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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, March 10, 2013

वामपंथ ने जेंडर के सवाल को पूरी तरह छोड़ दिया: उमा चक्रबर्ती




दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर उमा चक्रबर्ती इतिहासकार हैं, वामपंथी हैं और नारीवादी हैं।रिकास्टिंग वुमन, रिराइटिंग हिस्ट्री, जेंडरिंग कास्ट आदि किताबों में उन्होंने जाति, लिंग के सवालों की गहराई से पड़ताल की। उन्होंने जाति और जेंडर के सवाल पर मौलिक काम किया है और तमाम मोर्चों पर एक एक्टिविस्ट की तरह सक्रिय रही हैं। समयांतर के लिए पूंजीवाद के संकट और वामपंथ के संकट पर भाषा सिंह के साथ उन से हुई बातचीत के अंश.

भारतीय संदर्भ में पूंजीवाद किस तरह राज्य के साथ खड़ा है?

जिस दौर में हम बात कर रहे हैं, उस समय राज्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ साजिशपूर्ण गठजोड़ में है। यह गठजोड़ देश के प्राकृतिक संसाधनों का बेशर्म दोहन करने के लिए है। इसके लिए सारे नियम कायदे कानून को ताक पर रखकर काम हो रहा है। यह किस तरह का पूंजीवाद है, इसकी व्याख्या अलग से हो सकती है, लेकिन भारतीय संदर्भ में यह बिल्कुल साफ है कि राज्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगे पूर्ण गठबंधन में है। इसके साथ-साथ राज्य की भूमिका और काम-काज कम हो गए हैं। नागरिकों के कल्याण की अवधारणा को कूड़ेदान में फेंक दिया गया है। सामाजिक सुरक्षा या चिकित्सा सुरक्षा मुहैया कराने की बातें तो पता नहीं कहां बिला गई हैं। राज्य की पितृसत्तामक देखरेख की जो अवधारणा (जो हम नारीवादी मानते थे) थी वह खत्म कर दी गई है। भारत की जनता आज इन ताकतों के सामने, जो उनका दोहन करना चाहती हैं, हताश परिस्थियों से टकरा कर अपने को जिंदा रखने की जद्दोजेहद में लगी हुई है। मिसाल के तौर पर किसानों की आत्महत्या देखिए...। यह राज्य और उसकी नीतियां हैं जो किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर कर रही हैं और कहीं किसी को कोई परेशानी नहीं, कोई चर्चा नहीं। राज्य केवल सेना औऱ पुलिस तक सिमट कर रह गया। 

लोकतंत्र, चुनाव और जनता के विकास के तमाम नारे भी तो हैं...

सरकार के जितने भी मंत्रालय हैं सबका एक ही एजेंडा है। उनका एजेंडा सीधा सा है कि पूंजी देश के अंदर आए, संसाधनों का दोहन करे। विशेषकर हमलावर पूंजी (प्रेडटॉरी कैपिटल)। इससे बड़े पैमाने पर लोग विस्थापित हो रहे हैं। जमीन-जंगल से उन्हें जबरन बाहर धकेला जा रहा है। इसकी चहूंतरफा मार औरतों पर पड़ रही है। बहुत बड़े पैमाने पर उनका जीवन तबाह हो रहा है। 

पोस्को, वेदांता, कुडनकुलम, जैतापुर, कोयले के खनन...हर जगह प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट दिखाई दे रही है। हमलावर पूंजी को लूट का लाइसेंस कौन देता है? 
यह हमलावर पूंजी तब तक नहीं आ सकती है, जब तक राज्य के साथ उसका गठजोड़ न हो। यह हमलावर पूंजी चाहती है कि भारतीय राज्य अपने लोगों की पुलिसिंग करें। इस शर्त के साथ ही वे निवेश करते हैं कि भारतीय राज्य अपनी जनता पर पुलिसियां डंडा चलाएं, उन्हें काबू में रखे। इस तरह से यह पूंजीवाद का सबसे क्रूरतम स्वरूप है, जो हम देख रहे हैं। यह पूंजीवाद अपने लोगों को, जो गरीबों में भी सबसे गरीब हैं-आदिवासी उन्हें विस्थापित कर रहा है, उनके पास जिंदा रहने के जो भी संसाधन हैं, उनसे वंचित कर रहा है। गरीबों को खुले में मरने के लिए छोड़ रहा है। यह पूंजीवाद का क्रूरतम स्वरूप है।

इस स्थिति की मार्क्सवादी व्याख्या कैसे होगी?

मैं इस स्थिति को उन व्याख्याओं के जरिए समझने की दिशा में नहीं जाऊंगी कि इसकी मार्क्सवादी व्याख्या क्या होगी या फिर मार्क्स ने क्या कहा या किसी अन्य ने। मेरा मानना है कि इन परिस्थितियों को मौजूदा संदर्भ में समझना जरूरी है। इसकी विवेचना आज की जमीनी हकीकत के अनुसार करनी होगी। सोनी सोरी की पीड़ा-यातना को देखिए। आज सोनी सोरी है क्योंकि वह छत्तीसगढ़ में है। इसे इसी तरह से ही समझा जा सकता है। उसकी स्थिति को छत्तीसगढ़ से बाहर निकाल कर नहीं समझा जा सकता। वह एक क्लासिक केस है, जिससे यह समझा जा सकता है जब राज्य अपने लोगों के खिलाफ उतरता है, जहां विवादित परिस्थितियां हैं वहां आम नागरिक का क्या हश्र होता है। 

इन तमाम दमनों के खिलाफ आंदोलन भी तो हैं, कहीं छोटे तो कही बड़े...

एक सवाल मैं पूछना चाहती हूं कि ऐसी तमाम जगहों पर परंपरागत वाम क्यों इतना कमजोर है। यह मेरे लिए भी सवाल है। भाकपा (सीपीआई) यहां थी, लेकिन अब वह भी नजर नहीं आती, लेकिन अब वह बाहर हो गई। मेरा यह सवाल है कि आखिर क्या वजह हैं कि आदिवासियों की जहां सबसे बड़ी लड़ाइयां चल रही हैं-छत्तीसगढ़, झारखंड और उड़ीसा में वहां परंपरागत वाम दल कहां हैं।

इसके अलावा दूसरा सवाल है कि आखिर इन तीनों जगहों पर दक्षिणपंथ की क्यों सरकारें हैं। वजह यह कि वहां बहुराष्ट्रीय कंपनियां प्राकृतिक संसाधनों का दोहन सबसे सुविधाजनक शर्तों पर करना चाहती हैं और ये दक्षिणपंथी सरकारें उनकी बेहतरीन एजेंट साबित होती हैं। यहां गठजोड़ बाजार की ताकतों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और राज्य के बीच है। अगर इन इलाकों को ध्यान से देखिए तो पता चलेगा क यहां बहुत से इलाकों में आदिवासी 50 फीसदी भी नहीं रह गए हैं। ऐतिहासिक रूप से यहां घुसपैठ हुई है, बाहर से लोग आए हैं। ऐसे में रमन सिंह को वोट देकर कौन सत्ता में पहुंचा रहा है, ये आदिवासी या कोई और...ये सोचने की बात। दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियां, दक्षिणपंथी धार्मिक सत्ता स्थापित करने वाली राजनीति और इनके साथ दमनकारी राज्य। यह सबसे मारक गठबंधन है। ये पूरा गठबंधन मार्क्सवाद का कट्टर विरोधी है। इन लोगों को उठाकर फेंका जा रहा है और कोई भी इनकी तरफ से बोलने वाला नहीं है। सिविल सोसायटी क्यों कमजोर है इन इलाकों में। जब विनायक सेन का मामला हुआ था तो छत्तीसगढ़ के भीतर से लोगों को जुटाना, खड़ा करना मुश्किल था। वजह साफ है कि यहां की सिविल सोसायटी सत्ता के साथ मिल गई है, दोनों का गठबंधन है। यह सिविल सोसायटी रंगी हुई है। आज वहां सिविल सोसायटी लोगों के संघर्ष के खिलाफ है।

आपका क्या मूल्यांकन है कि वाम दल यहां क्यों कमजोर है?

यही सबसे बड़ा सवाल है कि जहां आदिवासी अपने अस्तित्व की लड़ाई सबसे क्रूरतम राज्य से लड़ रहे हैं वहां वाम क्यों नहीं है। परंपरागत वाम कहां है। माकपा तो है ही नहीं भाकपा है, लेकिन निहायत कमजोर। और ऐसी स्थिति में वे सशस्त्र वाम की शरण में हैं। ऐसा क्यों है कि परंपरागत वाम वहां सबसे ज्यादा दमित लोगों को अपील नहीं कर रहे। लोगों के सामने एक विकल्प नहीं पेश कर रहे है। इस सवाल का जवाब तो परंपरागत वाम को हमें देना होगा। क्यों वे हमलावर पूंजीवाद और उसके राज्य के साथ हुए बर्बर गठजोड़ के बीच पीस रही जनता के कवच के रूप में नहीं हैं। एमएल समूह तो तब भी इसे कह रहे हैं, लेकिन परंपरागत वाम को तो इसका बोध भी नहीं है। मुझे तो नहीं लगता। कैसे इन वंचितों का प्रतिनिधित्व किया जाए, इनके हकों की लड़ाई को आवाज दी जाए, क्या ये लोग सोच भी रहे हैं इस दिशा में। जो लोगों की भावनाएं है, अपेक्षाएं हैं और जो इन पार्टियों का सेटअप है, नजरिया है उनमें कोई तालमेल नहीं है। इन पार्टियों का यह केंद्रीकृत फैसला है कि किन मुद्दों को उठाना है, किन पर आंदोलन करना है। यह ढांचा इतना रुढ़ है कि इसमें स्वत:स्फूर्त मुद्दों का समावेश करने की गुंजाइश नहीं होती...यही हो रहा है। मेरे लिए यह बहुत निराशाजनक स्थिति है।

देश भर में अलग-अलग मुद्दों पर आंदोलन चल रहे हैं लेकिन वे वाम के नेतृत्व में नहीं है, कुडनकुलम से लेकर किसानों की आत्महत्या के खिलाफ। ऐसा क्यों कि वाम पार्टियों की इनमें भूमिका नहीं है?

यह अच्छी बात है कि लोग आंदोलन कर रहे हैं। इस पूंजी के आक्रमण को लोग चुनौती दे रहे हैं। ये आंदोलन आपस में नहीं जुड़े हुए हैं, यह हमारे लिए त्रासदी है। इसलिए देखिए कि आज के दौर में सत्ता से असंतुष्ट लोगों की तादाद संतुष्ट लोगों से ज्यादा है, फिर भी सत्ता उन्हें अपने लिए कोई चुनौती नहीं मानता। क्योंकि इन तमाम आंदोलनों का व्यापक राजनीतिक चुनौतिपूर्ण नेटवर्क नहीं है। लिहाजा दक्षिणपंथी आर्थिक ताकतों-राजनीतिक ताकतों का नापाक गठजोड़ तो बहुत मजबूत है आज के दौर में, लेकिन उसके बरक्स ऐसी एकता नहीं। यह संकट वामपंथ का है।

आज मध्य वर्ग अपने आदर्शवाद को छोड़ चुका है। वह संतुष्ट है, सत्ता के साथ-आर्थिक उदारीकरण के साथ कदम ताल करता हुआ। ऐसा पहले नहीं था।

पूंजीवाद क्या संकट में लगता है आपको...?

पूंजीवाद में इस हद तक तो संकट है कि वह अपने सिस्टम के भीतर के संकटों को हल नहीं कर पा रहा है। अमेरिका की अर्थव्यवस्था संकट में है। बेरोजगारी बढ़ रही है। असंतोष बढ़ रहा है। उसका उत्पादन प्रणाली पूरी वित्तीय पूंजीवाद अब पूंजीवाद का सबसे उजागर रूप है। अंदरूनी संकट बढ़ रहा है। अमेरिका में जिस तरह से हाउसिंग इस्टेट बैठ गया, वह संकट का ही हिस्सा है। यह पूंजीवाद एक स्तर के बाद खुद को खड़ा नहीं रखा पाता उसी स्वरूप में। लेकिन जहां तक इसकी लोगों में अपील की बात है, उसे पूंजीवाद ने न सिर्फ और मजबूत किया है बल्कि सुदृढ़ भी। वह आज भी लोगों को भरमाने में कामयाब है। पूरी दुनिया में इसने अपनी पूछ बढ़ाई है। 
पूंजीवाद लोगों को इस मामले में भरमा रहा है कि मैं, मैं और मैं ही मायने रखता हूं। सामूहिकता का भाव खत्म है। इस तरह से उसकी मशीनरी चल रही है। नीतिगत स्तर पर भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं बनता। कोई यह सवाल नहीं उठाता कि क्यों कुडनकुलम चाहिए, क्यों जैतापुर। पोस्को से कौडिय़ों के दाम हम अल्मूनियम निकालने की इजाजत देते हैं। बाहर की इनकार की, बर्बाद तकनीक हम लेने को तैयार होते हैं, क्यों। क्योंकि हमने अपने हित उस पूंजी को बेच रखे हैं। हम दुनिया के मैला ढोने वाले हैं। सदियों से हमने दलितों से मैला ढुलवाया और आज यह अपने विदेशी आकाओं के लिए कर रहे हैं।

पूंजीवाद की ग्राहता मध्यम वर्ग में तो बढ़ी है। आर्थिक उदारीकरण ने उसे अपनी गिरफ्त में लिया है। ऐसा पहले तो नहीं था?

कई बार मुझे यह भी लगता है कि हमारे यहां लोगों, विशेषकर मध्य वर्ग में यह भाव भी बढ़ता जा रहा है कि लोगों को मरने दो। एक तबके की आबादी वैसे भी बहुत ज्यादा है, मर गए तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। एक बर्बर सोच काम कर रही है। गरीबों की मृत्यु से कोई उद्धेलित नहीं होता, यह कोई मुद्दा नहीं है। हमारा समाज सबसे अधिक बर्बरतापूर्ण है, हिंसक है। यही हिंसक सोच हमारी जाति प्रथा में परिलक्षित होती है। हमने कहा कि मैं ऊंची जाति का हूं, मुझे सारे सुखों का अधिकार है बाकी लोग नीचे रहें और मैं आनंद में। यह हमारे समाज की मूल भावना रही है, बराबरी और दया भाव नहीं।

क्या हमारे समाज की ये विसंगतियां वाम समझ पा रहा है...?

नहीं। पूरी तरह नहीं। जाति और लिंग (जेंडर) का रिश्ता, उसके जटिल अंतर्संबंध हम नहीं समझते। पहले तो लेफ्ट जाति को कोई चीज ही नहीं मानता था। मेरा तो शुरू से मानना रहा है कि भारत में आप वर्ग को समझ ही नहीं सकते जब तक आप जाति को नहीं समझते। और जाति को समझने के लिए जेंडर (लिंग) को नहीं समझते। यानी हम अपने समाज नहीं समझते। हम यह सोचते हैं कि हमे इस वर्ग पर फोकस करना, इस वर्ग में काम करना है, हम इस सेक्शन में संघर्ष करेंगे तो ठीक हो जाएगा। ऐसा करने पर हम पूरे समाज के बारे में नहीं सोचते और न उनकी आपस की कडिय़ों को नहीं जोड़ते।

अंबेडकर और मार्क्स के बीच कोई रास्ता बनता दिखाई देता है आपको?

अभी तो नहीं। वाम ने दलितों और गैर दलितों के बीच कोई पुल बनाने की बात नहीं की। कभी हमने (वाम) ने भारतीय समाज को समझने के लिए जाति को एक महत्त्वपूर्ण कड़ी नहीं माना। फिर क्रांति कहां आएगी। क्रांति जाति की जकडऩों को तोडऩे में आएगी। हमें क्रांति अपने यथार्थ में ही लानी है। जो सर्वहारा को हम एक करना चाहते हैं, वह तो बंटा हुआ है। इस मामले में अंबेडकर बहुत अकलमंद थे, जब उन्होंने कहा कि यह श्रमिकों का विभाजन है श्रम का नहीं।

भारतीय वामपंथ के सामने क्या बड़ी चुनौतियां हैं?

बड़ी चुनौतियां हैं वामपंथ के सामने। हमारा समाज सबसे ज्यादा गैरबराबरी वाला है। यहां की पितृसत्ता बहुत मजबूत है औऱ जाति भी बहुत मजबूत। यहां के वामपंथ ने अगर वर्ग के सवाल को उठाया तो जाति को छोड़ दिया और जेंडर के सवाल को तो पूरी तरह से छोड़ दिया। मजदूर में मर्द मजदूरों पर जोर दिया और महिला मजदूरों के सवालों और घर में पुरुष से बराबरी के सवाल को छोड़ दिया। वाम ने सोचा कि महिला मुक्ति के सवाल वर्ग संघर्ष के साथ हल होंगे, लिहाजा उन्हें प्राथमिकता नहीं दी। कॉमरेड पुरुष और उसकी कॉमरेड पत्नी के बीच पितृसत्तात्मक तनाव को हल करने पर ध्यान नहीं दिया। न जाने कितनी बार कम्युनिस्ट पार्टियों के भीतर कॉमरेड पति की पिटाई पर कार्रवाई की मांग पत्नियों ने की। सीधे पूछा, मेरा कॉमरेड पति पिटाई करता है, क्या उसके खिलाफ कार्रवाई होगी। इस सवाल पर खामोशी तब भी थी और आज भी है। यही वजह है कम्युनिस्ट पार्टियों के शीर्ष मंच पर गिनी-चुनी महिलाएं पुरुष पाती हैं। पार्टी के भीतर पर खुला स्पेस कम है। यही वजह है कि नारीवादी आंदोलन ने अलग अपनी लड़ाई चलाई। जाति और पितृसत्ता दोनों के खिलाफ जो लड़ाई वामपंथ को चलानी चाहिए थी वह नहीं चली। यह बहुत बड़ी कमजोरी रही।

क्या यही वजह है कि सामंती कुरीतियों के खिलाफ मजबूत वाम सांस्कृतिक आंदोलन का अभाव दिखाई देता है?

रेडिकल मूवमेंट तो छोड़ दीजिए, सोशल मूवमेंट के बारे में भी कोई पहल करने को तैयार नहीं। एक दौर में इन कुरीतियों के खिलाफ मजबूत वाम सांस्कृतिक धारा मौजूद थी। आज वह भी नहीं है। कतारों से लेकर आधार क्षेत्र में वही दहेज, टीका, भेदभाव फैला हुआ है। क्या ये सारी चीजें नारीवादी आंदोलन के लिए छोड़ दी गई है। वामपंथ ने खुद को नारीवादी विमर्श से अलग कर लिया है। ऐसी असंवेदनशीलता क्यों? पितृसत्ता की छाया या और कुछ! वामपंथ कोई प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष सांस्कृतिक आंदोलन खड़ा करने, उसे फैलाने को लेकर भी गंभीर नहीं है। यह गंभीर चिंता का विषय है।

नारीवादी विमर्श की इसमें क्या भूमिका है?

अभी दिल्ली में सामूहिक बलात्कार कांड के खिलाफ जो आंदोलन सामने आया है उसकी सकारात्मक बात यह है कि इसके केंद्र में वामपंथी, धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील नेतृत्व की स्वीकार्यता बनी। इसमें जिस तरह से कविता कृष्णन का नेतृत्व सामने आया है, वह भविष्य के अच्छे संकेत देता है। अगर वह पॉलित ब्यूरो तक इसके भाव को संप्रेषित करे, उसकी जगह बनाए तो शायद कुछ रद्दोबदल की शुरुआत हो। लेकिन लड़ाई अभी बहुत लंबी है। जेंडर का सवाल, जाति का सवाल, संघर्शषील जनता से सीधा जुड़ाव - आज सबसे बड़ी चुनौती है वाम के लिए। पार्टी के ढांचे क्या इतने संकुचित हैं कि वह नीचे से उठ रहे स्वत:स्फूर्त आंदोलनों को अपने में जगह नहीं दे पाते। इन्हें कैसे लचीला बनाया जा सकता है कि जनता के आंदोलनों के वे स्वत: स्फूर्त नेता कहलाए...यह भी एक बड़ी चुनौती है। नारीवाद के सवालों को, औरतों की बराबरी औऱ बैखौफ आजादी का स्वाभाविक चैम्पियन वामपंथ ही होना चाहिए। दिक्कत यह है कि इन सवालों की जगह मौजूदा वाम ढांचे में नहीं है। और है तो भी कितनी यह अभी पक्का नहीं। 

(समयांतर के फरवरी, 2013 अंक में प्रकाशित इस साक्षात्कार को हाशिया के लिए उपलब्ध कराने और इसे यहां प्रकाशित करने की इजाजत देने के लिए हम इसके संपादक पंकज बिष्ट के आभारी हैं)

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