ऐसा कौन माई का लाल है जो राष्ट्रपति पर संविधान के उल्लंघन का आरोप लगायें और उनपर महाभियोग की मांग करें?
अगर ऐसा है तो हम रक्षा घोटाले पर चर्चा ही क्यों करते हैं? क्यों संसद के बजट सत्र में इसे लेकर घमासान की तैयारी है? जनता को बुरबक बनाने की यह नौटंकी तो कृपया बंद करें, प्लीज!
पलाश विश्वास
जब सरसों के भीतर ही भूत का वास हो तो जादू टोना से क्या होना है? भारत के राष्ट्रपति के खिलाफ ऐसा गंभीर आरोप आज तक नहीं लगा।आज तक ऐसा कभी नही हुआ कि अपने सबसे बड़े संकटमोचक का नाम सरकारी फैक्टशीट में डालकर रक्षा घोटाले में फर्स्ट फेमिली के घूस खाने के आरोप को रफा दफा करने के लिए राष्ट्रपति पद की संवैधानिक इम्युनिटी को सत्तापक्ष ने अपना रक्षा कवच बना लिया और विपक्ष ने सरकार की इस कार्रवाई को चुनौती तक नहीं दी।ऐसा कभी नहीं हुआ कि राष्ट्रपति भवन कारपोरेट मुख्यालय में तब्दील हो गया हो। आज तक ऐसा भी कभी नहीं हुआ कि जब रक्षा घोटाले में राष्ट्रपति का नाम सरकारी तौर पर सामने आने पर सरकार की ओर से रक्षा मंत्री ने राष्ट्रपति पद की गरिमा का हवला देते हुए गणराज्य की प्रासंगिकता के बहाने इस पर बहस न करने की गुजारिश की हो और आज तक यह भी नहीं हुआ कि जब राष्ट्रपति का नाम सरकार ने ही रक्षा घटाले में डाल दिया हो तो किसी विदेशी शासनाध्यक्ष से प्रधानमंत्री ने जांच में मदद की गुहार लगायी हो। इस हादसे पर हर भारतीय को शर्म से सिर नीचा कर लेना चाहिए।इटली ने तो ठेंगा दिखा ही दिया तो जिस सीबीआई के कामकाज पर सवालों की बौछार करते नहीं थकता विपक्ष, उससे कैसी जांच की उम्मीद कर रहे हैं? फिर जो भारत में खुद हथियारों का बाजार खोलने आ रहे हों या बाजार के नियमों के मुतबिक कमीशन और कट मनी के जरिये अरबों रुपये के सौदे करते हों, उनसे कैसी मदद मिल सकती है?फिर पक्ष विपक्ष मिलकर धर्म राष्ट्रवाद के आवाहन के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा और आंतरिक सुरक्षा के नाम ऐसे सौदों का औचित्य साबित करने की प्रतियोगिता के बारे में क्या कहिये?
आज दिनभर देश के कई कोनों में सक्रिय राजनीति और मीडिया के काबिल मित्रों से इस सिलसेले में बात हुई कि जब खुले तौर पर राष्ट्रपति संविधान की का उल्लंघन करते हुए लगातार जनादेश की अवहेलना करते हुए, संसदीय लोकतंत्र की मानना करते हुए असंवैधानिक रुप से कारपोरेट हित में नीति निर्धारण करने के मुख्य आरोपी हैं, जब वे देश के सुप्रीम कमांडर हैं और खुद रक्षा घोटाले में संदिग्ध हैं, तो पद की पवित्रता का हवाला देते हुए इस मामले को रफा दफा होने की इजाजत क्यों दे देनी चाहिए?जब सुप्रीम कमांडर पर ही रक्षा घोटाले में शामिल होने का आरोप खुद सरकार लगा रही है और उनका बचाव भी कर रही है, तब देश की एकता और अखंडता का क्या होगा?
हमारे काबिल मित्रों ने कहा कि प्रणव मुखर्जी के पीछे सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों मजबूती से खड़े हैं, उन्हें राष्ट्रपति बनाते वक्त हुई कापरपोरेट लाबिइंग और रिलायंस समेत औद्योगिक घरानों से उनके रिश्तों का हवाला देते हुए उन्होंने उल्टे सवाल किया कि ऐसा कौन माई का लाल है जो राष्ट्रपति पर संविधान के उल्लंघन का आरोप लगायें और उनपर महाभियोग की मांग करें?
अगर ऐसा है तो हम रक्षा घोटाले पर चर्चा ही क्यों करते हैं?
क्यों संसद के बजट सत्र में इसे लेकर घमासान की तैयारी है?
जनता को बुरबक बनाने की यह नौटंकी तो कृपया बंद करें, प्लीज!
आज तक हुए घोटालों में बताइये किसे सजा हुई है?
आजादी के बाद से लगातार आर्थिक नीतियों की निरंतराता की तरह घोटालों की निरंतरता बनी हुई है।
इन्हीं घोटालों से होने वाली अरबों रुपयों की आय ही हिसाब से बाहर है।जिसे कालाधन कहा जाता है और जो विदेशी बैंकखातों में सुरक्षित है।इसी वजह से हर साल रक्षा बजट में वद्धि के बावजूद हमेशा रक्षा तैयारियों में खामियों का रोना रोया जाता है।
जब पूंजी के अबाध प्रवाह के बहाने, प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूटखसोट के बहाने, जल जंगल जमीन और नागरिकता से बेदखली का अभियान इसी काले धन की अर्थ व्यवस्था को सर्वदलीय सहमति से जारी रखना है तो चुनावों में काले धन का वर्चस्व रोकने के लिए जैसे प्रणव बाबू ने कारपोरेट चंदा को वैध बना दिया और अब राजनीति के अलावा अराजनीति भी उस गंगा में पुम्यस्नान को बेताब है, उसीतरह जैसे कि मुक्त बाजार के तहत विकसित देशों में रिवाज है, ऐसे सौदों में कमीशनखोरी को वैध बना दिया जाये!
कानून संविधान, जनादेश और संसद को बाईपास करके कारपोरेट हितों के मुताबिक बनाने की सर्वदलीय परंपरा हो गयी तो और कानून बनाकर क्यों न घोटालों में लेन देन को वैध कर दिया जाये!
प्रणव मुखर्जी के विरुद्ध महाभियोग का मामला नहीं आने वाला क्योकि पक्ष विपक्ष की राजनीति जिस धर्म राष्ट्रवाद के तहत चलती है , उसके वे मुख्य धर्माधिकारी है। भारत के प्रथम नागरिक बाहैसियत धर्मनिरपेक्षता की धज्जियां उड़ाते हुए वे सार्वजनिक जीवन में चंडीपाठ से ही दिनचर्या शुरु नहीं करतेबल्कि असुरों के निधन के लिए महिषमर्दिनी दुर्गा के आवाहन के लिए पुरोहिती करते हैं। राष्ट्रपति भवन को चंडीमंडप बना दने वाले ऐसे राष्ट्रपति के खिलाफ संघ परिवार क्यों बोलेगा?
अब जब सौदे को फाइनल करने वाले के खिलाफ कोई जांच ही नहीं हो सकती तो फर्स्ट फेमिली की घेराबंदी राजनीतिक कवायद के सिवाय क्या है?
बायोमेट्रिक डिजीटल नागरिकता के मुख्य आर्किटेक्ट के कारपोरेट विश्वपुत्र चरित्र को जानते हुए भी जब अग्निकन्या ममता बनर्जी और वामपंथी राष्ट्रपति चुनाव में एक साथ प्रणव बाबू के पक्ष में वोट डाले हों तो उनकी क्रांति का अंजाम राष्ट्रपति का विरोध तो नहीं हो सकता।
पर वर्चस्ववाद के सिलसिले में यह आशीष नंदी के जयपुर वक्तव्य से बड़ा मामला है। नंदी की वाक् स्वतंत्रता के लिए जमीन आसमान एक करने वाले उनके बयान पर बहस को टालने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं क्योंकि सत्तावर्ग की ओर से पहलीबार उन्होंने ही यह खुलासा किया कि बंगाल में पिछले सौ साल में पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों को सत्ता में हिस्सा नहीं मिला , इसलिए बंगाल में भ्रष्टाचार बाकी देश की तुलना में नगण्य मात्र है। हम लोग सच्चर आयोग की तरह न्यायिक आयोग बनाकर इसकी पड़ताल करने की मांग कर रहे हैं कि बंगाल में किसका कितना विकास हुआ,इसकी भी मुसलमानों की हालत की तरह जांच करा ली जाये। बंगाल के तीस संगठनों ने नंदी के बयान पर धिक्कार सभा की, कहीं एक पंक्ति खबर नहीं छपी। जबकि अखबारों में कभी कहा जा रहा है कि सत्ता में हिस्सेदारी की जाति पहचान राजनीति से बंगाल मुक्त है और इसीलिए यहां पिछड़े, आदिवासी और दलित जमातों का सबसे ज्यादा आर्थिक विकास हुआ। फिर कहा गया कि वे नंदी जाति से तेली शंखधर हैं , जो दलित भी हो सकते हैं और पिछड़े भी। कल बांग्ला के सबसे बड़े अखबार में यह दलील दी गयी कि अमेरिका में अश्वेत इलाकों में सबसे ज्याद अपराध हैं, ऐसे सर्वे जब छप सकते हैं तो नंदी ने क्या गलत कह दिया कि दलित, पिछड़े और आदिवासी सबसे ज्यादा भ्रष्ट है?
मजे की बात है कि बांग्लादेश के अखबारों तक ने प्रमुखता से छाप दिया कि वीवीआईपी हेलीकाप्टर घोटाले में भारत के राष्ट्रपति का नाम है, पर बंगाल में यह सच न प्रकाशित हुआ और न प्रसारित हुआ।
जाति पहचान की राजनीति करनेवाले लोग नंदी की गिरफ्तारी की मांग करते अघाते नहीं है।पर उनमें से कोई तो हो जो पूछें कि भारत के राष्ट्रपति क्या हैं? दलित? पिछड़े? या ओबीसी?
तो सर्वोच्च पद पर जो व्यक्ति हैं , उन पर भ्राष्टाचार के आरोपों की पहले जांच कराओ, फिर आरक्षण के खिलाफ बोलो!
संघ परिवार अगर धर्म राष्ट्रवाद और कारपोरेट हित में खामोश हैं, अगर सत्ता पक्ष राष्ट्रपति की इम्म्युनिटी को अपना रक्ष कवच बनाया हुआ है, तो पहचान की राजनीति करनेवालों के पास तो संसद के किसी सदन की एक चौथाई से ज्यादा सांसद हैं, आरक्षित ओबीसी,आदिवासी और दलित सांसदों की संख्या तो एक चौथाई से कहीं ज्यादा हैं,तो?
नंदी अकेले हैं तो उनको घेरने में बहादुरी है, पर पक्ष विपक्ष के विरुद्ध, कारपोरेट हितों के विरुद्ध राष्ट्रपति के खिलाफ महाभियोग लाने की बात जुबान पर लाने से कहीं सीबीआई न दौड़ा दी जाये,यही अगर मानसिकता है तो आशीष नंदी के कहे पर बोलना तो बंद करें!
बी.पी. गौतम ने एकदम सही लिखा है कि संविधान के विपरीत है वीआईपी और वीवीआईपी श्रेणी!हम गौतम जी के उठाये मुद्दे पर बहस चाहते हैं कि जब संविधान के तहत कोई विशिष्ट या अतिविशिष्ट श्रणी नहीं है तो उनकी सहूलियत के लिए कायदे कानून को ताक पर रखते हुए इस असैनिक सौदे को भारतीय सेना से क्यों जोड़ दिया गया क्या यह संविधानका उल्लंघन नहीं है?
उन्होंने लिखा है कि विशिष्ट और अति विशिष्ट लोगों की सुरक्षा में लगे जवानों और उन पर किये जा रहे खर्च का मुद्दा उच्चतम न्यायलय तक पहुँच गया है। विशिष्ट और अति विशिष्ट लोगों को सुरक्षा देनी चाहिए या नहीं, इस पर बहस भी छिड़ गई है। कोई कह रहा है कि सुरक्षा देनी चाहिए, तो किसी का मत है कि नहीं देनी चाहिए। कुछ लोग सुरक्षा देने में अपनाए जाने वाले नियमों को और कड़ा करने के पक्ष में हैं, तो कुछ लोगों का मत है कि सुरक्षा पर होने वाला खर्च उसी व्यक्ति से वसूल किया जाना चाहिए, जिसकी सुरक्षा पर धन खर्च हो रहा है, जबकि सबसे पहला सवाल यही है कि सुरक्षा देनी ही क्यूं चाहिए?
लोकतंत्र में सभी की जान की कीमत बराबर है, तो सभी की सुरक्षा की चिंता बराबर ही होनी चाहिए। सुरक्षा देने में नियमों को और कड़ा करने का अर्थ यही है कि विशिष्ट और अति विशिष्ट लोगों को सुरक्षा देने का प्रावधान तो रहेगा ही और सुरक्षा देने का नियम रहेगा, तो सुरक्षा चाहने वाले प्रभावशाली लोग नियमों की पूर्ति करा ही लेंगे। रही धन वसूलने की बात, तो देश में तमाम ऐसे लोग हैं, जो पूरी एक बटालियन का खर्च आसानी से भुगत लेंगे, इसलिए धन वसूलने के नियम के भी कोई मायने नहीं है।
इस मुद्दे को व्यक्तिगत सुरक्षा में लगाए जाने वाले जवानों और आम आदमी की दृष्टि से भी देखना चाहिए। देश और समाज की सेवा में जान देने को तत्पर रहने वाले कुछ जवानों की जिन्दगी निजी सुरक्षा के नाम पर कुछ ख़ास लोगों की चाकरी में ही गुजर जाती है। लेह, लद्दाख और कारगिल जैसे कठिन स्थानों पर तैनात जवान सेवानिवृति के बाद भी अपनी तस्वीर देखते होंगे, तो सीना गर्व से चौड़ा ही होता होगा, लेकिन विशिष्ट और अति विशिष्ट लोगों की सुरक्षा में जिन्दगी गुजार देने वाले जवानों को यही दुःख रहता होगा कि पूरी जिन्दगी एक शख्स की चाकरी में ही गुजार दी। ऐसे जवानों की संतानें भी गर्व से नहीं कह पाएंगी कि उनके पिता कमांडों हैं, इसलिए देश और समाज की सेवा के लिए नियुक्त किये गये जवानों को निजी सुरक्षा में लगाना ही गलत है, इसी तरह गली-मोहल्ले के बाहुबलियों, धनबलियों और डकैतों से लेकर बदले की राजनीति करने वाले नेताओं के दबाव व भय के चलते गाँव से पलायन कर जाने वाला आम आदमी विशिष्ट और अति विशिष्ट लोगों के पीछे दौड़ते एनएसजी कमांडों को देखता होगा, तो सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उसके अन्दर कैसे विचार आ रहे होते होंगे?
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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST
We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas.
http://youtu.be/7IzWUpRECJM
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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA
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Wednesday, February 20, 2013
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