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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Saturday, October 11, 2014

नोबेल शांति जनपदों को तो जनपदों की भी सुधि लें,वरना हिंदी संस्कृत हो जायेगी! पलाश विश्वास

नोबेल शांति जनपदों को तो जनपदों की भी सुधि लें,वरना हिंदी संस्कृत हो जायेगी!

पलाश विश्वास

वीरेनदा की कविता उद्धृत करने का एक और मौका।16 को बसंतीपुर पहुंच रहा हूं।वे लोग,जिनसे अस्मिताओं के आर पार,तराई और पहाड़ के गांव गांव में,हर परिवार में बेशुमार प्यार का तोहफा मिला है,उनमें से ज्यादातर लोग अब इस दुनिया में नहीं हैं।कैंसर से जूझते जनपदों का एक कवि लेकिन अब भी कविता में सक्रिय है जो हमारे दिल का बेशकीमती हिस्सा हैं,और वे बेशक हमारे वीरेनदा हैं।


लेकिन यह वीरेनदा की कविता नहीं है। ये पंक्तियां मेरी हैः


बियाबां में कोई मकड़ी अकेली अपने भीतर से बुनती रहती जाल तूफान के मुकाबले।

बियाबां में कोई मकड़ी अकेली अपने भीतर से बुनती रहती जाल दावानल के खिलाफ।


रात का घना अंधेरा चीरकर बाती गरीब झोपड़ी में हर रात जलता है दिया।

रात का घना अंधेरा चीरकर अजीब से घुटन में मर मरकर जीता है जिया।


क्या पता,जिंदगी कितनी और मोहलत देगी इस धरती की सोंधी महक को।

क्या पता कि किस रंग से सराबोर जिंदगी कब बदल जाये सिरे से।


फिलवक्त लेकिन फिक्र है उस दुनिया जहां की,जो रोज बनती है और जिसे कातिलों का कारवां तबाह करने खातिर हर मोर्चे से बढ़त पर है और हम तो दोस्तों,


न तूफान के मुकाबले की तैयारी में कोई मकड़ी बनने काबिल रहे।

न दावानल के खिलाफ तनकर खड़ा होने का दम है।

न हम बूझने के लिए जलने को तैयार और न जलने के लिए बूझने को।

जिया जलाने को घुटन जीजी कर मरने को जी रहे हैं हम।


वीरेनदा कि बात चली,तो गिरदा याद आ जाते हैं।गिरदा की बात चली तो नवारुण दा याद आ जाते हैं।इनकी बात चली तो गोरख पांडे याद आ जाते हैं और दरवज्जे पर जबर्दस्त दस्तक देते हैं पाश कि ख्वाबों का मर जाना सबसे खतरनाक है।


खिड़कियों से कोई ब्रह्मराक्षस अंधेरे में खड़ा हांंकता है,

सबसे पहले तय करो कि किस ओर हो तुम और लिये लकुटिया सदियों से पसरा

घना अंधेरा चीरकर चीखता है कोई,कबीरा खड़ा बाजार में।


यही हमारा जनपद है।

यही हमारा मगध है।

यही हमारा गौड़ है।

यही हमारा मोहंजोदोड़ो हड़प्पा है।


उस जनपद से,उस मगध से,उस गौड़ से हम उसी तरह बेदखल होते रहे जैसे हम बेदखल हुए मोहंजोदोड़ो और हड़प्पा से तो यह किसका अपराध है,बूझो।


हिंदी समाज बाग बाग है कि विशुद्ध हिंदीवाला कोई नोबेलिया हुई गयो रे।


बंगालियों का नोबेल एकाधिकार तोड़ा हिंदी ने इसतरह कि बंगाल में भी हिंदी उपलब्धि पर जश्न का माहौल है।


दरअसल यह जनपदों को नोबेल शांति पुरस्कार है।


इस पुरस्कार की खासियत यह है कि पहलीबार पाकिस्तान और भारत के बीच बने अग्निवलय के कांटेदार तार रणभेरियों के धर्मोन्माद को धता बताकर फूल बनने लगे हैं।


उस गुलमोहर की छांव में लौटने के इंतजार में बिता दी सारी जिंदगी,जहां सुनहले ख्वाबों का साझा साया हुआ करता था।उस गुलमोहर के लाल रंग के आसरे बिता दी जिंदगी और जो बीत गया सो रीत गया।रेत की तरह फिसल रहा है वक्त।


दंगाबाज,दगाबाज,युद्धबाज सौदागरों के शिकंजे में हम स्मृतियों से भी बेदखल हो रहे हैं ठीक उसी तरह जैसे जनपदों से बेदखल हो रहे हैं हम और हमारी जो रूह है,वह दरअसल मलाला है।


उतनी ही कमसिन,उतनी ही खूबसूरत और उतनी ही लड़ाई की हिस्सेदार,जिसे कत्ल करते हैं हम मुक्त बाजार के इस डिजिटल बजरंगी देश में पल छिन पल छिन।


मेरा नाम कैलास रखा जाना था।जो मेरे दादाजी के बड़े बाई का नाम रहा है।दादी पूर्वी बंगाल के लोकरिवाज के मुताबिक अपने जेठ का नाम नहीं ले सकती थीं और चूंकि वंश में सबसे पहला बेटा था तो उनने वीटो दाग दिया कैलास नामकरण पर।


उस वक्त तराई घनघोर जंगल था।पिता ढिमरी ब्लाक जनविद्रोह के नेता थे उस वक्त।किसानसभा के नेता भी थे।चारों तरफ एक ही फूल खिल रहे थे जंगल में और जंगल की वह आग समेटकर मेरे वजूद के हिस्से में डाल दी हमारी ताई ने।मैं कैलास बनते बनते रह गया।


नोबेल पुरस्कार इस बार किसी एनजीओ को ही मिलना तय था। विश्वबैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष,यूनेस्को और यूरोपीय समुदाय की पूरी तैयारी थी।


मलाला को नोबेल देना भी आतंक के विरुद्ध,तालिबान के खिलाफ लड़ाई तेज करने के लिए अनिवार्य था।

हमें मालूम है कि किन मित्रों को कैलास जी को नोबेल मिलने से नोबेल मिलते मिलते हाथ मसोस कर रह जाना पड़ा।


शुरुआती सूची में उनका नाम तक नहीं था।जिनसे सारा बायोडाटा मंगवाया गया वे दौड़ में पिछड़ गये।


नोबेल राजनीति विचित्र किस्म की है।


गांधी को नोबेल शांति पुरस्कार देने से इंकार करते हुए उन पर रंगभेदी होने का आरोप भी लगा दिया गया और विडंबना देखिये कि गांधी का रास्ता अख्तियार करने के लिए कैलास जी को यह पुरस्कार दे दिया गया।इमर्जेिग बाजार की विश्वसुंदरी खूबी यही है।


खास बात तो यह है कि दुनियाभर में मुक्त बाजार में बेरहम तरीके से छिने जा रहे वचपन के हक हकूक के लिए मालाला और कैलास सत्यार्थी को यह पुरस्कार साझा मिला।संजोग से स्वात घाटी में तालिबान से लड़ने वाली तालिबान के हमले से मौत के आगोश में सोते सोते जिंदा बच निकली मलाला और बजरंगियों के मु्क्तांचल बनी गायपट्टी के जनपद विदिशा से दुनियाभर में बचपन बचाओ का अलख जगाने वाले

कैलाश जी को यह पुरस्कार मिला है,जिन्हें निजी तौर पर मैं जानता नहीं हूं।


भारत में किसी और एनजीओ एक्टिविस्ट को चुना गया होता तो मैं शायद उनका नजदीकी मित्र निकलता। लेकिन जिस जनपद से शलभ श्रीराम सिंह का ताल्लुकात है,जिस विदिशा की निशा के साथ जीवनानांद दास की कविता जुड़ी है,उस जनपद को मिले इस सम्मान से मैं बेहद खुश हूं।


खासकर इस साझा शंति पुरस्कार का मायने यह सबसे बड़ा है कि सीमा पर युद्ध की तैयरियों में जो लोग लगे थे,उनके चेहरे पर कालिख पोतकर जनपदों के साझा चूल्हे में फिर अमन की आग सुलगा दी है नोबेल कमिटी ने।


तात्कालिक प्रतिक्रिया में मैंने तो बांग्ला में लिखा भी,युद्धेर दामामा थामा नराधाम।अमलेंदु ने बांग्ला हस्तक्षेप पर जिसे चस्पां भी कर दिया।


नराधाम की पहचान पहेली है।बाकी युद्ध का दामामा तो पूरा भारत पाक राजनीति है और कारपोरेट मीडिया है।


जंग की आग लीलती रही है जनपद।

तबाही के मंजर से घिरते रहे हैं जनपद लगातार लगातार युद्ध के सिलसिले से।

हमारे भीतर भी कोई स्वात घाटी है जहां हर रोज कुचल दी जाती है कोई न कोई मलाला।

गर्भ में ही तमाम मलालाएं खत्म कर दी जाती हैं और आनर किलिंग की शिकार बना दी जाती हैं मलालाएं।


हमारे भीतर भी कोई स्वात घाटी है,जो हमें तालिबान न सही रंग बिरंगे बजरंगियों में तब्दील कर रही है और हम लोग भी जाने अनजाने स्वातघाटी के तालिबान ब्रिगेड में शामिल हुए जाते हैं।


जिस तबके से हूं मैं,कामकाजी मेहनतकश लड़कियों और औरतों को जाना है खूब और परिवार समाज में उनकी सक्रिय साझेदारी का गवाह रहा हूं।


जनपदों से बाहर विश्वविद्यालयी कुलीन महिलाओं से थोड़ा बहुत वास्ता रहा है।

अंतरंग संबंध या दोस्ताना या अन्येतर संबंध परिवार से बाहर पहचान और वर्गीय अवस्थान के बाहर बने नहीं हैं।


तालिबानी जिहाद दरअसल स्त्री विरोधी है।

मलाला को स्त्री होने के कारण लड़कियों की शिक्षा की मुहिम चलाने की वजह से तालिबानी मृत्यु परवाना जारी हुआ,जो पुरुषतांत्रिक वर्चस्व का मामला है।

यह समझने का कोई कारण है नहीं कि तालिबानी भूगोल इस्लाम की जद में कैद है।

इसके उलट मनुस्मृति अनुशासन के तहत स्त्री विरोदी प्रावधान और जटिल और ज्यादा अभेद्य है।


मुक्त बाजार ने स्त्री के हाथों और पांवों की जंजीरें अभी तोड़ी नहीं हैं।


हालांकि सच यह भी है कि क्रमशःप्रबंधकीय सहजात कुशलता,जन्मजात करुणाभाव, गृहिणी सुलभ दक्षता, कुशलता, निष्ठा और नेतृत्व की बदौलत हर क्षेत्र में स्त्री लेकिन पुरुष वर्चस्व के खिलाफ चुनौती बनती जा रही है।


पुरुषतंत्र तिलमिला रहा है और हम संभव तरीके से स्त्री के जीवन में जहर घोलने की बाजारु मुहिम जारी है।इसी की चरमोत्कर्षपरिणति बाजारु साँढ़ सस्कृति,विकाससूत्र।


तसलिमा नसरीन अभी भारत में बेनागरिक जीवन बिता रही हैं तालिबानी संस्कृति के खिलाफ लगातार जिहाद रचती हुई और भारत बांग्लादेश में अब उनका लिखा छापा नहीं जाता इसी वजह से।बांग्ला हस्तक्षेप में उनकी आपबीती पढ़ लें।


हम भारत में विदेशी तसलिमा के इस्लामविरोधी दिखने वाले संघर्ष का भले ही साथ दें,लेकिन पुरुषतंत्र के खिलाफ, धर्म के खिलाफ उनके लिखे कहे को अराजक ही मानते रहे हैं।अश्लील भी। और बजरंगी कहकर उनको समझने से इंकार का वाम प्रगतिवाद भी दर्शाने से चूकते नहीं है।धर्मनिरपेक्षता की आड़ में अततः तालिबान के साथ खड़े हो जाते हैं हम।


हिंदुत्व के खिलाफ,मनुस्मृति के खिलाफ कोई भारतीय मलाला और तसलिमा अभी प्रकाशित नहीं है और हमारी धर्मनिरपेक्षता सुरक्षित है।


लेकिन हकीकत यह है कि हम किसी तसलिमा या मलाला को अपने घर समाज में पपने का स्पेस देने लायक उदार नहीं हैं।


पिछले चालीस साल से अप्रिय लिखने कहने के लिए अलोकप्रिय इतना हूं कि किसी की तारीफ करुं तो भी तोक भाव से गालियां पड़ती हैं।इसका भी अभ्यस्त हो गया हूं।


कल तक अनजाने,अधजाने,उपेक्षित कैलास सत्यार्थी को मीडिया रातोंरात रवींद्र नाथ और मदर टेरेसा बनाने पर तुला है।उनका बचपन बचाओ आंदोलन अब मिथकीय है।


यह बेहद खतरनाक प्रवृत्ति है।

कोलकात इसका साक्षी है।


कोलकाता को तीन तीन नोबेल पुरस्कार मिले हैं।एक सदी पहले ब्रिटिश भारत में रवींंद्र नाथ जो कैलाश जी की ही तरह अनजाने,अधजाने और उपेक्षित थे।उन्हें बंगाल में कोई कवि मानने को तैयार न था।


नोबेल मिलने के बाद अब रवींद्र संगीत के अलावा बंगाल के जलवायु में कोई दूसरा सुर ताल संगीत है ही नहीं।जिस लालन फकीर की बाउल विरासत के मुताबिक बंगाल के रवींद्रनाथ विश्वकवि ,गुरुदेव बने,बंगाल ने बिना किसी औपचारिकता के उस सूफी संत बाउल साझा चूल्हे की विरासत को तिलांजलि दे दी है।जिन जनपदों में जड़ें थीं उनकी,वे जनपद अब अस्पृश्य हैं।


सीवी रमण और मदर टेरेसा को पुरस्कार मिलने पर बंगाल में वैज्ञानिक दृष्टि या मिशनरी सरोकार कितने बढ़े हैं,भयनक हुद हुदाते पद्मप्रलय में मेरे जैसे तुच्छ व्यक्ति के लिए उसका मूल्यांकन करना औकात से बाहर है।


बहरहाल बंगाल का दावा मलेरिया की चिकित्सा के लिए कोलकाता प्रवासी ब्रिटिश नागरिक को दिये गये पुरस्कार पर भी है।


कोलकाता तीन नहीं ,चार नोबेल का दावा करता है।

अब पांचवें पर मुझे अपना दावा ठोंक ही देना चाहिए।


किसी अस्पृश्य को भी तो मिलना चाहिए।


इस लिहाज से हिंदी पट्टी के विशुद्ध मध्यप्रदेशीय हिंदी भाषी कैलाश जी को मिला यह पुरस्कार ऐतिहासिक है।


यह दरअसल कैलास जी के व्यक्तित्व कृतित्व के महिमामंडन का मौका कम,बल्कि जनपदों की सुधि लेने का मौका है।


महिमा मंडन के लिए सारी दुनिया है।


जिस बचपन बचाओ को हम अब अपना गौरव समझते हैं,वह तो मुक्त बाजार के हवाले है।सर्वशिक्षा में सीमाबद्ध शिक्षा का अधिकार और अब भी खेतों से लेकर बाजार में बचपन बंधुआ मजदूर है।


इस हालात को बदले बिना कैलास जी की निजी उपलब्धि पर शायद इतराने का हक हमें नहीं है।


जिस मलाला के साथ यह शांति पुरस्कार है,उस मलाला का जिहाद लेकिन युद्धोन्माद और धर्मोन्माद के खिलाफ बराबर दावानल है।

क्या हम अपने अपने तालिबान के खिलाप उसी शिद्दत के साथ कोई मुकम्मल जंग लड़ने का माद्दा रखते हैं,खुद से यह पूछने का मौका है।


जनपदों की बात चली और हिंदी पट्टी की बात चली तो हिंदी पर बात की ही जानी है।


इस सिलसिले में अभी हाल में जो चेतावनी मास्को प्रवासी कवि अनिल जनविजय ने दी है और हस्तक्षेप पर जो चस्पां बी कर दी गयी,वह बेहद प्रासंगिक हैः


हिन्दी सिर्फ़ ब्राह्मणों की भाषा है?

2014/10/08  |   Filed under: बहस  |   Posted by: Amalendu Upadhyaya

अनिल जनविजय

उदयप्रकाश ने अपने उपन्यासिका 'पीली छतरी वाली लड़की' में बड़ी शिद्दत से यह वर्णन किया है कि कैसे भारत में 'ब्राह्मणों' ने हिन्दी की ठेकेदारी अपने नाम कर रखी है। भारत के ज़्यादातर विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों पर इन्हीं शुक्लाओं, मिश्रों, तिवारियों, पाण्डेयों और शर्माओं का कब्ज़ा है।

मास्को में क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन हो रहा है। उसमें भाग लेने के लिए भी सरकारी खर्चे पर जो प्रतिनिधिमण्डल भारत से आ रहा है, उसके सभी दस सदस्य ब्राह्मण हैं। ऐसा लग रहा है जैसे हिन्दी सिर्फ़ ब्राह्मणों की भाषा है।

http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%B8/2014/10/08/hindi-is-the-only-language-of-brahmins


इसपर आगे फिर चर्चा करते रहेंगे।


जो ताालिबान बजरंगी इस जहां में जहां भी है,उन्हें हमरा सर कलम करने का मुकम्मल हक है।जो न तालिबान है और न बजरंगी,वे हमारी बात पर गौर करें तो बड़ी कृपा होगी।


जिन युद्ध क्षेत्रीय आदिवासी जनपदों को हम  सैन्य शासन के लायक मानते हैं,वह भी दरअसल हिंदी समाज का अभिन्न अंग है।


अश्वमेधी संस्कृति की राजकाज भाषा और कर्मकांड, तंत्र मंत्र यंत्र और मुक्त बाजार की भाषा तक सीमित होकर हिंदी संस्कृत दशा की ओर तेजी से बढ़ने लगी है।

बंगीय महिमामंडन संस्कृति से बचते हुए हम सोचें तो फिर संवाद और विमर्श का माहौल बनेगा।फारवर्ड प्रेस पर छापा मारकर हिंदी का उद्धार असंभव है।


आदरणीय हिमांशु जी ने जो जनपदीय सामाजिक यथार्थ का ताजा नमूना पेश किया है,उस पर भी गौर कीजियेगाः


Himanshu Kumar

39 mins · Edited ·

दिल्ली में स्थित एक जर्मन टीवी चैनल से एक टीम कल दंतेवाड़ा गयी . उन्होंने सोनी सोरी का इंटरव्यू लिया .

कल रात में ही रात में ही पुलिस के आठ सिपाही बिना वर्दी और बिना नाम की पट्टी लगाए सोनी के घर में घुस गए .

पुलिस वाले सोनी से पत्रकारों के आने का मकसद और उनके आगे के इरादों के बारे में पूछते रहे .

देश में सभी पत्रकार कहीं भी जाकर लोगों से मिल सकते हैं .

किसी भी चैनल के बस्तर में आने और आदिवासियों से मिलने पर सोनी को किसी भी कानून के तहत परेशान नहीं किया जा सकता.

पुलिस की यह हरकत पूरी तरह गैरकानूनी और गुंडागर्दी की है .

कुछ सप्ताह पहले सोनी सोरी अपने एक सहायक की मोटर साईकिल पर कहीं जा रही थी . पुलिस की गाड़ी ने आकर मोटर साईकिल को टक्कर मार कर सोनी की जान लेने की कोशिश करी .

मोटर साईकिल चलाने वाले लड़के ने मोटर साईकिल को सड़क से उतार कर जंगल के भीतर भगा दिया और गाड़ी की टक्कर से बच निकले . इसके बाद पुलिस की गाड़ी भाग गयी .

बस्तर के आईजी कल्लूरी ने सोनी को फोन कर के अपने आफिस में बुलाया और बताया कि मुख्यमंत्री जी ने कहा है कि अगर सोनी दंतेवाडा में किसी आदिवासी के मरने या आदिवासी को जेल में डालने के मुद्दे पर चुप रहेगी तो सरकार सोनी के ऊपर बचे एक एक केस को खत्म करवा देगी .

लेकिन सोनी ने सरकार के साथ सौदेबाज़ी का प्रताव नहीं माना. उसके बाद पुलिस द्वारा सोनी पर हमले और पुलिस की सोनी के खिलाफ़ गुंडागर्दी जोरशोर से चालू हो गयी है .

छत्तीसगढ़ का भाजपा का मुख्यमंत्री रमन सिंह सोनी सोरी से डर गया है .

दिल्ली में स्थित एक जर्मन टीवी चैनल से एक टीम कल दंतेवाड़ा गयी . उन्होंने सोनी सोरी का इंटरव्यू लिया .    कल रात में ही रात में ही पुलिस के आठ सिपाही बिना वर्दी और बिना नाम की पट्टी लगाए सोनी के घर में घुस गए .     पुलिस वाले सोनी से पत्रकारों के आने का मकसद और उनके आगे के इरादों के बारे में पूछते रहे .     देश में सभी पत्रकार कहीं भी जाकर लोगों से मिल सकते हैं .    किसी भी चैनल के बस्तर में आने और आदिवासियों से मिलने पर सोनी को किसी भी कानून के तहत परेशान नहीं किया जा सकता.      पुलिस की यह हरकत पूरी तरह गैरकानूनी और गुंडागर्दी की है .    कुछ सप्ताह पहले सोनी सोरी अपने एक सहायक की मोटर साईकिल पर कहीं जा रही थी . पुलिस की गाड़ी ने आकर मोटर साईकिल को टक्कर मार कर सोनी की जान लेने की कोशिश करी .    मोटर साईकिल चलाने वाले लड़के ने मोटर साईकिल को सड़क से उतार कर जंगल के भीतर भगा दिया और गाड़ी की टक्कर से बच निकले . इसके बाद पुलिस की गाड़ी भाग गयी .    बस्तर के आईजी कल्लूरी ने सोनी को फोन कर के अपने आफिस में बुलाया और बताया कि मुख्यमंत्री जी ने कहा है कि अगर सोनी दंतेवाडा में किसी आदिवासी के मरने या आदिवासी को जेल में डालने के मुद्दे पर चुप रहेगी तो सरकार सोनी के ऊपर बचे एक एक केस को खत्म करवा देगी .    लेकिन सोनी ने सरकार के साथ सौदेबाज़ी का प्रताव नहीं माना. उसके बाद पुलिस द्वारा सोनी पर हमले और पुलिस की सोनी के खिलाफ़ गुंडागर्दी जोरशोर से चालू हो गयी है .    छत्तीसगढ़ का भाजपा का मुख्यमंत्री रमन सिंह सोनी सोरी से डर गया है .

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इस पर माननीय नये नवेले नोबेल लारियेट जी क्या विचार रखेंगे और क्या उनका शंति पुरस्कार आदिवासी इलाकों में राष्ट्र के अविराम युद्ध में कत्ल होते जा रहे बचपन को भी समर्पित है,जानने की प्रबल इच्छा है।


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