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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Wednesday, July 31, 2013

जाति ऐसे नहीं टूटेगी उदित राज

जाति ऐसे नहीं टूटेगी

Tuesday, 30 July 2013 10:20

उदित राज 
जनसत्ता 30 जुलाई, 2013: इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने ग्यारह जुलाई को फैसला सुनाया कि जाति के आधार पर रैलियां नहीं होनी चाहिए। हाल में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने कुछ जातीय आयोजन जैसे ब्राह्मण सम्मेलन आदि किए। पूर्व में इस तरह की रैलियां होती रही हैं। जब से जाति के आधार पर खुल कर राजनीतिक समर्थन जुटाया जाने लगा है तब से इसकी आलोचना शुरू हुई है। सवर्ण बुद्धिजीवियों ने इसे जातिवाद के उभार के रूप में देखा और निंदा भी की। तमाम तरह के तर्क दिए गए कि इससे शासन-प्रशासन पर प्रतिकूल असर तो पड़ेगा ही, मेरिट (योग्यता) का अवमूल्यन भी होगा। अगर जाति की उत्पत्ति और उसकी अनवरत जारी व्यवस्था का प्रतिकार किया जाता तो बात समझ में आती है कि जाति के आधार पर राजनीतिक रैलियां नहीं होनी चाहिए। 
इस फैसले के पक्ष में कुछ लोग मुखर होकर बोले तो कुछ ने दबी जुबान से इसकी आलोचना की कि जब राजनीति में उनकी भागीदारी का समय आया तो हाइकोर्ट ने क्यों अड़ंगा लगाना शुरू किया? जाति आधारित सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक संगठन भी हैं और ये लगभग सभी जातियों में हैं, तो अदालत ने इन पर क्यों नहीं रोक लगाई? 
सबसे पहले इस फैसले के पैरोकारों के बारे में चर्चा कर ली जाए कि वे स्वागत क्यों कर रहे हैं, जबकि वे जाति व्यवस्था बनाए रखने के पक्ष में हैं। बीस जुलाई को एनडीटीवी पर बहस के लिए अखिल भारतीय जाट महासभा से युद्धवीर सिंह, विश्व ब्राह्मण महासभा से मांगेराम शर्मा, क्षत्रिय महासभा से महेंद्र सिंह तंवर और पोतदार समाज के प्रतिनिधि भी आमंत्रित किए गए। सभी ने एक स्वर से जाति आधारित रैलियों पर प्रतिबंध लगाने के फैसले का स्वागत किया। उनसे पूछा गया कि फिर क्यों वे जाति के आधार पर सामाजिक संगठन चला रहे हैं? क्या वे जाति छोड़ने के लिए तैयार हैं? सभी ने तुरंत कहा कि वे ऐसा क्यों करें? इसमें जो अंतर्विरोध उभरा, वह दिलचस्प था।
यह दोहरे चरित्र की पराकाष्ठा नहीं तो क्या है कि जहां जाति से लाभ हो वहां तो उसका स्वागत है और हानि की जगह पर विरोध। ऐसे में क्या जाति की भावना के जहर को खत्म किया जा सकता है? क्षत्रिय महासभा के प्रतिनिधि तो पूरी तरह अपनी पहचान जताने वाले लिबास में आए थे और जाति का विरोध भी कर रहे थे। हिंदू समाज एक नहीं, तमाम अंतर्विरोधों का पुलिंदा है। और जिस-जिसको इस व्यवस्था से हानि होती है, विरोध तो करता है लेकिन उसे समाप्त करने के लिए तैयार नहीं होता।
जैसे-जैसे सामाजिक और राजनीतिक हालात में बदलाव आए हैं, तथाकथित निम्न जातियां शासन-प्रशासन में भागीदारी के लिए हाथ-पांव मारने लगी हैं। संचार के क्षेत्र में क्रांति आने से शोषित जातियों की मुहिम और तेज हुई है। इस फैसले से इनको लगता है कि सवर्ण मानसिकता की न्यायपालिका ने पक्षपात किया, अगर ऐसा नहीं है तो जाति आधारित सामाजिक और धार्मिक रैलियों पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया? चूंकि मीडिया का खुले रूप से हाइकोर्ट के फैसले को समर्थन है, इसलिए दलितों और पिछड़ों के नेता खुल कर नहीं बोल रहे हैं लेकिन वे असहज जरूर हुए हैं।
कुछ पिछड़ी जातियों के नेताओं ने फैसले का स्वागत किया है लेकिन वह दिखाने के लिए है। जब उनका खुद का आधार जाति है तो बेहतर है कि ईमानदारी से सच्चाई को स्वीकार करें, न कि ढिठाई से वही काम करें और स्वीकार भी न करें। प्रतिबंध लगने से प्रतिक्रिया की संभावनाएं ज्यादा हैं। 
बहुत संभव है कि अब गली-गली और मोहल्ले-मोहल्ले में यह सुनाई दे कि जब सत्ता में हमारी भागीदारी की बात आई तो जातिवाद नजर आने लगा! क्या यह फैसला वोट डालते समय लोगों की जाति-भावना रोक सकेगा? चुनावी प्रचार रात-दिन गली-गली और गांव-गांव में होता है तो वहां कौन पहरेदारी करेगा कि कार्यकर्ता और उम्मीदवार जाति-भावना का इस्तेमाल न करें।
इस फैसले से जातिवाद बढ़ भी सकता है, कम होने की संभावना नहीं है। कारण यह है कि अब लगभग सभी जातियों का रुझान सत्ता में भागीदारी लेने का बन गया है। जिन दलों ने इस फैसले का स्वागत किया है क्या वे उम्मीदवार चुनते समय जाति-समीकरण नहीं देखते हैं? लगभग सभी दलों के पास गांव स्तर तक जातियों के  आंकड़े हैं और चुनावी रणनीति या प्रचार में इनका ध्यान रखा जाता है। बहुत संभव है कि जाति की रैली या सम्मेलन हो और उसका उद््देश्य सामाजिक, धार्मिक या भाईचारा बताया जाए! फिर, अदालत का यह फैसला क्या कर सकेगा?
राजनीतिक लाभ के लिए जाति को कितना भी इस्तेमाल किया जाए, इसकी एक सीमा है। इंसान सामाजिक हुए बिना नहीं रह सकता, जबकि वह अराजनीतिक हो सकता है। इससे बात साफ हो जाती है कि समाज का पलड़ा बहुत भारी है। समाज में अगर जाति का वर्चस्व बना रहे तो राजनीति के क्षेत्र में चाहे जितना इसे कमतर करने की कोशिश की जाए, इसका असर शासन-प्रशासन और देश पर खास नहीं होगा। हजारों वर्ष तक देश गुलाम रहा तो उसका कारण था सामाजिक स्तर पर अलगाव और एक दूसरे से नफरत। जिस दिन समाज में जातिवाद समाप्त हो जाएगा, उसका अस्तित्व राजनीति मेंं रहेगा ही नहीं। 

जाति व्यवस्था की गूढ़ता को इस देश के बुद्धिजीवी समझ नहीं सके हैं। यही कारण रहा है कि वे समाज को नहीं बदल पाए बल्कि समाज ने ही उन्हें प्रभावित किया। ऐसा जान-बूझ कर भले न हुआ हो, लेकिन इंसान जिस व्यवस्था का हिस्सा होता है, कभी-कभी उसकी बनावट, गूढ़ता और क्रूरता को नहीं समझ पाता और शायद यही हमारे बुद्धिजीवियों के साथ हुआ। जाति तब तक नहीं टूटेगी जब तक इसके अनगिनत फायदे लोग लेते रहेंगे। जन्म से लेकर मरण तक बिना किसी भुगतान या प्रयास के जाति का लाभ आदमी लेता रहता है। 
शादी, सेक्स, संतान, लेन-देन, तिथि-त्योहार, पूजा-पाठ, सुख-दुख, राजनीतिक सत्ता आदि जरूरतों की पूर्ति जाति ही करती है। क्या इतना फायदा राजनीति से आम आदमी को मिल सकता है! मतदाता हो या समर्थक, राजनीति से उसे कभी-कभार कुछ फायदा जरूर मिल जाता है, लेकिन वह जाति नाम की संस्था से मिलने वाले लाभ के मुकाबले बहुत कम होता है। यही मुख्य कारण है कि लोग जाति नहीं छोड़ते। जब शादी जैसी आवश्यकताओं की पूर्ति जाति के बाहर से होगी तभी जाकर यह टूटेगी। 
आज से लगभग ढाई हजार साल पहले जाति तोड़ने का महा अभियान भगवान गौतम बुद्ध ने चलाया था। वह असरदार भी रहा। लेकिन धीरे-धीरे फिर से जाति व्यवस्था हावी हो गई। उन्नीसवीं शताब्दी में ज्योतिबा फुले जैसे महान समाज सुधारक ने इसकी समाप्ति के लिए अभियान चलाया और उसे आगे बढ़ाने का कार्य डॉ बीआर आंबेडकर, पेरियार, नारायण गुरुआदि ने किया। 
जितनी जाति टूटी नहीं उससे कहीं ज्यादा इसके प्रति चेतना का प्रादुर्भाव जरूर हो गया। तभी तो इलाहाबाद हाइकोर्ट ने ऐसा फैसला दिया। कभी जाति-व्यवस्था सवर्णों के पक्ष में थी, लेकिन अब धीरे-धीरे इसका कुछ लाभ दलितों और पिछड़ों को मिलने लगा है। 
यही कारण है कि पिछड़ों और दलितों के नेताओं की जुबान पर भले इन महापुरुषों का नाम होता है, राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के लिए वे जाति की खूब गोलबंदी करते हैं। यह बड़ा आसान तरीका है। इस तरीके से यानी जाति की भावना के सहारे कई बार चुनाव लड़ा जा सकता है। विकास, कानून व्यवस्था और शासन-प्रशासन अच्छा रहे या न रहे, जाति का समर्थन भावनावश मिलता रहता है। 
सवर्ण भी राजनीतिक लाभ के लिए जाति की रैली करते, अगर वह फायदेमंद होती। क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य नेता अगर राजनीतिक लाभ के लिए जाति-रैली करेंगे तो यह उलटा पड़ जाएगा क्योंकि इनकी संख्या काफी कम है और ये लोग वोट देने कम ही जाते हैं। यही कारण है कि जाट महासभा, ब्राह्मण महासभा, राजपूत महासभा के नेताओं ने जाति तोड़ने का जबर्दस्त विरोध किया और इसका इस्तेमाल समाज और धर्म में करने से बिल्कुल गुरेज नहीं किया, सिवाय राजनीति के। जाति व्यवस्था ऐसी है कि सवर्णों को सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक क्षेत्र में इसकी गोलबंदी का फायदा तो होता है, लेकिन अगर यही काम वे राजनीति में करेंगे तो घाटा होने के अवसर ज्यादा हैं। 
ब्राह्मण महासभा के नेता मांगेराम ने कहा कि इनकी जाति के साथ अन्याय हो रहा है और लोग मजबूर होकर नौकरी करने अमेरिका जा रहे हैं। इनसे कहा गया कि अब भी तमाम सरकारी विभागों में सत्तर प्रतिशत तक ब्राह्मण हैं तो उनके पास इसका कोई जवाब  नहीं था लेकिन शिकायत बनी रही कि ब्राह्मणों के साथ भेदभाव हो रहा है! जाट और राजपूत नेताओं ने भी यही बात दोहराई! जब उन्हें अपनी जाति में ही रहने से घाटा हो रहा है तो हमने कहा कि ऐसे में जाति तोड़ने में ही भलाई है। मगर वे लोग इस पर सहमत नहीं हुए। 
यह कैसी मानसिकता है कि जब जाति से फायदा हो तो उसका स्वागत और घाटे की जगह पर विरोध। इस समय लगभग सभी जातियां असंतुष्ट लग रही हैं कि उन्हें जितना मिलना चाहिए नहीं मिल पा रहा है, वे अपने प्राप्य से वंचित हो रही हैं। तो ऐसी स्थिति में कांशीराम के नारे पर क्यों नहीं देश के लोग चलने पर सहमत हो जाते हैं कि जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी। जाति तो मरने पर भी नहीं जाती है। 
हाल में इंग्लैंड की संसद ने एक कानून बनाया कि उनके यहां भारत से गए विभिन्न जातियों के लोगों में जो भेदभाव है, अगर वहां वैसा बर्ताव किया जाता है तो जुर्म माना जाएगा। इसका सवर्ण जातियों ने विरोध किया लेकिन कानून बन ही गया। अगर इस देश में दो सामाजिक बाधाएं नहीं होतीं, एक जाति और दूसरा लिंग आधारित भेदभाव, तो इसको दुनिया की महाशक्ति बनने से कोई रोक नहीं पाता। जाति का विरोध हो तो पूरी ईमानदारी से हो।

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