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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, September 7, 2014

घर के अंदरमहल में भी अब चहारदीवारी है और संवाद निषेध है। फिरभी गनीमत है कि कैंसर से जूझते वीरेनदा अब भी कविता लिख रहे हैं।

घर के अंदरमहल में भी अब चहारदीवारी है और संवाद निषेध है।

फिरभी गनीमत है कि कैंसर से जूझते वीरेनदा अब भी कविता लिख रहे हैं।


पलाश विश्वास

आज सही मायने में दिलोदिमाग का हाल अच्छा नहीं है।कल से पीठ में अजब सा दर्द हो रहा है।देर रात तक काम करने के बाद सुबह ही एक बेहद जरुरी बैठक में रहा दिनभर। अब एकदम पस्त हूं।सोने की कोशिश की तो सो नहीं पाया।तो बेहतर है जो लिखने का मन है,वह लिख दिया जाये।


कल शाम अचानक दिल्ली से अपने फिल्मकार राजीव कुमार का फोन आया।फोन पकड़ते ही बोले ही बोला,लो वीरेन दा से बात करो।वीरेनदा ने तुमपर कविता लिखी है।बात करना चाहते हैं।


वीरेनदा को बात करने में बेहद तकलीफ होती है।इधर वे फेसबुक पर भी सक्रिय दीखते हैं।मुझे मालूम है कि मैं जो कुछ लिखता हूं,उस पर मेरे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी की तरह वीरेनदा की भी पैनी निगाह होती है। लिखते वक्त जैसे मेरे पांव करीब चार दशक से पीछे छूटे गांव बसंतीपुर में अपनी खेतों की कीचड़ में धंसे होते हैं तो लिखते हुए मैं दिवंगत गिरदा, गुरुजी और वीरेनदा का हाथ अपनी पीठ पर महसूस करता हूं।फिरभी मैं उन्हें फोन नहीं करता।


वीरेनदा ने फोन पकड़ा तो बोलते ही रहे।बतें निकली तो निकली ही रहीं।


बोले कविता लिखी है और तुझे सुनाउंगा।अब कहीं और रखा है।


मैंने कहा कि जरुरत नहीं है क्योंकि मैं जानता हूं कि आप क्या लिख सकते हैं।


वे बोले नैनीताल की खूब नराई लग रही है ,वहां जाने का खूब मन हो रहा है।


अभी कुछ दिन पहले आनंद स्वरूप वर्मा से जब बातें हुई तो उन्होंने भी कहा था कि बहुत दिनों से नैनीताल नहीं गया।


हम लोग 14 सितंबर को नैनीताल रवाना हो रहे हैं और लौटते हुए दिल्ली में उनसे मिलकर आयेंगे,मैंने उनसे कहा तो वीरेनदा बच्चों की तरह ही खुशी से किलक उठे।


कवियों में अजब जीवट होता है।


नवारुण दा ने भी केंसर से बेहद बहादुरी से पंजा लड़ाया और वीरेन दा ने अभी हार नहीं मानी है।


मेरे पिता की मृत्यु रीढ़ में कैंसर से हुई लेकिन वे भी जब तक गिरे नहीं,दौड़ते रहे।


कैंसर की आहट मैं भी साफ साफ सुन पाता हूं और मुझे मालूम नहींं कि इनमे से किसी की तरह या कमसकम अनुराधा की तरह लड़ पाउंगा या नहीं।


आखिरकार अरसे बाद  वीरेनदा से ढेरों बातें हुुईं।यह बहुत बड़ी राहत की बात है। वे सकुशल हैं और अब भी कविता लिक रहे हैं,यह बहुत बड़ी राहत की बात है।


वीरेनदा से बात करने के बाद अचानक जनसत्ता से दो साल पहले रिटायर हुए कोलकाता के मुख्य संवाददाता कृष्ण कुमार साह से बात करने की कोशिश की तो उनके भतीजे ने फोन उठाया।


बोले, कृष्णाजी तो कोलकाता अस्पताल के आईसीयू में हैं।एकदम पस्त हो गये हैं। हफ्तेभर से किसी हरकत में नहीं हैं।किसी को पहचान नहीं रहे हैं और न खा पी रहे हैं।


हम आसमान से गिरे।एक साथ तईस साल काम किया है हमने।अचानक रिटायर जीवन में उनके वेकल होने की खबर से डर गये और ज्यादा डरें क्योंकि अस्पताल में उनका सारा परिवार,पूरा कुनबा जमा था।


आज दिनभर की व्यस्तता की वजह से बात नहीं हो पायी लेकिन शाम से कोशिस करता रहा कि उनके घरवालों से बात करूं।


कुछ दर पहले बातें हुई भाभी जी से।बोलीं, ठीक हैं अब।


मैंने कहा कि उसे फोन दीजिये।उसके फोन पकड़ते ही कड़क डांट पिलायी कि क्या नर्क मचाये हो।उसने फटाक से पहचान लिया।यह भी बड़ी राहत की बात है।


दिन में जो बैठक हो रही थी,उसमें कई राज्यों और कई सेक्टरों के लोग थे।कर्नल साहेब के घर पर।


उनका फोन आफ था।दोपहर को नासिक से भाभी जी का फोन मेरे फोन पर आया,जो चालू था।हमने उनकी बात करा दी।फिर हम विचार मंथन में लग गये।


उस फोन के बाद भी कर्नल साहेब ने हम सबको बिरयानी खुद रेस्तरां से लाकर खिलाया और बैठक के बाद हमें रोककर समीक्षा भी की।


चाय बनवाकर सबको विदा करने से पहले उन्होंने सूचना दी कि नासिक से फोन आया था कि उनके बहनोई का निधन हो गया।


मेैंने लौटकर फोन पर उनसे पूछा,आप कब जा रहे हैं,तो उन्होंने कहा कि अंत्येष्टि तो हो गयी है और अब बाद में जाउंगा।


आज की बैठक में शरदिंदु अपने छठीं में पढ़ने वाले बेटे उद्दीपन को लेकर आया।


मुझे तत्काल अपने पिता का स्मरण हो आया जो मुझे हर सभा में ले जाते थे और किसी भी बड़े आदमी से बात करते हुए मुझे साथ रखना भूलते न थे।


गांवों की परंपरा याद हो आय़ी कि कैसे हमारे पुरखे अपने बच्चों को आधी पानी में झंक देकर वक्त और हालात का मुकाबला करने की सीख और अभिज्ञता देते थे।


आज हम अपने बच्चों को संबोधित ही नहीं कर रहे हैं।


न उनके शिक्षकों के साथ उनका वह अंतरंग संबंध है जो हमारे शिक्षकों का हमसे था।


गौतम बुद्ध ने धम्म के प्रचार में भिक्षुओं को हिदायत दी थी कि पंच शील के अनुशीलन और तात्विक बातों को सबसे पहले शिशुओं से साझा करें,जो निष्पाप और सही मायने में निरपेक्ष हैं.जो चीजों को उसकी हर बारीकी से पकड़ सकते हैं।


गौतम बुद्ध ने धम्म के प्रचार में भिक्षुओं को हिदायत दी थी कि पंच शील के अनुशीलन और तात्विक बातों को  बच्चों के बाद फिर वृद्धों से साझा करें,जो संसार के सारे कष्ट झेल चुके हैं।क्योकि अभिज्ञता की पूंजी के आधार पर उनका दिशानिर्देश ही समाज को बदलेगा।


गौतम बुद्ध ने धम्म के प्रचार में भिक्षुओं को हिदायत दी थी कि पंच शील के अनुशीलन और तात्विक बातों को बच्चों और वृद्धों को संबोधित कर लेने के बाद बाकी लोगों को।

ताकि बदलाव के लिए पूरा समाज सक्रिय हो जाये।


आज शरदिंदु का छठीं में पढ़ने वाला बेटा जिस गंभीरता से सुबह ग्यारह बजे से लेकर पांच बजे तक एक जगह बैठकर अत्यंत गंभीर विचारमंथन में शामिल रहा,उससे  तो यही लगता है कि बच्चे आज भी भविष्य के अग्रदूत हैं और हम हैं जो सिरे से बदल गये हैं।


आज की बैठक में जो निष्कर्ष सबसे अहम है ,वह लोक में वापसी का मुद्दा है।


हमारी सभ्यता का इतिहास उत्पादन संबंधों की नीव पर रहा है।उत्पादन संबंधों की नींव पर ही सामाजिक राजनीति व्यवस्था बनी है।


संगठनात्मक गतिविधियों की शुरुआत उन्हीं उत्पादन संबंधों की बहाली और वर्गीय ध्रूवीकरण से ही संभव है।


सिर्फ मुद्दे या सिर्फ विचारधारा से हम लोगों को एकताबद्ध नहीं कर सकते।


जितना जरुरी है अस्मिताओं को ध्वस्त करना,उससे ज्यादा जरुरी है लोगों की आजीविका से हमारी लड़ाई को जोड़ना।


उत्पादन प्रणाली में जो उत्पादक वर्ग है,उनके श्रम के बिना तकनीकी क्रांति का यह तामझाम और मुक्त बाजार का सारा बंदोबस्त बेकार है।


उत्पादन के लिए जो कच्चा माल है,ऴह भी इसी वर्ग के सहयोग बिना मिलना असंभव है।उत्पादों को अंतिम रुप देना और बाजार के लिए पैकेजिंग की व्यवस्था भी उन्हींके हवाले।लेकिन बाजार पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है।


वे बाजार से बेदखल हैं।क्रय शक्ति से बेदखल हैं। और अपने ही उत्पाद के उपभोग के भी वे अधिकारी नहीं हैं।मुक्त बाजार का पूरा तिलिस्म इसी असमता और अन्याय के समीकरण पर टिका है।क्रयसक्ति की ट्रिंकलिंग से सत्तावर्ग का आधिपात्य श्रमजीवी वर्ग पर है और यही आर्थिक सुधारों,ग्लोबीकरण और मुक्तबाजार का पारस पाथर है।


बुनियादी मसला यही है कि हम अपने संसाधनों के मालिक क्यों नहीं हैं और बाजार हमें बहिस्कृत कैसे कर रहा है।


इस मसले को सुलझाये बिना मुक्तबाजार के प्रतिरोध की कोई संभवना नहीं है।


हमने बचपन में अपने गांवों में जो लोकतांत्रिक व्यवस्था देखी है,वह सिरे से गायब है।


गांव जो अनंत संवाद का मंच हुआ करता था,अब ग्लोबल विलेज के ब्लैक होल में गायब है।तकनीक ने दूरियां घटाने की बजाय अलंघ्य दीवारे पैदा कर दी हैं।


घर के अंदरमहल में भी अब चहारदीवारी है और संवाद निषेध है।


उत्पादन संबंधों के अभूतपूर्व संकट ही इसके लिए जिम्मेदार है।


जाति और पहचान पुराने पारंपारिक गांवों में रिश्तों को बिगाड़ने का काम उसतरह नहीं कर रही थीं जो आज राजनीति जाति और अस्मित में तब्दील हो जाने से हो रहा है।



सारे साझे चूल्हे तोड़ दिये गये हैं।



दंगों की आग जो शहरों को घेरे हुए थी,आज गांवों को लील रही है।कहां तो हम गांवों के जरिये शहरों को घेरने चले थे ,विडंबना यह है कि अब मुक्तबाजारी गांवो को शहरों ने घेर लिया है और गांव तेजी से खत्म हो रहे हैं।अभूतपूर्व हिंसा के समय पर ङम जमीन पर नहीं,आग पर चल रहे हैं और रस्मोरिवाज के मुताबिक आंच महसूस होती नहीं है।


साझा खेती,साझा श्रम की परंपरा खत्म है तो उत्पादन संबंधों में अनिवार्य विमर्श भी खत्म है।उत्पादन प्रणाली भी खत्म है।


हमने चौपाल में,रसोई घर में किसानों को बीज,बुवाई,निराई ,कटाई के फैसले करते देखे हैं।अब हम मनसेंटों की हमारी उपज का फैसला करते देखने को अभिशप्त हैं।


खेती के तमाम फैसले ,सिंचाई के बंदोबस्त कारपोरेट बंदोबस्त के तहत है और भारतीय कृषि व्यवस्था दम तोड़ चुकी है।


आज तमाम विशेषज्ञ और अर्थशास्त्री यह चरम सत्य भूल रहे हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था अनिवार्यतः कृषि व्यवस्था है।


कृषि खत्म तो अर्थव्यवस्था का कोई वजूद ही नहीं है।


सेवाक्षेत्र और अंधाधुध शहरीकरण,विनिवेश,विदेशी पूंजी,विनियंत्रण,विनियमन से अर्थव्यवस्था की उस स्थाई समस्या का समाधान नहीं होता जिससे बहुसंख्य अपढ़ अधपढ़ अदक्ष श्रमशक्ति को नैसर्गिक रोजगार का इंतजाम किया जा सकें।


आटोमेशन और रोबोटिक्स से रोजगार पैदा नहीं होते।न रोजगार नालेज इकनामी की उपज है और न आईटी और आउटसोर्सिंग से हर युवा हाथ को काम मिला है।


नैसर्गिक रोजगार,अदक्ष अशिक्षितों को रोजगार और स्थानीय रोजगार के बदले हम सांस्कृतिक से लेकर धार्मिक महाविनाश का पीपीपी माडल अपना रहे हैं और यह अधर्म धर्म के धर्मोन्मादी पनरूत्थान के नाम पर हो रहा है।विकास दर के नाम पर हो रहा है।


कैपिटल गुड्स,शेयर सूचकांक,उपभोक्ता बाजार,विदेशी पूंजी निवेश  और सेवा क्षेत्र के विस्तार के आकड़ों से जो विकास दर का प्रोजेक्शन है,वह हालीवूडी वैज्ञानिक संक्रमण से समाजवास्तव से दूर भारतीय फिल्मों के रैंप शो में बदल जाने की कथा है,जिसमें न जीवन कोई है और न कथा कोई।सिर्फ स्टार हैं ,कलाकार कोई नहीं।शवेत श्याम कुछ भी नहीं,सबकुछ रंगीन है।दृष्टि कोई नहीं है और न कोई जीवन दर्शन है,सिर्फ प्रोमो है।


हिंदी हिंदू हिदुस्तान के नारों के बीच जो विकासगाथा है,उसमें बोलियों और क्षेत्रीय भाषाओं का विलोप हो रहा है।


लोक के विज्ञापन की भाषा बदल जाने से हमें तकलीफ कोई होती नहीं है।


विदेशी अबाध पूंजी से हमारे पेट में दर्द होता नहीं है।


डालर और येन के लिए देशभर में बेदखली और सैन्यतंत्र सैन्य शासन के विस्तार से हमारी नींद हराम होती नहीं है।


विधाओं के समाजवास्तव से कटकर देह उत्सव और भोग में बदल जाने से भी हमारे अतंःस्थल से कुछ रिसता नहीं है।


देश बेचने के राजकाज के खिलाफ हमारी भाषा और अभिव्यक्ति बांझ है तो निंरतर मनुस्मृति राज के जरिये स्त्री आखेट और प्रकृति से जुड़े समुदायों और प्रकृति पर्यावरण के सर्वनाश के आपदा प्रबंधन से हम स्वदेशी जागरण करने चले हैं।


और न हमें उत्पादन प्रणाली की कोई परवाह है और न उत्पादन संबंधों की।


लेकिन बिन पंचशील बिना धम्म हम गौतम बुद्ध के बाजारु अवतारों की दृष्टि से क्रांति और परिवर्तन का दिवास्वप्न देख रहे हैं ।


दसों दिशाओं में घनघोर अंधेरी रात है और अंधेरी रात के चौराहे पर खड़े हम कातिलों का बेसब्र इंतजार कर रहे हैं।


नवारुण दा जैसे गुरिल्ला युद्ध के कवि हमारे बीच अब नहीं है,न कहीं कबीरा खड़ा है न रैदास,न निराला हैं न मुक्तिबोध या सुकांत,न हमारे पास कोई गिरदा है अब।


फिरभी गनीमत है कि कैंसर से जूझते वीरेनदा अब भी कविता लिख रहे हैं।



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