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THE HIMALAYAN DISASTER: TRANSNATIONAL DISASTER MANAGEMENT MECHANISM A MUST

We talked with Palash Biswas, an editor for Indian Express in Kolkata today also. He urged that there must a transnational disaster management mechanism to avert such scale disaster in the Himalayas. http://youtu.be/7IzWUpRECJM

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

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Sunday, October 12, 2014

हम अपनी अपनी अस्मिता के नस्लभेदी वर्णवर्चस्वी झंडेवरदार हैं,भारत देश का नागरिक कोई नहीं। वरना मुट्ठीभर दुश्चरित्र धनपशु बाहुबली सांढ़ों की क्या मजाल की भारतमां की अस्मत से खेलें! इस देश में राष्ट्रद्रोही जो तबका है,देशभक्ति उनका सबसे बड़ा कारोबर है।मुनाफाखोर जो पूंजी है,छनछनाता विकास बूंद बूंद आखिरी शख्स तक पहुंचाने का ठेका उसीका है। संविधान खत्म है।लोक गणराज्य लापता है।न लोक है और न लोक गणराज्य। सिर्फ परलोक है और परलोक का धर्म कर्म।न कानून का राज है और न लोकतंत्र है। राष्ट्र और राष्ट्रतंत्र का फर्क खत्म है कर दिया है उन्होंने।राष्ट्र की हत्या करके लाश गायब कर दी है।जो बचा है वह फासिस्ट राष्ट्रतंत्र है और इसका विरोध जो करें,वे ही राष्ट्रद्रोही। पलाश विश्वास

हम अपनी अपनी अस्मिता के नस्लभेदी वर्णवर्चस्वी झंडेवरदार हैं,भारत देश का नागरिक कोई नहीं।

वरना मुट्ठीभर दुश्चरित्र धनपशु बाहुबली सांढ़ों की क्या मजाल की भारतमां की अस्मत से खेलें!

इस देश में राष्ट्रद्रोही जो तबका है,देशभक्ति उनका सबसे बड़ा कारोबर है।मुनाफाखोर जो पूंजी है,छनछनाता विकास बूंद बूंद आखिरी शख्स तक पहुंचाने का ठेका उसीका है।


संविधान खत्म है।लोक गणराज्य लापता है।न लोक है और न लोक गणराज्य। सिर्फ परलोक है और परलोक का धर्म कर्म।न कानून का राज है और न लोकतंत्र है।

राष्ट्र और राष्ट्रतंत्र का फर्क खत्म है कर दिया है उन्होंने।राष्ट्र की हत्या करके लाश गायब कर दी है।जो बचा है वह फासिस्ट राष्ट्रतंत्र है और इसका विरोध जो करें,वे ही राष्ट्रद्रोही।

पलाश विश्वास

हम अपनी अपनी अस्मिता के नस्लभेदी वर्णवर्चस्वी झंडेवरदार हैं,भारत देश का नागरिक कोई नहीं।

वरना मुट्ठीभर दुश्चरित्र धनपशु बाहुबली सांढ़ो की क्या मजाल की भारतमां की अस्मत से खेलें!


आपने बतौर सभ्यता के अनुरुप बहुविवाह,सती प्रथा,बाल विवाह,नरबलि  और पशुबलि का भी परित्याग कर दिया तो असुरों की हत्या की यह रस्म खत्म क्यों नहीं कर सकते,यक्ष प्रश्न यही है और जबाव यह कि कानून के मुताबिक बाध्य नहीं हैं आप।


अगर नरेंद्र भाई मोदी बतौर देश के लोकतात्रिक प्रधानमंत्री यह नरसंहार उत्सव कानूनन बंद करवा दें तो भी क्या आप इसे जारी रख पायेंगे,यकीनन नहीं।


हम भारत देश के लोकतांत्रिक प्रधानमंत्री से आवेदन करेंगे कि वह फौरन इस कुप्रथा पर रोक लगायें और आवेदन करेंगे कि बाकायदा लोकतंत्र समर्थक इसके लिए कानूनी पहल करें,हस्ताक्षऱ अभियान चलायें।



मित्रों और अमित्रों,माननीय खुशवंत सिंह जी का कालम आपको याद होगा,जिसका शीर्षक हुआ करता था,न काहू से दोस्ती न काहू से बैर।हमारे सूफी संत बाउल परंपरा का मुहावरा है,बात करुं मैं खरी खरी।


हम इतना बड़ा दावा करने की हैसियत में नहीं हैं।


मेरा ब्लाग लेखन कामर्शियल नहीं है,इसे आप हद से हद रोजनामचा कह सकते हैं।जो न पत्रकारिता है और न साहित्य और न इसकी कोई विशिष्ट विधा है और न ही सीमाबद्ध भाषा।मेरा प्रयास भाषा से भाषांतर होकर देशभर के अपने आत्मीयजनों का संबोधित करने का होता है,मित्रों को और अमित्रों को भी।


धुँआधार गालीगलौज की सौगात बाटने वालों को भी मैं मित्रता से खारिज नहीं करता, बल्कि उनकी असहमति का सम्मान करता हूं।


संयमित अभिव्यक्ति एक कठिन तपस्या का मामला है,आस्थावान और विद्वान हो जाने के बावजूद वह संयम हर किसी से सधता नहीं है।


शब्दों का कोई दोष नहीं होता।इसलिए हर शब्द का सम्मान होना चाहिए।शब्दों का दमन अतंतः विचारधारा की पराजय है। दमन के बाद शब्द फिर शब्द नहीं रहता,एटम बम बन जाता है,जो व्यवस्था की बुनियाद तहस नहस कर देता है।अभिव्यक्ति निषिद्ध करके राजकाज का एक प्रयोग आपातकाल में हो चुका है,और जिन्हें दुर्गावतार कहा गया है,उनका रावण जैसा हश्र भी हुआ है।


राजकाज कायदे से चलाना है तो शासक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अपने ही हित में सबसे पहले सुनिश्चित करनी चाहिए।आपातकाल का सबक यह है।


संघ परिवार आपातकाल में निषिद्ध रहा है और आपातकाल के बाद संघ परिवार का कायाकल्प हिंदुत्व के पुनरूत्थान में हुआ है जो अब देश दुनिया में ग्लोबल पद्म प्रलय है।आदमघोर बाघ जंगल के कानून की परवाह नहीं करता और प्रकृति के नियम भी तोड़ता है।


सत्ता के दंभ में संघ परिवार का भी हाल आदमखोर बाघ जैसा है।


मसल महिषासुर विवाद है।यह विवाद जेएनयू से शुरु हुआ और इसे जेएनयू तक ही सीमित रह जाना था।लेकिन संघी बजरंगियों के अतिुत्साह से यह विवाद बी ग्लोबल हिंदुत्व की तरह ही ग्लोबल हो गया है।


सुर असुर प्रकरण को भाषा विज्ञान के आलोक में देखें तो यह आर्य अनार्य मामला ही है।नृतात्विक दृष्टि से भी इस देश के मूलनिवासी और शासक तबके के शक्तिशाली लोग भिन्न गोत्र भिन्न नस्ल के हैं।


महिषासुर और दुर्गावतार का किसी भी वैदिकी साहित्य में कोई ब्यौरा हमें नहीं मालूम है।यह महाकाव्यिक आख्यान है या प्रक्षेपण मात्र है।


धर्म से इस मिथक का दूर दूर तक का कोई रिश्ता नहीं है।


अनार्य शिव,अनार्य चंडी जैसे देवदेवियों की तरह दुर्गावतार कोई वैदिकी प्रतिमा नहीं है।


यहीं नहीं,विशुद्ध वैदिकी पद्धति में तो धार्मिक क्रयाकर्म में मूर्ति पूजा को काई इतिहास ही नहीं है।यज्ञ और होम की परंपरा रही है।


मूर्तियों का निर्माण तो हमीं लोगो ने अपने अपने अस्मिता और वर्म वर्चस्व के दावे मजबूत करने के लिए बनाये हैं,जो सिलासिला अब भी जारी है।


लोग अपनी सत्ता के लिए जीते जी अपनी मूर्ति सरकारी पैसा खर्च करके लगवा रहे हैं।


गांधी,अंबेडकर की मूर्तियां तो हैं ही,समता और सामाजिक न्याय के कर्मदूत गौतम बुद्ध से लेकर किसान विद्रोह के नेता बीरसा मुंडा और हरिचांद ठाकुर की मूर्तियां भी हमने बना ली हैं।


हम मूर्ति पूजक नहीं हैं।


हम जन्मजात हिंदू हैं और धर्म के बुनियादी तंत्र चूंकि एक ही है तो धर्म का विकल्प धर्म को मानते भी नहीं हैं।


धर्म अगर निरर्थक है और अगर धर्म सार्थक भी है तो यह निजी मामला है आस्था का।नहीं होता तो हिमालय देवभूमि नहीं बनता और तपस्वी हिमालय के उत्तुंग शिखरों में तपस्या नहीं कर रहे होते,बल्कि बाबाओं की तरह सार्वजनिक प्रवचन से लाखों लाक कमा रहे होते।


हम दुर्गावतार को भंग करके महिषासुर की मूर्ति गढ़ने के खिलाफ रहे हैं और मनते हैं कि इस नये सुरासुर संग्राम से कुछ हासिल होने वाला नहीं है।


चूंकि हम आस्था आधारित नहीं,वर्गीय ध्रूवीकरण को ही मुक्तबाजारी युद्धक अर्थव्यवस्था के सैन्य राष्ट्रतंत्र के तिलिस्म को तोड़ने का एकमात्र रास्ता मानते हैं।


बंगाल में लेकिन दुर्गापूजा विशुद्ध अस्पृश्यता और नस्ली नरसंहार का मामला है और हम इसका पहले भी विरोध करते रहे हैं।


हाल में हुए दुर्गोत्सव में पूजा परिक्रमा में बी बनेदी बाड़ीर पूजो पोकस पर थी और बाकी पुजाओं में कहीं मूर्ति ,कहीं आलोकसज्जा तो कहीं विचित्र पंडाल की परिक्रमा थी।


मुख्यमंत्री ने न सिर्फ देवी को चक्षुदान किया बल्कि सर्वश्रेष्ठ दोवियों को पुरस्कार भी बांटे कंगाल हुए राजकोष से।विशषज्ञों को भुगतान अलग से।


ये बनेदी बाड़ी क्या है,इस पर गौर करना जरुरी है।


ये राजपरिवारों और जमींदारों के वंशजों के उत्तराधिकारियों के महल हैं,जलसाघर की सामंतशाही के अवशेष हैं और महफिलें जजाने के अलावा दुर्गापूजा उनके राजकीय पुरखों ने  ही बौद्धमय बंगाल के अवसान पर राजतंत्र और जमींदारी के तहत निरंकुश नस्ली प्रजा उत्पीड़न के तहत शुरु किया,जिसकी अनिवार्य रस्म नरबलि थी।


अब भी नारियल फोड़कर नरबलि की रस्म निभायी जाती है तो कर्म कांड में गैर ब्राह्मणों को कोई प्रवेश नहीं है।


अब आप इसे कैसे वैदिकी परंपरा बताते हैं जो बंगाल में इस्लाम मनसबदारों ने शुरु किया और बंगाल से लेकर आंध्र,तमिलनाडु,महाराष्ट्र और उत्तरप्रदेश के विध्यांचल तक शूद्र आदिवासी राजाओं को जीत के विजया का उत्सव बना दिया इसे।


किसी वैदिकी साहित्य या सनातन हिंदू धर्म ने नहीं बल्कि शासकीय हित ने पराजित राजाओं को असुर दानव दैत्य राक्षस इत्यादि नाम दिये और श्रीराम के महाकाव्यिक मनुस्मृति कथा के उपाख्यान बतौर दुर्गापूजा को प्रक्षेपित कर दिया।


पराजितों का भी इतिहास होता है।



शासकों के मिथक होते हैं तो प्रजाजनों के मिथक भी होंगे।


मह मिथकों को एकाककार नहीं करते।हम दुर्गावतार के ब्राह्मणी राजवड़िया मिथक और महिषासुर के मिथक को एकाकर नहीं करते।


लेकिन सत्य यह है कि असुर जाति के लोग बंगाल में भी हैं औरदेस काआदिवासी भूगोल तो असुरों का ही है।बंगाल का नाम ही बंगासुर के नाम पर हुआ।


दुर्गोत्सव के दौरान ये लोग उत्सव नहीं,मातम मनाते हैं।


आपने दुर्गा का मिथ बनाया तो इसके तोड़ बतौर वे महिषासुर का मितक बनायेंगे ही।आप दुर्गा की मूर्ति बनाके रहे सदियों से तो वे महिषासुर की पूजा करेंगे ही।महिषासुर को आप जैसे नस्ली भेदभाव से हत्या करते हैं तो वे अपने नजरिये से दुर्गा को पेश करेंगे ही।


फिर वही सुरासुर संग्राम है।


लोकतंत्र और आधुनिक मानवतावादी सभ्यता के तकाजे से आप नरबलि कर नहीं सकते, करेंगे तो कानून के तहत हत्यारा बनकर खुद बलिप्रदत्त हो जायेंगे।


आपने बतौर सभ्यता के अनुरुप बहुविवाह,सती प्रथा,बाल विवाह,नरबलि  और पशुबलि का भी परित्याग कर दिया तो असुरों की हत्या की यह रस्म खत्म क्यों नहीं कर सकते,यक्ष प्रश्न यही है और जबाव यह कि कानून के मुताबिक बाध्य नहीं हैं आप।


अगर नरेंद्र भाई मोदी बतौर देश के लोकतात्रिक प्रधानमंत्री यह नरसंहार उत्सव कानूनन बंद करवा दें तो भी क्या आप इसे जारी रख पायेंगे,यकीनन नहीं।

हम भारत देश के लोकतांत्रिक प्रदानमंत्री से आवेदन करेंगे कि वह फौरन इस कुप्रथा पर रोक लगायें और आवेदन करेंगे कि बाकायदा लोकतंत्र समर्थक इसके लिए कानूनी पहल करें,हस्ताक्षऱ अभियान चलायें।


तो देश में अगर लोकतंत्र है,अगर कानून का राज है,तो बहुसंक्यअसुर समुदायों के नरसंहार के उत्सव को अपना धर्म बताकर आप कैसे हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना बना रहे हैं,यह आपका सरदर्द है,आपका समावेशी डायवर्सिटी है,इसपर हम टिप्पणी नहीं कर सकते


।अगर आपको अपनी आस्था के मुताबिक नरसंहार उत्सव मनाने का हक है तो असुरों को महिषासुर की कथा बंचने से कैसे रोक सकते हैं आप।


हम धर्म अधर्म के पचड़े में नहीं पड़ते और न हम आस्था के कारोबारी हैं।


अस्मिता और भावनाओं से भी इस नर्क को स्वर्ग बनाने का दिवास्वप्न हम देखते नहीं हैं।


हम दुर्गापूजा में नरसंहार संस्कृति के खिलाफ पहले भी लिखते बोलते रहे हैं,लेकिन दुर्गा के मुकाबले महिषासुर के मिथक और उसकी मूर्ति पूजा के बी हम उतने ही विरोधी हैं।


लेकिन जेएनयू में महिषासुर पर्व से पहले जिसतरह फारवर्ड प्रेस पर छापा मारा गया,वह न केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है ,बल्कि यह निर्लज्ज,निरंकुश सत्ता के आपातकाल का नस्ली कायाकल्प है और असुर आदिवासी जनता के खिलाफ सैन्य राष्ट्रतंत्र का एक और हमला है।


इसलिए हम इसकी निंदा करते हैं और ऐसे तमाम भारतीय नागरिक जिनका सुरासुर विवाद से कोई लेना देना नहीं है,वे भी इस संघी फासिज्म का विरोध करने को मजबूर हैं।


जो हमें वाम धर्मनिरपेक्ष खेमे से जोड़कर गरियाते हैं,उलसे विनम्र निवेदन है कि हम मलाला के समर्थक हैं तो भारत में भी किसी को मलाला बानाने की इजाजत नहीं दे सकते।हम घर बाहर स्त्री उत्पीड़न के खिलाफ हैं ,स्त्री अधिकारों के अंध समर्थक हैं


जो हमें वाम धर्मनिरपेक्ष खेमे से जोड़कर गरियाते हैं,उलसे विनम्र निवेदन है कि हम हिंदू राष्ट्रवाद के खिलाफ उसीतरह हैं ,जैसे इस्लमी राष्ट्रवाद के खिलाफ साहबाग के साथ मोर्चाबंद हैं।


जो हमें वाम धर्मनिरपेक्ष खेमे से जोड़कर गरियाते हैं,उलसे विनम्र निवेदन है कि हमने तसलिमा के भारते आने के बाद,उनके निर्वाचित कालम प्रकाळित होने के बाद,लज्जा पर रोक और बांग्लादेश से निष्कासन के पहले से उनके मानवता वादी पुरुषतंत्रविरोधी धर्मविरोधी विचारों के समर्थन को कभी वापस नहीं लिया है और न लेेंगे।


जो हमें वाम धर्मनिरपेक्ष खेमे से जोड़कर गरियाते हैं,उनसे विनम्र निवेदन है कि हम वोटबैंक की राजनीति नहीं करते।और हम पार्टीबद्ध नहीं हैं।हम आजाद देश के आजाद नागरिक की आवाज बुलंद करते रहेगेषनाकाहू से बैर ,न काहू से दोस्ती।


संघ परिवार में सबसे ज्यादा पढ़े लिखे,सबसे अनुशासित,सबसे निष्ठावान ,सबसे प्रतिबद्ध कार्यकर्ता है,धर्मोन्मादी हिंदूराष्ट्र के बजाय वे सही मायने में समाता सामाजिक न्याय के जाकि विहीव वर्गविहीन भार निर्माण का संकल्प लें तो इस देस का भविष्य कुछ और हो नहो,देश बेचो संप्रादाय का खात्मा समझो।


मैं 14 अक्तूबर को कोलकाता से अपने गांव बसंतीपुर जा रहा हूं करीब सात साल के अंतराल के बाद।दिल्ली होकर कोलकाता लौटना होगा पहली नवंबर को।देहरादून जाना चाहता था लेकिन लगता है कि वहां मेरा कोई मित्र है नहीं तो जाने से क्या फायदा।


कमल जोशी अगर कोटद्वार होेंगे,तो वहा जाकर अस्कोट आरोकाट यात्रा का अनुभव उनकी जुबानी सुनने की इच्छा है।


राजीव नयन बहुगुणा से सात के दशक में नैनीताल में मुलाकात हुई थी,लेकिन उनके सुर्खाव के पर तब तक खुले नहीं थे।


उनके पिता हमारे भी बहुत कुछ लगते हैं।


मेरे पिता तो रहे नहीं हैं,उनके पिता के दर्शन की इच्छा भी है।


हो सकता है कि इसी बहाने देहरादून चला भी जाऊं।उनके संगीतज्ञ चरित्र सविता को बहुत अच्छा लगेगा,क्योंक सुर ताल वही समझती हैं।लेकिन सत्ता के साथ अपने नयन दाज्यू के जो संबंध हैं,वैसे संबंध मेरे लिए मुनासिब नहीं है तो थोड़ी हिचक है।


सत्तर के दशक में कब तक सहती रहेगी तराई की वजह से बंगाली इलाकों दिनेशपुर और शक्तिफार्म से मुझे तडिपार होना पड़ा था।अब वे इलाके बजरंगियों के मजबूत गढ़ हैं।


देशभर के संघी मुझे दुश्मन मानने लगे हैं अकारण और इसलिए थोड़ा डर रहा हूं कि कुछ ज्यादा ही बूढाने लगा हूं और पिटने पाटने की नौबत आ गयी तो तेज भागकर शायद ही जान बचा सकूं।


वैसे भी उत्तराखंड में उत्तराखंडी जो थे ,अब ज्यादातर संघी हो गये हैं और उनमें से ज्यादातर बजरंगी है।


नैनीताल भी केसरिया है।डरना तो पड़ता ही है।


इस हिसाब से तो हमारे जैसे लोग कहीं भी सुरक्षित बच नहीं सकते।


हुसैन की तरह नामी भी नहीं हूं कि विदेश भाग जाऊं या दूसरे बड़े लोगों की तरह कोई चुनौतीभरा बयान देकर मीडिया पर छा जाऊं और फिर सरकार सुरक्षा का इंतजाम करें।


तो क्या इस देश में बतौर नागरिक हम कुछ भी कह लिखने को स्वतंत्र नहीं हैं.यह आज का सबसे बड़ा ज्वलंत सवाल है।


फारवर्ड प्रेस की गतिविधियों में मैं शामिल नहीं हूं।जेएनयू केद्रित असिमता युद्ध में हमारा कोई पक्ष नहीं है और न हमारे सरोकार जेएनयू से शुरु या खत्म होते हैं।लेकिन नये नये अस्मिताओं के आविस्कार बजरिये अस्मिताओं में बंटे देश को और ज्यादा बांटने के लिए जेएनयू जैसे तमाम मठों और मठाधीशों को मैंने कभी बख्शा भी नहीं है।


अस्मिताओं को तोड़ने में किसी भी तरह का अस्मिता उन्माद बाधक है।


भावनाओं के विस्फोट से सामाजिक यथार्थ बदलते नहीं है।

हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के,सबसे बड़े लोक गणराज्य के स्वतंत्र और संप्रभु नागरिक हैं।


हमारा संविधान सबसे अच्छा है हालांकि अब भी हम इस संविधान के मुख्य कारीगर बाबासाहेब डा. अंबेडकर अब भी अश्पृश्य मानते हैं और आरक्षण के लिए,जातिबद्ध राजनीति के लिए उन्हें जिम्मेदार मानने से परहेज नहीं करते और कुछ दुकानदारों को भारत के संविधान निर्माता के नाम खुल्ला खेल फर्रुखाबाद की इजाजत देते हैं क्योंकि हम भी मानते हैं कि बाबासाहेब सिर्फ दलितों के मसीहा है,जैसे अंबेडकरी नेतागण कहते अघाते नहीं और इसी जुगत से बाबा के एटीएम के दखलदार बने हुए हैं और वे तमाम लोग मजे मजे में हिंदूराष्ट्र के राम श्याम बलराम बरंगबली है।


ब्राह्मण वर्णवर्चस्वी हजारों साल के संस्कार की वजह से है और राष्ट्रतंत्र के मौजूदा नस्ली चरित्र की वजह से भी है।लेकिन बहुजन राम श्याम बलराम बजरंगियों से वे कुछ ज्यादा समझदार हैं क्योंकि वे अमूमन शिक्षित होते हैं और भाषा,ज्ञान और संवाद के हुनर उनमें हैं और आत्मनियंत्रण का संयम भी है।


उनमें संस्कार तोड़ने की क्षमता भी है।हजारों साल से शिक्षा और दूसरी बुनियादी हक हकूक से वंचित जो बहुजन बहिस्कृत जनता है,हिंदुत्व की पैदल सेना बन जाने की वजह से वे ही ज्यादा ज्यादा बजरंगवली हैं।


इस देश में राष्ट्रद्रोही जो तबका है,देशभक्ति उनका सबसे बड़ा कारोबर है।मुनाफाखोर जो पूंजी है,छनछनाता विकास बूंद बूंद आखिरी शख्स तक पहुंचाने का ठेका उसीका है।


संविधान खत्म है।लोक गणराज्य लापता है।न लोक है और न लोक गणराज्य। सिर्फ परलोक है और परलोक का धर्म कर्म।न कानून का राज है और न लोकतंत्र है।


हम अपनी अपनी अस्मिता के नस्लभेदी वर्णवर्चस्वी झंडेवरदार हैं,भारत देश का नागरिक कोई नहीं।वरना मुट्ठीभर दुश्चरित्र धनपशु बाहुबली सांढ़ो की क्या मजाल की भारतमां की अस्मत से खेलें!


राष्ट्र और राष्ट्रतंत्र का फर्क खत्म है कर दिया है उन्होंने।राष्ट्र की हत्या करके लाश गायब कर दी है।जो बचा है वह फासिस्ट राष्ट्रतंत्र है और इसका विरोध जो करें,वे ङी राष्ट्रद्रोही।


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