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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Wednesday, July 31, 2013

आप कितने सही हैं, डॉ सिंह?

आप कितने सही हैं, डॉ सिंह?

Posted by Reyaz-ul-haque on 9/24/2010 06:31:00 PM

प्रिय प्रधानमंत्री जी,
मुझे यह जानकर खुशी हुई कि सुप्रीम कोर्ट को ''सम्मानपूर्वक'' फटकारते हुए आप ने कहा है कि अनाज, सड़ते हुए खाद्यान्न का निपटारा जैसे सभी सवाल नीतिगत मामले हैं. आप बिल्कुल सही कह रहे हैं और बहुत दिनों बाद ऐसा किसी ने कहा है. ऐसा कर आप संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सार्वजनिक बयानबाजी में ईमानदारी लाने की एक छोटी-सी कोशिश कर रहे हैं, जिसकी बहुत कमी महसूस की जा रही थी. बेशक यह आपकी सरकार को तय करना है कि वर्तमान में लाखों टन सड़ते अनाज का क्या करना है, कोर्ट को नहीं. अगर नीति यह कहती है कि भूखे लोगों का भोजन बनने से बेहतर है कि अनाज सड़ जाए, तो अदालत को इससे कोई मतलब नहीं रखना चाहिए. जैसा कि आप कहते भी हैं कि ''नीति निर्माण का अधिकार क्षेत्र'' आपका है. यह जानकर अच्छा लगता है कि देश का नेतृत्व एक सीमा तक ही सही, यह स्वीकार करता है कि बढ़ती भूख, गिरते पोषण-स्तर, सड़ते अनाज, अनाज भंडारण के लिए गोदामों की कमी, ये सभी समस्याएं नीतियों के कारण उत्पन्न होती हैं. (मुझे पता है कि ये निश्चित रूप से सुप्रीम कोर्ट के किसी भी फैसले की वजह से पैदा नहीं हुई हैं.)

एक आम आदमी शायद हालात को स्वीकार करते हुए इस सबके लिए विपक्ष, मौसम या रहस्यमय (लेकिन अंततः फायदे में ही रहने वाले) बाजार के उठा-पटक को दोषी ठहराता. लेकिन आप ऐसा नहीं करते. आप साफ तौर पर ऐसा होने की वजहों को नीतियों में खोजते हैं. और नीतियां बाजारों की तुलना में कहीं अधिक सुविचारित और बहुत कम गूढ़ हैं.
 
अनाज भंडारण का मामला
अंततः यह तो एक नीतिगत फैसला ही था कि पिछले कुछ वर्षों में अनाज के भंडारण के लिए नये गोदाम बनाने के लिए न के बराबर राशि खर्च की गयी. सरकारों के पास नए शहरों में बन रहे इमारतों, मॉल और देश भर में बन रहे मल्टीप्लेक्सों पर छूट देने के लिए पैसा है. ऐसा निजी बिल्डरों और डेवलपर्स को ''प्रोत्साहित'' करते हुए किया जा रहा है. लेकिन देश के अनाज भंडारण के लिए गोदाम बनाने के लिए पैसा नहीं है.
 
इसकी जगह 'नया' विचार यह है कि नये गोदाम बनाने की बजाय निजी भवनों को किराए पर लिया जाए. यह फैसला सवाल खड़े करता है क्योंकि आपकी सरकार ने 2004 और 2006 के बीच किराये के गोदामों को खाली करने का नीतिगत फैसला लिया था, इनमें दसियों लाख मीट्रिक टन अनाज भंडारण की क्षमता थी. यह सब किया गया एक महंगी बहुराष्ट्रीय परामर्शदात्री फर्म की सलाह पर और यह सलाह देने के लिए उसे एक बड़ी राशि का भुगतान भी किया गया. नये गोदामों को किराये पर लेने का एक मतलब निश्चित रूप से यह होगा कि बढ़े हुए दर पर किराये का भुगतान करना. ऐसा करना तो सिर्फ किरायाखोरों के चेहरे पर ख़ुशी ही लायेगा. (शायद आप ऐसी सलाह देने के लिए वापस फिर से उसी बहुराष्ट्रीय कंपनी को मोटी रकम का भुगतान करें जिसने पिछली बार ठीक इसके उलट फैसला करने की सलाह सरकार को दी थी.)
 
और हां, आपकी नवीनतम नीतियां किराए पर गोदाम देने वालों को ही ''प्रोत्साहित'' करती है। प्रणब दा के बजट भाषण (बिंदु 49) ने किराए के गोदामों की गारंटी अवधि को बढ़ाकर पांच से सात साल कर दिया. दरअसल, तब से इसे बढ़ा कर 10 साल कर दिया गया है. (एक शुभचिंतक की चेतावनी: मोटी फीस लेने वाली उस बहुराष्ट्रीय परामर्श फर्म की रिपोर्ट पर कार्रवाई करना किसी भी सरकार के लिए कितना आत्मघाती है यह आंध्र प्रदेश के श्री नायडू से पूछिए.) सरकारी जमीन पर अनाज भंडारण के लिए गोदाम बनाने का विकल्प हमेशा से मौजूद था. छत्तीसगढ़ में अब ऐसा किया जा रहा है. लंबे समय में इसकी लागत बहुत कम पड़ती है और ऐसा करना भूख से निपटने के लिए किये जा रहे उपायों से मुनाफाखोरी को कम करता है. ये होते हैं नीतिगत मामले, यह सिर्फ एक सुझाव है, आदेश नहीं.
 
जैसा कि आपका संदेश सुप्रीम कोर्ट को यह स्पष्ट कर देता है कि सड़ते अनाज का मामला उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता. मुझे यकीन है कि देश के सबसे महत्वपूर्ण अर्थशास्त्री के रूप में, आपके पास खुली जगहों और जर्जर गोदामों में पड़े अनाज, सड़ रहे या सड़ने वाले अनाज के बारे में सुविचारित नीतियां होंगी. मैं सिर्फ इतना भर चाहता हूं कि आप जैसा कोई विद्वान आक्रामक चूहों की तेजी से बढ़ती आबादी को इन नीतियों के बारे में समझाये, ये चूहे यह सोचते हैं कि वो अनाज के साथ मनमाफिक व्यवहार कर सकते हैं और ऐसा करते हुए अदालत की उपेक्षा भी कर सकते हैं. (शायद हमें चूहों को इसके लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत पड़े कि वे अनाज बर्बाद न करें.)
 
इस बीच, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के एक प्रवक्ता ने यह स्वीकार किया है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने भी इस मुद्दे पर बहुत बड़ी कीमत चुकाई थी. उसे 2004 के आम चुनावों में जबरदस्त हार का मुंह देखना पड़ा. क्या कमाल की आम सहमति है इन सभी नीतिगत मामलों पर. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट भी इस मामले में सहमत लगता है.
 
डॉ. सिंह, लगभग नौ साल पहले (20 अगस्त, 2001) इसी भोजन का अधिकार मामले में सुप्रीम कोर्ट का कहना था, ''न्यायालय की चिंता यह है कि गरीब और बेसहारा व कमजोर वर्गों को भूख और भुखमरी का सामना नहीं करना पड़े. ऐसे हालात की रोकथाम सरकार की प्रमुख जिम्मेदारियों में से एक है, चाहे वो केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार. यह कैसे सुनिश्चित किया जाए, यह एक नीतिगत मामला है और सबसे बेहतर है कि इसे सरकार पर छोड़ दिया जाए. अदालत को बस इतना भर यकीन दिलाने की जरूरत है कि...खाद्यान्न... बर्बाद न हों...या चूहों का आहार न बनें... सबसे जरूरी यह है कि अनाज भूखी जनता तक पहुंचना चाहिए''.

लाखों की संख्या में आत्महत्या कर रहे किसान भी आप से पूरी तरह सहमत हैं, प्रधानमंत्री जी. वे जानते हैं कि यह नीतियां ही हैं, अदालतें नहीं, जो उन्हें अपनी जान देने के लिए मजबूर कर रही हैं. इसी कारण से उनमें से कई लोगों ने अपने सुसाइड नोट में आपको, वित्त मंत्री या अपने प्रिय महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को संबोधित किया. (जब मैं आपको यह पत्र लिख रहा हूं वो एक टीवी स्टूडियो में बाघों को बचाने में व्यस्त हैं). कभी भी आपने इन पत्रों में से किसी को भी पढ़ा है, डॉ. सिंह? क्या आपकी अपनी पार्टी की महाराष्ट्र सरकार ने कभी भी आपको उनमें से एक भी दिया है? उनमें ऋण, कर्ज, बढ़ती लागत और गिरते कीमतों का जिक्र होता है. ये ऐसी सरकारों के बारे में है जो उनकी आंसुओं को देख नहीं पा रही है. ये उनके परिवारों को भी संबोधित नहीं हैं, लेकिन आपको और आपके साथियों को हैं डा. सिंह. हां, उन्होंने अपनी दयनीय स्थिति में नीतियों की भूमिका को समझा- और इसलिए अपने सुसाइड नोट में उन नीतियों को बनाने वालों को संबोधित किया.

किसानों का असंतोष 
2006 में आपके ऐतिहासिक विदर्भ यात्रा के बाद वर्धा के रामकृष्ण लोंकार ने अपने सुसाइड नोट में अपनी पीड़ा को बहुत ही सरल शब्दों में व्यक्त किया था. उसने लिखा ''प्रधानमंत्री की यात्रा और फसल ऋण संबंधी हालिया घोषणाओं के बाद मुझे लगा मैं फिर से जिंदगी जी सकता हूं. लेकिन मेरे प्रति बैंक ने कोई सम्मान नहीं दिखाया, वहां कुछ भी नहीं बदला था.' वासिम का रामचंद्र राउत चाहता था कि उसकी बात पर पूरी गंभीरता से विचार किया जाए. इस कारण उसने अपने सुसाउड नोट में न केवल आपको बल्कि राष्ट्रपति और आपके सहयोगियों को भी संबोधित किया और साथ ही उसने अपने सुसाइड नोट को 100 रुपये के ननजुडिसियल स्टांप पेपर पर दर्ज भी करवाया. वह अपनी समझदारी के अनुसार अपने विरोध को ''कानूनी वैधता'' देने की कोशिश कर रहा था. यवतमाल में रामेश्वर कुचानकर के सुसाइड नोट ने किसानों के संकट के लिए कपास के खरीद मूल्य को दोषी ठहराया. यहां तक जो पत्र आपको संबोधित नहीं भी थे, उनमें भी नीतियों पर ही सवाल खड़ा किया गया है. जैसे कि साहेबराव अधाओ का सुसाइड नोट, जो अकोला-अमरावती क्षेत्र में सूदखोरी का दयनीय चित्रण करता है.

सभी नीतियों की ओर ही इशारा करती हैं. और वो कहां तक सटीक थीं! हाल ही में यह खुलासा हुआ है कि 2008 में महाराष्ट्र में वितरित कुल ''कृषि ऋण'' में लगभग आधे का वितरण ग्रामीण बैंकों द्वारा नहीं, लेकिन शहरी और महानगरीय बैंक शाखाओं द्वारा किया गया था. (इस संबंध में एक रपट 13 अगस्त, 2010 को द हिंदु में प्रकाशित भी हुई थी). इसका 42 प्रतिशत से अधिक हिस्सा सिर्फ वितीय  राजधानी मुंबई में बांटा गया. (बेशक, शहर में बड़े पैमाने पर खेती होती है, लेकिन एक अलग तरह की - यहां ठेकों की खेती होती है). ऐसा लगता है कि बड़े निगमों की एक मुट्ठी भर जमात इस ''कृषि ऋण'' के एक बहुत बड़े हिस्से को कुतर जाते हैं. ऐसे में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्यों लोंकार राउत और उनके जैसे दूसरे सभी लोगों के लिए ''कृषि ऋण'' पाना इतना मुश्किल हो गया. अगर आपके पसंदीदा मुहावरों में से एक के शब्दों में कहूं तो अरबपतियों के होते हुए सबके लिए नियम एक जैसे नहीं हो सकते.

जबकि ये समस्याएं इन नीतियों के कारण ही उमड़ रही हैं, जो पूरी तरह से आपकी सरकार के अधिकार क्षेत्र में आती हैं. मैं यह कबूल करता हूं कि ऐसा कहते हुए मैं थोड़ा असमंजस में हूं. कई वर्षों की ''अद्भुत'' मूल्य वृद्धि निश्चित रूप से सरकार की अच्छी और दूरदर्शी नीतियों का ही नतीजा हैं ? इस वर्ष जैसे ही आपने टोरंटो में समावेशी विकास पर विश्व के नेताओं को संबोधित किया, आपकी सरकार ने पेट्रोल की कीमतों को पूरी तरह और डीजल को आंशिक रूप से नियंत्रित मुक्त कर दिया. इतना ही नहीं मिट्टी के तेल की कीमतें भी बढ़ा दी गयीं.

जब नीतियां करोड़ों लोगों को भोजन, जो पहले भी भरपेट नहीं मिलता था, में कटौती करने के लिए मजबूर करती हैं, ऐसे में क्या उन पर चर्चा हो सकती है? जब नीतियां लोगों के अधिकारों को रौंदती हैं, और लोग अपने अधिकारों की बहाली के लिए अदालतों की शरण में जाते हैं, तब अदालतें क्या करें, प्रधानमंत्री? आप सही हैं कि सुप्रीम कोर्ट को नीति नहीं बनानी चाहिए. लेकिन सुप्रीम कोर्ट क्या करे जब उसका सामना आपकी नीतियों के दुश्परिणामों से होता है? नीतियां जनता बनाती है, यह आप मुझसे बेहतर जानते हैं. आपके मामले में ऐसा कई प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों द्वारा किया जाता है, इनमें वो भी शामिल हैं जिन्होंने बाल श्रम प्रतिबंधित करने के लिए किये जा रहे संघर्षों का विरोध किया था. इन्हीं में से एक ने न्यूयॉर्क टाइम्स में 29 नवंबर, 1994 को ''बाल श्रम-गरीबों की जरूरत'' शीर्षक से एक लेख लिखा था. जिसमें उन्होंने कबूल किया था कि उनके घर में एक 13 साल का बच्चा काम करता था. (इतना ही नहीं इसी अर्थशास्त्री ने मूल्य वृद्धि से निपटने के लिए ईंधन की कीमतों को नियंत्रणमुक्त करने का समर्थन किया था. और शायद बाल श्रम का भी?)

इतना ही नहीं, उच्चतम न्यायालय क्या करता जब सरकार का वह वादा पूरा ही नहीं हुआ जिसमें उसने 2006 में ग्यारहवीं योजना के शुरू होने से पहले एक नया बीपीएल सर्वेक्षण पूरा करने की बात कही थी? उच्चतम न्यायालय या कोई और भी क्या करता जब केंद्र सरकार 1991 की जनगणना के आधारित वर्ष 2000 के गरीबी अनुमानों के आधार पर राज्यों को अनाज आवंटित करती है. ऐसे में तो मामला यह होना चाहिए है कि बीस वर्ष पुराने आंकड़ों के कारण लगभग 7 करोड़ लोग क्यों बीपीएल/अन्त्योदय अन्न योजना के तहत मिलने वाले अनाज से भी वंचित हैं.

मेरा विनम्र सुझाव है कि जब तक सुप्रीम कोर्ट उपरोक्त दुविधाओं के साथ तालमेल बिठाता है, हम अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करें. साथ ही मैं आपका बहुत आभारी रहूंगा यदि आप इस पत्र की एक प्रति अपने खाद्य और कृषि मंत्री को भी भेज दें. हां, अगर आपको याद हो कि वे कौन हैं और कहां है.

आपका
पी साइनाथ

द हिन्दू में प्रकाशित अनुवाद - मनीष शांडिल्य  

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