Total Pageviews

THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Tuesday, September 16, 2014

यूपीए के कार्यकाल में साम्प्रदायिक दिमाग के विस्तार की वजहें

यूपीए के कार्यकाल में साम्प्रदायिक दिमाग के विस्तार की वजहें

Posted by Reyaz-ul-haque on 9/15/2014 09:06:00 PM


अनिल चमड़िया 

1953 के मुकाबले 2013 तक दंगों के अपराध में 251 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरों का यह विश्लेषण हैं। दंगे के कई कारण होते हैं लेकिन भारतीय गणराज्य में सबसे बड़ा कारण धर्म आधारित साम्प्रदायिकता है। यह कई मौके पर स्वीकार किया जा चुका है कि यदि सरकार और उसकी मशीनरी का समर्थन नहीं हो तो न तो साम्प्रदायिक दंगे भड़क सकते है और भड़क भी जाए तो फैल नहीं सकते हैं। लालू प्रसाद यादव ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में अपने कलक्टर और एस पी को यह चेतावनी दी थी कि जिन इलाकों में साम्प्रदायिक दंगे होंगे वहां के इन प्रशासनिक पदों पर बैठे अधिकारियों को दंडित किया जाएगा।दंगे नहीं हुए। राजनाथ सिंह ने संसद में उत्तर प्रदेश के अपने मुख्यमंत्रित्व काल के अनुभव के आधार पर कहा कि सरकार चाहे तो आधे घंटे से ज्यादा साम्प्रदायिक दंगे नहीं हो सकते हैं। इनके अलावा गुजरात, बिहार, उत्तर प्रदेश के कई आई पी एस और आई ए एस अधिकारियों ने भी अपने प्रशासनिक अनुभव के आधार पर यह कहा है कि साम्प्रदायिक दंगे सरकारी मशीनरी और सत्ता की राजनीति की मिलीभगत से होते हैं।लगभग हर साम्प्रदायिक हमलों में सरकारी मशीनरी और राजनीतिक मिलीभगत के आरोप भी लगते भी रहे हैं। 

सवाल यह है कि क्या महज सरकारी मशीनरी ही साम्प्रदायिक दंगे को रोक सकती है? क्या साम्प्रदायिक दंगे और ज्यादातर घटनाओं में साम्प्रदायिक हमलों को रोकने का औजार महज प्रशासनिक कल पूर्जे हो सकते हैं? या फिर साम्प्रदायिक दंगों को रोकने में आम जागरूक लोग, स्थानीय स्तर पर सक्रिय संगठन, लोकतांत्रिक और मानवाधिकार आंदोलन के कार्यकर्ताओं आदि की ही भूमिका होती है और प्रशासनिक ईकाई उसमें सहायक होती है। वह सहायक भी इस रूप में कि वह महज अपनी कानून एवं व्यवस्था को लागू करने की जिम्मेदारी से साम्प्रदायिक दंगों के दौरान समझौता नहीं करें। 

2013 में देशभर के सबसे ज्यादा साम्प्रदायिक हमले वाले राज्य उत्तर प्रदेश की सरकार साम्प्रदायिक दंगों को रोकने के लिए अपने स्तर के सभी प्रशासनिक उपाय करने का दावा करती है।लेकिन वहां साम्प्रदायिक दंगों व हमलों की घटनाओं को रोकने में भी मदद नहीं मिली और उससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात है कि घटनाओं से कई गुना ज्यादा साम्प्रदायिक दिमाग तैयार होने से नहीं रोका जा सका। साम्प्रदायिक दंगों को रोकना तो तत्कालिक तौर पर प्रशासनिक ईकाई का काम हो सकता है लेकिन साम्प्रदायिक दिमाग के बनने और उस तरह के दिमाग को बनाने की प्रक्रिया को रोकना उसके वश से बाहर होता है। वह केवल दंगाईयों के खिलाफ एफ आई आर दर्ज कर सकता है, उन्हें हिरासत में ले सकता है और उनके खिलाफ अपने आरोपों को लेकर  न्यायालय में सुनवाई के लिए भेज सकता हैं। साम्प्रदायिक दिमाग के बनने से रोकने और उसे बनाने की प्रक्रिया को रोकने के औजार किसके पास होते है? रिकॉर्ड ब्यूरों यह आंकड़ा तैयार नहीं कर सकता है कि 1953 के बाद कितने साम्प्रदायिक दिमाग तैयार किए गए और उसकी पूरी प्रक्रिया क्या रही है।

मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली दस साल की पिछली सरकार को धर्म निरपेक्षता के आधार पर जनादेश मिला था। लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि पिछले दस वर्षों में साम्प्रदायिक घटनाएं भले ज्यादा नहीं हुई हो लेकिन उसी कार्यकाल में साम्प्रदायिक दिमाग का विस्तार तेजी से हुआ। 2014 के लोकसभा के चुनाव में मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों के आधार पर मतों के विभाजन की अपेक्षा साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण की ही स्थिति निर्णायक साबित हुई। यह सवाल उठाया जाना चाहिए कि धर्म निरपेक्षता की वकालत करने वाली सरकार के कार्यकाल में साम्प्रदायिकता के दिमाग का विस्तार क्यों हुआ ? आखिर कांग्रेस और कई सहयोगियों के साथ चलने वाली उसकी सरकार अपनी प्रशासनिक दक्षता के दावे के बावजूद विचारधारा के स्तर पर उसे नहीं रोक सकी। क्यों पार्टी की विचारधारा स्थगित होने की स्थिति में थी? 

दरअसल यूपीए-दो यानी मनमोहन सिंह को दूसरे कार्यकाल के लिए जनादेश मिलने का कारण यह नहीं था कि वह जिन आर्थिक नीतियों को लेकर वह चल रही थी लोग उसके समर्थन में थे। बल्कि उनके पहले के कार्यकाल में जिस तरह से साम्प्रदायिक दिमाग का विस्तार देखा जा रहा था उसके खतरे को लेकर देश के बहुसंख्यक लोकतांत्रिक संगठन और लोग सक्रिय हो गए थे। उन्होने यूपीए-दो को एक मौका देने की अपील की बावजूद इसके कि मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों को लेकर उनके बीच एतराज गहरे हुए थे। लेकिन मनमोहन सिंह को ये लगा कि दूसरी बार जनादेश उनके आर्थिक नीतियों के अच्छे परिणाम के कारण मिला हैं। दरअसल एक राजनीतिक्ष और नौकरशाह में फर्क यह होता है कि नौकरशाह समग्रता में विचारों और सामाजिक जीवन को नहीं देखता है।अर्थशास्त्री की तो खासतौर से यह दिक्कत होती हैं।मनमोहन सिंह आखिकार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा मनोनीत किए गए थे।नौकरशाह जन मानस और उसके दर्शन को भी नहीं समझ पाता है। यहां जगजीवन राम के उस वक्तब्य को दोहराना अच्छा होगा जिसमें उन्होने एक सभा में कहा था कि इस देश की जनता पेट की मार तो सह सकती है लेकिन पीठ की मार नहीं बर्दाश्त कर सकती है। यह उन्होने इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लागू करने की नासमझी के मद्देनजर कहा था। मनमोहन सिंह ने भी साम्प्रदायिकता को भारतीय समाज की पीठ पर मार के रूप में समझा ही नहीं। 

मनमोहन सिंह के कार्यकाल में यह हुआ कि समाज के सभी उन लोगों को देश के लिए सबसे ज्यादा आतंरिक खतरे के रूप में घोषित कर दिया जो कि लोकतांत्रिक विचारों के समर्थक थे,जन विरोधी नीतियों के विरोधी थे और साथ ही साथ साम्प्रदायिकता के भी विरोधी थे। उनके कार्यकाल में गैर सरकारी संगठनों को राष्ट्रद्रोही करार दिया गया।आंतरिक खतरे के आधार पर साम्प्रदायिकता के विचारों पर पलने वाले संगठनों तक से सत्ताधारी पार्टी की वैचारिक एकता हो गई।एक तरह से देखें तो साम्प्रदायिक विचारों पर फलने फूलने वाले संगठनों को छोड़कर बाकी सभी तरह की वैचारिक शक्तियों पर जेल में डाले जाने का खतरा मंडराने लगा। मनमोहन सिंह की सरकार के जाने के बाद नई सरकार को उन शक्तियों से निपटने के लिए ज्यादा कुछ नहीं करना है जो कि नई आर्थिक नीतियों की विरोधी रही हैं।यानी जमीन छिनें जाने, मजदूर कानूनों के खत्म किए जाने , कमजोर वर्गों के हक महसूस करने वाले कार्यक्रमों को खत्म करने आदि का विरोध करते रहे हैं। नई सरकार को केवल संसदीय प्रक्रिया पूरी करनी है। नए मजूदर कानून बनाने है , जमीन की नई बंदोबस्ती के लिए कानून बनाना है, न्यायापालिका को अपने विचारों का आईना बनाने के लिए संविधान में संशोधन की जरूरतों को पूरा करना है।

दरअसल साम्प्रदायिक दिमाग बनने से रोकने और उसे बनाने की प्रक्रिया को रोकने का प्रश्न लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा और अपने हितों के लिए संघर्ष की प्रक्रिया को सतत बनाए रखने से ही जुड़ा है। यहां बिहार के एक उदाहरण को ध्यान में रखा जा सकता है। बिहार में जिन किसानों व मजदूरों ने डा. जगन्नाथ मिश्र के मीडिया विरोधी विधेयक का विरोध करने के लिए पटना की सड़कों पर लाखों की संख्या में आई पी एफ के बैनर तले मार्च किया था, उन्हीं किसानों व मजदूरों ने 1990 के आसपास साम्प्रदायिकता के विरोध में  पटना की सड़कों पर मार्च करते हुए यह नारा लगाया था जो दंगा करवाएगा वह हमसे नहीं बच पाएगा। लालू यादव ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में अपने अधिकारियों को चेतावनी देकर जो दंगे रूकवाए वास्तव में दंगों को वहां के किसान मजदूर और लोकतंत्र समर्थक कार्यकर्ताओं और सामान्य लोगों की चेतना के कारण रूका था। इस तरह लोकतांत्रिक और बराबरी के लिए आंदोलन साम्प्रदायिक दिमाग बनने से रोकते है और आंदोलनों के विषय साम्प्रदायिकता की प्रक्रिया को रोकती है।इसीलिए साम्प्रदायिकता के आधार पर सिसायत करने वाले संगठन वैसे आंदोलनों को कमजोर करने की हर संभव कोशिश करती है। 

इसके उलट एक दूसरे उदाहरण को भी हम देख सकते हैं कि अस्सी के दशक में अहमदाबाद में एक टेक्सटाईल मिल बंद हो गया और वहां चालीस हजार मजदूर बेकार हो गए। उनमें ज्यादातर मजदूर पिछड़े, दलित और मुस्लिम थे। उनमें से ज्यादातर मजदूर  साम्प्रदायिकता की विचारधारा की तरफ चले गए और वे गुजरात में साम्प्रदायिक शक्तियों द्वारा किए गए आरक्षण विरोधी आंदोलन को भी भूल गए।यह साम्प्रदायिकता की विचारधारा की एक प्रक्रिया होती है कि वह लोकतांत्रिक और बराबरी के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक आंदोलनों को भूलकर अपने साथ दमन और शोषण के शिकार होने वाले लोगों को आने के लिए बाध्य कर देती है।

मनमोहन सिंह के कार्यकाल में साम्प्रदायिक दिमाग को बनने और उसे बनाने की प्रक्रियों को रोकने वाली तमाम तरह की प्रक्रियाओं को बाधित किया गया।आज भी देश के जेलों में हजारों की संख्या में राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ता बंद है।केवल झारखंड जैसे राज्य में छह हजार से ज्यादा ऐसे कार्यकर्ता जेलों में बंद हैं। जो समाज में बदलाव की प्रक्रिया चला सकते थे उन्हें आतंकित किया गया है।उन पर सत्ता के साथ साथ साम्प्रदायिक शक्तियों के भी हमले हुए हैं।ताजा हालात सभी के सामने हैं।लोकतांत्रिक आंदोलनों पर दमन की स्थिति में साम्प्रदायिकता के विस्तार को नहीं रोका जा सकता है। इंदिरा गांधी ने भी जब जब दमन का रास्ता अपनाया है तब तब साम्प्रदायिकता के दिमाग का ही विस्तार देखा जा सकता है। 1970,1975 और 1980 के आसपास के उनके कार्यकालों को यदि गहराई में जाकर अध्ययन करें तो वहां साम्प्रदायिक विचारधारा के विस्तार के संकेत मिलते हैं। दमन और साम्प्रदायिकता दो अलग अलग चीजें नहीं हैं। एक विचार है तो दूसरा उसका रूप हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरों यदि देश में इस हद तक दंगों का विस्तार देख रहा है तो यह लोकतंत्र के विस्तार का परिचायक नहीं हो सकता है बल्कि आंतरिक तौर पर लोकतंत्र के दमन के विस्तार का रूप हैं। साम्प्रदायिकता के खिलाफ कामयाब आंतरिक लोकतंत्र के कार्यकर्ता और संगठन ही हो सकते हैं। 

No comments:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Tweeter

Blog Archive

Welcome Friends

Election 2008

MoneyControl Watch List

Google Finance Market Summary

Einstein Quote of the Day

Phone Arena

Computor

News Reel

Cricket

CNN

Google News

Al Jazeera

BBC

France 24

Market News

NASA

National Geographic

Wild Life

NBC

Sky TV