केदार प्रसाद मीणा जनसत्ता 10 मार्च, 2013: दलित और स्त्री विमर्श के बाद अब शोधार्थियों और पाठकों की रुचि आदिवासी साहित्य में बढ़ती जा रही है। आदिवासियों से जुड़े मसलों पर कई लेखक दशकों से लिख रहे हैं। उनमें महाश्वेता देवी और रमणिका गुप्ता काफी सक्रिय हैं। महाश्वेता देवी तो अपनी जगह, लेकिन रमणिका गुप्ता दलित, स्त्री, पिछड़े और आदिवासी सबकी विद्वान एक साथ हैं। आदिवासियों के हित में लिखने, काम करने की यह प्रवृत्ति प्रकाशनों और गैर-सरकारी संस्थाओं से आगे बढ़ कर अब विश्वविद्यालयों और संपादकों में भी दिखाई देने लगी है। मगर आदिवासी साहित्य को दलित साहित्य की तरह थोड़ी मेहनत करके हर साहित्यकार नहीं लिख सकता। आदिवासी, दलितों की तरह मुख्यधारा समाज के आसपास नहीं रहते हैं। दलितों की भाषा, सामाजिक संरचना हिंदुओं जैसी ही रही है। जबकि आदिवासी मुख्यधारा के समाज से पूरी तरह दूर जंगलों-पहाड़ों में रहे हैं। इसलिए अच्छा आदिवासी साहित्य या तो केवल आदिवासी लिख सकता है या वह साहित्यकार, जो न केवल वर्षों उनके बीच, बल्कि उनके प्रति ईमानदार भी रहा हो। जिन्हें इनके बहाने न तो धन की चाह रही हो, न यश की महत्त्वाकांक्षा। आदिवासियों से संबंधित अब तक हिंदी में जो साहित्य उपलब्ध है, उसमें कुछ अच्छा है तो बहुत कुछ औसत और बहुत-सा बिल्कुल बेकार। आदिवासियों से संबंधित जो बेकार साहित्य है वह किसी भी प्रकार उनके समाज और संघर्ष से समानता नहीं रखता। यह केवल आदिवासियों के नाचने-गाने, मांदल बजाने, काली मांसल देह वाली आदिवासी लड़कियों के नदियों-झरनों में नहाने, घोटुल या झाड़ियों के झुरमुट में रतिकर्म करते रहने का बहुत ही मनमाना और गैर-जिम्मेदार ढंग का चित्रण करता है। पुराने लेखकों में योगेंद्रनाथ सिन्हा और सुरेंद्र अवस्थी वगैरह ने ऐसा साहित्य लिखा और नए लेखकों में तरुण भटनागर और अन्य पचासों शहराती लेखक-लेखिकाएं ऐसा साहित्य लिख रहे हैं। आदिवासियों से संबंधित औसत साहित्य वह है, जिसमें इनकी आंतरिक जटिलताएं, कोमल भावनाएं, समाज, संस्कृति, धर्म और भाषा की गहरी परतों का चित्रण देखने को नहीं मिलेगा या बहुत कम मिलेगा। लेकिन आदिवासियों के शोषणों की पहचान और उनकी समस्याओं की पड़ताल इस साहित्य में काफी अच्छे ढंग से हो सकी है। आदिवासियों के समाज, संस्कृति, धर्म, भाषा आदि के पहलुओं को या तो बिल्कुल उठाता ही नहीं है या बहुत कम और कहीं-कहीं तो बहुत गलत ढंग से उठाता है। इस मामले में आदिवासियों के कट्टर हितैषी नक्सलवादियों ने भी खूब चूकें की हैं। उनके लिए भी रोता-बिलबिलाता आदिवासी ही काम का है। आदिवासियों की केवल समस्याएं उठा कर राजनीति करने वाले, यश और धन कमाने वाले कई साहित्यकारों-बुद्धिजीवियों ने कभी सोचा है कि क्या आदिवासी इतने से संतुष्ट हैं? जवाब है, नहीं। आदिवासी चाहते हैं कि उन्हें समग्रता में समझा जाए, ताकि उनके सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों की पहचान बन सके और इस तरह उन्हें मानवीय सम्मान प्राप्त हो सके, न कि वह अपने दर्द के साथ दिखाया जाकर महज इस्तेमाल की चीज बन कर रह जाए। वह चाहता है कि उसकी भाषाओं के संरक्षण के नाम पर चल रहे धंधे बंद हों और सरकार उन्हें उनकी भाषाओं में शिक्षा की व्यवस्था करे, ताकि वे आत्मविश्वास के साथ सही मायने में शिक्षित हो सकें। तब उनकी भाषाएं भी अपने आप बच जाएंगी। आदिवासियों की नजर में हिंदी भी उसी तरह उपनिवेशवादी भाषा है जैसे मुख्यधारा के समाज के बड़े हिस्से के लिए अंग्रेजी। आदिवासी चाहता है कि उसके प्रकृतिमूलक धर्म 'सरना' को सम्मान दिया जाए। सरकारी फार्मों और जनगणना में उसके लिए अलग कॉलम हो, ताकि उन्हें न तो 'अन्य' बनना पड़े और न धर्मांतरण के कई पाटों में पिसना पड़े। तब यह भी साबित हो जाएगा कि हिंदू और ईसाई, आदिवासियों का कितना कल्याण करते हैं, कितने दिन वहां रुके रहते हैं। आदिवासी क्या चाहता है, यह पता चलता है उनके लिखे साहित्य से। पीटर पॉल एक्का, केसी टुडु, वाहरू सोनवणे, रोज केर केट्टा, रामदयाल मुंडा, निर्मला पुतुल, रूपलाला बेदिया, वाल्टर भेंगरा, अनुज लुगुन, प्रभात, हरिराम मीणा, ज्योति लकला, वासवी, मंगल सिंह मुंडा आदि का साहित्य इन चिंताओं को कहीं प्रत्यक्ष, तो कहीं परोक्ष रूप से सामने रख रहा है। इस साहित्य में तीखी चीखें और बनावटी आक्रोश बहुत बेजा नहीं है, पर धीमी-सी कराहें, स्वाभिमान की रक्षा की चाहत और अपने अधिकारों की वकालत बहुत पुरजोर ढंग से सामने आ रही है। आदिवासियों का उनके समाज के भीतर जीवन सचमुच कैसे चलता है, पर्व-त्योहार मनाने, रीति-रिवाजों के पालन, घोटुल का अनुशासन और प्रेम करने के तरीके सचमुच कैसे हैं, समाज में आ रहे आंतरिक और बाहरी परिवर्तनों को वे किस रूप में ले रहे हैं, कैसी-कैसी खूबसूरत चीजें और कोमल भावनाएं इन परिवर्तनों से नष्ट हो रही हैं, दब रही हैं, स्त्री-पुरुष संबंधों की संरचना सचमुच कैसी है, क्या वहां कुछ नैतिक प्रतिमान भी है या कोई अनुशासन ही नहीं है जैसा कि मुख्यधारा का समाज अक्सर समझ लेता है, विस्थापित होना क्या जगह का छूटना भर है या कुछ और भी छूटता है, खुद आदिवासी जब उन्हें लूटते-बर्बाद करते हैं तब वे कैसा महसूस करते हैं आदि सवालों के जवाब वे अपने साहित्य के माध्यम से मुख्यधारा के समाज के सम्मुख रख रहे हैं। आदिवासी चाहते हैं कि विस्थापन जैसी ज्वलंत समस्याओं के साथ-साथ इन सब मुद्दों पर भी चर्चा हो, ताकि एक तो उनके सच्चे दोस्तों और सच्ची सहानुभूति की सही-सही पहचान हो सके और दूसरी बात आदिवासियों का सही मायने में विकास हो सके। अगर आदिवासियों के समाज, उनके साहित्य और उनकी इन चिंताओं को नहीं समझा गया तो आदिवासी साहित्य की व्याख्या भी गैर-आदिवासी बुद्धिजीवी नहीं कर सकेंगे। फिर उनके लिए 'दिकू' का अर्थ 'वे' नहीं, बल्कि दिक्कत पैदा करने वाला ही बना रहेगा और 'बिटिया मूरमू' का अर्थ बेटी मूरमू ही बनता रहेगा। यह पता भी नहीं चलेगा कि 'मूरमू' कोई नाम नहीं, बल्कि संथालों का एक गोत्र है। आदिवासी साहित्य को समझने-व्याख्यायित करने के सिद्धांत उनके समाज को समझे बगैर तैयार हो नहीं सकते। आदिवासियों के हक की संपूर्ण लड़ाई इस साहित्य को समझे बिना नहीं जीती जा सकती। इसकी उपेक्षा कर किया जाने वाला संघर्ष अधूरा होगा और जो जीता जाएगा वह बेमानी। वह नई विसंगतियों से भरा होगा। लोकतांत्रिक और बहुसांस्कृतिक देश के लिए खतरनाक होगा। उसके लिए फिर लड़ना पड़ेगा या तब तक लड़ने के लिए आदिवासी नहीं बचेगा। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/40537-2013-03-10-06-40-32 |
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