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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Saturday, March 9, 2013

बांग्लादेश में साम्प्रदायिकता का पुनरूत्थान

बांग्लादेश में साम्प्रदायिकता का पुनरूत्थान


राम पुनियानी

हमारा पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश, इस्लामवादी जमायते इस्लामी द्वारा की जा रही हिंसा से हलकान है। इस हिंसा में अब तक 50 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। कई घायल हुये हैं और हिन्दू पूजास्थलों को नुकसान पहुँचाया गया है। हिंसा बांग्लादेश की सीमा को पार कर कोलकाता तक आ पहुँची है। पिछले और इस माह, मुस्लिम साम्प्रदायिक तत्वों और मायनॉरिटी यूथ ऑर्गनाईजेशन जैसे कई संगठनों के सदस्यों की भीड़ ने कोलकाता में जम कर उत्पात मचाया। यह हिंसा जमायते इस्लामी के उपाध्यक्ष दिलावर हुसैन सैय्यदी को मौत की सजा सुनाये जाने के विरोध स्वरूप हो रही है। उन्हें तत्कालीन पूर्वी व पश्चिमी पाकिस्तान के बीच, नौ माह तक चले युद्ध में सामूहिक हत्याओं, बलात्कारों व अन्य अत्याचारों के लिये दोषी ठहराया गया है।

वे जमायते इस्लामी के तीसरे ऐसे पदाधिकारी हैं जिन्हें तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तान की सेना के जुल्मों के खिलाफ सन् 1971 में लड़े गये "मुक्ति युद्ध" के दौरान अपराध करने का दोषी पाया गया है। शेख हसीना सरकार ने सन् 1971 के युद्ध अपराधों के दोषियों को सजा देने के लिये लगभग तीन वर्ष पहले "युद्ध अपराध अधिकरण" का गठन किया था और इस अधिकरण ने अब अपने निर्णय सुनाने शुरू किये हैं। बांग्लादेश में इन दिनों प्रजातन्त्र में विश्वास करने वाले युवा बड़ी संख्या में, उन लोगों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की मांग कर रहे हैं जिनकी पाकिस्तान की सेना के साथ मिलीभगत थी। दूसरी ओर, जमात के कार्यकर्ता भी सड़कों पर उतर आये हैं और सन् 1971 के युद्ध अपराधियों को सजा दिए जाने का विरोध कर रहे हैं। भारत में भी जमायते इस्लामी ने शाहबाग आंदोलन का विरोध किया था और वह भी सन् 1971 के युद्ध अपराधियों को सजा दिए जाने के खिलाफ है। जमायते इस्लामी ने सन् 1971 में बांग्लादेश की मुक्ति वाहिनी, जिसका नेतृत्व शेख मुजीब-उर-रहमान कर रहे थे, का विरोध किया था। मुक्ति वाहिनी द्वारा शुरू किये गये स्वाधीनता संघर्ष को बांग्लादेश के अधिकाँश निवासियों का समर्थन प्राप्त था। उस समय पाकिस्तानी सेना द्वारा किये गये हमलों में लगभग 30 लाख लोग मारे गये थे और बांग्लादेश की दो लाख से अधिक महिलाओं के साथ बलात्कार हुये थे। बड़ी संख्या में पूर्वी पाकिस्तान के बुद्धिजीवियों और राजनैतिक कार्यकर्ताओं को मौत के घाट उतार दिया गया था।

भारत के विभाजन की कथा बहुत त्रासद है और आज 66 साल बाद भी, इसके घाव भरे नहीं हैं। भारत का विभाजन एक अजीब से तर्क के आधार पर किया गया था। इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान बना दिया गया जबकि भारत को धर्मनिरपेक्ष प्रजातन्त्र घोषित किया गया। इस विभाजन का घोषित उद्धेश्य था साम्प्रदायिकता की समस्या को सुलझाना। अंग्रेजों ने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में धर्म की राजनीति और धर्म के नाम पर हिंसा की जो विरासत छोड़ी हैवह अब भी उपमहाद्वीप के तीनों राष्ट्रों के लिये सिरदर्द बनी हुयी है। 'फूट डालो और राज करो' की ब्रिटिश नीति के दो प्रमुख हिस्से थे। पहला, बढ़ते औद्योगिकरण के बाद भी सामन्ती तत्वों का दबदबा बरकरार रखना और दूसरा, 1906 में मुस्लिम लीग के गठन के बाद से ही लीग को भारतीय मुसलमानों के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में मान्यता देना। मुस्लिम लीग का गठन मुसलमानों के तत्समय अस्त हो रहे वर्ग ने किया था। इनमें शामिल थे नवाब और जमींदार। बाद में मुस्लिम शिक्षित वर्ग और श्रेष्ठि वर्ग ने भी इसकी सदस्यता ग्रहण करनी शुरू कर दी। मुस्लिम लीग किसी भी तरह से भारतीय मुसलमानों की प्रतिनिधि नहीं थी। उसी तरह,मुस्लिम लीग के समानान्तर गठित हिन्दू महासभा भी हिन्दू राजाओं और जमींदारों का संगठन थी जिसमें बाद में शिक्षित वर्ग का एक हिस्सा और उच्च जातियों के कुछ लोग शामिल हो गये। इन दोनो ही संगठनों ने एजेन्डे में स्वतन्त्रता, समानता और बंधुत्व के मूल्यों के लिये कोई स्थान नहीं था। ये मूल्य भारत के स्वाधीनता संग्राम के आधार थे।

इन दोनों (हिन्दू व मुस्लिम) साम्प्रदायिक धाराओं के बीच गहरे आपसी सम्बंध थे। विभाजन के ठीक पहले तक, सिंध और बंगाल में हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग की गठबंधन सरकारें थीं। ये दोनों ही संगठन आजादी के आन्दोलन से दूर रहे और दोनों ही सामाजिक एवं लैंगिक ऊँचनीच के हामी थे। यद्यपि ये दोनों संगठन समाज सुधार को औपचरिक समर्थन देते थे तथापि असल में उनकी इच्छा यही थी कि सामाजिक रिश्तों में यथास्थिति बनी रहे।

विभाजन के बाद, पूरे पाकिस्तान पर पश्चिमी पाकिस्तान का वर्चस्व स्थापित हो गया। सेना, नौकरशाही, अर्थजगत और राजनीति में सभी महत्वपूर्ण पदों पर पश्चिमी पाकिस्तान के लोग काबिज हो गये। सन् 1970 में शेख मुजीब-उर-रहमान की अध्यक्षता वाली अवामी लीग ने चुनाव में शानदार सफलता हासिल की परन्तु जुल्फिकार अली भुट्टो, जिन्हें सेना का समर्थन प्राप्त था, ने अवामी लीग की सरकार नहीं बनने दी। यहां हम राजनीति और धर्म के बीच का टकराव स्पष्ट देख सकते हैं। जहाँ इस्लाम यह कहता है कि सभी मनुष्य भाई-भाई हैं वहीं इस्लाम के नाम पर की जा रही राजनीतिअन्य धर्मावलम्बियों के साथ तो भेदभाव करती ही है, वह मुसलमानों में भी भेदभाव करती है। पूर्वी पाकिस्तान के मुसलमानों पर पश्चिमी पाकिस्तान के मुसलमान हावी थे और उनका क्रूर दमन कर रहे थे।

अवामी लीग को सरकार नहीं बनाने दी गयी। पाकिस्तान में विरोध व्यक्त करने के प्रजातान्त्रिक चैनलों का अभाव था। नतीजतन, पूर्वी पाकिस्तान में अलगाव का भाव पनपने लगा और मुजीब-उर- रहमान ने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने की घोषणा की। पूर्वी पाकिस्तान की जनता उठ खड़ी हुयी और चारों ओर से विद्रोह के स्वर सुनाई देने लगे। इसके बाद पाकिस्तान की सेना अपने ही नागरिकों पर टूट पड़ी। पूर्वी पाकिस्तान में सेना ने कहर बरपाना शुरू कर दिया। बड़ी संख्या में हत्यायें और बलात्कार हुये। हिन्दू इस अत्याचार के मुख्य शिकार थे परन्तु मुसलमानों को भी बख्शा नहीं गया। पूर्वी पाकिस्तान के नागरिकों के साथ शत्रुओं से भी बदतर व्यवहार किया गया। सामूहिक बलात्कारों और हत्याओं का सिलसिला तब तक जारी रहा जब तक कि मुक्तिवाहिनी ने भारतीय सेना की मदद से पूर्वी पाकिस्तान को स्वतन्त्र देश घोषित नहीं कर दिया। इस प्रकार बांग्लादेश गणराज्य अस्तित्व में आया।

बांग्लादेश के गठन से इस सिद्धान्त के परखच्चे उड़ गये कि राष्ट्र, धर्म पर आधारित होते हैं और हर धर्म एक अलग राष्ट्र होता है। बांग्लादेश के निर्माण ने द्विराष्ट्र सिद्धान्त को हमेशा-हमेशा के लिये दफन कर दिया। परन्तु हिन्दू और मुसलमान अलग-अलग राष्ट्र हैं, इस सिद्धान्त के निर्णायक खण्डन ने भी भारतीय उपमहाद्वीप से साम्प्रदायिक तत्वों का सफाया नहीं किया। वे समय-समय पर अपना सिर उठाते रहे। बाबरी मस्जिद के ढहाये जाने के बाद बांग्लादेश के मुस्लिम साम्प्रदायिक तत्वों ने भारत पर चढ़ाई करने की घोषणा की थी।

राम पुनियानी

राम पुनियानी (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों की हालत अत्यन्त दयनीय है। कई मुस्लिम और हिन्दू शरणार्थी बांग्लादेश छोड़कर भारत आ गये हैं। इनके कारण हिन्दू साम्प्रदायिक तत्वों को बांग्लादेशी घुसपैठिये का हौव्वा खड़ा करने का मौका मिल गया है। भारतीय उपमहाद्वीप के तीनों देशों की राजनीति का काफी हद तक साम्प्रदायिकीकरण हो चुका है।

भारत में साम्प्रदायिक राजनीति के बीज जमींदारों के अस्त होते हुये वर्ग ने बोये थे और उन्हें संरक्षण दिया था अंग्र्रेज साम्राज्यवादियों ने। दरअसल, यही साम्प्रदायिक तत्व अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति की सफलता और भारत के विभाजन के लिये जिम्मेदार थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय उपमहाद्वीप के तीनों देशों में साम्प्रदायिकता के जहर की तीव्रता अलग-अलग है। पाकिस्तान को औपनिवेशिक-साम्राज्यवादी ताकतों के हाथों सबसे ज्यादा नुकसान भुगतना पड़ा और वहाँ हिन्दुओं और ईसाईयों की हालत सबसे खराब है। पाकिस्तान में सेना, साम्प्रदायिक ताकतों की साथी है और वह आमजनों की प्रजातान्त्रिक महत्वाकाँक्षाओं को कुचलने में सबसे आगे है। बांग्लादेश में प्रजातान्त्रिक प्रक्रिया से निर्वाचित सरकारों को साम्प्रदायिक तत्वों का जबरदस्त दबाव झेलना पड़ रहा है। भारत में हिन्दू साम्प्रदायिक तत्वों ने राम मन्दिर जैसे पहचान से जुड़े मुद्दों को केन्द्र में लाकर देश को कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। हमारे औपनिवेशिक शासकों की नीतियों के कारण जिन समस्याओं का सामना हमें करना पड़ रहा है उन्हें ये ताकतें साम्प्रदायिक रंग दे रही हैं। बांग्लादेश को घुसपैठियों का स्रोत बताया जा रहा है जबकि सच यह है कि सन् 1971 में जो गरीब हिन्दू और मुसलमान वहाँ से भागे थे, वे पाकिस्तान की सेना के क्रूर अत्याचारों से बचने के लिये अपना घर-बार छोड़ने पर मजबूर हुये थे। कश्मीर की समस्या भी अंग्रेज शासकों की भारतीय उपमहाद्वीप को भेंट है। इस समस्या को भी दोनों देशों के साम्प्रदायिक तत्व, हिन्दू और मुस्लिम चश्मे से देख रहे हैं।

इस तरह, भारतीय उपमहाद्वीप के तीनों देश साम्प्रदायिकता के दैत्य का मुकाबला कर रहे हैं। दोनों धर्मों के साम्प्रदायिक तत्वों की एक बड़ी सफलता यह है कि उन्होंने धर्म और राजनीति के बीच की विभाजक रेखा को मिटा दिया है। इन साम्प्रदायिक ताकतों की आलोचना को सम्बंधित धर्म की आलोचना का पर्यायवाची मान लिया गया है। तीनों देशों के प्रजातन्त्र में विश्वास रखने वाले वर्ग को एक-दूसरे से हाथ मिलाकर साम्प्रदायिकता के दैत्य और धर्म की राजनीति का खात्मा करना चाहिये। परन्तु क्या साम्प्रदायिक ताकतें, जो भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश तीनों में ही काफी शक्तिशाली हैं, ऐसा होने देंगी? साम्प्रदायिक ताकतें जुनून का ज्वार पैदा करने की कला में सिद्धहस्त होती हैं। वे धर्मनिरपेक्ष, प्रजातान्त्रिक शक्तियों को अपने-अपने धर्म के लिये खतरा बताकर जोर-जोर से छातियाँ पीटना जानती हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में प्रजातन्त्र को बचाना और उसे मजबूती देना एक अत्यन्त दुष्कर कार्य है। क्या भारतीय उपमहाद्वीप के वे निवासी जो प्रजातन्त्र में विश्वास रखते हैं इस एजेन्डे पर एक हो सकेंगे?

(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

 (लेखक आईआईटी मुम्बई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

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