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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Wednesday, July 31, 2013

हवा के तमाम किस्से हैं : कविता की नदी में धंसान

हवा के तमाम किस्से हैं : कविता की नदी में धंसान


सिद्धेश्वर सिंह

 

 

कवि वीरेन डंगवाल का नाम मैंने पहली बार तब पढ़ा जब दसवीं क्लास में पढ़ता था । यह 1978-79 की बात है । तब पहली बार अकेले काफी लंबी रेल यात्रा की थी और लखनऊ स्टेशन के बुक स्टाल से एक पत्रिका खरीदी थी -`आजकल ´ । उस समय मेरे जैसे गंवईं लड़के प्राय: सत्यकथा या फिल्मी दुनिया टाइप की पत्रिकायें खरीदा करते थे और ऐसा कुछ इफरात का पैसा मिलने पर रईसी के अंदाज में ही होता था साथ ही यह रोमांचंकारी कार्यक्रम पिता , चाचा ,बड़े भाइयों जैसे `आदरणीय´ लोगों से बच-बचाकर ही किया जाता था क्योंकि उन लोगो की दृष्टि में ठीकठाक पत्रिका यदि कोई थी तो `धर्मयुग´ जिसे उस इलाके में `धरमजुग´ कहा जाता था। उस समय हमारे यहां जो अखबार आया करता था उसका नाम `आज ´ होता था । उसकी तह खोलकर सूंघने पर एक अनजाने से तेल की गंध आती थी। बाद में पता चला कि उस तेल को पेट्रोल कहते हैं जिससे फटफटिया चलती है । साक्षात फटफटिया देखने का सौभाग्य हमें तभी मिलता था जब साल में एक - दो बार डिप्टी साहेब गांव की बिना छत वाली बेसिक प्राइमरी पाठशाला का मुआयना करने के लिए आया करते थे ।`आजकल ´ पत्रिका खरीदने के पीछे 'आज' अखबार से मिलते-जुलते नाम का जुड़ाव ही प्रेरक बना था ।

 

कस्बा दिलदार नगर ,जिला गाजीपुर यू0 पी0 के अति प्रतिष्टित राधा कृष्ण गुप्त आदर्श विद्यालय इंटर कालेज में पढ़ने वाले गॉंव मिर्चा के मेरे जैसे सीधे और `होनहार ´ और `भितरिया´ लड़के से मित्र मंडली को ऐसी उम्मीद बिल्कुल नहीं थी कि मैं कोई सडियल अथवा नीरस -सी पत्रिका ले आउंगा। हमारे दुआर पर चलने वाले इलाके भर के एकमात्र पुस्तकालय का नाम भी `आदर्श पुस्तकालय´ था । यहां तक कि गांव के एक मुसलमान लड़के ने जब कस्बे में किराने की दुकान खोली तो उसका नाम भी `आदर्श जनरल स्टोर ´ रखा गया जिसका साइनबोर्ड हमारे आदर्श चचेरे भाई राम चरन सिंह ने पेन्ट किया था । कुल मिलाकर यह बताया जाना जरूरी लगता है कि उस समय हमारे आसपास खूब आदर्श-आदर्श था । अब तो एक नामी पत्रिका द्वारा सर्वेक्षण करके ऐलानिया यह बताया जा रहा है कि बयासी प्रतिषत लोंगों के अनुसार आदर्शों का कोई मोल नही। मिर्चा उस गांव का नाम है जिसको बाबा तुलसीदास के शब्दों में `रमायन ´में `जनम भूमि मम पुरी सुहावनि ´ कहा गया है । यह जन्मभूमि मेरी है बाबा की नहीं । बाबा की जन्मभूमि को लेकर तो हिन्दी साहित्य के विद्वानों में अभी तक मतान्तर की स्थिति बनी हुई है । वैसे यह बताने में कोई हर्ज नहीं है कि मेरी पैदाइश कस्बे के एक `मेमिन´ के यहां हुई थी - प्राइवेट अस्पताल में । लेकिन अस्पताल को जन्मभूमि तो घोषित नहीं किया सकता ।

 

मिर्चा के आसपास कोई नदी नहीं बहती थी ,यदि कोई नजदीकी नदी भी थी तो वह कर्मनाशा नामक एक अपवित्र नदी थी । जो हमारे गांव के लिये हर दूसरे - तीसरे बरस बाढ़ लेकर आया करती थी । बाढ हम जैसे लड़कों को उत्साहित करती थी और बड़े लोगों को उदास । शिवप्रसाद सिंह द्वारा लिखित कहानी `कर्मनाशा की हार ´ मै पढ़ चुका था । उस नदी की अपवित्रता का किस्सा बयान करने के लिये `अश्टादश पुराणेशु ´में घुसना पड़ेगा । खैर जो दुर्घटना होनी थी वह तो हो गई थी। उस पत्रिका में उपेन्द्रनाथ अश्क का एक साक्षात्कार छपा था । मैं उपेन्द्रनाथ अश्क के नाम से वाकिफ था क्योकि उनकी कहानी `डाची ´ और एकांकी `तौलिये ´पढ़ चुका था ,और हा मुझे यह भी मालूम था कि उर्दू में अश्क का अर्थ आंसू होता है। आंसू के बारे में हमारे हिन्दी माट्साब `मनज जी´ बता चुके थे कि यह प्रसाद जी द्वारा लिखित एक खंडकाव्य है जो प्रेम की पीड़ा की अभिव्यक्ति है । तब तक हमें न तो प्रेम के बारें में और न ही पीड़ा के बारे में कुछ खास मालूम था और बडों से इसकी जानकारी लेने के प्रयास का मतलब पिटना था ।

 

दरअसल तब तक मैं `मधुकर´ उपनाम से कविता - 'शायरी भी करने लग पड़ा था। मधुकर उपनाम की भी एक कथा है । मधुकर के साथ अपने गांव का नाम लगाकर उपनाम को और आकर्षक बनाने की गुंजाइश जम नहीं रही थी जैसे- `मधुकर मिर्चावी´ आदि । बाद में कुछ दिन मधुकर गाजीपुरी का दौर चला - बतार्ज़ गंगा जमुनी मुशायरों के मशहूर शायर खामोश गाजीपुरी । सुना है कि मधुकर गाजीपुरी की शायरी का एकाध सैम्पल मित्रों के कबाड़खाने में सुरक्षित है । शायरी कथा फिर कभी , अभी तो कवि वीरेन डंगवाल की बात कर रहा हूं ।

 

`आजकल ´ के उस अंक में छपे साक्षात्कार में अश्क जी ने हिन्दी के कुछ संभावनाशील कवियों के साथ वीरेन डंगवाल का नाम लिया था । यह नाम मुझे एकदम नया -सा लगा था क्योकि उस इलाके में ऐसे नाम - उपनाम प्रचलित नहीं थे । वीरेन के बारे में तो जानकारी थी कि कवि - कलाकार टाइप के लोग नरेन्द्र का नरेन जैसा कुछ कर लेते हैं लेकिन डंगवाल से एक अजब -सी ध्वनि सुनाई देती थी जैसे सावन -भादों की रात के अंधेरे में कहीं दूर कोई अकेले बैठकर नगाडा़ बजा रहा हो , केवल अपने लिए , अपनी उदासी को दूर करने के लिए । उस समय यह भी था कि कविताओं से हमारा परिचय कोर्स की किताबों तक ही सीमित था । इस परिधि से बाहर झांकने का अवसर तभी मिल पाता था जब कस्बे में कवि सम्मेलन या मुशायरा होता था । इस तरह के कार्यक्रमों में हम लोग बडे भाइयों और चाचाओं की देखरेख में बाकायदा टिकट खरीद कर शामिल हुआ करते थे और डायरी में कुछ-कुछ उतारा भी करते थे।

 

मैं उस पत्रिका को भूल गया जो लखनऊ से लाया था। समय के साथ और भी कई चीजें भूल गईं या भुलानी पड़ीं और सायास कुछ नई चीजें याद करनी पड़ीं लेकिन नहीं भूला तो वह नाम वीरेन डंगवाल । दो -ढ़ाई साल बीतने पर समतल मैदानों के धनखर , ऊसर ,ताल - पोखरे छोडकर जब एकाएक आगे की पढ़ाई के लिए नैनीताल आया तो यह एक आश्चर्य लोक में विचरण का अनुभव साबित हुआ । यहां कुछ भी समतल नहीं था ( न जमीन न जीवन । पहाड़ों की जिस ऊंचाई का अनुभव किताबों, किस्सों ,कविताओं और कोर्स में शामिल `अपना- अपना भाग्य ´ ( जैनेद्र कुमार ) जैसी कहानियों और ब्रजवासी एटलस में किया था वह अब प्रत्यक्ष था , हकीकत । कुछ समय तो ऐसे ही बीता - माहौल और मनुष्य को समझने - बूझने में । धीरे-धीरे दोस्तों की जमात में लिखना-पढ़ना , कालेज की सालाना पत्रिका ` उपलब्धि´ की संपादकीय टीम में शामिल होना । `कविता की दोपहर´ जैसे कार्यक्रमों में हिस्सेदारी और कुछ पत्रिकाओं कविताओं का प्रकाशन खासकर `गुइयां गले न गले ´ के कहानीकार दयानंद अनंत के पाक्षिक `पर्वतीय टाइम्स´ में ।

 

`कविता की दोपहर´ का एक आयोजन सी0 एल0 टी0 में था । यहां पहली बार एक नया नाम सुना - नेरूदा । फिजिक्स के प्राफेसर अतुल पाण्डे संचालन कर रहे थे जो अब हमसे कई करोड़ प्रकाशवर्ष दूर चले गये है। उन पर एक बहुत ही अच्छी , बहुत ही संवेदनशील कविता अशोक पाण्डे ने लिखी है । कई बार सुनाई दिया वही नया नाम - नेरूदा । पहाड़ पर रहते हुए अब तक मुझे अच्छी तरह पता चल गया था कि `दा ´ एक आदरसूचक संबोधन है - दादा या दाज्यू का लघु संस्करण या कि भाषाविज्ञान की शब्दावली में कहें तो प्रयत्न लाघव । मैं स्वयं इस संबोधन का प्रयोग करने का आदी होता जा रहा था और कुछ जूनियर छात्रावासियों के लिए `दा´ बन चुका था । मैं बड़ी देर से सोच रहा था कि नेरूदा आसपास के कोई बड़े कवि होंगे क्योकि मंच पर बैठै उन्ही के जैसे नाम वाले गिरदा या गिर्दा अपनी बुलंद खनकदार आवाज में `किसके माथे से गुलामी की सियाही छूटी कौन आजाद हुआ , कौन आजाद हुआ ´ गा रहे थे । यह भी लगा कि नेरूदा और गिरदा भाई- भाई तो नहीं ? सच कहूं वह तो लड़कपन की बात थी लेकिन आज नेरूदा और गिरदा सचमुच भाई- भाई लगते हैं । उसी गिरदा को एकदिन `नैनीताल समाचार´ से जुड़े अन्य साथियों के साथ `रामसिंह ´ कविता का मंचन देखने का विलक्षण अनुभव हुआ । अचानक विचारों की रील पीछे घूमी -अरे यह तो उसी कवि की कविता है जिसका नाम अपनी ध्वन्यात्मकता के कारण पिछले कई सालों से आकर्षित करता रहा है - वीरेन डंगवाल । अब आकर्षण का मायावी लोक ध्वस्त हो रहा था । अब कही कोई चीज थी जो दरक रही थी । अब लग रहा था कि कविता ऎसी भी होती है क्या ? अंदर -बाहर तक छील देने वाली , लगभग सारे गर्द गुबार को छांट-पछीटकर अलग कर दे वाली -

 

खेलने के लिए बंदूक और नंगी तस्वीरें

खाने के लिए भरपेट खाना ,सस्ती शराब

वे तुम्हें गौरव देते हैं

और इस सबके बदले तुमसे तुम्हारे निर्दोष हाथ

और घास काटती हुई लड़कियों से बचपन में सीखे गीत ले लेते है ।

 

कुछ समय बाद यही कविता ( `रामसिंह ´) एकाध और जगह पढ़ी -चर्चा सुनी और फिर `इसी दुनिया में ´( 1991) नामक संग्रह से मुठभेड़ की नौबत आई । इस संग्रह के साथ नीलाभ प्रकाषन ने पांच या छह किताबों का एक सेट निकाला था जिसे बेचने ,बिकवाने की अनौपचारिक जिम्मेदारी `युगमंच´ के पास थी ,`युगमंच´ का ठिया `इंतखाब ` में था और `इंतखाब `जहूर भाई ( जहूर दा ) की दुकान ( ये जहूर दा भी नेरूदा के खानदान के हुए शायद ! अक्सर ऐसा ही लगने वाला हुआ बल ।) आज भी यह एक मामूली दुकान ही दिखाई देती है लेकिन यह ठिया मेरे जैसे अनगिनत लोगों के लिए ,जो कहीं भीतर से बेहद संवेदनशील थे, के लिए एक विश्वविद्यालय से अधिक था । आशुतोष उपाघ्याय ने इस ठिये को नितान्त साफगोई और ईमानदारी से याद किया है और इसे नैनीताल का अनौपचारिक सांस्कृतिक केन्द्र कहा है । `युगमंच´ से जुड़ाव के कारण `इसी दुनिया में ´ संग्रह की कविताओं से परिचय हुआ । धीरे-धीरे यह परिचय प्रगाढ़ होता गया और समझ में आने लगा कि `पोथी -पतरा -ज्ञान- कपट से बहुत बड़ा है मानव ´ ।

 

इस संग्रह की कविताओं में वीरेन डंगवाल ने बेहद मामूली दिखाई देने वाली चीजों को कविता का विषय बनाया है । इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि बेहद मामूली दिखाई देने वाली चीजें स्वयं को लिखवा ले गईं हैं। `सही बने रहने की कोशिश ´ करने वाले कवि से उनका छूटना मुमकिन भी नहीं था । तभी तो ऊंट, गाय, मक्खी, पपीता, समोसा, पी0 टी0 उषा , कमीज, हाथी, भाप इंजन, इमली, डाकिया आदि समकालीन कविता के पात्रों का दर्जा पा चुके हैं । `इसी दुनिया में ´ की कवितायें इसी दुनिया की कवितायें हैं और वे इसी दुनिया को बेहतर बनाने का रास्ता बताती हैं । इस संग्रह की कुछ कविताओ के शीर्षक और टुकड़े तो रोजमर्रा की बातचीत में मुहावरों की तरह इस्तेमाल होते दिखाई हैं । मसलन-

 

• इतने भले नहीं बन जाना साथी

• तुम किसकी चौकसी करते हो राम सिंह ?

• प्यारी ,बड़े मीठे लगते हैं मुझे तेरे बोल !

• एक कवि और कर ही क्या सकता है सही बने रहने की कोशिश के सिवा

• इन्हीं सड़कों से चलकर आते रहे हैं आततायी, इन्हीं पर चलकर आयेंगे एक दिन हमारे भी जन

• खाते हुए मुंह से चपचप की आज होती है? कोई गम नहीं वे जो मानते हैं बेआवाज जबड़े को सभ्यता, दुनिया के सबसे खतरनाक खाऊ लोग हैं ।

• धीरे -धीरे चुक जायेगा जब असफलता का स्वाद तब आयेगी ईर्ष्या

 

आज जैसी , जितनी और जहां भी हिन्दी कविता पढ़ी जा रही है उनमें वीरेन डंगवाल सबसे अधिक पढ़े जाने वाले कवियों में से हैं । सबसे अधिक चर्चा किये जाने वाले कवियों में भी वह अगली कतार में नजर आते हैं । उनके, प्रशंसकों, प्रेमियों और पथ के साथियों की एक लम्बी फेहरिस्त है। उनकी कविताओं ने कविता - दीक्षा का काम भी किया है । मुझे लगता है कि समय , समाज और संस्कृति के प्रति संवेदनशील बनाने तथा तार्किक और सोद्देष्य समझदारी विकसित करने में वीरेन डंगवाल की कविताओं ने बीसवी 'शताब्दी के अंतिम दशक में जवान हुई एक पूरी पीढी को राह ही नही दिखाई है बल्कि संबल और साहस से लैस भी किया है । कम से कम मैं अपने लिए तो इसे पूरे होशोहवास में स्वीकार करता हूं ।

 

`इसी दुनिया में ´ के ग्यारह वर्ष बाद दूसरा कविता संग्रह `दुश्चक्र में सृष्टा ´ आ चुका है , चर्चित हुआ है ,समादृत - पुरस्कृत भी । और यह बात भी पुरानी हो चुकी है । इस बीच उनकी कई कवितायें पत्र -पत्रिकाओं में आयी हैं । कुछ कवितायें औपचारिक - अनौपचारिक गोष्ठियों में सुनी -पढ़ी गई हैं । सुना है कि अब नया संग्रह भी आने वाला है । मेरे लिए यह कोई बडी या रोमाचंकारी खबर नहीं है । असली रोमांच तो मेरे लिए वह था जब मैंने गदहपचीसी को पार करते हुए ,युवावस्था की दहलीज पर कदम रखते हुए वीरेन डंगवाल की कविताओं की रोशनी में `हर बार भाषा को रस्से की तरह थामे साथियों के रास्ते पर´ चलने की तमीज सीखी।

 

(सिद्धेश्वर सिंह के 'कबाड़नामा' से…)

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