Total Pageviews

THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Thursday, March 14, 2013

समानता का सपना

समानता का सपना

Thursday, 14 March 2013 10:58

रुचिरा गुप्ता 
जनसत्ता 14 मार्च, 2013: कोई भी बदलाव डरावना होता है। खासकर वैसा बदलाव, जो राजनीति और यौन भूमिका दोनों को प्रभावित करता है। सोलह दिसंबर को दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार कांड के व्यापक विरोध ने देश में एक चिनगारी सुलगा दी है। पुरुषों की हर तरह की हिंसा को खत्म करने के लिए स्त्रियों के आंदोलन की मांग लगातार होती रही है। विरोध-दर-विरोध में युवतियों का साथ युवक भी दे रहे हैं और महिलाओं के लिए बराबरी और पुरुषों की हिंसा को खत्म करने की मांग की जा रही है।    
यौन हिंसा विरोधी कानूनों की समीक्षा के लिए न्यायमूर्ति जेएस वर्मा की अध्यक्षता में गठित किए गए आयोग को अस्सी हजार ज्ञापन, सुझाव, मांगपत्र आदि दिए गए थे और देश भर में शायद इतनी ही रैलियां और जुलूस निकल चुके हैं, जिनके जरिए आयोग की सिफारिशों को पूरी तरह लागू करने की मांग की गई है। नए अगुआ सामने आए हैं और स्त्री-पुरुष बराबरी की मांग के लिए भारी दबाव पड़ रहा है।   
राजनीतिक और नीति निर्माता सड़कों पर उतरे लोगों का मिजाज भांप कर जल्दबाजी में घोषित की गई योजनाओं और अध्यादेश के रूप में कार्रवाई कर रहे हैं और इनमें महिला बैंक से लेकर गरीब लड़कियों को विशेष शिक्षा के लिए प्रोत्साहन, राष्ट्रपति का अस्थायी अध्यादेश शामिल हैं, पर वर्मा आयोग की सिफारिशों को पूरी तरह लागू करने के बाद जो बड़ा बदलाव आएगा उसे लेकर वे हिचक रहे हैं। असल में इन राजनीतिकों और नीति निर्माताओं का प्रतिनिधित्व ज्यादातर उच्च वर्ग और ऊंची जाति के बुजुर्ग करते हैं और भारतीय दंड संहिता में परिवर्तन की भाषा तय करते हुए ये परदे के पीछे सिफारिशों को कमजोर करने के लिए काम कर रहे हैं।    
इन लोगों ने राष्ट्रपति के एक अध्यादेश के जरिए पहले न्यायमूर्ति वर्मा आयोग की सिफारिशों को हल्का किया, जिसमें शादी के तहत बलात्कार को या उस बलात्कार को, जिसे सेना के जवान अंजाम देते हैं, दंडनीय अपराध की श्रेणी से अलग कर दिया गया है। न्यायमूर्ति वर्मा ने अपनी रिपोर्ट में पुलिस सुधार की आवश्यकता पर पूरा एक अध्याय रखा है, पर इसे भी छोड़ दिया गया। संसद में प्रस्तुत किए जाने वाले अध्यादेश अपराध कानून (संशोधन) विधेयक को और हल्का कर दिया गया है। इसमें जबर्दस्ती मजदूरी कराने और महिलाओं की सेवा को शोषण के रूप में नहीं माना गया है!
आयोग की सिफारिशों को पूरी तरह लागू कराने में लगे महिला अधिकार कार्यकर्ताओं, उनका पक्ष लेने वाले सांसदों और नौकरशाहों को निम्नलिखित सवालों का सामना करना पड़ा:
'क्या नारी अधिकारवादी हमारे शयन कक्ष में आना चाहती हैं। क्या हमें अपने बिस्तर पर कागज-कलम रखना होगा, ताकि हर रात पत्नियों से सहमति के दस्तखत लिए जा सकें?' 
'क्या देखना गलत है?' 
'वेश्यावृत्ति बलात्कार क्यों है, जीन्स और लिपस्टिक खरीदने के लिए क्या कॉलेज की लड़कियां ऐसा नहीं करती हैं?' 
'अगर हम जबर्दस्ती की मजदूरी और सेवाओं को शोषण का एक रूप बना देंगे तो काम कौन करेगा? हमें कभी भी घरेलू या खेतों पर काम करने वाले नौकर नहीं मिलेंगे।' 
'उन महिलाओं के मामले में क्या होगा जो अपने पति की सारी धन-संपत्ति ले लेने के बाद प्रेमी के साथ भाग जाएं।' और सबसे ज्यादा पूछा जाने वाला सवाल, 'उन महिलाओं के बारे में क्या कहा जाए जो अपने पति को झूठे आरोप लगा कर जेल भिजवा देती हैं?' 
ये सवाल और भारत में, जहां हर दिन सत्रह महिलाएं आधिकारिक तौर पर बलात्कार का शिकार होती हैं, बलात्कार के संकट से अच्छी तरह निपटने में हिचक से सिर्फ उस डर का पता चलता है जो पुरुष अपने दोष के आधार पर महसूस करते हैं। उनके मन में जो गुप्त सवाल उछल रहा है वह यह है: 'अगर महिलाएं हमारे (पुरुष) के साथ वैसा ही व्यवहार करने लगें जैसा हमने उनके साथ किया है, तो क्या होगा?' 
बलात्कार की संस्कृति को इस तरह दबा दिया जाता है और चुनौती नहीं दी जाती है। बलात्कार की संस्कृति तब तैयार होती है जब सत्ता में बैठे लोग- जो समाज के बाकी लोगों के लिए आदर्श होते हैं- लागू नियमों, सोच और व्यवहारों को चुनौती नहीं देते हैं, जो बलात्कार को मामूली और सामान्य मानते और बर्दाश्त करते हैं या उसकी निंदा नहीं करते हैं। सच तो यह है कि कई लोग असल में पुरुषों और स्त्रियों की गैर-बराबरी की 'अनिवार्यता' को स्थायी बनाने की कोशिश करते हैं। 
पुरुषों को मैं यह आश्वासन देना चाहती हूं कि हम बदला लेना नहीं चाहतीं, हम सिर्फ  न्याय चाहती हैं। हम यौन संबंध बनाना बंद नहीं करना चाहतीं, हम सिर्फ यह चाहती हैं कि हमारे साथ जबर्दस्ती न हो, बुरा बर्ताव न किया जाए, गाली न दी जाए, हम पर शासन न किया जाए। हम काम बंद करना नहीं चाहतीं, हम सिर्फ काम की बेहतर स्थितियां चाहती हैं।    
हमें पुरुषों के साथ यहां-वहां जाने का शौक भी नहीं है। सच तो यह है कि हम गंभीरता से नहीं चाहतीं कि उनके जैसे पुराने विचारों वाले हों जो मानते हैं कि पौरुष का मतलब हिंसा और जीत है। हम सम्मान के साथ साझा और गठजोड़ करना चाहती हैं। 

हमारे प्रयासों का आवश्यक हिस्सा यह है कि एक समकालीन और लोकतांत्रिक समाज का गठन किया जाए जहां पुरुषों और महिलाओं की पूरी बराबरी नियम हो। सरकार और देश-समाज के सभी क्षेत्रों में महिलाओं और पुरुषों, लड़कियों और लड़कों को समान अधिकार और बराबर भागीदारी का   अधिकार मिले। कोई भी समाज जो महिलाओं और लड़कियों के लिए कानूनी, राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक बराबरी के सिद्धांतों की रक्षा करने का दावा करता है उसे इस विचार को खारिज कर देना चाहिए कि बच्चे, खासतौर से लड़कियां किसी भी मायने में कमतर हैं या घर के अंदर या बाहर की वस्तु हैं।   
पूरी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए हमें घर पर, सड़कों पर, कार्यस्थल पर सुरक्षा की आवश्यकता है- परिवार के सदस्यों और वर्दी वाले लोगों से भी। हम पुरुषों की हिंसा के सभी रूपों के लिए जिम्मेदारी तय करने की मांग कर रहे हैं ताकि महिलाएं और लड़कियां हर तरह के डर से मुक्त होकर जी सकें। और अगर हमारा आंदोलन सफल रहता है तो कानूनी, राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन पुरुषों को भी आजाद कर देगा। 
सुरक्षित और समान कार्य का मतलब यह भी होगा कि अब सिर्फ पुरुष परिवार का खर्च नहीं उठाएंगे, न इस काम में लगा दिए जाएंगे और न सत्ता और जिम्मेदारी का तनाव झेलेंगे। महिलाएं जब आधा आर्थिक बोझ उठाएंगी और 'पुरुषों वाले काम' उन्हें भी मिल जाएंगे तो मुमकिन है पुरुष ज्यादा आजाद महसूस करें और लंबे समय तक जीएं।  
हम जो दुनिया बनाएंगे उसमें स्त्रियों और पुरुषों, दोनों के लिए अच्छे काम आसानी से हासिल करना संभव होगा। और ये महिलाएं जो दूभर काम, जैसे घर के काम, करती रही हैं, उनके लिए अच्छी तनख्वाह की व्यवस्था हो सकेगी। आसान पहुंच से कुशल मजदूरी बढ़ेगी और इस तरह मजदूरों की कमी का डर खत्म होगा और अच्छी मजदूरी के कारण कोई मजबूर लोगों को ऐसे काम में नहीं लगाएगा। ज्यादा वेतन से ऐसे कामों के मशीनीकरण को प्रोत्साहन मिलेगा, जबकि ये काम अभी सस्ते मजदूरों के कारण चल रहे हैं।  
सत्ता की साझेदारी और राजनीति में स्त्रियों का प्रतिनिधित्व बहुत मूल्यवान होगा। उदाहरण के लिए, उपभोक्ता संरक्षण और बाल अधिकार पर ज्यादा विधायी ध्यान दिया जा सकता है। महिलाएं और लड़कियां जिन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थितियों में रहती हैं उन्हें विकास के उपायों, मसलन महिलाओं के बीच गरीबी कम करने पर खासतौर से केंद्रित योजनाओं, टिकाऊ विकास और सामाजिक कार्यक्रमों के लिए बजट के बढ़े हुए आबंटन से सुधारा जा सकता है।  
यौन हिंसा के आदी पुरुषों के पुनर्वास के लिए भी योजनाएं शुरू की जा सकती हैं। वैसे भी बलात्कार सेक्स नहीं है। यह प्रभुत्व या प्रभावी होने का मामला ज्यादा है। और अक्सर इसे लोग घरों में ही सीखते हैं। लड़के जब अपनी मां को घरेलू हिंसा के दौरान पीड़ित होते देखते हैं। मेरे खयाल से इस घरेलू हिंसा का नया नाम मूल हिंसा रखा जाना चाहिए। क्योंकि यह लड़कों को हर तरह की हिंसा करने और उसे स्वीकार करने के लिए तैयार करती है। 
आखिरकार कई बार लड़के घर में होने वाली संगठित हिंसा में भाग भी लेते हैं। अगर हमारे सांसद इस अंतर-संबंध को समझ पाते तो शायद वैवाहिक बलात्कार को एक नई रोशनी में देखते। और सेक्स और बराबरी पर हमारे बयान चांद से आने वाले बुलेटिन जैसे नहीं लगते।  
सच तो यह है कि हमारा आंदोलन भारतीय विवाह संस्था को नष्ट करने का प्रयास नहीं है। अगर बुरी तरह यौन झुकाव रखने वाले कानून नष्ट कर दिए जाएं या संशोधित कर दिए जाएं, रोजगार में भेदभाव प्रतिबंधित हो, अभिभावक एक-दूसरे की और बच्चों की वित्तीय जिम्मेदारी साझा करें और यौन संबंध बराबर के वयस्कों की सहभागिता हो जाए (कुछ काफी बड़ी मान्यताएं हैं) तो शायद विवाह ठीक से चलता रहेगा। वैसे भी, पुरुष और महिलाएं शारीरिक तौर पर एक दूसरे के पूरक हैं। समाज पुरुषों को शोषक बनने और महिलाओं को दूसरों पर आश्रित होने से रोक दे, तो मुमकिन है वे भावनाओं से भी एक दूसरे के ज्यादा पूरक हो जाएं।      
सच तो यह है कि परिवार के अंदर मौजूद गैर-बराबरी, हिंसा और दमन से ज्यादा तलाक हो रहे हैं। अभिभावकों को फंसाया जा रहा है और बच्चे और युवा घर से भाग रहे हैं। सोलह दिसंबर की घटना वाली बस पर जो अवयस्क अपराधी था वह यह सब झेल चुका है। स्त्रियां सिर्फ संकट की ओर इशारा करने की कोशिश कर रही हैं और चाहती हैं कि जहां कुछ नहीं है वहां व्यावहारिक विकल्प तैयार हों।   
दूसरे शब्दों में, इस आंदोलन का सबसे मूलभूत लक्ष्य समानतावाद है।
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/40760-2013-03-14-05-28-35

No comments:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Tweeter

Blog Archive

Welcome Friends

Election 2008

MoneyControl Watch List

Google Finance Market Summary

Einstein Quote of the Day

Phone Arena

Computor

News Reel

Cricket

CNN

Google News

Al Jazeera

BBC

France 24

Market News

NASA

National Geographic

Wild Life

NBC

Sky TV