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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Saturday, January 25, 2014

बड़-बड़ बहाइल जाए, गदहवा कहे केतना पानी…!

बड़-बड़ बहाइल जाए, गदहवा कहे केतना पानी…!

बड़-बड़ बहाइल जाए, गदहवा कहे केतना पानी…!

HASTAKSHEP

खुल्ला बाजार में सारे लोग पाँत में खड़े अपनी-अपनी क्रयशक्ति तौल रहे हैं ताकि विकास के नाम पर भरपेट तबाही खरीद सकें।

पलाश विश्वास

अपना अतुल्य भारत अब बिकाऊ है। जिस तरह देश भर में बेदखली मुहिम पीड़ितों के अलावा बाकी जनता तमाशबीन की तरह देखती रहती है, जिस तरह आहिस्ते-आहिस्ते राथचाइल्डस घराने के लोग आर्थिक सुधारों के नाम बपर निनानब्वे फीसद लोगों का गली पूरे दो दशक से रेंत रहे हैं, जैसे रक्षा, मीडिया और खुदरा बाजार तक मेंप्रत्यक्ष विदेशी निवेश है, जैसे अबाध पूँजी प्रवाह के नाम पर कालाधन का निरंकुश राज है, जैसे खास-खास कम्पनी के हितों के मद्देनजर सारे कायदे कानून सर्वदलीय सहमति से बनाये बिगाड़े जा रहे हैं, जैसे देश में कहीं भी न संविधान लागू है, न लोकतंत्र है और न कानून का राज, किसी को डंके की चोट पर हो रही इस नीलामी से कोई ऐतराज नहीं है। खुल्ला बाजार में सारे लोग पाँत में खड़े अपनी-अपनी क्रयशक्ति तौल रहे हैं ताकि विकास के नाम पर भरपेट तबाही खरीद सकें।

अब इस देश में देशभक्ति का हर स्वाँग बेमतलब है। नाना दिवसों पर सैन्य राष्ट्र के शक्ति प्रदर्शन में राष्ट्र कहीं नहीं है।

शुरु होने से पहले ही लगता है कि दूसरी सम्पूर्ण क्रांति की भ्रांति का पटाक्षेप हो गया और देश में अस्मिताओं के टूटने का भ्रम भी आखिर बाजार का ही करिश्मा साबित होने लगा है। इसी के मध्य विदेशी निवेशकों ने भारत में विस्तार की योजना बनायी है। वे इस साल होने वाले आम चुनाव के बाद बेहतर कारोबारी माहौल और सुधार प्रक्रिया आगे बढ़ते रहने की उम्मीद कर रहे हैं। यह बात एक सर्वेक्षण में कही गयी।

अर्न्‍स्ट एंड यंग इंडिया के एक सर्वेक्षण में कहा गया कि पूछे गये सवालों के जवाब में आधे से अधिक (53.2 प्रतिशत) का मानना है कि वह भारत में अपनी उपस्थिति बढ़ाने पर पर विचार कर रहे हें और 57.9 प्रतिशत निवेशक अपने कामकाज के विस्तार की योजना बना रहे हैं।

विनाश कार्यक्रम में विनिर्माण को सर्वोच्च वरीयता का खुलासा इस तरह हो रहा है कि भारत सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण क्षेत्र की भागीदारी 16 प्रतिशत के मौजूदा स्तर से बढ़ाकर 25 प्रतिशत तक पहुँचायेगा और 10 करोड़ लोगों के लिये रोजगार के अवसर पैदा करेगा। यह बात वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री आनंद शर्मा ने कही।

 नेताजी जयंती की सबसे बड़ी खबर शायद यह है कि कोलकाता में इस मौके पर पराधीन भारत को आजाद करने के लिये आजाद हिंद फौज बनाने वाले और ब्रिटिश साम्राज्य के लिये बाकायदा युद्ध करने वाले उसी आजाद हिंद फौज के सर्वाधिनायक नेताजी सुभाष चंद्र बोस के परिजनों और रिश्तेदारों ने केंद्र और राज्य सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया। नेताजी मृत्यु रहस्य की राजनीति करने वाले सत्ता के खेल से नेताजी के परिजन बेहद परेशान हैं

उत्तराखंड की तराई में मेरे गांव बसंतीपुर में राज्य का मुख्य नेताजी जयंती समारोह हर साल की तरह भव्य तरीके से सम्पन्न हो गया। भाई पद्दोलोचन ने सविता को कार्यक्रम का आँखों देखा हाल भी सुनाया। हर साल स्वतंत्रता सेनानियों को इस मौके पर हमने रोते हुये देखा है।

आजाद भारत को देश बेचो ब्रिगेड कंपनी राज में बदलने की तैयारी में है, यह देखकर उनको क्या लगता होगा,उससे बड़ा सवाल है कि देश को गुलाम बनाने वाली राजनीति को नेताजी जयंती मनाने का हक है या नहीं।

पद्दो ने अपनी भाभी को बताया कि बसंतीपुर में नेताजी जयंती समारोह में मुख्य अतिथि थे उत्तराखंड के भाजपायी पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी, जिनकी सरकार ने बंगाली शरणार्थियों को विदेशी घुसपैठिया करार दिया था, जिसके खिलाफ उत्तराखंड की जनता ने अस्मिताओं का दायरा तोड़कर जनांदोलन किया था। उन्हीं कोश्यारी जी का स्वागत हमारे गाँव वाले और दूसरे लोग कैसे कर रहे होंगे और उनकी मौजूदगी में क्या नेताजी जयंती मना रहे होंगे, मैं सोच नहीं सकता। बसंतीपुर वालों से बात होगी तो पूछुँगा जरूर।

पूरा देश आज बसंतीपुर है और इस देशव्यापी बसंतीपुर में नेताजी जयंती इसी तरह मनायी गयी गुलामी की गगन घटा गहरानी मध्य, हमें इसका अहसास तक नहीं है।

डोवास में देश बेचो ब्रिगेड का जमावड़ा लगा है। ग्लोबल इमर्जिंग मार्केट के दुनियाभर के एजेंट और दल्ला जमा हैं वहाँ। जिन्हें नीति निर्धारण और राजकाज के पाठ पढ़ा रही है जायनवादी वैश्विक एक ध्रुवीय व्यवस्था।

भारतीय नीति निर्धारकों और मुक्त बाजार के राजकाज कारिंदों के लिये ताजातरीन पाठ यही है कि भारत में विकास की बुलेट मिसाइली ट्रेन को समूचे देहात को रौंदने लायक पटरी पर लाने की गरज से राजकाज व्यवसायिक होना चाहिए और सरकार वाणिज्यिक कम्पनी की तरह चलनी चाहिेए।

बिल गेट्स बाबू ने कह ही दिया है कि 2035 तक दुनिया में कोई गरीब देश रहेगा नहीं। जबकि यह आंकड़ा भी बहुत पुराना नहीं है कि दुनिया भर की कुल सम्पत्ति सिर्फ पचासी लोगों के पास है। यानी अगले इक्कीस साल में संपत्ति और संसाधनों, अवसरों पर इस एकाधिकारवादी कारपोरेट वर्चस्व खत्म होने के कोई आसार नहीं है।

गरीब देशों का या दुनियाभर के गरीबों का वजूद मिटाकर ही यह करिश्मा सम्भव है। कहना न होगा कि त्रिइब्लिशी वैश्विक व्यवस्था के मातहत दुनिया भर की सरकारें इस एजेडे को अंजाम देने के लिये एड़ी चोटी का जोर लगा रहीं हैं।

अपने यहाँ टीवी विज्ञापनों में देश का कायाकल्प जो किया जा रहा है, वह दरअसल राजकाज के वाणिज्यीकरण का ज्वलंत दस्तावेज है, जिसे या तो हम पढ़ ही नहीं सकते या पढ़ना नहीं चाहते क्योंकि पढ़ा लिखा मध्यमवर्ग इस भारत निर्माण परिकल्पना की मलाई की हिस्सेदारी में ही कृतकृतार्थ है।

वैसे कम्पनी का राज क्या हो सकता है, भविष्य के मुखातिब उसका अतीत और वर्तमान हमारे पास बाकायदा है। हमारी प्रिय लेखिका अरुंधति ने तो साफ-साफ कह ही दिया है कि जनादेश का मतलब राजनीतिक रंग चुनना नहीं है, हमें सीधे यह तय करना है कि हम अंबानी के राज में रहना चाहते हैं या टाटा के राज में।

बहरहाल कम्पनीराज में जनता की जो दुर्गति होती है, उससे एकाधिकार कंपनियों को छोड़ बाकी कारोबारियों की हालत ज्यादा खराब होने की गुंजाइश ज्यादा है।

स्वदेशी आन्दोलन में भारतीय सामन्तों और भारतीय कम्पनियों के बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने के इतिहास की चीरफाड़ करें तो सच सामने आयेगा।

ग्लोबीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के पीछे विनियंत्रित बाजार में उन्मुक्त प्रतिद्वंद्विता का सिद्धान्त है।

भारत में कारपोरेट कम्पनियों के आगे परम्परागत गैरकारपोरेट कारोबारी खस्ताहाल हैं। विदेशी प्रत्यक्ष निवेश से ये कारोबारी अब बाजार से भी बाहर होने को हैं।

इकानामिक टाइम्स में छपे एक लेख के मुताबिक वैश्विक कारपोरेट पूँजी के मुकाबले इंडिया इनकारपोरेशन की औकात पिग्मी से ज्यादा नहीं है।

इसका सीधा मतलब तो यह हुआ कि तत्काल विदेशी कम्पनियों के फेंके टुकड़ों से मुटिया रही भारतीय कम्पनियों और कारोबरी वर्ग और उनके कारिंदे छनछनाते विकास के मलाईदार हिस्सेदार फिलहाल है, लेकिन कम्पनी राज पूरी तरह बहाल हो जाने के बाद जहाँ उत्पादक समुदायों, किसानों, मजदूरों, वंचितों समेत तमाम किस्म के गरीबों का सफाया तय है वहाँ बाहुबलि जैसे पेशियों की प्रदर्शनी कर रहे मध्यवर्ग और उनके आका भारतीय कारपोरेट यानी टाटा बिड़ला अंबानी मित्तल जिंदल गोदरेज वगैरह-वगैरह की भी खैर नहीं है।

देश बेचो ब्रिगेड की अगुवाई में मध्यवर्ग के जश्नी समर्थन से इंडिया इनकापोरेशन भी आत्मध्वंस पर आमादा है।

 विषय विस्तार से पहले एक अच्छी खबर यह कि हमारे प्रिय कवि  कैसर पीड़ित वीरेन डंगवाल का जो जटिल असम्भव सा ऑपरेशन होना था, टलते-टलते वह सकुशल सम्पन्न हो गया है। वीरेनदा अब आराम कर रहे हैं दूसरा जटिल आपरेशन के बाद।

लेकिन कोलकाता से एक बुरी खबर भी है। मेरे लिये यह खबर हमारी असमर्थता की शर्मनाक नजीर है। हम मीडिया के बीचोंबीच हैं, लेकिन हमें आज कोलकाता में प्रतिरोध के सिनेमा की संयोजक कस्तूरी के फोन से संजोगवश यह खबर मालूम हुयी। कस्तूरी को भी तमाम मित्रों की तरह वीरेनदा की सेहत की फिक्र लगी थी। बरेली से रोहित ने फिल्मकार राजीव को आज सुबह ही वीरेनदा के ऑपरेशन के बारे में बता दिया थी लेकिन संजय जोशी और कस्तूरी को खबर नहीं मिली थी। हमने बताया तो उसने जवाब में कहा कि वीरेनदा का आपरेशन तो हो गया, अब नवारुण दा की चिंता है।

नवारुण दा यानी, यह मृत्यु उपत्यका मेरा देश नहीं के कवि, कंगाल मालसाट के उपन्यासकार और भाषाबंधन के संपादक नवारुण भट्टाचार्य भी कैंसर पीड़ित हैं और इलाज के लिये मुंबई में है। कोलकाता में यह खबर कहीं नहीं है।

महाश्वेता दी के परिवर्तनपंथी बन जाने के बाद मीडिया का फोकस उन्हीं पर है, उनसे अलग-थलग रह रहे और परिवर्तनपंथियों के बजाय अब भी जनपक्षधर मोर्चे से जुड़े होने की वजह से नवारुण दा मीडिया के लिये महत्वपूर्ण नहीं है।

बांग्ला में हिंदी की तरह सोशल मीडिया भी अनुपस्थित है। मैं भी कोलकाता आता जाता नहीं हूँ।

अब यह खबर जानकर जोर का झटका लगा है। सविता को बताया तो वह और नाराज हो गयी इसलिये कि नवारुण दा की हालचाल हम लेने से क्यों चूक गये।

सविता सही कह रही है। हम लोग जो जनपक्षधरता का दावा करते हैं, साथ तो चल ही नहीं सकते। न हमारे बीच सत्तावर्ग की तरह कोई संवाद की नदियाँ बहती हैं। उससे भी बड़ी विडंबना है कि हमें आपस में कुशल क्षेम पूछने का भी अभ्यास नहीं है।

हमारे छनछनाते विकास के विज्ञापन के लिये काल्पनिक यथार्थ का बखूब इस्तेमाल किया जा रहा है। जो इनफ्रास्ट्रक्चर का विकास हुआ है, उसी को शोकेस किया जा रहा है। बाकी जो विस्थापन है, जो तबाही है, जो अविराम बेदखली है, जो प्रकृति से निरंतर बलात्कार है, जो प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट है, जो नरमेध यज्ञ है, उसकी कोई चर्चा नहीं हो रही है।

छनछनाते विकास के आंकड़े हर जुबान पर है। परिभाषाओं के तहत समावेशी विकास की मृगमरीचिका भी खूब है। बाजार के विस्तार के लिये कारपोरेट उत्तरदायित्व की धूम है। तकनीक और सेवाओं की शेयरी धूम है। लेकिन कोई छनछनाता अर्थशास्त्री उत्पादन प्रणाली, उत्पादन, उत्पादन सम्बंधों, श्रम के हश्र और खेत खलिहान देहात की कोई बात नहीं कर रहा है।

धर्मोन्मादी सुनामी का असर यह है कि भारतीय बाज़ार में तेजी का माहौल लगातार दूसरे दिन भी बना रहा और सेंसेक्स-निफ्टी रेकॉर्ड ऊँचाई पर बन्द हुये। बीएसई का 30 शेयरों वाला प्रमुख इंडेक्स सेंसेक्स अब तक के अपने सबसे ऊपरी स्तरों पर बन्द हुआ।

बलात्कार सुनामी पर स्त्री विमर्श की धूम है जो देहमुक्ति से शुरु होकर देह मुक्ति में खत्म होती है, पुरुषतंत्र से कहीं टकराती नहीं है। बुनियादी जो बात है कि यह मुक्त बाजार का उपभोक्ता वाद दरअसल पुरुषतंत्रिक है और स्त्री भी खुल्ला बाजार में विमर्श है। बाजार में स्त्री आखेट के सारे साधन रात दिन चौबीसों घंटे साल भर तरह तरह के मुलम्मे में उचित विनिमय मूल्य पर विज्ञापित हो रहे हैं और बिक भी रहे हैं, तो कहीं भी सुगंधित काफी कंडोम में मजा लेने के जमाने में स्त्री सुरक्षा की कैसे सोच सकते हैं, इस पर बहस कोई नहीं हो रही है। जो स्त्री बाजार में खड़ी है, जिसके श्रम और देह का धर्मोन्मादी शोषण हो रहा है और हर सामजिक हलचल में जिस स्त्री की अस्मिता को समाज, अर्थव्यवस्था और राष्ट्र के साझे उपक्रम के तहत मिटाने का चाकचौबंद इंतजाम है, उसको तोड़ने की कोशिश नहीं हो रही।

गौर करें कि मुक्त बाजार में आखिर क्या होता है, भारत को अमेरिका बनाने की हर सम्भव कोशिश हो रही है जबकि अमेरिका में 2 करोड़ 20 लाख महिलाएं रेप पीड़ित हैं यानि हर पांचवीं महिला के साथ रेप होता है। ये चौंकाने वाले आंकड़े व्हाइट हाउस की एक रिपोर्ट में सामने आये हैं। बुधवार को जारी रिपोर्ट के मुताबिक लगभग आधी रेप पीड़ित महिलाएं 18 साल से कम उम्र में ही यौन उत्पीड़न का शिकार होती हैं।

करमुक्त ख्वाब के तहत सारे लोग अपना अपना टैक्स बचाने का हिसाब जोड़ रहे हैं लेकिन कोई नहीं सोच रहा है कि जो गरीबी रेखा के आर पार के लोग हैं, उन पर टैक्स लगाकर किस तरह समर्थों को लाखों लाखों करोड़ की टैक्स छूट दने की तैयारी है। हम दरअसल किसी नदी, किसी घाटी, किसी वन क्षेत्र, किसी गांव या किसी जनपद को अपने दृष्टिपथ पर पाते ही नहीं है। इस महाभोग के तिलिस्म में हम अपने मौत का सामान ही समेटने में लगे हैं, अपने घर लगी आग पर नजर नहीं किसी की। जल जंगल जमीन की बेदखली के सारे विमर्श कारपोरेट राजनीति के विमर्श में हैं, हम उन्हें नजरअंदाज करते जा रहे हैं।

पहले दस साल तक कांग्रेस के राज को जिन शक्तियों ने भरपूर समर्थन दिया,वे आखिर नमोमय भारत बनाने के मुहिम में क्यों हैं, इस पहेली को बूझने की किसी ने कोई जरुरत नहीं समझी। बाजार के समूची प्रबंधकीय दक्षता और अत्याधुनिक तकनीक से लैस राजनीति जब जनादेश का निर्माण धर्मोन्मादी सुनामी और अस्मिता की मृग मरीचिका के तहत करने लगी, तो अंतराल में घात लगाकर बैठी मौत के चेहरे पर हमारी नजर ही नहीं जाती। फिर मोदी को रोकने का क्या घणित हुआ कि सीधे रजनीति में प्रत्यक्ष विदेशी विनिवेश और सामाजिक क्षेत्र में विदेशी पूँजी के पांख लगाकर नया विकल्प पेश किया गया। जनपथ पर उस विकल्प की अराजकता के महाविस्फोट के बाद कैसे फिर नमोमय भारत के शंखनाद के मध्य स्त्री सशक्तीकरण के विकल्प बतौर मायावती ममता जयललिता के त्रिभुज को पेश किया जा रहा है, राथचाइल्डस के इस अर्थ शास्त्र को हम समझने में सिरे से असमर्थ हैं और बाकायदा धर्मोन्मादी पैदल सेनाएं एक दूसरे के विरुद्ध रंग बिरंगी अस्मिताओं और पहचानों के झंडे लहराते हुये धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे महाविनाश के लिये लामबंद हो गये हैं।

यह सारा युद्ध उपक्रम दरअसल कंपनी राज के लिये है। एकाधिकारवादी बहुराष्ट्रीय कम्पनी राज के लिये बंधु, हम सारे लोग एक दूसरे पर घातक से घातक, मारक से मारक वार कर रहे हैं और अपने ही रक्त से पवित्र स्नान कर रहे हैं मिथ्या मिथकों के लिये।

याद करें, पिछले सितंबर में ही भारत के करीब तीन चौथाई बिजनेस लीडर्स (इंडिया इंक) ने देश की खस्ता आर्थिक हालात के लिये मनमोहन सरकार को जिम्मेदार ठहराया है और वो चाहते हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बने।

शुक्रवार को प्रकाशित इकोनॉमिक टाइम्स/नेल्सन के सीईओ कॉन्फिडेंस सर्वे में शामिल 100 में तीन चौथाई मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) नरेंद्र मोदी को पीएम की कुर्सी पर देखना चाहते हैं। सिर्फ 7 प्रतिशत लोगों ने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को प्रधानमंत्री प्रत्याशी के तौर पर समर्थन किया है।

About The Author

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।

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