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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Thursday, January 9, 2014

यह शुतुरमुर्ग प्रजातियों का स्वर्णकाल है

यह शुतुरमुर्ग प्रजातियों का स्वर्णकाल है

यह शुतुरमुर्ग प्रजातियों का स्वर्णकाल है

HASTAKSHEP

इस आँधी की भी औकात देखेंगे/ लोकलुभावन तमाम जुगत देखेंगे

ईश्वर और अध्यात्म, कर्मफल सिद्धान्त के बिना केजरीवाल का कोई बयान आया हो तो बतायें..

कश्मीर ही नहीं, पूरा देश बजरिये दिल्ली अमेरिकी उपनिवेश है

कुछ समय पहले एक साधू बाबा के सपने के आधार पर देश के सारे पुरातत्वविद, इतिहासकार और भारत सरकार मिलकर जमीन के नीचे दबे हजारों टन सोने से वित्तीय घाटा पाटने का नायाब प्रयोग कर रहे थे। अब हाल यह है कि मीडिया और देश के तमाम अर्थशास्त्री बाबा रामदेव के गणित योग के माद्यम से टैक्समुक्त हिन्दू राष्ट्र बना रहे हैं।

पलाश विश्वास

यह आँधी वैश्विक है और बहुआयामी है। मौसमचक्र जिस तेजी से बदलने लगा है और मुक्त बाजार से विकसित विश्व को जिस तेजी से अपने शिकंजे में कस रहा है, संसाधनों की खुली लूट और प्रकृति और मनुष्यता के ध्वँस पर आधारित इस विश्व व्यवस्था का प्रतिरोध अनिवार्य है मनुष्यता और प्रकृति सह पृथ्वी के अस्तित्व के लिये।

भारत में मौसम चक्र की यह अभूतपूर्व आँधी फिर धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की अंध सुनामी में तब्दील है। हिन्दू राष्ट्र के एकाधिकारवादी आक्रमण के खिलाफ आप के उत्थान के बाद नमोमय भारत का निर्माण स्थगित होने लगा तो इस हद तक बौखला गया यह अंध धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद कि कॉरपोरेट कायाकल्प के खिलाफ ही हमलावर हो गया।

कश्मीर ही नहीं, पूरा देश बजरिये दिल्ली अमेरिकी उपनिवेश है।

हिंदुत्व के लिये जिहादी बन रहे लोगों को अचानक बाबा रामदेव के अर्थशास्त्री बन जाने से कुछ खतरा महसूस नहीं हो रहा है, इससे भयानक अंध राष्ट्रवादी अमावस्या का इतिहास इस देश में नहीं है।

बैंक लेन देन पर टैक्स लगाकर बाकी सारे करों में छूट का ऐलान करके आप के समर्थन में खड़े बाजार और कॉरपोरेट जगत को मुकम्मल टैक्स होलीडे का गाजर पेश कर दिया है संघ परिवार ने।

एकतरफ खास आदमियों की एनजीओ कॉरपोरेट गठबंधन का "आप" तो दूसरी ओर समर्थ असमर्थ सब पर एक जैसा टैक्स। अब तक सालाना लाखों की टैक्स छूट का महाघोटाला था। विदेशी निवेश की आड़ में कालाधन का कारोबार था। महाबलि टैक्सचोर के नये अर्थशास्त्र के मुताबिक अब सत्ता वर्ग को चाक चौबंद टैक्स माफी देने की पूरी तैयारी है। सांप्रदायिकता का फासीवादी खतरे से बड़ा यह आर्थिक अश्वमेध आयोजन है। अब इस बहुमंजिली आँधी से कैसे बचेंगे, इस पर सोचना बेहद जरूरी है।

अब इस देश में लोकतंत्र और तकनीकी पारमाणविक मिसाइली विकास का आलम यह कि याद करें कि कुछ समय पहले एक साधू बाबा के सपने के आधार पर देश के सारे पुरातत्वविद, इतिहासकार और भारत सरकार मिलकर जमीन के नीचे दबे हजारों टन सोने से वित्तीय घाटा पाटने का नायाब प्रयोग कर रहे थे। अब हाल यह है कि मीडिया और देश के तमाम अर्थशास्त्री बाबा रामदेव के गणित योग के माद्यम से टैक्समुक्त हिन्दू राष्ट्र बना रहे हैं।

कड़ाके की सर्दी भारत में भी है। जिनके लिये सर छुपाने की छत नहीं, सारा जहाँ अपना है, जो जल जंगल जमीन रोजगार और नागरिकता से बेदखल है,मौसम की मार वे समझ ही रहे होंगे। लेकिन वातानुकूलित भारत में इस वैश्विक आँधी के मुकाबले कोई आपदा प्रबंधन नहीं है। हिमालयी जलसुनामी की यह दूसरी किश्त है और उसकी चपेट में महज डूब में शामिल हिमालय नहीं, बल्कि यह पूरा डूब देश है। शुतुरमुर्ग प्रजातियों का यह स्वर्णकाल हैलेकिन इस सर्द वैश्विक आँधी की आँच आपको चुनाव निपट जाने के बाद किसी भी तरह के जनादेश और किसी भी रंग के सत्ता समीकरण में महसूस जरूर होगी। कॉरपोरेट तन्त्र और बाजार को रिझाने की यह संघी मुद्रा ने रंग दिखाया तो जश्न महफिल और रंगीन होगी।

मैं भी माननीय रवीश कुमार जी की तरह कोई अर्थशास्त्री नहीं हूँ, लेकिन फिर भी हम अर्थतन्त्र पर लिखने को मजबूर हैं क्योंकि बहुसंख्य भारतीयों के हक हकूक की लड़ाई में अर्थशास्त्री सत्तावर्ग के साथ हैं तो मीडिया भी कॉरपोरेट राज के लिये एढ़ी चोटी का जोर ला रहे हैं। मीडिया का एकतरफा भयादोहन वाला आधार अभियान से समझ जाइये। अस्पृश्य भूगोल के विरुद्ध कॉरपोरेट सैन्य जायनवादी धर्मोन्मादी राष्ट्र के अविराम युद्ध को न्यायोचित ठहराने क लिये अंध राष्ट्रवाद की सुनामी खड़ा करने में भारतीय मीडिया का कोई सानी नहीं है। राष्ट्रीय एकता और अखंडता का नारा उछालकर धर्मोन्मादी अंध राष्ट्रवाद का आवाहन अंततः वंचितों और बहिष्कृतों का वध स्थल अनंत बना देता है राष्ट्र को। 1958 से कश्मीर और पूर्वोत्तर में लागू सशस्त्र सैन्यबल विशेषाधिकार कानूनहो या सेना और पुलिस को दमन और उत्पीड़न के कानूनी रक्षाकवच का मामला हो या  सलवा जुड़ुम और रंग बिरंगे सैन्य अभियानों के जरिेए जल जंगल जमीन आजीविका नागरिकता, जान माल से बेदखली के लिये पूरे मध्य भारत, गोंडवाना और दंडकारण्य समेत समस्त आदिवासी इलाकों में अबाध नरसंहार कार्यक्रम या अमेरिकी युद्धक अर्थव्यवस्था के जायनवादी एकाधिकारवादी हित साधने के लिये पारमाणविक, रासायनिक, जैविकी, अंतरिक्षी महाविनाश के कार्यक्रम या प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट और अमेरिकी कंपनियों और निवेशकों के बाजार के विस्तार के लिये अमेरिका और इजराइल की अगुवाई में आतंक के विरुद्ध युद्ध में भारत की साझेदारी से पूरे दक्षिण एशिया को युद्धस्तल बना देने का मानवाधिकार हनन, या नाटो और सीआईए की प्रिज्म ड्रोन तांत्रिक असंवैधानिक डिजिटल बायोमेट्रिक रोबोटिक खुफिया निगरानी के जरिये भारतीय नागरिकों की गोपनीयता और निजता को भंग करने का मामला, सब कुछ इस अंध धर्मोन्माद के लिये जायज है।

बहुजन बहुसंख्य मूक भारतीयों को रंग बिरंगे झंडे के मातहत गुलाम बनाये रखने की राजनीति इस आर्थिक नरसंहार का सबसे कारगर माध्यम है क्योंकि भारतीय कृषि उत्पादन प्रणाली के विदेशी हित में निरंकुश ध्वँस के अश्वमेध यज्ञ में अलग-अलग अस्मिताओं में बँटे भारतीय कृषि समाज के तमाम समुदाय और वर्ग इसी अंध धर्मोन्माद की पैदल सेनाएं हैं। बहुजन राजनीति आरक्षण केन्द्रित है जिससे कृषि समाज की समस्याएँ सम्बोधित नहीं होती। हर साल हजारों किसानों की आत्महत्या और लाखों किसानों की बेदखली, कृषि निर्भर पर्यावरण की तबाही के बावजूद बहुजन बहुसंख्य जनगण बदले हुये राष्ट्र, बदले हुये सामाज और बदली हुयी अर्थव्यवस्था के तमाम अनिवार्य मुद्दों और सूचनाओं से बेखबर हैं।

विडम्बना यह है कि यह जनसंहार अभियान आर्थिक सुधार के नाम जारी है बहुजन राजनीति के सिपाहसालारों के बिना शर्त समर्थन से। पहाड़ों में आबादी का पलायन भयावह है। सारे जनपद डूब में हैं और प्राकृतिक आपदाएँ मानवनिर्मित। रोजगार के सारे अवसरों से लोग वंचित हैं। लेकिन वहाँ संघ परिवार का हिन्दुत्व सबसे प्रचलित मुद्रा है। आप के उत्थान के बाद हिमाचल और उत्तराखंड के जुझारू लोग जिस तेजी से इस नये लोकलुभावन तन्त्र की मृगमरीचिका में दाखिल हो रहे हैं, वह कतई हैरत अंगेज नहीं है। भारत सरकार एक के बाद एक लोकलुभावन अधिकार और लोकलुभावन सामाजिक योजनाएँ चालू करके सत्ता के गणित साध रही हैं। तो दूसरी राज्य सरकारें भी आप को रेप्लिकेट कर रहे हैं। बाजार पूरी तरह विनियन्त्रित हैं और सरकारें कॉरपोरेट राज के शिकंजे में हैं। कॉरपोरेट नीति निर्धारक है। भूमि सुधार की माँग सिरे से गायब है। संविधान अब भी लागू नहीं हुआ और रोज संविधान बदला जा रहा है। कॉरपोरेट लाबिइंग से कॉरपोरेट राजनीति सर्वदलीय सहमति के तहत एक के बाद एक कानून बदल रही है,जबकि दर हकीकत में कानून का राज सिर्फ सत्ता वर्ग के लिये है। सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना होती है। कॉरपोरेट कम्पनियों के इशारे पर जरुरी सेवाओं के दाम बढ़ाये जा रहे हैं। तेल गैस उर्वरक दवाओं की कीमतें बढ़ रही है। शिक्षा और चिकित्सा से आम लोग बेदखल हैं। कॉरपोरेट जगत के लोग अब राजनीति में हैं और तमाम बेशकीमती मन्त्रालयों का कामकाज उन्हीं के इशारे पर चलते हैं। जबकि भारतीय जनगण बिजली सड़क पानी जैसी नागरिक सुविधाओं की माँगें लेकर कॉरपोरेट एनजीओ तूफान में शामिल है, परिवर्तन के लिये। जिसमें भ्रष्टाचार एकमात्र मु्द्दा है, कॉरपोरेट भ्रष्टाचार और हर क्षेत्र में अबाध पूँजी, निजीकरण, विनिवेश कोई मुद्दा है ही नहीं।

दुकानें सजी हैं। शॉपिंग माल सजे हैं। बहुजन भागेदारी की सम्भावनाएँ बढ़ गयी हैं इस विध्वँस के लिये। सत्ता में वापसी के लिये बहन मायावती को जंबो तोहफा देकर दलित वोट बैंक कब्जाने की कांग्रेस की रणनीति है तो आप के जरिेए धर्मोन्मादी सुनामी रोकने की तैयारी भी है। जबकि तीनों पक्ष बराबर धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के झंडेवरदार हैं।ईश्वर और अध्यात्म, कर्मफल सिद्धान्त के बिना केजरीवाल का कोई बयान आया हो तो बतायें।

संघ परिवार को मालूम है कि बिना कॉरपोरेट समर्थन जनादेश हासिल नहीं होना है। इसलिये समूचे करारोपण व्यवस्था को बदलकर पूँजी को टैक्स होलीडे का यह विमर्श है। काँग्रेस या आप या तीसरा कोई कॉरपोरेट विकल्प को संघ परिवार के इस एजेंडे पर अमल करके ही सत्ता के द्वार पर दस्तक जारी रखना है। यह सबसे बड़ा खतरा है। दो दशकों की उदारीकरणगाथा यही है, आर्थिक विध्वंस की निरंतरता, जो अब कयामत बनकर बरसने वाली है आम जनता पर सरकार चाहे किसी की है। बाजार और कॉरपोरेट जगत को कोई फर्क नहीं पड़ता कि सरकार किसकी होगी। उसकी सौदेबाजी से ही जनादेश बनेगा। विडंबना यह है कि भारतीय जन गण को भी इस कॉरपोरेट जनादेश से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। सुनामियों में तो उन्हीं की लाशें सड़नी गलनी हैं।

About The Author

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना ।

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