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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Saturday, May 3, 2014

चुन्‍दुर दलित हत्‍याकाण्‍ड – आरोपियों के बेदाग बरी होने से हरे हुए जख्‍़म और कुछ चुभते-जलते बुनियादी सवाल

चुन्‍दुर दलित हत्‍याकाण्‍ड – आरोपियों के बेदाग बरी होने से हरे हुए जख्‍़म और कुछ चुभते-जलते बुनियादी सवाल

चुन्‍दुर दलित हत्‍याकाण्‍ड – आरोपियों के बेदाग बरी होने से हरे हुए जख्‍़म और कुछ चुभते-जलते बुनियादी सवाल


कविता कृष्‍णपल्‍लवी

एक बार फिर पुरानी कहानी दुहरायी गयी। चुन्‍दुर दलित हत्‍याकाण्‍ड के सभी आरोपी उच्‍च न्‍यायालय से सुबूतों के अभाव में बेदाग़ बरी हो गये। भारतीय न्‍याय व्‍यवस्‍था उत्‍पी‍ड़ि‍तों के साथ जो अन्‍याय करती आयी है, उनमें एक और मामला जुड़ गया। जहाँ पूरी सामाजिक-राजनीतिक व्‍यवस्‍था शोषित-उत्‍पीड़ि‍त मेहनतकशों, भूमिहीनों, दलितों (पूरे देश में दलित आबादी का बहुलांश शहरी-देहाती मज़दूर या ग़रीब किसान है) और स्त्रियों को बेरहमी से कुचल रही हो, वहाँ न्‍यायपालिका से समाज के दबंग, शक्तिशाली लोगों के खिलाफ इंसाफ की उम्‍मीद पालना व्‍यर्थ है। दबे-कुचले लोगों को इंसाफ कचहरियों से नहीं मिलता, बल्कि लड़कर लेना होता है। उत्‍पीड़न के आतंक के सहारे समाज में अपनी हैसियत बनाये रखने वाले लोगों के दिलों में जबतक संगठित जन शक्ति का आतंक नहीं पैदा किया जाता, तबतक किसी भी प्रकार की सामाजिक बर्बरता पर लगाम नहीं लगाया जा सकता।

चाहे बथानी टोला हो, लक्ष्‍मणपुर बाथे हो, मियांपुर हो, मिर्चपुर हो, करमचेदु हो या चुन्‍दुर हो, सभी जगह जिन दलितों की हत्‍याएँ हुईं और उत्‍पीड़न हुआ, वे ग़रीब मेहनतकश थे और इन अत्‍याचारों को अंजाम देने वाले सवर्ण या मध्‍य जातियों (हिन्‍दू जाति व्‍यवस्‍था में शूद्र माने जाने वाले) के पूँजीवादी भूस्‍वामी और कुलक थे। गाँवों में यही पूँजीवादी व्‍यवस्‍था के प्रमुख अवलम्‍ब हैं, सभी पूँजीवादी पार्टियों में इस वर्ग की शक्तिशाली 'दबाव-लाबियाँ' काम करती हैं और देश की अधिकांश क्षेत्रीय पार्टियों का मुख्‍य सामाजिक आधार प्राय: पिछड़ी/मध्‍य जातियों के इन्‍हीं खुशहाल मध्‍यम और धनी मालिक किसानों में है। ग्रामीण दलित आबादी (जो ज्‍यादातर ग्रामीण सर्वहारा और अर्द्धसर्वहारा हैं) के सुव्‍यवस्थित उत्‍पीड़न की निरंतरता के पीछे जो वर्गीय अन्‍तर्वस्‍तु मौजूद है, उसे समझना बहुत ज़रूरी है। यह पुराने सामंती उत्‍पीड़न से भिन्‍न परिघटना है। यह एक नयी पूँजीवादी परिघटना है। आज के जिन सवर्ण पूँजीवादी भूस्‍वामियों के पूर्वज सामंती भूस्‍वामी थे, केवल वही गाँव के ग़रीब दलितों पर अत्‍याचार नहीं करते। उनसे अधिक बड़े पैमाने पर (शूद्र मानी जाने वाली) मध्‍य जातियों के वे धनी और खुशहाल मालिक  किसान आज दलित ग़रीबों का उत्‍पीड़न करते हैं जो सामन्‍ती भूमि संबंधों के ज़माने में काश्‍तकार और रैयत के रूप में खुद हीसामंती उत्‍पीड़न के शिकार थे। (ज्‍यादातर) सवर्ण सामंतों के आर्थिक शोषण के साथ ही जातिगत आधार पर उत्‍पीड़न के विरुद्ध भी वे आवाज उठाते रहते थे। प्राय:, कई इलाकों में, सवर्ण वर्चस्‍व के विरुद्ध दलित जातियों के साथ इन शूद्र जातियों/किसान जातियों/मध्‍य जातियों की एकता भी बनती थी। लेकिन काश्‍तकारों के मालिक किसान बनने और भूमि सम्‍बन्‍धों के बदलने के साथ ही जातियों की सामाजिक स्थिति में बदलाव आये । मध्‍य जातियों के उच्‍च मध्‍यम और धनी किसान अब अपने खेतों में उन्‍हीं दलित मज़दूरों की श्रमशक्ति खरीदकर बाजार के लिए उत्‍पादन करने लगे थे, जो पहले सामंतों की ज़मीन पर बेगारी करते थे या बेहद छोटे काश्‍तकार हुआ करते थे। मध्‍य जातियों के मालिक किसानों की आर्थिक स्थिति में परिवर्तन के साथ सामाजिक स्थिति में भी परिवर्तन हुआ। जाति व्‍यवस्‍था के पदसोपानक्रम में अपने को सवर्णों के समकक्ष दर्शाने के लिए तरह-तरह के नये सामाजिक आचार और 'एसर्शन' की प्रक्रिया शुरू हुई, जिसे समाजशास्‍त्री 'संस्‍कृताइजेशन' का नाम  देते हैं। आर्थिक धरातल पर जो नया अन्‍तरविरोध जन्‍मा था, उसी के अनुरूप सामाजिक धरातल पर भी मध्‍य जातियों के साथ दलित जातियों के अन्‍तरविरोध तीखे हो गये। अपनी आर्थिक ताकत के हिसाब से मध्‍य जातियों के कुलक गाँवों में पूँजीवादी राजनीति के मुख्‍य आधार बन गये। राष्‍ट्रीय स्‍तर की बुर्ज़ुआ पार्टियों में उनके दबाव समूह अस्तित्‍व में आये और क्षेत्रीय पार्टियों पर उनका दबदबा कायम हुआ। बिहार और उत्‍तर-प्रदेश के कुर्मी, कोइरी, यादव, सैंथवार, लोध और जाट, आंध्र  के रेड्डी और कम्‍मा, कर्नाटक के लिंगायत और वोक्‍कालिंगा, हरियाणा के जाट, यादव, गुज्‍जर, पंजाब के जाट, तमिलनाडु के थेवर और वान्नियार, गुजरात के पटेल, महाराष्‍ट्र के मराठा आदि ऐसी मध्‍य जातियाँ हैं, जिनसे कुलकों-पूँजीवादी फार्मरों का नया वर्ग मुख्‍यत: संघटित हुआ। इन जातियों के जो ग़रीब और निम्‍न मध्‍यम किसान हैं, वे भी वर्गीय चेतना के अभाव और आर्थिक प्रश्‍नों पर वर्ग संघर्ष की अनुपस्थिति के चलते जातिगत ध्रुवीकरण के शिकार हो जाते हैं और ग़रीब दलितों के विरुद्ध सजा‍तीय धनी मालिक किसानों के साथ खड़े हो जाते हैं। बुर्जुआ संसदीय राजनीति इस ध्रुवीकरण का भरपूर लाभ उठाती है, और फिर अपनी पारी में इस स्थिति को मजबूत बनाने का भी काम करती है।

जाहिर है कि दलित उत्‍पीड़न की इस वर्गीय अन्‍तर्वस्‍तु को समझकर ही, इसके विरुद्ध संघर्ष की सही रणनीति तय की जा सकती है और वर्गीय लामबंदी की राह की जातिगत ध्रुवीकरण जनित बाधाओं को तोड़ा जा सकता है, अन्‍यथा मंचों पर चढ़कर मनु और ब्राह्मणवाद के विरुद्ध आग उगलकर फिर अपने अध्‍ययन कक्षों में घुस जाने का काम तो बुद्धिजीवी अगियाबैताल बातबहादुर करते ही रहते हैं। आज दलित प्रश्‍न पर जितने सेमिनार, शोध-अध्‍ययन आदि होते हैं, उतना शायद किसी और प्रश्‍न पर नहीं, पर ठोस व्‍यावहारिक कार्यकारी नतीजों तक पहुँचने का कोई ईमानदार प्रयास नहीं दीखता। बुनियादी सवाल  यह है कि गै़र दलित जातियों के ग़रीब तबकों के जातिगत पूर्वाग्रहों-संस्‍कारों और मिथ्‍याचेतना को तोड़कर उन्‍हें दलित मेहनतकश आबादी के साथ कैसे खड़ा किया जाये। जाति आधार पर संगठित होकर दलित उत्‍पीड़न का कारगर प्रतिकार नहीं कर सकता। दलित उत्‍पीड़न के प्रश्‍न को समाज के सभी उत्‍पीड़ि‍तों का प्रश्‍न कैसे बनाया जाये, यही यक्ष प्रश्‍न है।

आन्‍ध्र प्रदेश में सत्‍ता में जब जिस मध्‍य जाति के कुलकों और क्षेत्रीय पूँजीपतियों की दख़ल ज्‍यादा रही, तब उस जाति के लोगों ने दलितों का अधिक उत्‍पीड़न किया, क्‍योंकि उन्‍हें परोक्ष सरकारी संरक्षण का पूरा भरोसा रहता था। 1991 में चुन्‍दुर (गुण्‍टुर जिला) में रेड्डियों ने आठ दलितों की हत्‍या तब की थी, जब राज्‍य में जनार्दन रेड्डी की सरकार थी। जब एन.टी.रामाराव सत्‍ता में थे तो उनके दामाद के गाँव करमचेदु में कम्‍मा धनी किसानों ने छ: दलितों की बेरहमी से हत्‍या कर दी थी। सत्‍यनारायण ज‍ब प्रदेश कांग्रेस के अध्‍यक्ष थे तो बोत्‍सा वासुदेव नायडू के नेतृत्‍व में तूर्पु कापुओं के तलवारों और कुल्‍हाड़ों से लैस गिरोह ने श्रीकाकुलम जिले के लक्ष्‍मीपेट गाँव में कई दलितों की हत्‍या की थी और कई को निर्मम यंत्रणा का शिकार बनाया था।

जातिगत उत्‍पीड़न के राजनीतिक समर्थन का प्रतिकार करने के लिए दलित ग़रीब प्राय: इस या उस दलित बुर्जुआ पार्टी या नेता की ओर देखते हैं, जो पिछले 60-65 वर्षों के दौरान हमेशा ही पूँजी के टुकड़खोर चाकर और ठग साबित होते रहे हैं। इसलिए बुनियादी सवाल यह हैं कि दलित मेहनतकशों की भारी आबादी दलित राजनेताओं और दलित कुलीन मध्‍यवर्ग की भितरघाती मदारी जमातों के मोहपाश से मुक्‍त होकर उस पूँजीवादी व्‍यवस्‍था को ध्‍वस्‍त करने वाली क्रान्तिकारी राजनीति के परचम को कब और कैसे उठायेगी, जो जातिगत उत्‍पीड़न  का आधार है!

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