Total Pageviews

THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Thursday, October 30, 2014

वीरेनदा से मिलकर फिर यह यकीन पुख्ता हुआ नये सिरे से कि कविता में ही रची बसी होती है मुकम्मल जिंदगी जो दुनिया को खत्म करने वालों के खिलाफ बारुदी सुरंग भी है।

वीरेनदा से मिलकर फिर यह यकीन पुख्ता हुआ नये सिरे से कि कविता में ही रची बसी होती है मुकम्मल जिंदगी जो दुनिया को खत्म करने वालों के खिलाफ बारुदी सुरंग भी है।



पलाश विश्वास


सवा बजे रात को आज मेरी नींद खुल गयी है।गोलू की भी नींद खुली देख,उसकी पीसी आन करवा ली और फिर अपनी रामकहानी चालू।


जो मित्र अमित्र राहत की सांसें ले रहे थे,नींद में खलल पड़ने से बचने के ख्याल से बचने के लिए,उनकी मुसीबत फिर शुरु होने वाली है अगर मैं सही सलामत कोलकाता पहुंच गया तो,यानि आज से फिर आनलाइन हूं।


कल सुबह आठ बजे निकला था और नोएडा सेक्टर बारह, इंदिरापुरम,कलाविहार मयूरविहार होकर प्रगति विहार हास्टल रात के नौ बजे करीब लौटा।


आनंद स्वरुप वर्मा के वहां गहन विचार विमर्श,वीरेनदा से गहराई तक मुलाकात और पंकज बिष्ट के साथ उनके घर में बिताये कुछ अनमोल अंतरंग क्षणों के साथ दिल्ली की यह यात्री इसबार बहुत अनोखी बन निकली है और थकान से चूर चूर होकर दस बजे ही घोड़े बेचकर सो गया था लेकिन दिमाग के सेल दुरुस्त होते ही आंखें फिर उनींदी हैं।


अपने राजीव कुमार तो दिल्ली में आकर सन्नाटा जी रहे हैं बाकी गपशप तो गोलू,पृथू और मीना भाभी के साथ हो रही है और लग रहा है कि राजीव नये सिरे से कुछ बनाने की सोच रहा होगा।


इसबर वीणा और अरुण को खूब शिकायतें होंगी और अपने परिवार के बच्चों को भी कि मैं इस बारक सिर्फ दोस्तों से मिला हूं,परिजनों से नहीं।


मयूर विहार गया लेकिन झिलमिल नहीं गया वीणा के घर और नजहांगीर पुरी गया,जहां अरुण के बच्चे कृष्णा और तरुण को शायद अपने ताउ और ताई का इंतजार रहा है।


उनसे हम लोग मार्च तक मिलेंगे जरुर।नई दिल्ली के सीमेंट के जंगल में नहीं,अपने घर बसंतीपुर में।इसी उम्मीद के साथ आज दुरंतोे से कोलकाता लौट रहा हूं।


गनीमत है कि कोलकाता के बड़ाबाजार में धूल और ट्राफिक जाम में फंसे 14 अक्तूबर को सविता की तबियत इतनी खराब भी नहीं हुई और बसंतीपुर से होकर नैनीताल, देहरादून, बिजनौर होकर दिल्ली तक दौड़ दौड़कर कल रात बुलेटदौड़ से हम थक कर कब सो गये,पता ही नहीं चला और अबकी यात्रा की किस्त पूरी हो गयी और सविता मेरे साथ लगातार दौड़ती रहीं।उनका भी आभार।


पता नहीं कि ऐसी रात फिर कभी नसीब होगी या नहीं।


दिल्ली में अब भी एक बेचैन कवि आत्मा जिंदगी जीने का हुनर सिखा रही हैं हमें।


उन्हीं के साथ आज की सी कोई पूस की रात को नैनी झील के किनारे हम लोगों ने कड़कड़ाती सर्दी में आखिरीबार उधम मचाया था और उस कवि ने कहा था कि पलाश,तुम सिर्फ गद्य लिख सकते हो,कविता हरगिज नहीं लिख सकते और तब मैंने कहा था कि दा,जरुर लिख सकता हूं।


उस रात हमारे साथ एक और कवि थे पहाड़ और तराई में दिवानगी की हदतक काव्यधारा में बहनेवाले ,हमारे वजूद का हिस्सा जो अब भी बने हुए हैं,हमारे गिरदा।


साथ थे,राजीव लोचन साह जैसे नख से शिख तक भद्रपुरुष और वैकल्पिक मीडिया की लड़ाई शुरु करने वाले हमारे सुप्रीम सिपाहसालार आनंदस्वरुप वर्मा भी।


शमशेर सिंह बिष्ट भी शायद आधी रात बाद बीच झील की तन्हा नैनीताल की उस रात के गवाह रहे हैं।शायद शेखर पाठक भी थे और हरुआ दाढ़ी भी।ठीक से याद नहीं है।


जाहिर है कि वह रात अब कभी नहीं लौटेगी,गिरदा के बिना वह रात लौटेगी नहीं।आनंद स्वरुप वर्मा ने कहा भी कि गिरदा के बिना नैनीताल सूना अलूना है और अब वहां जाना सुहाता नहीं है।पहाड़ों में गिरदा का न होना हमारे यकीन के दायरे से बाहर है।


आज की इस रात की सुबह तो यकीनन होगी ही और सुबह की न सही,शाम की गाड़ी से उस कोलकाता जरुर पहुंचकर फिर धुनि रमानी है,जहां इन्हीं कवि आत्मीय अग्रज ने मुझे सन 1991 को जबरन भेज दिया था कि कोलकाता को बदले बिना दुनिया नहीं बदलेगी और तबसे मैं कोलकाता को बदलने में लगा हूं ।


क्योंकि कवि हूं नहीं मैं फिरभी,एक अति प्रिय कविमित्र बड़े भाई के जुनूनी यकीन को सच में बदलने का जिम्मा मुझपर है कि दुनिया के गोलाकार वजूद की पूंछ वहीं से पकड़कर उस ऐसी पटखनी दूं कि सारी कविताएं सच हो जायें एकमुश्त।


मुझे कविताओं में रमने का मौका नहीं मिला तो क्या हमारे वीरेनदा और हमारे गिरदा कवि बतौर याद किये जाएंगे और देशभर के कवियों से लगातार मेरा दोस्ताना और दुश्मनी का रिश्ता जीने का मौका भी लगता है।


बाकी तोे बिजनौर के पास सविता के मायके गांव धर्मनगरी में एक युवा अति कुशाग्र बुद्धि के बीटेक इंजीनियर तापस पाल की राय में हमारी पीढ़ी के लोग कुल मिलाकर घंटा हैं। उससे मुठभेड़ के बारे में बाद में फिर।


इंदिरापुरम में जयपुरिया सनराइज शायद उस बहुमंजिली इमारत का नाम है,जिसमें हमारे समय के सबसे शानदार ,सबसे जानदार कवि का बसेरा है इसवक्त। आठवीं मंजिल में।जहां आनंदजी के वहां से हम लेट पहुंचे और वीरेनदा इंतजार में थके भी नहीं।परिवार में सिर्फ रीता भाभी से मुलाकात हो पायी।वे जस की तस हैं साबुत।लेकिन बच्चों से इस दफा मुलाकात हुई नहीं है।


कम से कम वीरेनदा से मिलने फिर इस शहर को आउंगा,जिसे मैं कभी प्यार नहीं कर सका क्योंकि वह लगातार लगातार जनपदों को चबाता जा रहा है और सारी सत्ता यहीं केंद्रित हैं और सारी साजिशें जनता के खिलाफ यही से शुरु होती हैं।


मन ही मन मैं शायद मणिपुरी हूं या तामिल या बस्तर दंतेवाड़ा का कोई सलवा जुड़ुम दागा आदिवासी क्योंमकि मैं जख्मी हिमालय भी हूं।


अबकी बार वीरेनदा से मिलकर लगा कि कविता दरअसल लिखने की कोई चीज होती नहीं है,कविता जीने की चीज होती है और कवि जबतक कविता में जीता है,तब तक जिंदगी बची होती है और तभी तक बनती बिगड़ती रहती है दुनिया।


कविता के बिना न सभ्यता होती है और न मनुष्यता।


यह सिरे से संवेदनाओं का ही नहीं,सरोकार का मामला है।


संवेदनाओं और सरोकार में जीनेवाली कविता की मौत होती नहीं है उसीतरह जैसे दुनिया को बदलने वाली जब्जे की मौत होती नहीं है।


और बदलाव की फल्गुधारा कविता की ही तरह हमारी रगों में बहती रहती है।


और हजारों रक्तनदियों की धार उसकी दिशा नहीं बदल सकती है।


न उसकी मंजिल कभी बदल सकती है भले भटक जाये या बदल जाये हमारे दिलोदिमाग, हमारे सरोकार लखटकिया करोड़पतिया कारोबार में।


सोलह मई के बाद की कविता के अन्यतम आयोजक रंजीत जी,अपने युवा भविष्य अभिषेक और अमलेंदु दोनों आज दिनभर हमारे साथ रहे जो आनंदस्वरुप वर्मा, वीरेनदा और हमारे सान्निध्य में अब तक हमारा कियाधरा को जारी रखनेवाले सबसे काबिल लोग हैं ।


अभिषेक,अमलेंदु,रियाज,सुबीर गोस्वामी,पद्दो लोचन,एकेसकैलिबर,शरदिंदु और आनेवाली पीढ़ियों के सहारे और उन तमाम युवा दिलोदिमाग जो आज की युवा स्त्रियों के खाते में भी हैं,हम छोड़ जायेंगे एक बेहतर दुनिया, साबूत सकुशल पृथ्वी,इसी तमन्ना में अटकी है हमारी जान जहां।


युगमंच का सिसिला अभी जारी है।


नैनीताल समाचार निकल रहा है।

समकालीन तीसरी दुनिया को बेहतर बनाने की तैयारी है और राजतंत्र फिर वापस नहीं लौटेगा और न फासीवाद मनुष्यता और सभ्यता का नाश कर सकता है।


पंकज दा हमें मयूर बिहार एक्सटेंशन तक पैदल छोड़कर फिर समयांतर के ताजा अंक को तराशने में लगे हैं,इससे बेहतर तस्वीरें हमारे लिए दूसरी हैं ही नहीं और न हो सकती हैं।


जैसे कि कविताएं सोलह मई के बाद अबी भी लिखी जा रही है चाहे गंगा के घाट बदले हों,पहाड़ में लालटेन जलती न हो और न कोई पौधा बंदूूक बन पाया हो और न कविता ने शहरों की घेराबंदी की हो।ये तस्वीरें बदलाव के यकीन को मजबूत बनाती हैं।


जिनके साथ पीढ़ियां भी कई हैं उतने ही प्रतिबद्ध,जितनी हमारी पीढ़ियां रही हैं और मकबरों के इस शहर से शायद जीने का शउर सिखाने वाले एक कवि की कविता में बेहद कैजुअल,आलसी कस्बाई जनपदीय जिंदगी रुप रस गंध के लोक में जीने की तमीज और कैंसर को हराने वाली कविता की औकात से मुखातिब होकर अब हमको पूरा यकीन है कि हम रहे न रहें,बची रहेगी जिंदगी फिर भी और हमेशा कि तरह बदलती रहेगी यह हमारी पृथ्वी भी।


जिसे गोलक बनाकर खेल रहे हैं दुनियाभर के आदमखोर लोग।


फिरभी यकीन है कि प्रकृति पर्यावरण,मनुष्यता,सभ्यता और लोक में बसे भिन भिन भाषा,अस्मिता और पहचान के लोग न उन्हें,उन आदमखोरों और मानवताविरोधी युद्धअपराधियों को  बख्शेंगे और न इस दुनिया को खत्म करने की कोई इजाजत देंगे।


यह तंत्र मंत्र यंत्र का तिलिस्म हम न तोड़ सकें तो क्या,नईकी फौजें आवल वानी और जइसा कि अपन गोरखवा कभी कहिलन,सच होइबे करें।


इस उपमहादेश में सर्वत्र आतंक के खिलाफ अमेरकिका के युद्ध के खिलाफ कोई शहबाग आंदोलन भी है और यादवपुर के छात्र अब भी सड़कों पर हैं और बाकी छात्र युवा भी कभी भी सड़कों पर उतर सकते हैं।


जैसे फिर कभी न कभी सड़कों पर उतर सकता है समूचा मेहनतकश तबका इस अबाध पूंजी के मुक्तबाजार के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध में।


कविता में आस्था यही सिद्ध करती है।

कविता धर्मांध राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति तो हरगिज नहीं हो सकती।

हर कविता की शक्ल वाल्तेअर जरुर है जिस के लिए मौत की सजा तय है।


सच वह भी अंतिम नहीं है जो तुलसी दास जी कहल वानी कि होइहिं सोई जो राम रचि राखा।राम जो रचि राखा,उसी को पलटने वाले कवि रहे हैं तमाम अगिनखोर।


बाकी दुनिया की तमाम कविताएं दरअसल बदलाव की नीयत की कविताएं हैं, जिनमें जीते जीते गोरख ऊबकर चल दिये,पाश आतंकवादियों के हाथों मारे गये,नवारुणदा कैंसर से जूझते जूझते चल दिये और पहाड़ों को हुड़के से जगाते रहे हमारे गिरदा और दिल्ली के मकबरों के बीच मुकम्मल जिंदगी का शापिंग माल हाईराइज खोल बैठे हैं हमारे वीरेनदा।


हमारे लिए कोई कवि महान नहीं होता।


हमारे लिए  कोई कवि अच्छा या बुरा नहीं होता।


नाम देखकर दाम तय करते हैं सौदागर मानुख और हम यकीनन सौदागर जमात के नहीं हैं।कविता लिख सकूं हूं या नहीं,हूं उसी गोरख,गिर्दा, पाश,नवारुण,चे,मायाकोवस्की वगैरह वगैरह के गोत्र का ही हूं और मेरे खून में भी डीएनए वहीं मूलनिवासी।


जिनके लिए कविता सौंदर्यबोध और व्याकरण नहीं है,न निहायत ध्वनियों का सिनेमाघर है,न भाषायी करतबी चमत्कार है,न जादुई यथार्थ है,न बंधी बंधायी कोई कैद गंगा है पवित्रतम सड़ांध।


बल्कि जिनके लिए  एक मुकम्मल जिंदगी है और दुनिया को उसकी धुरी पर चलते देने का गुरिल्ला युद्ध है निरंतर।


हम हर कविता में जनता का मोर्चा खोजते हैं।


हम हर कविता में जनसुनवाई खोजते हैं।


हम हर कविता में मुक्त बयार,उत्तुंग शिखर,अनबंधी नदियां और खिलते हुए बारुद के की देह में माटी की खुशबू के साथ एक मुकम्मल गुरिल्ला युद्ध प्रकृति पर्यावरण मनुष्यता और सभ्यता के हक में चाहते हैं।


ऐसी हर कविता के कवि हमारे वजूद में शामिल होते हैं और चाहे कविता वह रचे न रचे,असली कवि वही होता है जो माटी से गढ़ सके वह मुक्म्मल दुनिया रोज रोज,जिसे रोज रोज परमाणु विध्वंस के मुक्तबाजारी हीरक  चतुर्भुज के विकास सूत्र में तबाह करने लगे हैं तमाम रंग बिरंगे अमानुष युद्ध अपराधी और जो मनुष्यों की दुनिया को ग्लोब बनाकर अपनी ही शक्लोसूरत वाली क्लोन रोबोट रिमोट नियंत्रित डिजिटल पुतलियों की नई सभ्यता रच रहे हैं।


हम हर पल सोलह मई के बाद की कविता में वह कविता खोज रहे हैं जिसे हमारे तमाम प्रियकवि रचते रहे हैं और जिसे पाश नवारुण गिरदा सुकांत चेराबंडुराजू और गोरख आखिरी सांस तक जीते रहे हैं और जिसे जीते हुए हम सबसे ज्यादा जिंदा हैं अब भी हमारे वीरेनदा।


हमारे हिसाब से हर कवि को कवि चाहे हो या न हो वह,कविता चाहे वह रचे न रचे,आखिरी सांस तक चेराबंडू,पाश, गिरदा और वीरेनदा की तरह दुनिया को बदल देने के इरादे के साथ एक मुकम्मल इंसान भी होना चाहिए।


हमारे हिसाब से कवि होंगे बहुत सारे श्रेष्ठ,शास्त्रीय और कालातीत महान,लेकिन जिंदगी में कविता जीने वाले कवि कोई कोई होते हैंं और खुशकिस्मत हैं हम कि वे सारे कवि हमारे ही वजूद में शामिल हैं।



वीरेनदा से मिलकर इस रात के बीतने के बेचैन इंतजार को जी रहा हूं फिलहाल और कहने की जरुरत नहीं कि इसबार दिल्ली आना बेहद अच्छा लग रहा है।



वीरेनदा से मिलकर फिर यह यकीन पुख्ता हुआ नये सिरे से कि कविता में ही रची बसी होती है मुकम्मल जिंदगी जो दुनिया को खत्म करने वालों के खिलाफ बारुदी सुरंग भी है।


আড়ম-ওনাম-ভাইফোঁটা অসুর ধম্ম পালনের লোকোৎসব Saradindu Biswas

আড়ম-ওনাম-ভাইফোঁটা অসুর ধম্ম পালনের লোকোৎসব

শরদিন্দু বিশ্বাস


ছোটবেলায় মেজকাকু গদাধরের সাথে নৌকা করে "আড়ম" বা "আড়ং"য়ে যাওয়া ছিল আমাদের জীবনের একটি অন্যতম আকর্ষণ। এই আড়ং মিলত রামদিয়াতে। বর্তমান বাংলাদেশের ওড়াকান্দি গ্রামের ঠিক পশ্চিম দিকে যে খালটি গোপালগঞ্জ থেকে কাশিয়ানী হয়ে পদ্মার সাথে মিশেছে ওই খালের পাড়েই রামদিয়া। নিজামকান্দি, মাঝকান্দি, ঘেত্তকান্দি, তারাইল, খাগাইল, নড়াইল, ঢিলাইল, সাফলিডাঙ্গা, সাতপাড়, শিঙাসুর, ঘেনাসুর, সুখতোইল, বোলতোইল এরকম কয়েকশো গ্রামের মাঝে এই রামদিয়া। ফলে রামদিয়ার আড়ং ছিল এই বিশাল অঞ্চলের মানুষের কাছে এক বাৎসরিক মিলন ক্ষেত্র শ্রেষ্ঠতম আড়ম্বর। আর এই আড়ংয়ে জনপুঞ্জের আন্তরিক আগ্রহে সাড়ম্বরে অনুষ্ঠিত হত প্রাচীন ভারতের নৌকেন্দ্রিক সভ্যতার শ্রেষ্ঠতম সাংস্কৃতিক উপস্থাপন "নাও বাইচ" বা "নৌকা বাইচ" আমাদের কাছে এই নৌকা  বাইচ দেখার একটা প্রগাঢ় আগ্রহ ছিল। বড় হয়ে ঐ নাও বাইচের একজন প্রতিনিধি হয়ে নিজেদের শৌর্য-বীর্য ও কলা-কৌশল উপস্থাপনের এক পারম্পরিক উন্মাদনা তৈরি হত আমাদের মধ্যে।


আড়মের আবহঃ  

সকাল থেকেই সাজ সাজ রব উঠত প্রত্যেকটি বাড়িতে, বাহান্দে বাহান্দে। দুপুরে খাওয়া দাওয়া শেষ করেই আমরা নতুন পোশাক পরে নিতাম। পারিবারিক নোউকাগুলি বাঁধা থাকত ঘাটে। পাশাপাশি থাকত একটি বাচাড়ি নৌকা।  মেজকাকু তাঁর সাথে যারা আড়ংয়ে যাবে তাদের সকলকে দেখে নিতেন। নাওয়ের চরাটের উপর বয়স অনুসারে সকলকে বসিয়ে দিতেন। নৌকা প্রস্তুত  হলে আমরা মা, পিসিমা আসতেন বরণকুলা নিয়ে। তেল, সিন্দুর, ধানদূর্বা দিয়ে বরণ করা হত নোউকাকে। বরণ শেষে মা তাঁর বা পায়ের হালকা ধাক্কা দিয়ে নৌকাকে একটু ভাসিয়ে দিতেন। আমাদের উদ্দেশ্যে বলতেন, "জয় করে এস"। বাচাড়ি নৌকা বরণ করতেন ঠাকুরমায়েরা কারণ ওই নৌকায় উঠতেন আমাদের জেঠামশাইয়ের নেতৃত্বে ২০-২২ জন বাছাই করা জোয়ান। বরণ শেষ হলে মেয়েরা জুয়াড় দিয়ে নৌকাগুলিকে ভাসিয়ে দিত। জ্যাঠামশাইয়ের হাতের রামদা ও ঢাল। ঝলসে উঠত সড়কি-বল্লম। কাঁসির আওয়াজ, বৈঠার টান ও বাইছাদের হেইয়া- হেইয়া রবে নিমেষে চোখের সমানে থেকে উধাও হয়ে যেত বাচাড়ি।        


নাও বাইচ আড়মের অন্যতম আকর্ষণঃ  


আশ্বিন মাসের মাঝামাঝি চারিদিকে জলমগ্ন গ্রামগুলি তখন এক একটা দ্বীপ। আমন ধান আর দীঘা ধানক্ষেতের পাশের নোলদাঁড়া দিয়ে সারিবদ্ধ ভাবে পারিবারিক নৌকা, ব্যবসায়ীক নৌকাগুলি এসে ভিড়ত রামদিয়ার খালপাড়ে। আসতো করফাই, সাম্পান, পানসি, টাবুরিয়া। আসতো বিদিরা বা বজরার মতো কিছু  শৌখিন নাও।  হাজার হাজার নৌকা নিয়ে লক্ষাধিক মানুষের সমাবেশ হত এই আড়ংয়ে। আসতো বাইচের বাচাড়ি। আমরা তাকিয়ে থাকতাম নদী বক্ষের দিকে কখন ঐ বাইচের বাচাড়িগুলি কাঁসির ছন্দবদ্ধ আওয়াজের সাথে সাথে বৈঠার ঝড় তুলে একে অন্যকে পিছনে ফেলে এগিয়ে যাবার জন্য তীব্র প্রতিযোগিতা শুরু করে এই বাচাড়িগুলির পিছেনে হাল সামলাত হালিয়া, নৌকার গুরার দুপাশে সারিবদ্ধ   ভাবে বসে থাকত বৈঠা হাতে তাগড়া জোয়ান বাইছাগণ। এদের শক্তির জোরে ও বৈঠার টানে জয় পরাজয় নিষ্পত্তি হত। সামনের দিকে থাকত ঢাল, সড়কি, লাঠি ও রামদা হাতে সেরা ঢালি বাহিনী। এ যেন ভাবি কালের জন্য কোন যুদ্ধের প্রস্তুতি অথবা প্রাচীন ঐতিহ্য ও পারম্পরিক  অভিজ্ঞতার এক গর্বিত অভিব্যক্তি। রামদা,  লাঠি, ঢাল ও সড়কির নিপুন কলাকৌশল দেখতে দেখতে একটি সহজাত সাহস আমদেরও সংক্রামিত করত। ওই  বিপুল উদ্দামতা, প্রতিকুলতার মধ্যে স্থির থেকে লক্ষ্যের দিকে এগিয়ে যাওয়ার অদম্য আবেগে আমরাও উৎসাহিত হয়ে উঠতাম। সহজাত স্বভাবের টানেই আমদের একান্ত গভীরে সঞ্চারিত হত লোকায়িত সংস্কৃতির এক সহজপাঠ। ঐকান্তিক ইচ্ছার এই বিপুল সমারোহ এই বঙ্গ এই ভারতবর্ষের বিবর্তনের ধারাপাতের সাথে আমরা নিবিড় ভাবে একাত্ত হয়ে যেতাম ছোটবেলা থেকে।


আড়মের সাথে দুর্গা প্রতিমা বিসর্জনঃ

বাংলায় ১৫ শতকের শেষ ভাগে বাংলায় দুর্গা পূজা শুরু হয়। আর সুকৌশলে আড়মের দিনেই এই বিসর্জনের প্রক্রিয়াটিকে সংযুক্ত করা হয় যাতে দুর্গাপূজাও লোকাচারের সাথে সম্পৃক্ত হয়ে যায় এবং কালক্রমে লোকাচার ও লোকোৎসবের পরিবর্তে দুর্গাপূজাই প্রধান হয়ে ওঠে। আমদের ছোট বেলাতেই দেখেছি প্রতিমা বিসর্জনের জন্য বাইচের প্রতিযোগিতাকে অনেকটাই ছেঁটে ফেলতে হয়েছে। দুর্গা প্রতিমা বোঝাই নৌকাগুলি বাইচের নৌকার গতিপথের মধ্যে ঢুকে পড়েছে এবং বাইচের আনন্দ অনেকটাই মাটি করে দিয়েছে।             


আড়ম বা আড়ং শব্দের তাৎপর্য

প্রাগার্য ভারতের অসুর ভাষার শব্দভাণ্ডারে আড়ম বা আড়ং শব্দের অর্থ প্রচুর, পর্যাপ্ত বা যথেষ্ট পরিমাণ। আড়মধোলাই, আড়ম্বর, সাড়ম্বর সব্দগুলি যে আড়ম বা আড়ং থেকে এসেছে তা আর বলার অপেক্ষা রাখেনা। পুরাকালের জনবহুল গ্রাম ও গঞ্জের নামের সাথেও আড়ং শব্দটি জুড়ে আছে। কিন্তু যে অর্থে আড়মের মেলা বলা হয় তা কেবল প্রচুর বা পর্যাপ্ত অর্থের মধ্যে সীমাবদ্ধ নয়। এর সঙ্গে যুক্ত হয়েছে সাংস্কৃতিক সমারোহ এবং নিশ্চিত ভাবে এই সমারোহের একটি আর্থসামাজিক উদ্দেশ্য আছে। যা বিবর্তিত হতে হতে লোকাচার ও লোকোৎসবে পরিণত হয়েছে।

যে কাল ও সময়ে আড়মের মেলা হয় সেটাও বেশ তাৎপর্যপূর্ণ। কেননা শ্রাবণ, ভাদ্র ও আশ্বিনের ঝড়, ঝঞ্ঝা ও বৃষ্টি খানিকটা কেটে গেলে মানুষের জীবনে প্রাকৃতিক বিপর্যয়ের আশংকা অনেকটা কেটে যায়। ক্ষেতের ধানগুলো বাড়ন্ত জলকেও হার মানিয়ে বুক চিতিয়ে দাঁড়িয়ে পড়ে। ভাদ্দরের প্রথম দিকে বাড়িতে আসে আউস ধান। অন্যদিকে দীঘা ধান ও আমন ধানের ক্ষেতগুলি চাষির বুক ভরিয়ে তোলে। কাজের চাপ কম। অনেকটা অবসর। প্রিয়জনদের মুখ মনে পড়ে। জানতে ইচ্ছে করে তারা কেমন আছে। জানাতে ইচ্ছে করে নিজের আশা আকাঙ্ক্ষার কথা। স্বজনের সাথে মিলিত হওয়ার এটাই উপযুক্ত কাল। জনপুঞ্জের এই একান্ত আবেগের সম্মিলিত মিলন ক্ষেত্রই আড়ম।  

সাধারণত কৃষিনির্ভর শ্রমজীবী মানুষের জীবনযাপনের জন্য যে সব সামগ্রীর প্রয়োজন তার যোগান দেয় আড়মের মেলা। মনোহারী সামগ্রীরও খামতি থাকেনা। ফলে পুরুষের সাথে সাথে নরীদের অংশগ্রহণও চোখে পড়ার মত। তবে আড়ং থেকে ঘরে ফেরার সময় পর্যাপ্ত পরিমাণ বিভিন্ন ধরণের মিষ্টির সাথে প্রচুর আখ কিনে বাড়ি ফেরে পরিবারকর্তা। চার-পাঁচদিন ধরে চলে খাওয়া দাওয়ার আয়োজন। আত্মীয় স্বজনের বাড়ি বাড়ি চলে নিমন্ত্রণের পালা। মাছ, মাংস, পিঠে, পুলীর ভরপেট আয়োজন।


আড়ম এবং ওনামঃ  


বাংলায় যে সময় আড়ম অনুষ্ঠিত হয় ঠিক একই সময় তামিলনাড়ুর সমুদ্রতটবর্তী অঞ্চল বিশেষত কেরালায় অনুষ্ঠিত হয় ওনাম উৎসব। ওনাম সম্ভবত প্রাচীন অসুর শব্দ আড়মের সংস্কৃতিকরণ। এই ওনাম উৎসবে বাইচের মতোই অনুষ্ঠিত হয় বাল্লাম কেলি (Vallum Kali)। মালাবার উপকুলের নৌপ্রতিযোগিতার সর্বাধিক প্রচলিত প্রচলিত আনন্দদায়ক খেলা। এই প্রতিযোগিতা ওনাম উৎসবের সাথে অঙ্গাঙ্গীভাবে জড়িত। ওনাম একটি কৃষি উৎসব। ফসল ঘরে তোলার পরে উপকুলের মানুষেরা আত্মীয়স্বজনের সাথে নিরলস আনন্দে মেতে ওঠে। চারদিন ধরে চলে নাচ, গান ও ভোজনের উৎসব। এর মধ্যে শ্রেষ্ঠ আকর্ষণ হল বাল্লাম কেলি। রংবেরংয়ের শতাধিক নৌকা নিয়ে আন্নামালাই, কোট্টিয়াম ও কোবালাম অঞ্চলের সাধারণ মানুষ মেতে ওঠে নৌপ্রতিযোগিতায়। কাড়া, নাকাড়া ও করতালের দ্রুত ছন্দে চলে বৈঠার টান। নৌকা বাইচের গানের মতোই বাল্লাম কেলির গানে থাকে একই ছন্দ, একই আবেগ ও একই দ্যোতনা।          

ফলে আড়ম-ওনাম, বাল্লাম কেলি ও বাইচ যে সম সংস্কৃতি সম্পন্ন জনপুঞ্জের লোকায়ত বিদ্যা সে বিষয়ে কোন সন্দেহের অবকাশ নেই।


অসুর উপাখ্যান ও লোকোৎসবঃ     


অনেক লোক উৎসবের সাথে জুড়ে দেওয়া হয়েছে এক একটি পৌরাণিক কাহিনী। এই পৌরাণিক কাহিনীর বিশ্লেষণ  করলে আড়মের মেলায় যাবার জন্য প্রস্তুত নৌকাগুলিকে বরণ করার সময় মা, পিসিমা  ঠাকুরমায়েরা কেন "জিতে এস" বলতেন তার খানিকটা অর্থ বোধগম্য হতে পারে। এই পৌরাণিক কাহিনীটি ভগবত পুরানে লিপিবদ্ধ হয়েছে।  বিষ্ণু বামন রূপ ধারণ করে কী ভাবে অসুর  রাজা মহাবলীকে হত্যা করেছিল তা এই কাহিনীতে বর্ণিত হয়েছে। কে এই রাজা বলী? যিনি মহা বলী নামে খ্যাত তা জানা প্রয়োজন বলে মনে করি।  রাজা বলীর বংশ পরিচয় জানা যায় কয়েকটি পুজাণে ও রামায়ন কাহিনীতে। বিষ্ণু পুরানে বর্ণিত আছে যে অসুর রাজা হিরণ্যকাশ্যপ ছিলেন দক্ষিণ ভারতের পরাক্রান্ত রাজা। তাঁর কারণেই দক্ষিণ ভারতে ব্রাহ্মন্যবাদী শক্তির প্রসার সম্ভব হচ্ছিলনা। দেবরাজ ইন্দ্র কিছুতেই এটে উঠতে পারছিল না হিরণ্য কাশ্যপের সাথে। হিরণ্য কাশ্যপের ভাই হিরন্যাক্ষ ছিলেন আরো দুর্ধর্ষ। ফলে সম্মুখ সমরে উত্তীর্ণ না হয়ে কৌশল অবলম্বন করলেন দেবশক্তি। বিষ্ণু বরাহ রূপ ধারণ করে  হিরন্যাক্ষকে হত্যা করলেন। নিরপরাধ ভাইকে এই নৃশংস ভাবে হত্যার বদলা নিতে হিরণ্য কাশ্যপ সৈন্যবল আরো বাড়িয়ে দেবশক্তিকে পর্যুদস্ত করতে লাগলেন। ফলে ছলনার আশ্রয় নিতে হল বিষ্ণুকে। বালক প্রহ্লাদকে কবজা করে ঢুকে পড়লেন রাজ প্রাসাদে। সুজোগ বুঝে ব্রাহ্মণ সেনাপতি নরসিংহের মূর্তির ছদ্মবেশ ধারণ করে রাজা হিরণ্যকাশ্যপকে হত্যা করে তাঁর নাবালক পুত্র প্রহ্ললাদ কে সিংহাসনে বসিয়ে দেবনীতি রুপায়নের ষড়যন্ত্র শুরু করলেন। তাদের ধারনা ছিল যে এই ব্যবস্থায় প্রজারা মনে করবে যে প্রহ্ললাদই শাসন করছে। ব্রাহ্মন্যবাদ কায়েম হলে প্রহল্লাদকেও হত্যা করা হবে।   

রাজা হিরন্যকের বোন ছিলেন হোলিকা। এই ষড়যন্ত্রের কথা তিনি জানাতে পেরে যান এবং প্রহল্লাদকে বাঁচানোর জন্য তাকে নিয়ে তিনি সুরক্ষিত স্থানে চলে যান। কিন্তু  আর্য দস্যুদের কুটিল নজর এড়িয়ে যেতে তিনি ব্যর্থ হন। দস্যুরা তাঁকে ঘিরে ফেলে। তাঁকে ধর্ষণ করে। তার রক্ত নিয়ে উন্মত্ত খেলায় মেতে ওঠে দেবশক্তি এবং গলায় দড়ি দিয়ে ঝুলিয়ে আগুনে পুড়িয়ে মেরে ফেলা হয় হোলিকাকে। এই প্রহ্লাদের ছেলে বিরোচনকে হত্যা করে ইন্দ্র। বিরোচনের পুত্রের নাম বলী ও কন্যার নাম মন্থরা। এই মন্থরা কিন্তু রামায়নে রামের দ্বিতীয় মাতা কৈকেয়ীর কুটিলা দাসী মন্থরা নন। ইনি রাজা মহাবলীর বোন মন্থরা। তবে রামায়নে উত্তরা কান্ডে দেখা যায় রাবণ রাজা বলীর নাতনী বজ্রজ্বালার সাথে কুম্ভকর্ণের বিবাহ দেন। এই সূত্রে কুম্ভকর্ণ মন্থরার নাতজামাই।


বলী কাহিনী ও দীপাবলিঃ  

অসুর রাজা বলী ছিলেন প্রজাপালক কল্যাণকারী রাজা। তাঁর শাসনে প্রজারা অত্যন্ত শান্তিতে বাস করতেন। দানশীল রাজা মহাবলী প্রজাদের সুখদুঃখে পাশে থাকতেন। রাজকোষ থেকে প্রচুর দান করতেন অতিথি ও প্রজাবর্গকে। এনিয়ে প্রজারা ভীষণ গর্ব বোধ করতেন। প্রাজ্ঞতা ও বলবীর্যে মহা বলীর রাজ্য ক্রমে শক্তিশালী রাজ্যে পরিণত হয়ে ওঠে। এতে বিষ্ণুর প্রভাব কমে যায়। তাই বলীর গর্ব খর্ব করার জন্য তিনি বামনের ছদ্মবেশে রাজা বলীর কাছে তিন পা জমি দান পাবার জন্য আবেদন করেন। রাজগুরু শুক্রাচার্য তিন পা জমির মধ্যে গভীর কোন ষড়যন্ত্র লুকিয়ে আছে বলে রাজাকে সতর্ক করেন। মহাবলী আপন পৌরুষ ও মর্যাদা রক্ষার জন্য তিন পা জমি দিতে রাজি হয়ে যান। আর এই সুজোগেই বামনবেশী বিষ্ণু এক পা দিয়ে সমগ্র পৃথিবী ঢেকে ফেলেন, আর এক পা দিয়ে আকাশ আচ্ছাদিত করেন এবং তৃতীয় পা কোথায় রাখবেন বলে বলীকে জিজ্ঞাসা করেন। বলী সবকিছু বামনের করায়ত্ত হয়েগেছে দেখে নিজের মাথা বাড়িয়ে দেন। আর তৃতীয় পা দিয়ে বামন বলীরাজাকে নরকে প্রথিত করেন। কিন্তু লোকায়ত কাহিনী অনুসারে তাকে হত্যা করে লুকিয়ে ফেলা হয়। যাতে প্রজা বিদ্রোহ না ঘটে তার জন্য রটিয়ে দেওয়া হয় যে  বলী নরক থেকে  বছরে একবার চার দিনের জন্য ঘরে ফিরতে পারবে। প্রচলিত ওনাম উৎসবের চারদিন সে প্রিয়জনদের সাথে মিলিত হবে। মহাবলীর এ হেন পরিণতিতে দেবসমাজে  মহা ধুমধামের মধ্য দিয়ে পালিত হয় আলোর উৎসব। এই উৎসবের নাম দীপাবলি।


ভাই ডুজ বা ভাই ফোঁটাঃ  

কিন্তু লোকসাহিত্য বা লোকগাথাগুলিতে লুকিয়ে আছে বলী রাজার অমর কাহিনী। বলী রাজার প্রজাগণ এই জঘন্য হত্যা মেনে নিতে পারেননি। বিশেষত বোন মন্থরা ঘোরতর অসন্তোষ প্রকাশ করতে থাকেন। তিনি দেবলোক ধ্বংস করে দেবার প্রতিজ্ঞা করেন।  রাজ্যের সমস্ত সৈন্যদের ভাই হিসেবে নিমন্ত্রণ করেন মন্থরা। কপালে শ্বেত চন্দনের ফোটা ও মিষ্টি খাইয়ে বাহিনীকে সাজিয়ে তোলন। যে মিষ্টিগুলি মন্থরা তৈরি  করেছিলেন তার প্রত্যেকটি ছিল এক একটি শস্ত্রের আকার। নৌবাহিনীকে সাজিয়ে তোলেন। বিষ্ণু পা দিয়ে বলীকে করেছিলেন তাই বাম পা দিয়ে নৌকা গুলিকে ধাক্কা দিয়ে মহড়ার জন্য ভাসিয়ে দেওয়া হয় বন্দরের জলে। মন্থরা তাদের উৎসাহিত করেছিলেন এই কথা বলে যে, তারাই যুদ্ধে জিতবে। মন্থরার এই যুদ্ধ প্রস্তুতি দেবকুলকে শঙ্কিত করে তোলে। দেবরাজ ইন্দ্র সসৈন্যে মন্থরাকে আক্রমণ করেন এবং হত্যা করেন। কিন্তু লোকায়ত কাহিনী অনুসারে মন্থরার এই দৃঢ় আদেশ নিয়ে শুরু হয় বাল্লাম কেলী। আজও কেরালার ছড়িয়ে থাকা সমুদ্রতট শায়িত অঞ্চলগুলিতে ওনামের চার দিন ধরে চলে বাল্লাম কেলি। বাল্লাম কেলী মালাবার উপকুলের সর্বাধিক প্রচলিত নৌকা প্রতিযোগিতা। বাংলার মা ঠাকুরমায়েদের বাইচের নৌকা  বরণের সাথে কোথায় যেন মন্থরার ওই বরণ একাত্ম হয়ে যায়। মন্থরার ওই শান্ত দৃঢ় কণ্ঠই আমরা শুনতে পেতাম আড়মের মেলাতে যাবার সময় মা ঠাকুরমার মুখে "জিতে এস"।      

মধ্য ভারতের জনসাধারণের মধ্যে বলী রাজার প্রত্যাবর্তনের সমারোহ হিসেবে পালিত হয় ভাই ডুজ বা ভাই ফোঁটা।  বছরের  এই একটি দিন ভাইয়েরা বোনের কাছে ফিরে আসে। বোনের জন্য নিয়ে আসে নতুন পোশাক। বোন একটি আসনের উপর ভাইদের বসিয়ে কপালে ফোঁটা দেয়। 

"ইনা মিনা ডিকা

ভাই কা শরপে টিকা

বহনা কহে ইয়ে মিঠাই লাও

বলী কা রাজ ফির সে লাও" এই ছড়াটি কাটতে কাটতে ভাইয়ের কপালে শ্বেত চন্দন পরিয়ে দেয়। এই ছড়ার বাংলা করলে দাড়ায়ঃ

ইনা মিনা ডিকা,

ভাইয়ের কপালে টিকা

বোন বলে এই মিঠাই খাও

বলীর শাসন ফিরিয়ে দাও।

ঘরে ঘরে বোনেরা লোকাচারের মাধ্যমে বলীর সুশাসন ফিরিয়ে আনার জন্য ভাইয়েদের এভাবে উৎসাহিত করায় প্রমাদ গোনে দেবসমাজ। তাঁরা আবার পৌরাণিক কাহিনীর মধ্যে যম ও যমুনার গল্প ঢুকিয়ে দিয়ে এই বিশাল অঞ্চলের লোকাচারকে ব্রাহ্মন্যবাদী ধারায় প্রবাহিত করার চক্রান্ত শুরু করে। রচিত হয় ভাই ফোঁটার ছড়াঃ

"ভাইয়ের কপালে দিলাম ফোঁটা

যম দুয়ারে পড়ল কাঁটা

যমুনা দেয় যমকে ফোঁটা

আমি দিই আমার ভাইকে ফোঁটা"।


মানুষ যুক্তিবাদী ও সুশিক্ষিত হলে ব্রহ্মন্যবাদ টেকেনাঃ  

ব্রাহ্মন্যবাদ বা দেবসমাজের রচিত কল্পকাহিনীগুলি থেকে একটি বার্তা আমাদের কাছে প্রকট হয়ে ওঠে যে, যখন যখন ভারতে ব্রাহ্মন্যবাদের উপর আক্রমণ এসেছে তখন তখন প্রলয়, সংকট, জিঘাংসা, নৃশংসতা, যুদ্ধ বা গুপ্ত হত্যার আশ্রয় নিয়েছে ব্রাহ্মণসমাজ। ঈশ্বরের নামে, ধর্মের নামে চালিত করা হয়েছে এই সব নরহত্যার জঘন্য ঘটনাগুলিকে। রচিত হয়েছে অবতার কাহিনী। ইতিহাস ধ্বংস করে রচিত হয়েছে মিথ। এই মিথ মিথ্যার বেসাতি কিনা তা কালে বিচার হবে।  তবে এই কল্প কাহিনীগুলিকে চোলাইয়ের মত  গেলাতে  গেলাতে ইতিহাস বানানোর চেষ্টা করা হয়েছে। ব্রাহ্মণসমাজ যে কতটা নৃশংস তা তাদের সৃষ্ট দেব দেবীদের ছবি দেখলেই স্পট বোঝা যায়। আর এই সব দেব দেবীর ভিত্তি হল আজগুবি পৌরাণিক কাহিনীগুলি। অর্থাৎ একথা স্পষ্ট যে বিজ্ঞানের আলোকে ইতিহাসের পর্যালোচনা করলে ব্রাহ্মন্যবাদী আজগুবি তত্ত্বগুলি প্রচুর হাস্যরসের খোরাক যোগায়। প্রজ্ঞা ও যুক্তিবাদের কাছে ধোপে টেকেনা ব্রাহ্মন্যবাদ। এটি কেবল মাত্র টিকে থাকে অজ্ঞতা ও  কুসংস্কারের মধ্য দিয়ে। হিংসা, বীভৎসতা, বিচ্ছিন্নতা, নৃশংসতা, নারীর প্রতি অবমানতা ও কদর্যতার জন্য পৃথিবীর কোথাও ব্রাহ্মন্যবাদের প্রসার ঘটেনি। গায়ের জোরে যেটুকু প্রসারিত হয়েছিল তাও সংকুচিত হতে হতে প্রাদেশিকতায় পরিণত হয়েছে। মানুষ আরো শিক্ষিত হলে, দেশের ও জনগণের আরো আর্থিক সয়ম্ভরতা এলে এই সংকোচন আরো বাড়বে এবং কালে কালে বিলোপ সাধন ঘটবে এই কলঙ্কিত মতবাদের। কিন্তু বিবর্তনের নতুন নতুন বাঁকে এসে শ্রম ও উৎপাদনের সাথে সম্পৃক্ত জনপুঞ্জের মধ্যেই মানবিক কারণেই বেঁচে থাকবে আড়ম, ওনাম, ভাইফোঁটা, নাওবাইচ, বাল্লাম কেলীর মত লোকাচার ও লোকসংস্কৃতি। 

Wednesday, October 29, 2014

गोमुख में रेगिस्तान देखा तो सुंदरलाल बहुगुणा ने चावल खाना छोड़ दिया कि एशिया में चावल अब होंगे नहीं।

गोमुख में रेगिस्तान देखा तो सुंदरलाल बहुगुणा ने चावल खाना छोड़ दिया कि एशिया में चावल अब होंगे नहीं।

जमीन जल जंगल बेचकर करोड़पति बने लोगों के वर्चस्व तले दबे पहाड़ हैं तो आपराधिक राजनीति और निरंकुश बाजार के चंगुल में तेजी से नगर महानगर में बदलते हुए जख्मी लहूलुहान गांवों में हरे अनाकोंडा का डेरा है,पता नहीं कब किसे निगल जायेे।

पलाश विश्वास

गोमुख में रेगिस्तान देखा तो सुंदरलाल बहुगुणा ने चावल खाना छोड़ दिया कि एशिया में चावल अब होंगे नहीं।


वे वयोवृद्ध हैं और घटनाक्रम को हूबहू याद नहीं कर सकते।वे लेकिन हमारे मुद्दों को भूले नहीं हैं।पैंतीस साल बाद उन्होंन हमें पहली नजर से पहचान लिया और सारे नारके उन्हें याद हैं।


हम उन परिणामों को खंगालने में अभ्यस्त और दक्ष हैं,जिन्हें हम बदल नहीं सकते।हम उन कारणों और मुद्दों को संबोधित करने के मिजाज में कभी नहीं होते,जिन्हें हम अइपना कर्मफल बताते अघाते नहीं हैं।ङम वे आस्थावान धार्मिक लोग हैं ,अधर्म और अनास्था जिनका जन्मसिद्ध अधिकार है।


दिवाली के बाद आज पहलीबार आनलाइन होने का मौका मिला है।


पहलीबार अपने गांव में,अपने जनपद में और अपने राज्य में मुझे खुद  को अवांछित अजनबी जैसा महसूस हुआ।


पहलीबार मैं अपने कस्बों में एक सिरे से दूसरे सिरे तक खोजता रहा अपनों को ,कहीं कोई मिला ही नहीं।


जो मिला वह हमें हमारी क्रयशक्ति से तौलने में लगा रहा।ऩ अपनापा और न कोई सम्मान।


पहलीबार मुझे अपने पिता कूी मूर्ति से खून चूंती  नजर आयी और पहलीबार मुझे लगा कि इस सीमेंट के जंगल में मेरे पिता समेत हमारे किसी भी पुरखे के लिए कोई जगह नहीं है।


पहलीबार मुझे लगा कि मेरे पिता को भी एटीएम बना दिया गया है और उनके नाम से करोड़पति बन रहे लोगों की जनविरोधी हरकतों के मुकाबले मेरे पास कोई हथियार नहीं है।


पहलीबार लगा कि गौरादेवी और सुंदरलाल बहुगुणा के चिपको की आड़ में लोगों ने अपने अपने घर भर लिए और बेच दी तराई,नदियां बेच दीं,बेच दिये जंगल, बेच दिये पहाड़।


राजीव नयन बहुगुणा और हम इसे रोक भी नहीं सकते।तराई और पहाड़ को बनाने वालों की संतान संततियों का यह वर्तमान है और भविष्य भी यहीं।देश को बनाने वालों,बचानेवालों का भी हश्र यही।


पहलीबार लगा कि हमारे गिरदा की भी ब्रांडिंग होने लगी है।


हमारे पुरखों,हमारे सहयोद्धाओं के संघर्ष की विरासत से भी हम अपनी जमीन,आजीविका ,कारोबार,जल,जंगल,नागरिकता और मनुष्यता की तरह बेदखल हो रहे हैं और हमारी संवेदनाएं अब कंप्य़ूटरों के साफ्टवेअर हैं या फिर एंड्रोयड मोबाइल के ऐप्पस।


पहलीबार लगा कि हमारी सामाजिक संरचना,हमारी सभ्यता और हमारी मातृभाषा और संस्कृति बेदखल खुदरा बाजार की ईटेलिंग हैं।


पहलीबार लगा कि वरनम वन अब सीमेंट का जंगल है जहां चप्पे चप्पे पर कैसिनोदंगल है।जमीन जल जंगल बेचकर करोड़पति बने लोगों के वर्चस्व तले दबे पहाड़ हैं तो आपराधिक राजनीति और निरंकुश बाजार के चंगुल में तेजी से नगर महानगर में बदलते हुए जख्मी लहूलुहान गांवों में हरे अनाकोंडा का डेरा है,पता नहीं कब किसे निगल जायेे।


पहलीबार लगा कि इस गांव में,इस जनपद में हमारी कोई जगह नहीं है और महानगरों से हमारी वापसी नामुमकिन है


हम इसी परिदृश्य में पर्यावरण सेनानी सुंदर लाल बहुगुणा से मिलने उनके बेटी के घधर देहरादून चले गये ताकि पर्यावरण और कृषि के भूले बिसरे मुद्दों पर उनके नजरिये के मुताबिक फिर एक और प्रतिरोध का विमर्श शुरु हो।


बसंतीपुर से लेकर बिजनौर,नैनीताल से लेकर नई दिल्ली में हमारी बेटियों,बहुओं और माताओं ने अपनी सामाजिक सक्रियता और सरोकारों से मुझे बार बार चौंकाया है,हम आहिस्ते आहिस्ते उनके बारे में भी लिखेंगे।


नैनीताल,रूद्रपुर, बिजनौर,देहरादून होकर आज दोपहर ढाई बजे कश्मीरी गेट उतरा।


इसबार बहन वीणा या भाई अरुण के यहां जाने के बजाये सीधे प्रगति विहार हास्टल के बी ब्लाक में राजीव के नये डेरे पर चला आया।


राजीव पहले ही कोलकाता से तंबू उखाड़कर दिल्ली में विराजमान है तो बच्चे भी अब दिल्लीवाले हो गये ठैरे।


गोलू और पृथू जी के पीसी पर काबिज हूं।


कल दोेस्तों से मुलाकात के अलावा वीरेनदा से मिलना है और परसो फिर वही दुरंते कोलकाता।फिर बची खुची नौकरी चाकरी।


दिल्ली आकर पीसी पर बैठने से बहले कोलकाता से आनंद तेलतुंबड़े जी का फोन आया कि पिता के निधन की वजह से वे मुंबई में थे। इसीलिए संपर्क में नहीं थे।इस बीच कई बार बीच बहस में बतौर व्याख्य़ा आनंदजी से संपर्क साधने की कोशश भी करता रहा,संभव नहीं हुआ,क्यों, आज जाना।


सीनियर तेलतुंबड़े जी लंबे अरसे से बीमार चलस रहे थे। लेकिन उनका इस तरह जाना बेहद खराब लग रहा है।उन्हें हमारी श्रद्धांजलि।


हम सविता के मायके से बिजनौर होकर दिल्ली पहुंचे। उनका मायका धर्मनगरी स्वर्गीय धर्मवीर जी का गांव है जिसकी जमीने गंगा के बांध में शामिल हैं।गंगा बैराज संजोग से देश के सबसे समृद्ध कृषि जनपदों मेरठ और मुजफ्फरनगर जिलों को भी धर्मनगरी के सिरे से जोड़ता है।


इसी बिंदू पर जब भी मैं सविता के यहां आता हूं इन तीन जिलों के किसी भी कृषि वैतज्ञानिक के मुकाबले खेती के ज्यादा जानकार किसानों के व्यवहारिक ज्ञान के मुखातिब होता हूं।


सविता का भतीजा रथींद्र विज्ञान का छात्र रहा है।खेती बाड़ी करता है और पंचायत प्रधान भी रहा है।उससे और उसके साथियों से हमारी फसलों ,बीज,जीएम सीड्स,कीटनाशकों,उर्वरकों से लेकर इस क्षेत्र में जीवनचक्र जैव प्रणाली और खादर में पाये जाने वाले हरे एनाकोंडा सांपों के बारे में भी चर्चा हुई।


पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने आधुनिकता को अपनाया है लेकिन हरित क्रांति का अंधानुकरण नहीं किया है।उन्हें बाजार के हितों और खेती की विरासत के बीच केे संबंधों को साधने की कला आती है।


इसी इलाके में बासमती शरबती,हंसराज,तिलक जैसे देशी धान की खेती अब भी होती है और यहां के किसानों अपने बीजों की विरासत की विविधता मौलिकता छोड़ी नहीं है,यह मेरे लिए बेहद खुशी की बात है।उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल की दक्षता भी उनकी हैरतअंगेज है।


इस बार की यात्रा के दौरान बसंतीपुर से लेकर तराई और पहाड़ के मौजूदा हालात के विचित्र किस्म के अनुभव भी हुए तो देहरादून में मौलिक पर्यावरण आंदोलनकारी व वैज्ञैनिक परम आदरणीय सुंदरलाल बहुगुणा ने करीब 35 साल के बाद हुई मुलाकात के बाद भी मुझे पहचान लिया और घंटों सविता और मुझसे इस अंतरंगता से बात की कि मैंने राजीवनयन को कहा कि वे सिर्फ तुम्हारे ही नहीं हमारे भी बाबूजी हैं।


हमने जो उत्तराखंड,उत्तरप्रदेश और दिल्ली में हाल फिलहाल महसूस किया और बाकी देश के अलग अलग हिस्सों में भारतीय मुक्त बाजार में बेदखल जल जंगल जमीन पर्यावरण और मनुष्यता के बारे में महसूस करते रहे, उसे सुंदर लाल बहुगुणा जी ने हैरतअंगेज ढंग से रेखांकित किया है।


हम सोच रहे थे कि राजीवनयन दाज्यू के पास रिकार्डिंग की व्यवस्था होगी जो थी नहीं,इसके अलावा विमला जी के साथ जुगलबंदी में भारतीय कृषिनिर्भर पर्यावरण और अर्थव्यवस्था और ग्लोबल जलवायु पर्यावरण मुद्दों पर जो सुलझे विचार उन्होंने व्यक्त किये,उसवक्त राजीव नयन दाज्यू मौके पर हाजिर ही न थे।


नतीजा यह हुआ कि मोबाइल मामले में अनाड़ी हमने जो भी रिकार्ड करने की कोशिश की,रथींद्र ने बताया कि वह कुछ भी रिकार्ड नहीं हुआ।लेकिन हमारे दिलोदिमाग पर वे बातें अब पत्थर की लकीरें हैं।


जैसे सुंदरलाल जी ने कहा कि हिमालय में भूमि उपयोग के तौर तरीके बदले बिना इस उपमहादेश में भयंकर जलसंकट होने जा रहा है,जिसका असर पूरी दुनिया पर होगा।


हम इन मुद्दों पर गंभीरता से सिलसिलेवार चर्चा करेंगे।


हमने हरिद्वार और ऋषिकेश में गंगा को जिसतरह पथरीले जमीन में तब्दील होते महसूस किया,जैसे रामगंगी की हालत देखी धामपुर के पास,जैसे यमुना नदी को दिल्ली में ररते सड़ते हुए महसूस किया,वह पुरानी टिहरी के बांद में दम तोड़ते देखने या जलप्रलय की चपेट में केदार में लाशों का पहाड़ दरकना देखने से कम भयावह नहीं है।


जो बेहिसाब निर्माण और जमीन डकैती सर्वत्र जारी है,जो निरंकुश प्रोमोटर बिल्डर राज तराई,पहाड़.पश्चिम उत्तर प्रदेश और पराजधानी नई दिल्ली में भी देखा है,वह भारतीय कृषि,भारतीय अर्थव्यवस्था, देशज कारोबार,उद्योग धंधे,मातृभाषा,शिक्षा,संस्कृति और सभ्यता की मृत्युगाथा है।


अनाकोंडा सिर्फ लातिन अमेरिका में नहीं होते।


अनाकोंडा शुक्रताल से लेकर गंगा के खादर क्षेत्र में भी होते हैं।हरे रंग के वे अनाकोंडा उतने ही खतरनाक हैं जितने अमाजेन की बहुराष्ट्रीय ईटेलिंग और अमेजन की सर्प संस्कृति।


अनाकोंडा परिवार यह लेकिन हमारी हरित क्रांति है।


भारतीय अनाकोंडा भी हरे हरे होते हैं और गंगा की गहराइयों में अनाकोंडा के इस बसेरे पर नेशनल जियोग्राफी,वाइल्ड लाइफ और डिस्कावरी में भी चर्चा नहीं होती।


पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों को लेकिन इन हरे अनाकोंडाओं के बारे मेँ खूब मालूम है  और उन्होंने तराई,पहाड़ और बाकी देश की तरह कृषि की हत्या में अब भी कोई भूमिका निभाने से इंकार के तेवर में हैं।


अपने खेत छोड़़ने को अब भी वे तैयार नहीं है और खेती की खातिर वे राजधानी दिल्ली का कभी भी घेराव कर सकते हैं।


हम खाप पंचायतों के मर्दवादी तेवर का किसी भी तरीके से समर्थन या महिमामंडन नहीं कर सकते लेकिन खेतों खलिहानों के हक हकूक की लड़ाई में इन खाप पंचायतों की सामाजिक क्रांति को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते।


उऩके इस खाप पंचायती तेवर को आप चाहे कुछ भी कहें, भारतीय कृषि को  मुक्त बाजार के मुकाबले,बहुराष्ट्रीय रंगबिरंगे अनाकोंडाओं के देहात की गोलबंदी और उसकी ताकत का मुशायरा भी ये खाप पंचायतें हैं।


आदिवासी इलाकों में भी सामाजिक संरचना बाजार के डंक का असर न होने की वजह से ही जल जंगल जमीन की लड़ाई इतनी तेज हैं वहां।


बाकी देश में सामाजिक संरचना का ताना बाना छिन्न भिन्न है और समाज देश को जोड़ने का कोई जनांदोलन जनजागरण कहीं भी नहीं है और न खाप पंचायतों की जैसी मजबूत कोई सामाजिक संरचना बची है।उलट इसके बाजार की नायाब हरकतों के संग संग राजनीति और महानगरीय मेधा आइकानिक सिविल सोसाइटी हर तरीके से समाज परिवार अस्मिताओं को और भी ज्यादा काट काटकर देश को मल्टीनेशनल आखेटगाह बना रही हैं।


इसलिए बेदखली का कोई सामाजिक सामूहिक विरोध अन्यत्र संभव भी नहीं है।खाप पंचायतों के इस मुक्त बाजार विरोधी तेवर को नजरअंदाज करके हम सामाजिक गोलबंदी के लिए लेकिन पहल कोई दूसरी कर नहीं सकते


बाकी समुदायों और बाकी समाज में प्रगति का जो पाखंड है,वही है मुक्त बाजार और बुलेट हीरक चतुर्भुज का डिजिटल देश।


बाकी चर्चा फिर आनलाइन होने की हालत में।


Friday, October 17, 2014

নমো ঃ অশ্বমেধের ঘোড়া ঃ শরদিন্দু উদ্দীপন

নমো ঃ অশ্বমেধের ঘোড়া ঃ শরদিন্দু উদ্দীপন


লিখছেনঃ 
তিনি দিগ্বিজয়ের জন্য মনোনীত। যজ্ঞের জন্যউৎসর্গকৃত। ধর্ম যুদ্ধের জন্য নিবেদিত। তিনিঅশ্বমেধের ঘোড়া। তাই তাঁকে সাজানো হয়েছে সযত্নেচন্দন চর্চিত ললাট অগ্নিসম রক্ততিলক শিরে ভাগুয়াধ্বজ তুরিভেরি, দামামার  উন্মত্ত রণহুংকার তুলে তিনিছুটে চলেছেন। তারই হ্রেষারবে শিহরিত হচ্ছে দশদিক হ্যাতিনিই বর্তমান ভারতের মনুবাদী শিবিরের ছুটন্ত ঘোড়াতিনি নরেন্দ্র দামোদর দাস মোদি।

এরকমই একটি ঘোড়ার সন্ধানে ছিল মনুবাদীরা যাকেদিগ্বিজয়ের কাজে ব্যবহার করা যেতে পারে এবংদিগ্বিজয়ের কাজ সমাপ্ত হলে বলি চড়ানো যেতে পারেবলিতেই মোহগ্রস্থ অশ্বের মুক্তি। হোমাগ্নীর পুত রসেভস্মীভূত হওয়াতেই তার  পরম শান্তি ওঁ শান্তিওঁ শান্তি মোদি সেই দাস সংস্কৃতি  পরম্পরার ধারক   বাহক যেদেবপ্রসাদ লাভ করে পরম শান্তি পেতে চায়  

শূদ্র নিধনের প্রতীকী পরিভাষা 
অশ্বমেধ যজ্ঞ ভূদেবতাদের ধর্মঅর্থকাম  মোক্ষ লাভেরসর্বোচ্চ পথ। মূলনিবাসীদের(শূদ্রবিরুদ্ধে কাঙ্ক্ষিত বিজয়লাভের জন্য এক সুনিশ্চিত বার্তা অশ্ব বা ঘোড়াকে দিয়ে এইকাজ পরিচালিত করা হয় এই কারণে যেভূদেবতীয় পরিভাষায়অশ্ব  শূদ্র সমগোত্রীয় ওদের ধর্মীয় ভাবনায় এটাইসম্পৃক্ত হয়ে আছে যেদেব সাম্রাজ্য বিস্তারের জন্য অশ্ব শূদ্রকে বলি প্রদত্ত হতে হয়।  কেননা ওদের বিধাতা জীব সৃষ্টিকালে পুরুষকে বলি দিয়েছিল এবং সেই বলি প্রদত্ত পুরুষেরপায়ের থেকে জন্ম নিয়েছিল শূদ্র  অশ্ব (পুরুষসূক্তঋক বেদ,৯০ শ্লোকঅর্থাৎ অশ্বমেধ হল শূদ্র বা দাস নিধনের প্রতীকীপরিভাষা নরেন্দ্র ভাই দামোদর দাস মোদি একদিকে শূদ্রঅন্যদিকে দাস সুলভ আনুগত্যের জন্য বিশ্বস্ত ঘোড়া। 

রামরাজ্যের রণহুংকারঃ                 
এই অশ্বমেধের ঘোড়া ছুটেছিল খৃষ্টপূর্ব ১৮৭ সাল আগেএকবার। প্রকাশ্যে দিবালোকে যখন পুস্যমিত্র শুঙ্গ সম্রাটঅশোকের প্রপৌত্র ব্রিহদ্রথকে নৃশংস ভাবে হত্যা করল পুস্যমিত্র শুঙ্গের এই অশ্বমেধ যজ্ঞ ছিল ঐতিহাসিক কালের সর্ববৃহৎ শূদ্র নিধন যজ্ঞ। অশ্বমেধের নামেধ্বংস করা হয়েছিল মূলনিবাসী সভ্যতার সমস্ত নিদর্শন। পুস্যমিত্র তার চরিত্রকে অবলম্বন করে লিপিবদ্ধকরেছিল রামায়ন কাহিনী শম্বুকের মতো জ্ঞান তাপসদের হত্যা করে তাদের ধড় থেকে মাথা নামিয়ে দিয়েব্রাহ্মনদের সন্তুষ্ট করেছিল রাজা রাম মোদির ভাষণেও উঠে আসছে  রামরাজ্যের সেই রণহুংকার   

কূর্ম অবতারঃ 
কচ্ছপ তার খোলসের মধ্য থেকে ক্রমশ শুঁড় বাড়তে শুরু করেছে। মৃতদেহ তার প্রধান খাদ্য। ব্রাহ্মণ ভোজনের জন্য শূদ্রের লাশ চাই। সস্তা বহুজনের লাশ। সুলতানি আমল থেকে ইংরেজ কাল পর্যন্ত ওরা মুখ খুলতে পারেনি। ইংরেজদের কাছ থেকে ক্ষমতা হস্তান্তরের পর থেকেই ওরা ক্রমশ দাঁত নখ বার করতে শুরু করেছে। শুরু হয়েছে সস্ত্রের ঝনঝনানি। সস্ত্র পূজা। কিন্তু একটি ঘোড়ার দকার ছিল ওদের। এযাবতকাল ওরা ব্যবহার করছিল ক্ষত্রিয় শক্তি। কিন্তু ক্ষত্রিয়রা ভূসম্পদের ৮০% দখল করে নিলে  ওরা বাণিয়া শক্তি ব্যবহার করে। তুলে আনা হয় মোহনদাস নামক এক বানিয়াকে। প্রয়োজন ফুরিয়ে গেলে মোহনদাস করমচাঁদ গান্ধীকেও তারা হত্যা করতে কুণ্ঠাবোধ করেনি। পাঞ্জাব এবং বাংলার শক্তিকে খর্ব করে তাদের খণ্ডিত করে বিপুল মানুষকে দেশহীন নাগরিকে পরিণত করতেও তারা দ্বিধা করেনি।   

বিনাশায় চ দুষ্কৃতমঃ   
ওদের মোক্ষ লাভের সবথেকে বড় অন্তরায় এখন ভারতীয় সংবিধান এবং তার প্রণেতা বাবাসাহেব ডঃ  বিআর আম্বেদকর। কারণ এই সংবিধান প্রণয়ন করে আম্বেদকর তাদের স্বপ্নের রাম রাজ্যকে আস্তাকুড়ে ফেলে দিয়েছেন। চতুর্বর্ণ ব্যবস্থাকে শুধু ধ্বংস নয় তাকে গর্হিত ও শাস্তি যোগ্য অপরাধ বলে প্রতিপাদিত করে দিয়েছেন। সংবিধানের মধ্যে ভাগিদারী ব্যবস্থা বলবত করে সমস্ত মানুষের সার্বিক উত্থান সম্ভব করে তুলেছেন। এই সংবিধানের কারণেই ক্রমশ রাষ্ট্র ক্ষমতায় উঠে আসছে বহুজন মানুষ। রাষ্ট্র হয়ে উঠছে for the people, by the people, of the people এর। শক্তিশালী বহুজন মানুষের শক্ত অভিঘাতেই উত্তর ভারতে দাঁত বসাতে পারছেনা ভুদেবতারা।   

ধর্মসংস্থাপনার্থায়ঃ 
সুতরাং পুনর্নির্মাণ চাই। সংবিধানকে ধ্বংস করে মনুর শাসন কায়েম করা চাই। জনগণকে পুনরায় বর্ণবাদ বা হিন্দুত্বের খোঁয়াড়ে পোরা চাই। বাবরি ধ্বংস চাই, গোধড়া চাই, সমঝোতা এক্সপ্রেস চাই, গুজরাট মডেল চাই, কাঁসির দখল চাই, বুদ্ধ গয়ার বিলুপ্তি চাই এবং এগুলো নির্দ্বিধায় প্রচার করার জন্য একজন নির্বোধ দাস চাই। একটা ঘোড়া চাই।   

কল্যাণ সিংকে (দাস বংশের আর এক প্রতিনিধি) দিয়ে শুরু হয়েছিল এই রনভেরি। জাঠ রাজ সিং এ খেলার একেবারে অনুপযুক্ত। মুরলী মনোহর যোশির গায়ে এত শক্তি নেই। সুতরাং দাস চাই। ঘোড়া চাই। যে বলি প্রদত্ত হবে জেনেও রামরাজ্য বিস্তারের কাজ করতে পারে।   
নরেন্দ্র দামোদর মোদি সেই দাস সেই অশ্বমেধের ঘোড়া যিনি অবলীলায় এগুলো প্রচার করেতে পারেন।  গুজরাট দাঙ্গায় শত শত মানুষের প্রান নিয়েও গাড়ির চাকায় কুকুর পিষে মরেছে বলে তামাশা করতে পারেন।  ১৯৪৭ সালেরপরে যাঁরা ভারতে এসেছেনতাঁরা বিছানা-বেডিং বেঁধে রাখুন১৬ মে- পরে তাঁদের বাংলাদেশে ফিরে যেতে হবে বলতে পারেন।
 এই মোদির নেতৃত্বে দেশের সম্পদ পুঁজিপতিদের হাতে তুলে দেবার জান্য, নরহত্যার জন্য যদি টাকা লাগে দেবে কর্পোরেট গৌরী সেন। সুতরাং দেশকে মোদির যুগে ঠেলে দাও। গুজরাট মডেল সামনে লাও। সমস্ত মিডিয়াগুলিতে সারাক্ষণ প্রচারিত হোক মোদিবাবুর কীর্তন। আবাল বৃদ্ধ বনিতা নমো নমো গাইতে শুরু করুক। কেননা নমো হলেন একালের অশ্বমেধের ঘোড়া।
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Tweeter

Blog Archive

Welcome Friends

Election 2008

MoneyControl Watch List

Google Finance Market Summary

Einstein Quote of the Day

Phone Arena

Computor

News Reel

Cricket

CNN

Google News

Al Jazeera

BBC

France 24

Market News

NASA

National Geographic

Wild Life

NBC

Sky TV