बिना असंभव है। 
एक भाषा की मौत का अर्थ है उसके साथ एक खास संस्कृति का खत्म होना, एक विशिष्ट पहचान का गुम हो जाना। तो क्या दुनिया से विविधता समाप्त हो जाएगी और पूरा संसार एक रंग में रंग जाएगा? भाषाओं के निरंतर कमजोर पड़ने के साथ यह सवाल गहराता जा रहा है। पहनावे के बाद अब भाषा पर आया संकट अधिक खतरनाक सिद्ध हो सकता है। कहा जाता है कि भाषा अपनी संस्कृति भी साथ लाती है। 
वास्तव में किसी भाषा को बचाने का मतलब है कि उसे बोलने वाले समुदाय को बचाना। ऐसे समुदाय- चाहे वे सागरतटीय हों, घुमंतू हों, पहाड़ी हों या मैदानी- जो नए विकास से पीड़ित हैं, उनके लिए संरक्षण की एक विशेष कार्य-योजना की जरूरत है। बहुत-से लोग शहरीकरण को भाषाओं के लुप्त होने का कारण मानते हैं, लेकिन शहरीकरण के बावजूद उन्हें बचाया जा सकता है। शहरों में इन भाषाओं की अपनी एक जगह होनी चाहिए। बड़े शहरों का भी बहुभाषी होकर उभरना जरूरी है।

 

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