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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, August 4, 2013

मंडल के बाद का भारत एच एल दुसाध


               मंडल के बाद का भारत

                                  एच एल दुसाध        

आज 7 अगस्त है .1990  में आज ही के दिन मंडल आयोग की युगांतरकारी रिपोर्ट प्रकाशित हुई जिससे पिछड़ों को सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत प्रतिनिधित्व मिला.इससे उनके जीवन में सुखद बदलाव की प्रक्रिया शुरू हुई.किन्तु उससे सिर्फ पिछड़ों के जीवन में सुखद बदलाव का मार्ग ही प्रशस्त नहीं हुआ बल्कि भारत भी वह भारत नहीं रह गया जो उससे पहले था.बहरहाल बदले भारत का जायजा लेने के पूर्व जरा मंडल रिपोर्ट के इतिहास सिंहावलोकन कर लिया जाय

 डॉ आंबेडकर ने संविधान में धारा 340 का प्रावधान रचकर पिछड़ी जातियों के लिए भविष्य में आरक्षण का आधार बहुत पहले ही रख दिया था.वे ऐसा  करने के लिए अपने विवेक के प्रति प्रतिबद्ध रहे.कारण जबसे उन्होंने सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलन में खुद को समर्पित किया ,तबसे ही हिन्दू आरक्षण(वर्ण-व्यवस्था ) के शिकार शुद्रातिशूद्रों के लिए सार्वजनिक क्षेत्र में पर्याप्त  प्रतिनिधित्व देने का मामला उठाना शुरू कर दिया था.1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया,उन्होंने अस्पृश्यों की ओर से प्रतिवेदन रखते हुए पिछड़ी जाति के नेताओं से अनुरोध किया था कि वे कांग्रेस के बहकावे में न आकर,साइमन कमीशन के सामने पिछड़ी जातियों के पृथक एवं स्वतंत्र प्रतिनिधित्व की मांग रखें.किन्तु गाँधी के अत्यधिक प्रभाव में रहने के कारण वे पिछड़ों के अधिकारों की अनदेखी कर गए,जिनमें  लौह पुरुष सरदार पटेल भी थे .आंबेडकर ने दलितों के अधिकारों का मामला देश में हो रहे राजनीतिक परिवर्तनों के साथ जोड़ा और उनके अधिकारों के लिए संघर्ष किया.उनके उस संघर्ष के फलस्वरूप भारत को आज़ादी मिलने के साथ अनुसूचित जाति /जनजाति को आरक्षण के अधिकार मिले .अगर पिछड़ी जाति के नेताओं ने उस समय डॉ.आंबेडकर की बात मान ली होती,दलितों के साथ पिछड़ों के भी अधिकार संविधान में  सुलभ हो जाते.ऐसे में कोई और उपाय न देखकर बहुजन हितैषी बाबासाहेब को उनके  लिए संविधान में धारा 340 का प्रावधान रचकर ही संतोष करना पड़ा .10 अक्तूबर 1951 को जब उन्होंने केन्द्रीय मंत्रीमंडल से इस्तीफा दिया,तब उसके पीछे हिन्दू कोड बिल के साथ ही पिछड़ो का आरक्षण एक अन्यतम फैक्टर रहा.

बहरहाल धारा 340 के तहत सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ी जातियों को आरक्षण प्रदान करने हेतु पूना के ब्राह्मण काकासाहेब कालेलकर की अध्यक्षता में 29 जनवरी 1953 को एक आयोग गठित किया गया जिसने अपनी रिपोर्ट 30 मार्च 1955 को भारत सरकार को सौंप दी.उन्होंने  अपनी रिपोर्ट में जाति के आधार पर पिछड़े  वर्ग को आरक्षण देने के सिद्धांत को मान्यता प्रदान की और उस पर हस्ताक्षर भी कर दिया.किन्तु उनपर स्व-वर्णवादी  चरित्र हावी हो गया और उन्होंने सरकार को अलग से पत्र लिखकर जाति के आधार पर आरक्षण दिए जाने का विरोध कर दिया.इस अंतर्विरोधी स्थिति का लाभ उठाते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरु ने उनकी रिपोर्ट ही खारिज कर दी.तबसे पिछड़ों के आरक्षण का मामला अधर में लटका रहा.

 बाद में 1977 में पिछड़ों के आरक्षण की स्थिति तब अनुकूल हुई जब जनता पार्टी ने कांग्रेस को हराने के लिए अपने घोषणापत्र में कालेलकर आयोग के अनुसार पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने का आश्वासन दे डाला.संयोग  से जनता पार्टी चुनाव जीत गई और प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने इस हेतु बीपी मंडल की अध्यक्षता में एक आयोग की स्थापना कर डाला.किन्तु मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के पहले ही जनता पार्टी  सत्ता से बाहर हो गई .उसकी जगह दुबारा सत्ता में आई कांग्रेस मंडल रिपोर्ट को टालती रही.उसका ढुलमुल रवैया देखते हुए कांशीराम रपट प्रकाशित करवाने के लिए लगातार आन्दोलन चलाते रहे.इस बीच 1989 में पुनः सत्ता परिवर्तन हुआ और वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने.प्रधानमंत्री बनने के कुछ अंतराल बाद ही वे राजनीतिक संकट से घिर गए जिससे उबरने के लिए आनन-फानन में उन्होंने 7 अगस्त 1990 को मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित कर दी.

मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होते ही उसके विरोध में जहाँ सवर्ण छात्र-छात्राएं आत्म-दाह और राष्ट्र की सम्पदा दाह में जुट गए ,वहीँ संघ परिवार ने संग-संग राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन छेड़ दिया.बच्चों तक को मालूम है कि स्वाधीनोत्तर भारत का विराटतम आन्दोलन सिर्फ पिछड़ों के आरक्षण के खिलाफ संगठित हुआ था.राम जन्मभूमि आन्दोलन के फलस्वरूप राष्ट्र की कई हज़ार करोड़ की संपदा और असंख्य लोगों की प्राणहानि हुई .किन्तु मंडल के बाद सत्ता में आनेवाले आधुनिक चाणक्य नरसिंह राव ,जिन्हें अटलजी श्रद्धा से गुरुघंटाल कहा करते थे,ने मंडलवादी आरक्षण का दृष्टिकटु प्रदर्शन न करते हुए आरक्षण का समूल ही नष्ट करने की परिकल्पना की.

 नरसिंह राव ने आरक्षण के खात्मे की दूरगामी योजना के तहत 24 जुलाई 1991 को ग्रहण किया भूमंडलीकरण की अर्थनीति.उनके ऐसा करते देख दलित बुद्धिजीवियों का माथे पर चिंता की लकीरें उभरीं तथा  उनमें  निजी क्षेत्र में आरक्षण के लिए सुगबुगाहट शुरू हो गई .किन्तु अटलजी के हाथों सत्ता की बागडोर आते ही वे फिर आश्वस्त हो गए.क्योंकि उन्हें लगता था की स्वदेशी के परम हिमायती संघ द्वारा संस्कारित अटल जी  भूमंडलीकरण की नीति का अनुसरण किसी भी सूरत में नहीं करेंगे.किन्तु सत्ता की पहली पाली में एनरान को आशीर्वाद देने वाले अटलजी दुबारा सत्ता में आकर जब अपने गुरुघंटाल को तेजी से बौना बनाना शुरू किये तब निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग शोर बदलने लगी.किन्तु 2002 के ऐतिहासिक भोपाल सम्मलेन में जमा हए दलित बुद्धिजीवियों को आरक्षण के खात्मे के इरादे से शासक जमात द्वारा शुरू की गई निजीकरण,उदारीकरण और भूमंडलीकरण की नीति का मुक्कमल जवाब अमेरिका में लागू  उस डाइवर्सिटी नीति में नजर  आया जिसके तहत  वहां के दलितों (अश्वेतों )को सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरियों के साथ सप्लाई,डीलरशिप, ठेकों,फिल्म-मीडिया इत्यादि समस्त आर्थिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में संख्यानुपात में भागीदारी दी जाती है.भूमंडलीकरण की काट के लिए एक दशक पूर्व दलितों लिए शुरू हुई सर्व-व्यापी प्रतिनिधित्व(डाइवर्सिटी) की मांग आज पूरे बहुजन समाज तक प्रसारित हो गई है.डाइवर्सिटी की बौद्धिक लड़ाई के फलस्वरूप आज कांशीराम का आर्थिक दर्शन की प्रासंगिकता नए सिरे बढ़ गई है.यही कारण है दलित –पिछड़ों के चाहे सामाजिक हों या छात्र संगठन सबकी जुबान पर बस एक नारा है-'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी.'भूमंडलीकरण के दौर के बदले भारत में जिसकी जितनी संख्या भारी...की कॉमन आकांक्षा ने परस्पर कलहरत दलित-पिछड़ी जनता को नए सिरे से भ्रातृत्व के बंधन में बांधना शुरू कर दिया है.

बहरहाल सारांश में यही कहा जा सकता है कि मंडल के बाद कांशीराम द्वारा बहुत पहले शुरू किया गया जाति चेतना के राजनीतिकरण का अभियान और प्रभावी हुआ तथा परम्परागत शासक जातियां राजनीतिक रूप से लाचार समूह में तब्दील हुईं,जिससे भारत में राजनीतिक गैर-बराबरी का खात्मा हुआ.किन्तु शासक वर्ग ने आरक्षण के खात्मे के लिए भूमंडलीकरण की अर्थनीति वरण कर लिया जिससे आरक्षित वर्ग संकटग्रस्त हुआ.पर भूमंडलीकरण की काट के लिए दलित बुद्धिजीवियों ने डाइवर्सिटी का जो विकल्प सामने लाया उससे वर्ण-व्यवस्था के वंचितों में शक्ति के समस्त स्रोतों में वाजिब हिस्सेदारी की आकांक्षा पनपने लगी.हो सकता है वीभत्स-संतोषबोध के शिकार लोगों में तीव्रतर होती यह आकांक्षा समतामूलक भारत निर्माण का सबब बन जाय.

दिनांक:4 जुलाई,2013    

    

       


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