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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Thursday, August 3, 2017

अगर साहित्य और कला तमाम प्रश्नों से ऊपर है तो कृपया राजनीति पर मंतव्य मत किया कीजिये।वे भी तो परम आदरणीय हैं।संवैधानिक पदों पर हैं। विमर्श के लोकतंत्र पर निषेधाज्ञा सपनों,आकांक्षाओं और विचारों का कत्लेआम है दसरे तमाम युद्ध अपराधों की तरह।

अगर साहित्य और कला तमाम प्रश्नों से ऊपर है तो कृपया राजनीति पर मंतव्य मत किया कीजिये।वे भी तो परम आदरणीय हैं।संवैधानिक पदों पर हैं।

विमर्श के लोकतंत्र पर निषेधाज्ञा सपनों,आकांक्षाओं और विचारों का कत्लेआम है दसरे तमाम युद्ध अपराधों की तरह।

पलाश विश्वास

काशीनाथ सिंह जी के पनामा प्रकरण को लेकर हस्तक्षेप पर  जिस तरह मीडिया विजिल में लिंचिंग का आरोप लगाकर मंतव्य प्रकाशित हुआ है,उससे मैं हतप्रभ हूं।

हमने कभी नहीं कहा है कि यह पत्र काशीनाथ जी ने ही लिखा है या उन्होंने जो पत्र नहीं लिखा,उसे वे अपना मान लें।

हम साहित्य और संस्कृति की भूमिका पर लगातार हस्तक्षेप पर चर्चा कर रहे हैं,इसी सिलसिले में यह मंतव्य लिखा गया जिसका मतलब काशीनाथ सिंह का असम्मान करना कतई नहीं रहा है और न हमने बहस उस पत्र को लेकर किया है।

प्रधानमंत्री को पत्र नहीं लिखने की जानकारी देते हुए काशीनाथ जी ने माना है कि सोशल मीडिया पर यह पत्र जारी हुआ तो उन्होंने शेयर कर दिया,जिसे लोग उनका लिखा समझ बैठे।

गड़बड़ी यही हुई,अगर काशीनाथ जी का नाम इस फर्जी पत्र से जुुड़ा न होता तो इसे इतना महत्व कतई नहीं दिया जाता।

जितने लोगों ने इस पत्र  को वाइरल बना दिया है,उनमें साहित्यकार,पत्रकार,समाज सेवी और जीवन के विविध क्षेत्रों में सामाजिक यथार्थ को संबोधित करने वाले तमाम लोग हैं।इन लोगों ने पत्र के साथ काशीनाथ जी का नाम देखकर ही शेयर किया है।वे लोग काशीनाथजी का असम्मान नहीं कर रहे थे।बल्कि वे काशीनाथ जी का सम्मान करते हैं,इसलिए उन्होंने इस पत्र को असली समझकर शेयर किया है।उन सभीि को माब लिंचिंग का अभियुक्त बना देना अजब गजब मीडिया विजिल है।

सवाल है कि अगर काशीनाथ जी इस पत्र के विषय पर मंतव्य नहीं करना चाहते तो उन्होंने उस शेयर ही क्यों किया।इसी बिंदू पर अपने मोर्चा के पाठकों के सामने उनका पक्ष रखना जरुरी था,ऐसा मेरा मानना है।

छात्र जीवन से काशीनाथ जी का लिखा पढ़ते हुए हम सिर्फ पत्र न लिखने के बयान के बदले इस मुद्दे पर उनका पक्ष जानना चाहते हैं क्योंकि हम जिन लोगों ने यह पत्र साझा किया है वे इस मुद्दे पर सहमत रहे हैं।वे सहमत हैं या असहमत हैं,यह सवाल जरुरी है और इसका जवाब जानना जरुरी है।

हमने इसीको ध्यान में रखते हुए इस सिलसिले में साहित्य और कला की भूमिका पर सवाल उठाया है कि तमाम आदरणीय सत्ता से टकराने से हिचकिचाते हैं।

यह विमर्श है।संवाद का प्रयास है।

किसी लेखक,कवि,संस्कृतिकर्मी की आलोचना करना जो लोग लिंचिग बता रहे हैं,वे रोज रोज हो रहे लिंचिग और सत्ता की रंगभेदी नरसंहार संस्कृति पर टिप्पणी करने से क्यों करतराते हैं।

काशीनाथ जी के समूचे रचनासमग्र में आम जनता की बातें कही गयी है और उनकी रचनाधर्मिता अपना मोर्चा बनाने की रही है,यह पाठक की हैसियत से हमारा मानना है।

काशी के अस्सी पर लिखी उनकी कृति तो अद्भुत है,जिसमें शब्द दर शब्द आम लोगों के रोजमर्रे की जिंदगी का सामाजिक यथार्थ है,जो जनपदों के साहित्य की विरासत है और लोकसंस्कृति और काशी की जमीन,फिजां का अभूतपूर्व दस्तावेज है।

अगर अपनी रचनाओं में कोई लेखक इतना ज्यादा जनपक्षधर और क्रांतिकारी है तो बुनियादी सवालों और मुद्दों पर उसकी खामोशी साहित्य और कला का गंभीर संकट है। हम उस पत्र को केंद्रित कोई बहस नहीं कर रहे थे।

काशीनाथ जी मेरे आदरणीय हैं।जब हम वाराणसी में राजीवकुमार की फिल्म वसीयत की शूटिंग कर रहे थे तो हमारा काम देखने के लिए काशीनाथ सिंह और कवि ज्ञानेंद्र पति शूटिंग स्थल पर आये थे,जबकि हमें वे खास जानते भी नहीं थे।इसी तरह काशी का अस्सी का जब मंचन हुआ तो रंगकर्मी उषा गांगुली के रिहर्सल के दौरान हम उनके साथ उपस्थित थे। हमने उनका बेहद लंबा साक्षात्कार किया।

जाहिर है कि काशीनाथ जी को बदनाम करने की हमारी कोई मंशा नहीं रही है।

अगर हम किसी संस्कृतिकर्मी के कृतित्व और व्यक्तित्व में अंतर्विरोध पाते हैं और उसकी पाठकीय आलोचना करते हैं,तो यह साहित्य और कला का विमर्श का बुनियादी सवाल बन जाता है।

यह अद्भुत है कि हम नामदेव धसाल और शैलेश मटियानी जी के कृतित्व और अवदान के बाद राजनीतिक कारणों से एक झटके सा साहित्य और संस्कृति के परिदृश्य से उन्हें सिरे से खारिज कर देते हैं,लेकिन बाकी खास लोगों की राजनीति पर सवाल उठने पर सारे लोग खामोश बैठ जाते हैं।

या तीखी प्रतिक्रिया के साथ उनके बचाव में सक्रिय हो जाते हैं।यानी सबकुछ आर्किमिडीज के सिद्धांत के मुताबिक धार भार के सापेक्ष है।

प्रेमचंद,माणिक बंद्योपाध्याय,महाश्वेता देवी,नवारुण भट्टाचार्य,सोमनाथ होड़,चित्त प्रसाद,ऋत्विक घटक  जैसे दर्जनों लोग भारतीय सांस्कृतिक परिदृश्य में उदाहरण है कि जो उन्होंने रचा है,वही उन्होंने जिया भी है।

शहर में कर्फ्यू जैसा उपन्यास लिखकर ही नहीं,मेरठ के हाशिमपुरा नरसंहार के मामले गाजियाबाद के एसपी की हैसियत से विभूति नारायण राय ने जो अभूतपूर्व भूमिका निभाई और यहां तक कि महात्मा गंधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में समूची हिंदी विरासत को समेटने की जो उन्होंने कोशिश की,वह सबकुछ उनकी एक टिप्पणी की वजह से खारिज हो गया।

इसी  तरह अपनी रचनाओं में पितृसत्ता का विरोध आक्रामक ढंगे से करने वाले नई कहानी और समांतर कहानी आंदोलन के मसीहा का कृतित्व जब उनके व्यक्तित्व के विरोध में खड़ा हो जाता है,तब सारे लोग सन्नाटा तान लेते हैं।

देश भर अपनी हैसियत का लाभ उठाकर साहित्य और संस्कृति का माफियानुमा नेटवर्क बनाने वालों की बुनियादी मुद्दों और सवालों पर राजनीतिक चुप्पी हमारे विमर्श का सवाल नहीं बनता।

हर खेमे में हाजिरी लगाने वाला तमाम अंतर्विरोध के बावजूद महान साहित्यकार मान लिया जाता है।हर खेमे को सब्जी में आलू बेहद पसंद है।जायका बदल गया तो फिर मुसीबत है।

इस दोहरे मानदंड के कारण साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में सामाजिक यथार्थ सिरे से गायब होता जा रहा है।

हम कल से अपना पक्ष रख रहे हैं।इसके समर्थन या विरोध में कोई प्रतिक्रिया लेकिन नहीं है।

फर्जी पत्र शेयर करने वालों और रचनाधर्मिता पर सवाल उठाने वाले मुझपर,हस्तक्षेप पर माब लिंचिंग का आरोप लगा है।लेकिन कल तक जो लोग धड़ल्ले से यह पत्र शेयर कर रहे थे,उनका भी कोई पक्ष नहीं है।वे लोग इस आरोप पर अपना पक्ष नहीरख पा रहे हैं,यह भी हैरत की बात है।

बंगाल में रवींद्र पर निषेधाज्ञा के संघ परिवार के एजंडे के खिलाफ जबर्दस्त आंदोलन शुरु हो गया है लेकिन यह प्रतिरोध रवींद्र के बचाव में बंकिम के महिमामंडन से हो रहा है,जिनका आनंद मठ हिंदुत्व का बुनियादी पाठ है।

इसी वजह से भारतीय साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में आम जनता के अपने मोर्चे के पक्ष में सन्नाटा है।मेरे हिसाब से यह साहित्य और कला का अभूतपूर्व संकट है।

हम सिलसिलेवार साबित कर सकते हैं कि कुल गोरखधंधा क्या है,लेकिन तमाम पवित्र प्रतिमाएं पवित्र गाय जैसी हैं,जिनके खंडित हो जाने पर गोरक्षक बजरंगीदल इस विमर्श की इजाजत नहीं देंगे।

हमने काशीनाथ सिंह जी की नाराजगी का जोखिम उठाकर यह बुनियादी सवाल जरुर उठाने की कोशिश की है कि तमाम आदरणीय सत्ता के खिलाफ खड़ा होने से क्यों हिचकिचाते हैं।

हम हमेशा अपनी बात डंके की चोट पर कहते रहे हैं और मौके केमुताबिक बात बदली नहीं है।यह हमारी बुरी बात है कि हम अपना फायदा नुकसान नहीं देखते हैं और न महाभारत रामायण अशुद्ध होने से डरते हैं।

विशुद्धता के सत्ता वर्चस्व के खिलाफ हमारा मोर्चा हमारे अंत तक बना रहेगा।

जाहिर है कि हम इस सवाल को वापस नहीं ले रहे हैं।चाहे तमाम लोग नाराज हो जाये या सत्ता की लिंचिंग पर खामोश रहकर मुझे लिंचिंग का अभियुक्त बना दें।

भारतीय साहित्य और संस्कृति में लाबिइंग करके अपना वर्चस्व स्थापित करना और बहाल रखने की रघुकुल पंरपरा बेहद मजबूत है,जिसे तोड़े बिना हम आम जनता के साथ खड़े नहीं हो सकते।अपना मोर्चा बना नहीं सकते।

साहित्य और संस्कृति में कामयाबी के बहुतेरे कारण होते हैं और जीवन की तरह यह कामयाबी कुछ लोगों के लिए केक वाक जैसी होती है।

लेकिन सत्ता के खिलाफ खड़ा होने के लिए किसी वाल्तेयर जैसा कलेजी होना जरुरी होता है।हम हवा हवाई नहीं है और साहित्य संस्कृति के सवालों को कीचड़ पानी में धंसकर आम लोगो के नजरिये से देखते हैं।हम किसी गढ़ या किले में कैद नहीं हैं।

इस बदतमीजी के लिए माफ कीजियेगा।

अगर साहित्य और कला तमाम प्रश्नों से ऊपर है तो कृपया राजनीति पर मंतव्य मत किया कीजिये।वे भी तो परम आदरणीय हैं।संवैधानिक पदों पर हैं।

विमर्श के लोकतंत्र पर निषेधाज्ञा सपनों,आकांक्षाओं और विचारों का कत्लेआम है दसरे तमाम युद्ध अपराधों की तरह।

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