बराबरी की नई भाषा
बराबरी की नई भाषा
Sunday, 10 March 2013 12:03 |
कृष्णा सोबती जनसत्ता 10 मार्च, 2013: इस लोक में स्त्री-पुरुष एक दूसरे के निकटतम और घनिष्ठतम हैं। एक दूसरे के पूरक हैं। इन्हीं दोनों की दैहिक संरचना में मानवीय परिवार का अस्तित्व गुंफित है। और इन्हीं दोनों की शारीरिक-आत्मिक जुगलबंदी में इंसानी संतति के वंशजों का भविष्य सुरक्षित है। स्त्री की जनन-शक्ति इस ब्रह्मांड की वह तरल ऊर्जा है, जो पुरुष से ग्रहण कर मानवीय आकारों को जन्म देकर उन्हें इस धरती पर खड़ा करती है। हम सभी जानते हैं कि उसकी भावभूमि और देह-भाषा लंबे समय से पितृसत्ता द्वारा संचालित रही है। वह अपनी कर्ता नहीं, दूसरों की कारक रही है। उसके दूसरों के निमित्त होने में गृहस्थी की चौखट में उसे देवी और दुर्गा की संज्ञा से सम्मानित किया जाता रहा है। आज वह अपने होने में, अपनी हस्ती में अपने व्यक्ति को खोज रही है। ऐसा करने की चेष्टाएं न पारिवारिक संस्थान के प्रति विद्रोह है और न उससे पलायन। हमारे लोकतांत्रिक संविधान ने स्त्री और पुरुष दोनों नागरिकों को एक-से अधिकार देकर उन्हें बराबरी की हैसियत सौंपी है। नया दिशा-निर्देश दिया है। पुरानी परिपाटी पर रूढ़ हो चुके भारतीय परिवार में नए परिवर्तन होने को हैं- हो रहे हैं। आज की लोकतांत्रिक-राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्थाएं स्त्री की नई महत्त्वाकांक्षाओं को बाहर कैसे रख सकेंगी। अपने प्राचीन जातिग्रस्त देश में पिछड़े-कमजोर समूह-समुदायों में बराबरी के अहसास जग चुके हैं। स्त्री उसके बाहर नहीं। हमारा पितृपक्ष चौकस हो कि 'स्त्री मुक्ति' परिवार के लिए उसकी मान्यताओं के लिए चुनौती नहीं। यह उसके अधिकारों की कशमकश है। संघर्ष है। लोकतंत्र में हर नागरिक को अपनी योग्यताओं-क्षमताओं का विस्तार करने के लिए जिन प्रक्रियाओं से गुजरना होता है- स्त्री वर्ग को भी उन कठिनाइयों से होकर अपने गंतव्य तक पहुंचना होगा। कोई भी व्यक्ति, स्त्री हो या पुरुष, जो इन समयों में शिक्षित न हो- लिखित इबारत न पढ़ सके, अपनी जीविका उपार्जन न कर सके- वह क्यों न इन स्थितियों से छुटकारा पाना चाहेगा। मनचाहे चुनावों तक पहुंचने का अधिकार अर्जित करना चाहेगा। स्त्री हो या पुरुष, उसका व्यक्ति जागृत होता है आचार-विचार, शिक्षा, प्रशिक्षण से। आज की स्त्री भी मात्र सैक्स और गृहस्थी में पत्नी और बच्चों की मां बनने के आगे भी कुछ सोचती है। हम यह भी क्यों भूलें कि पारिवारिक साधनों को बढ़ाने के लिए माता-पिता दोनों की साधन-संपन्नता ही खुशहाल जीवन की कुंजी है। भारत का बहुसंख्यक मध्यवर्ग इस रीति-नीति को अपना चुका है। आज की जीवनशैली के आर्थिक दबाव और तनावों को सहेजने-संभालने के लिए यह परिवर्तन अवश्यंभावी हैं। पितृ पक्ष को स्त्री पक्ष के संवेदनीय पाले में हो रहे इन परिवर्तनों के लिए अपने को तैयार करना होगा। बेटे-बेटियों के लिए बराबरी की नई भाषा, नया संस्कार उभारना होगा। उनके नएपन को आत्मसात और स्वीकार करना होगा। स्त्री हो या पुरुष, उन्हें राष्ट्र के लोकतांत्रिक प्रतिमानों के प्रति अपना कर्तव्य निभाना होगा। नागरिक के रूप में हमें जो सुविधाएं-संपन्नताएं राष्ट्र से मिली हैं, उनका कर्तव्यपूर्ण ढंग से ऋण चुकाना होगा। परिवार की व्यवस्था एक दूसरे को दबाने-सताने और अपमानजनक वृत्तियों को हिंसात्मक प्रसंगों में परिवर्तित करने से नहीं- नए समय, नए मूल्यों के अनुरूप अपने को लोकतांत्रिक स्वभाव में ढालने से होगी। गृहस्थी में संबंधों की संवेदनात्मक बुनत अब मात्र संस्कारी अधिकारी और कर्मचारी की नातेगिरी की शक्ल में नहीं चलेगी। 'कोआॅपरेटिव बैंक' के शेयर होल्डरों को यकसां लाभान्वित करने से ही गृहस्थी की पूंजी को नया रूप दिया जा सकेगा। स्त्री सशक्तीकरण को रोकने का समय अब नहीं है। जब भी सामाजिक-नैतिक मूल्यों में परिवर्तन होता है, सतह के ऊपर और सतह के भीतर खलबलियां और विसंगतियां जरूर प्रकट होती हैं। सशक्तीकरण से भयभीत होने की इतनी जरूरत नहीं। वह एक ऐसा यथार्थ है, जिसका विरोध स्वयं हमारे परिवार-संस्थान के लिए कल्याणकारी न होगा। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/40536-2013-03-10-06-38-55 |
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